Book Title: Karnamrut Prapa
Author(s): Jinvijay
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राडास्मान पुरातन गन्म माला * प्रधान सम्पादक-पद्मभी जिनविजय मुनि, पुरातत्त्वाचार्य [सम्मान्य सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर] उन्थाङ्क २ कर्णामृत-प्रपा 000000 - का श क संशोधित मल्य ७./0/ राजस्थान राज्य संस्थापित राजाजा स43 दिनों राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान7 के अनुसार जोधपुर (राजस्थान) সকান কিছু RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, JODHPUR वि., जाया comana Jain2 For Private & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावश्याच पुराता गावाला राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक – पद्मश्री जिनविजय मुनि, पुरातत्त्वाचार्य [ सम्मान्य सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ] ग्रन्थाङ्क २ भट्ट सोमेश्वर कृत कणामृत-प्रपा प्र का शक राजस्थान राज्य संस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर ( राजस्थान ) RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, JODHPUR Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला राजस्थान राज्य द्वारा प्रकाशित सामान्यतः अखिल भारतीय तथा विशेषतः राजस्थानदेशीय पुरातनकालीन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, हिन्दी अादि भाषानिबद्ध विविध वाङ्मयप्रकाशिनी विशिष्ट ग्रन्थावलि प्रधान सम्पादक पद्मश्री जिनविजय मुनि, पुरातत्त्वाचार्य सम्मान्य संचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ; ग्रॉनरेरि मेम्बर ऑफ जर्मन ओरिएन्टल सोसाइटी, जर्मनी; निवृत्त सम्मान्य नियामक (ऑनरेरि डायरेक्टर ), भारतीय विद्याभवन, बम्बई; प्रधान सम्पादक, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, इत्यादि ग्रन्थाङ्क २ भट्ट सोमेश्वर कृत कर्णामृत-प्रपा प्रकाशक राजस्थान राज्याज्ञानुसार सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर ( राजस्थान ) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्ट सोमेश्वर कृत - - कर्णामृत-प्रपा सम्पादक पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य सम्मान्य सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर प्रकाशनकर्ता राजस्थान राज्याज्ञानु सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यक्यिा प्रतिष्टान जोधपुर ( राजस्थान विक्रमाव्द २०२० ) प्रथमावृत्ति १०००) भारतराष्ट्रीय शकाब्द १८८५ । ख्रिस्ताद र ( मूल्य २.२५ प्रधान सम्पादकीय वक्तव्य एवं टाइटल पृष्ठ के मुद्रक- साधना प्रेस, जोधपुर शेष भाग के मुद्रक- निर्णय सागर प्रेस, बम्बई । