Book Title: Aacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Author(s): Tulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
Publisher: Acharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti

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Page 210
________________ आचार्यश्री के जीवन-निर्माता मुनिश्री श्रीचन्दजी 'कमल' जो एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको जानता है, वही एक को जानता है। एक और मब में इतना सम्बन्ध है कि उन्हें सर्वथा पृथक् कर, जाना ही नहीं जा सकता । इस शाश्वत सत्य की भाषा में कहा जा सकता है, जो प्राचार्यश्री तुलसी को जानता है, वह पूज्य कालगणी को जानता है और जो पूज्य कालगणी को जानता है, वही आचार्यश्री तुलसी को जानता है । इन दोनों में इतना तारतम्य है कि उन्हे पृथक् कर, जाना ही नहीं जा सकता। प्राचार्यश्री तुलसी बाईस वर्ष मे महान् संघ के सर्वाधिकार सम्पन्न प्राचार्य बने, यह उतना आश्चर्य नहीं, जितना आश्चर्य यह है कि उस अल्प अवस्था में इतना बड़ा दायित्व एक महान् प्राचार्य ने एक युवक को सौंपा । आचार्यश्री तुलमी पूज्य कालगणी पर इतने निर्भर थे कि उनकी वाणी यापके लिए सर्वोपरि प्रमाण था। आज भी इतने निर्भर हैं कि अपनी सफलता का बहुत कुछ श्रेय उन्ही को देते है । प्रमोद और विरोध दोनों स्थितियों में उन्ही का पालम्बन लेकर चलते है। अपने कर्तत्व पर विश्वास करते हुए भी उस नाम से महान् पालोक और अपूर्व श्रद्धा का मंबल पाते हैं। कोई विचित्र ही परस्परना है । गेमा तादात्म्य मैंने अपने जीवन में अन्यत्र नही देखा । कालगणी करुणा और वात्सल्य के पारावार थे । तेरापंथ के साध-माध्वियों और श्रावक-श्राविकाए अाज भी उनके वात्सल्य की मधर स्मतियों में प्रोत-प्रोत हैं। उनका वात्सल्य सर्व सुलभ था। विद्या की अभिवृद्धि में उन्होंने अमित प्यार बिखेरा। इतने पुरस्कार बाँटे कि विद्या स्वयं पुरस्कृत हो गई। छोटे साधनों की पढ़ने में रुचि कम होती। गंस्कृत व्याकरण के अध्ययन को वे स्वयं 'अलूणी' शिला चाटना कहते थे। चटाने वाले कुशन हों तो चाटने वालों की कमी नहीं है। उन्होंने अपना अमृत मीच-मीन उसे इतना स्वादु बना दिया कि उसे चाटना प्रिय हो गया। कठोर भी मृदु भो प्राचार्य बनते-बनते उन्होंने एक स्वप्न देखा। उसमें सफेद चमकीले छोटे-छोटे बटई देखे । शिष्यों की बहत वद्धि हई । केवल वृद्धि का महत्त्व नही होता । कमौटी भरक्षण में होती है। उनका हृदय मस्तिष्क पर मदा अधिकार किये रहा, इसलिए उनके सामने तर्क उठा ही नहीं । दर्पण में सबका प्रतिबिम्ब होता है, पर उसका प्रतिबिम्ब सबमें नही होना । वे कोई विचित्र ही थे । स्फटिक से कम उज्ज्वल और पारदर्शी नही थे, फिर भी उनका प्रतिबिम्ब उन सबने लिया, जो उनके सामने प्राये। उन्होंने चाहा नो किसी का प्रतिबिम्ब लिया, नही तो नहीं। उनकी आत्मा में सतत प्रतिबिम्बित थे मघवागणी, जो अपने दैहिक सौन्दर्य के लिए ही नहीं, किन्तु अपने पात्मिक सौन्दर्य के लिए भी विधुत थे। गंगाजलमा निर्मल था उनका जीवन । स्फदिक-सा स्वच्छ था उनका मानस । वे नहीं जानते थे गाली क्या होती है और गया होता है क्रोध ? विषयों से इतने विरत कि उन्हें इन्द्रिय-कामनायों की पूरी जानकारी भी नहीं थी । जिन्हें प्रात्मलीन कहा जाता है, उन्हीं की पंक्ति के थे वे महान् योगी। उनका मानस प्रतिबिम्बित हुआ कालगणी में। जब कभी उनके मुंह में मघवागणी का नाम निकल पड़ता तो उनकी आँखों में मघवागणी का चित्र भी दीखता। जिसे जीवन में एक बार भी वासना न ट पाए, जो केवल अपने अन्तर में ही रम जाए, वह कितना पवित्र होता है, इसकी कल्पना वे लोग नहीं कर सकते, जो वासना की दृष्टि मे ही देखते है और वासना के मस्तिष्क मे ही सोचते है । जितने पवित्र मघवागणी थे, उतने ही पवित्र कालगणी थे और जितने मृदु मघवगाणी थे, उतने ही मृदु कालगणी थे। पर मघवागणी कहीं भी कठोर नहीं थे। उनके अनशामन में

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