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-तालिका सुभाषित-विषया: पुष्ठाङ्क: स्तवनम् १ लक्ष्मी : २ कामः ३ लोभः ४ कलिस्वरूपम् । कुनरेन्द्रनिन्दा ६ दुर्जनः मनस्वी विधिः निर्वेदः प्रकीर्णकाव्योक्तयः शमः १२ उपदेशाः १३ श्रीकृष्णप्रार्थना सज्जन-दुर्जनवर्णना [कीतिकौमुदीकाव्यान्तर्गता) संसारस्थितिवर्णना प्रकीर्णसूक्तानि परिशिष्टम् [पद्यानुक्रमणिका] ० ० ८ ernational www.jainel Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOREWORD With the publication of Karnamṛtaprapa an interesting anthology from the pen of a remarkable poet of medieval Sanskrit literature is presented to the world of Sanskrit learning. Somes'vara or Somes'varadeva, as he prefers to call himself, was born in the family of the hereditary priests of the Calukya Kings of Gujarat ruling at Anahilvaḍ Patan. He was the royal priest of King Bhimadeva II and a close friend of Mahāmātya Vastupāla who was a great patron of literature and art and will be ever remembered along with his younger brother Tejapala as a builder of the famous Jaina temples on Mt. Abu. First half of the 13th century A.D. was the period of Somes'vara's active life. Somes'vara attempted diverse forms of Sanskrit literature like Mahākāvya, Nāṭaka, Stotra, Anthology, and Prasastis of various temples built by Vastupala and also by King Viradhavala and his son Visaladeva. For an exhaustive account of the life and works of Somes'vara the curious reader is referred to Literary Circle of Mahamatya Vastupala and its Contribution to Sanskrit Literature (pp. 44-56, 88-94, 103-107, 112-118, 128-130, 136-138, 140-142) by Professor Bhogilal J. Sandesara, published in the Singhi Jaina Series as no. 33. Out of the various works by Somes'vara, his two Mahakavyas-Kirtikaumudi describing the good deeds of Vastupala and Surathotsava, a mythological poem-were published in the Bombay Sanskrit Series and Kavyamālā Series respectively. His Ullagharaghava Naṭaka, dramatizing the story of the Ramayana, has been recently published in the Gaekwad Oriental Series and Ramasataka, a hymn to Kāma with two commentaries, is under print in the same series. Prasastis composed by Somes/vara are already published in various journals and then in collections of inscriptions like the Pracina Jaina Lekha Sangraha. The Karnämṛtaprapa, an anthology of verses, was the only work of Somes'vara which remained to be brought to light. Anthologies may be the composition of one author on various topics or selection from earlier authors. The Karnamṛtaprapa belongs to the former class, as all the 217 verses in it are Somes'vara's own Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [2 ] compositions. This shows that Somesvara was a versatile literary figure who composed stray Subhāşitas as well as big works like Nāțaka and Mahakāvya. This edition of the Karnāmrtaprapā has been prepared from its only available manuscript preserved in the Government Collection of MSS. (no. 39 of 1871-72) deposited at the Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona. The text was printed some years back, buć the publication was delayed on account of several reasons. It is a matter of great satisfaction to me that the book is out now. I have no doubt that it will be useful in the study of medieval Sanskrit poetry in general and in a detailed study of Somes'vara's literary works in particular. MUNI JINA VIJAYA Rajasthan Oriental Research Institute, Branch: Chittodgadha (Rajasthan) 28-2-63 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला रनवासिषवारिसरमांतछाड्रगदाधकमीपवनामनतषा तानसतप्रमादितयामयाफलमनिमतानःशंकरवायधावन वायोतरिकगणामानंमवालवतमुपाश्रितन्नदवउजवा-म मतरमाझवानिलवाझावानो सारस्छनएखानाप्राण जॉप्रातिप्तवोप्रास्तोमवरादवनक्षताकतिमा१८॥ नयनाषितम्श्रीरकरसामधारावावरावताकतिषी नापिनगवली मेघम्मीछानवालाशवप्रसुनिमिीतवसर विरो चित्राशसिातपक्षदशांतानंदनीयवनागरगर्य महिरनधीनता जाषितप्रधानाम्नालिस्लिाविभाग/ याघवाझलिखितंमयायविदमछाईवामनदो। विनीयतानक्तम्भकल्याणमल) श्री मंगलमम्बाश्री 'करुणामृत प्रपा'की हस्तलिखित प्राचीन प्रतिके अन्तिम पत्रकी प्रतिकृति Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ national www.jaineli Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुर- सोमेश्वरदेव - विरचिता कर्णामृत प्रपा सुभाषितावली यं पद्मा सेवते पद्माशयेव जलशायिनम् । स वः करोतु कंसारिः संसारव्ययमव्ययम् ॥१॥ तं स्मरामि स्मरामित्रं येनास्मि स्मरणादपि । शुभानामशुभानां च कर्मणामणीकृतः ॥२॥ अन्तर्सम्पापातनिर्मुक्तदेहान् __ मानूद्ध गच्छतोऽनुच्छलन्ती। अन्वेतीव लेहतः सीकराणां श्रेणिर्यस्यास्तामहं नौमि गङ्गाम् ॥ ३॥ कष्टानष्टापि निर्विश्य रसांस्तष्वद्य नीरसः। श्रीकुमारसुतो ब्रूते पिपासुनवमं रसम् ॥ ४ ॥ विषयरसनिरन्तरानुपान प्रकुपितमोहकफोपगुम्फितात्मा । त्रिकटुकगुटिकामिव त्रिवेदी वदनगतामहमन्वहं वहामि ॥५॥ यो यः प्रादुरभूद् भावो भवं भावयतो मम । स स बद्धो मृषा-मायाबद्धं बोधयितुं जगत् ॥ ६॥ संसारोऽयमसारः प्रसिद्धमेतत् तथापि कथयामि । जागर्यते हि सुप्तः पुनः पुनः साधु बोधाय ॥७॥ अहो! संसारकारान्तर्मायानिगडितात्मनाम् । दृश्यते जातु जन्तूनां निवृतिर्न कथञ्चन ॥ ८॥ केचिद् द्युम्नाय धावन्ति प्रद्युम्नाय च केचन । नोयुके कोऽपि धर्माय सर्वाभिप्रेतहेतवे ॥९॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरसोमेश्वरदेवविरचिता १. अथ लक्ष्मीः । उच्चैर्ग समारोप्य नरं श्रीराशु गच्छति । दौस्थ्यदत्तावलम्बोऽथ स तस्मादवरोहति ॥ १० ॥ जितं लक्ष्मि ! त्वया यस्मै जनस्तमपि सेवते । धनं निकारपूर्वं यः प्रदत्ते प्रेतनाथवत् ॥ ११ ॥ महान्ववायान् शुभशुद्धबुद्धीन् सेवाऽऽगतानाढ्यचरानवेक्ष्य | जातः श्रिया मूढ ! किमूढगर्वः स्थिरश्वलं चिन्तय शीलमस्याः ॥ १२ ॥ यल्लाभाय महीभुजः कुमतयो दूरादुपश्लोकिता नैराश्यं गमिताः श्रुतिस्मृतिविदो यत्तृष्णया तेऽर्थिनः 1 यद्रक्षार्थमशायि रात्रिषु सुखं न स्तेयभीत्या मया नापृष्टोऽस्मि तया रयात् कमलया यान्त्याऽतिनिःस्नेहया १३ नमस्तुभ्यं तस्यै प्रकृतिचपले ! देवि ! कमले ! पतिः पत्तिः पत्तिः पतिरिति यया दर्शितमिह । तथाऽप्येतच्चेतस्त्वयि किमपि जातस्पृहमहो ! न ताम्यद् विश्राम्यत्यकृपन्नृपसेवाऽध्यवसितात् ॥ १४ ॥ उषित्वा कंसारेश्चिरमुरसि वैदग्ध्यमधुरे भवत्या मातः ! श्रीरिदमपि न किं शिक्षितमतः । देतेषु द्वेषं गुणिषु दधती वेश्मनि धनस्मयावेशान्धानामहममहतामागतमिति ॥ १५ ॥ कुर्वन्त्येवं सर्वलोकोपहास्यं देवि ! श्रीः किं न स्वयं लज्जिताऽसि । युक्तं येषां रे ! पदेनाभिधानं संबोध्यन्ते देवशब्देन तेऽपि ॥ १६ ॥ अन्यायसंभवा श्रीरन्यायेनैव याति सा नियतम् । अर्जनहानिक्लेशः केवलमवशिष्यते कुधियाम् ॥ १७ ॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णामृतप्रपा सन्तः कथं नाम न ते नमस्या _वृता वृषस्यन्त्यपि यैर्न लक्ष्मीः । वयं विरक्तामपि तां तु भोक्तु मसक्तमासक्तिपराश्चरामः॥१८॥ मनोऽस्ति मुक्तावनुरक्तमेत। न्न सोमपानेन विना पुनः सा । तत् तु श्रिया सिद्ध्यति तेन तस्यै गतस्पृहोऽपि स्पृहयालुरस्मि ॥ १९॥ २. अथ कामः। येषां न चाटुरचना न च दृग्विलासो ___ वासोविभूषणगणप्रणयश्च नाङ्गे । पुष्पायुधः पशुषु तेष्वपि दुर्निवारः स्फारः कथं न स भविष्यति मानवेषु ॥ २० ॥ सृष्टाः कस्मात् कुवलयदृशश्चेत् तदर्थं प्रकामः कामः पुंसां किमिह विहितः सोऽपि कामः कृतो वा। सत्संभोगात् किमथ मलथूद्भावितं तद् विधातः ! सोऽयं जातस्त्वदुपजनितो मानवानामनर्थः ॥ २१॥ हिनस्ति हा मां कुसुमायुधोऽय. मेह्येहि चक्रायुध ! रक्ष रक्ष । त्वदाश्रिते ताम्यति मय्युपेक्षा रक्षासमर्थस्य न युज्यते ते ॥ २२ ॥ यावद् यावदुपास्महे स्मरपरीतोषाय तास्ताः स्त्रियस्- तावत् तावदसावसाधुरधिकं दन्दह्यते मानसम् । तस्मिद्भटभालचक्षुषि विभौ ध्यातेऽतिमर्मस्पृशाम् । . अस्माकं हृदयादयं कथमपि त्यक्त्वा खयं प्रस्थितः॥ २३ ॥ करे यष्टिष्टं किमपि नयने न प्रभवते नतो गल्लाभोगः पतितदशनत्वादयमपि । तदस्मादब्रीडस्थविर ! विरम त्वं स्मरसुखात् स्मर श्रीवत्सार्वं जगति गतिरेषा हि रुचिरा ॥ २४॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरसोमेश्वरदेवविरचिता वरं सा संसारप्रणयभयभीता हुतवहं सह प्राणेशेन प्रविशति परंभीरुरपि या। अमी धीरंमन्याः क्षणिकसुखसंतुष्टमनसः सहन्ते हन्तमानपि निपततो न स्मरशरान् ॥ २५ ॥ मनस्तापं तन्वन्नवय[व]विकारान् विरचयन् खमेवादी क्रोधः कवलयति पश्चादरिजनम् । ततश्चेतस्त्यक्त्वा सपदि विपदामास्पदमिमां क्षमा क्षेमागारं भज विजयसे विश्वमनया ॥ २६ ॥ ३. अथ लोभः। शूद्राणां पुरु(र)तः कृताञ्जलिपुटाः कुर्वन्ति सेवाममी भूदेवाः क्षितिपाः प्रजासु च कृपामुज्झन्ति दृष्ट्वा श्रियम्। पुत्रे मित्रजनाय चाश्रयवते द्रुह्यन्ति यन्मानवाः सर्वोऽप्येष गुणापकर्षणरुचे लोभ ! प्रभावस्तव ॥२७॥ ४. अथ कलिस्वरूपम् । सुकृतकृतमतः परं प्रवृत्त्या प्रसर कले! सकलेऽपि निर्भयस्त्वम् । विपणिषु वणिजां पुरोऽपि विप्रा विदधति वेदविचारविप्लवांस्ते ॥ २८॥ तातः परख-परदार-परक्षतार्थी मातापनीतपरिणीतपतिश्च येषाम् । यत् तेऽपि वर्मणि वहन्ति निवेशितं त्वां हा ! ब्रह्मसूत्र ! विधिनाऽसि विडम्बितं तत् ॥ २९ ॥ लब्धे यत्र वसुन्धरामरतया मयेऽपि संकीर्त्यते . गाधेयः किल सोऽप्यगाधमहिमा चक्रे न किं यत्कृते । निःसन्ध्याविधयो निरक्षरमुखा निब्रह्मसूत्राः कलौ ब्राह्मण्येन वहन्ति हत! कतिचित्तेनापि लज्जां द्विजाः॥३० गोपीचन्दनतिलकैनवोपवीतैः सितांशुकैर्विमलैः। धूर्ताश्चरन्ति केचन जन्मभिरिह केवलं मलिनैः॥३१॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णामृतप्रपा गेहं गोमयलिप्तमुप्ततुलसीदूर्वावणं प्राङ्गणं वंशालम्बितशुक्लधौतवसनं मुक्तोदपात्रं पुरः। साक्षाद् दर्भतिलाक्षतस्थितियुतं व्यक्तीकृतं......... विप्राणां गृहिणीपदे कुलवधूमन्या पणस्त्री पुनः॥ ३२॥ कलिद्विजेभ्यः प्रणतोऽस्मि तेभ्यः पुष्णन्ति यत्नेन निरन्तरं ये। कायव्रतार्थं जरती सवित्री पुत्रीं च कन्यामिह विक्रयार्थम् ॥ ३३॥ ऐदंयुगीनस्य जनस्य वृत्तै__ रुक्तै [:] श्रुतै किमिहास्ति कार्यम् । उपाधिसिद्धा बहिरस्य मैत्री खभावसिद्धस्तु विरोधभावः ॥ ३४ ॥ वदसि मधुरां वाणी पाणिद्वयं मुहुरानते शिरसि रचयस्युर्वी सर्वी घिनोषि धनैर्यदि। सरलविरलः कोऽपि श्लाघां करोति तथाऽपि ते न हि परगुणानेष स्तौति स्वभावखलो जनः ॥ ३५॥ अथवा शान्तं पापं खात्मन एव प्रवर्त्यतां चिन्ता। अविचारितरमणीयैः कृतमेतैर्लोकवृत्तान्तैः ॥ ३६॥ पीतास्ते दिवसाः प्रसाद्य सुचिरं यत्रानमन्मौलिभिर् भूपालैर्गलितस्पृहा अपि धनं विप्राः प्रतिग्राहिताः।। तान्येतानि दिनानि संप्रति पुनर्येष्वर्थयन्तोऽपि ते वित्तं प्रत्युत नामुवन्ति न बहिस्तिष्ठन्त्यपास्ता अपि ॥ ३७॥ आशाः पश्यसि किं भृशं भ्रमसि किं कण्ठेन संशुष्यता खामखास्थ्यकथामिति प्रतिजनं जल्पन्न विश्राम्यसि । मौनी भुल फलं हि कर्मजमृजो! वामात्रमैत्रीपरे लोके काश्चनलिप्तताम्रसदृशे सारत्वमन्तः कुतः ॥ ३८॥ मज्जन जले सरल ! किं मुहुराकुलस्त्व मालोकसे मुखममुष्य तटस्थितस्य । दाहक्रियोपकरणेन्धनविक्रियैक वृत्तेरितस्तव कुतोऽस्तु करावलम्बः ॥ ३९ ॥ . Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरसोमेश्वरदेघविरचिता ५. अथ कुनरेन्द्रनिन्दा। यातास्ते जगतीतलैकतिलकाः पौरन्दरं मन्दिरं . पन्थाः प्रार्थयितुः प्रदातुरिव यैरुत्कण्ठितैरीक्षितः। भूपाः संप्रति ते प्रशासति महीमात्तैरतृप्ताः सतां । वित्तोचैर्वत जीवित......तुमिच्छन्ति ये ॥ ४० ॥ नीताः क्रतो ये पशवः शवत्वं विप्रैस्त एते नृपतामुपेताः। तदग्रिमं वैरमनुस्मरन्तः कुर्वन्ति तेषामपकारमेव ॥४१॥ धातर ! विज्ञपयामि किश्चन मनःखेदाय यन्मे स्थितं सृष्टाः स्मः किमिहोत्तमे द्विजकुले कस्माच्च सन्तः कृताः। यस्मादत्र दुरीशदर्शितमहापापप्रयोगे युगे सत् कार्हति न कचिन्न च वयं दुःकर्म जानीमहे ॥४२॥ दुर्वर्णखरमन्त्रमात्रपठनाध्मातैर्द्विजैः शान्तिकं देवर्दिनशुद्धिरर्क-शशिनौ जानन्ति ये द्वौ ग्रहो । दानं पर्वणि चारणेषु कविभिस्तैरेव कीर्तिः स्थिरा येषां भूमिभुजामलं निजगुणोद्गारेण तेषां पुरः ॥ ४३ ॥ पुण्यमहो महदेषां नृपतीनां ब्रह्मबन्धुमुखपतितैः। विखरमबत्सरुभिर्विभिद्यते नोत्तमा यत् ॥ ४४ ॥ मुक्ते सौधसुखे परिग्रहपरिस्पन्दे च मन्दीकृते - चित्ते वित्तदुराग्रहान्निगमिते निर्वासिते च स्मरे । क्षुद्वाधाविधुरास्तथाऽपि शिशवः संतुष्यतोऽस्मानिमा नेते पातयितुं बत व्यवसिताः कुखामिसेवांहसि ॥४५॥ तावदमी दातारस्तावन्मित्राणि तावदतिसरलाः। कलिकालभूमिपाला यावन्नति क्रियाकालः ॥ ४६॥ भूमौ दासवदासितं प्रकटिताश्चाटूक्तयः कोटिशः । स्पृष्टा भूः शिरसा पुरश्चरणयोर्बद्धश्च सेवाञ्जलिः। न लिह्यन्ति तथाऽपि कर्कशतरास्तेऽमी नृपप्रस्तरा- ॥ स्तच्चेतश्विरमच्युतं परिचर श्रद्धासमृद्धिर्यदि ॥४७॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णामृतप्रपा गुणी क्षोणीशोऽयं सह सदृशवृत्तैर्विहरता मसभ्याः संवृत्ता वयमिह निजैरेव चरितैः । तथाsपि ग्राहित्यं न हि सदुपहासेन च परिश्रमो निस्त्रिंशत्वे न परपरिवादे परिचयः ॥ ४८ ॥ यदभ्यर्णे कर्णे जपलपनवल्मीकविवर स्फुरज्जिह्वाव्यालोकवलनभयान्नैति सुजनः । फलैर्वा मूलैब सलिलचुलुकैर्वाऽपि सुहिताः करिष्यामः किं तैः क्षितिपतिपिशाचैरशुचिभिः ॥ ४९ ॥ सत्त्वनिविष्टः शिष्टः पिशुनः पुनराश्रितो रजस्तमसी । तत्सुजनादप्यधिके भवति खले भूपबहुमानम् ॥ ५० ॥ शङ्काऽत्र का तव नृपोऽसि यच्छयैव नीचं समानय जनं महता जनेन । तिग्मद्युतिप्रतिभटं सरटं विहाय व्यक्तीकृता हि विधिनाऽप्युचितज्ञतेयम् ॥ ५१ ॥ द्वारि द्वास्थजनो न मुञ्चति चिरान्मुक्तस्य नैवासनं ताम्बूलस्य कथैव का रुचिरया वाचाऽपि नाभ्यर्थनम् । येषां सद्मनि सत् क्रियेति कृतिनः प्राप्तस्य वित्ताशया चेतस्तानपि वीक्षितुं व्रजसि चेदव्रीड ! तुभ्यं नमः ॥ ५२ ॥ द्वारि मोक्षः कदर्याणामार्याणां यावता भवेत् । क्लेशेन तावता मोक्ष [:] संसारादपि जायते ॥ ५३ ॥ एतैः पातकवृत्तिभिर्नृपतिभिः किं सेवितैर्यन्मुखा लोकेनापरजन्मसंचितमपि श्रेयः परिक्षीयते । श्री सोमेश्वरमेकमर्चय चिरं यस्यैष कोशो महानुन्मुद्रोऽस्ति समुद्र एव भुवनाभीष्टप्रदस्यान्तिके ॥ ५४ ॥ किं निन्दसि नृपानेतान् व्यर्थीकृतमनोरथः । स्वं निन्द ननु वित्ताशा बद्धा येनेहशेष्वपि ॥ ५५ ॥ हतमतिषु नृपेषु येन चक्रे द्रविणकणार्थिधियाऽर्थवादपापम् । अमरसरिदसौ तदूर्भिपातै र्वपुरपुना यमुनाजलानुलिप्तैः ॥ ५६ ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर सोमेश्वरदेव विरचिता ६. अथ दुर्जनः । स्वयं करोति शक्तश्चेदशक्तश्चिन्तयत्यपि । सर्वस्यापि हितं साधुरसाधुरहितं पुनः ॥ ५७ ॥ शिवा खादति मांसानि मृतानामेव केवलम् | अशिवा खलजिह्वा तु पृष्ठमांसानि जीवताम् ॥ ५८ ॥ पी (पे?) पणीप्रमुखाः पञ्च सूनाः स्युर्गृहमेधिनाम् । दुर्जनानां पुनः षष्ठी हृद्वृत्तिर्नाम तिष्ठति ॥ ५९ ॥ परिहृतिमर्हति दूरादजारजो जारजोऽपि शुद्धिमताम् । कुप्रकृतिना समग्रः क्रियते मलिनो जनो येन ॥ ६० ॥ एकदृशं लोलतया द्विजिह्वमसदन्यदोषकथनेन । दुश्रेष्टया त्रिजातं व्याचष्टे दुर्जनं लोकः ॥ ६१ ॥ संभाषणीयः स मनीषिणां किमहर्मुखे दृश्यमुखः कथं वा । हत्वा न शौचं कुरुते न चापि हत्वा द्विजेन्द्राननुतप्यते यः ॥ ६२ ॥ दुःकाल भूपालहतावशिष्टं शिष्टं जनं संप्रति केsपि दुष्टाः 1 'स्वयं परैर्वा परिवादशस्त्रत्रातेन निःशेषयितुं यतन्ते ॥ ६३ ॥ गोमांसमश्नामि सुरां किरामि पिण्डे पितुर्मातरमभ्युपैमि । कृतप्रतीतिः शपथैरपीत्थं काले करोत्येव खलः खलत्वम् ॥ ६४ ॥ दुर्जनानां गुणश्रेणिः शरद्गङ्गागुणोज्ज्वला । घोरे दुरात्मनां वाग्जनरके निवसेत् कथम् ? ॥ ६५ ॥ ७. अथ मनस्वी । याताsन्यतः प्रिया श्रीरिति दुर्भगतामुपागता लोके । शान्त्याऽऽश्रितोऽभिमानी भूयः सौभाग्यमभ्येति ॥ ६६ ॥ कः खलु सुभगो भुवि यो नादत्ते दीयमानमपि वित्तम् । को दुर्भगश्च यस्तल्लभते न हि याचमानोऽपि ॥ ६७ ॥ कालविशेषवशेन प्रसूनमितरेषु तरुषु फलविकलम् । सुजनतरुवचनकुसुमं न कदाचिन्निः फलं भवति ॥ ६८ ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णामृतप्रपा भाग्यानि तानि भुवनस्य धनी यदि स्यावापद्गतोऽप्युपकरोति सतां महात्मा । सीतापतिर्वनगतिर्व्यसनस्थितोऽपि राज्ये चकार कपिराज - पलादराजौ ॥ ६९ ॥ न महे निजेsपि महतामन्तःकरणं विकारमभ्येति । नृत्यति पुनरितरेषामपरोत्सवसीधुना मत्तम् ॥ ७० ॥ ८. अथ विधिः । वैदेहीदयितेऽपि दुष्टहृदयः पार्थेऽप्यनर्थप्रदो जीमूतेऽपि यमोचितव्यवहृतिः कर्णेऽपि कर्णेजपः । भीमो भीमसुतापतावपि हरिश्चन्द्रेऽपि रौद्राशयः शक्रेऽपि श्रितवक्रिमा हतविधिर्यस्तस्य के मी वयम् ॥ ७१ ॥ यद्यपि परः सहस्राः कर्त्तव्यपथास्तथाऽपि विधिरेषः । गमयति नस्तेन पथा येनानर्थः पराभूतिः ॥ ७२ ॥ तापयत्य सुखवहिना मुहुलहटङ्कमिव मानवं विधिः । लोहकार इव मोहमुद्गरैर्घातयत्यपि ततः समन्ततः ॥ ७३ ॥ मम दुःखाग्निना नूनमाहिताग्निरयं विधिः । तदेनमुपशाम्यन्तमतियत्नेन रक्षति ॥ ७४ ॥ अवदतामपि दुर्वचनं मुहुर्निदधतामपि साधुपथे पदम् । जनयति व्यसनं तदहो विधिर्भवति यन्महतामपि दुस्तरम् ॥७५ || सुरजनमसुरजनं वा गच्छत शरणं नरा वराकाः । कः कर्मावर्त्ते पतितः वचन पुमान् निर्वृतिं नैति ॥ ७६ ॥ तुल्ये पितर्यपि च जन्मनि हन्त ! तुल्ये कल्याणता भवति दैवकृतैव लोके । यद्दक्षिणः पथिषु पुण्यपरेषु पाणिर्वामः पुनर्मलिनमार्गमभिप्रवृत्तः ॥ ७७ ॥ कुरुतां विधिर्विरुद्धं तत्कृतमनुमोदतां च पिशुनजनः । म मनागपि धीरमनाः कुप्यति तस्मै च तस्मै च ॥ ७८ ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरसोमेश्वरदेवविरचिता ऐश्वर्येण न दुर्दशा भवति चेजम्भारिरम्भोरुहे लीनः किं न पराक्रमेण यदि तद् रामः किमेवंविधः । न त्यागादथवा विलोकय बलिं धर्मान्न चेत् तद्वधूः किं दुःखं तदलं खिदा विधिवशादायाति सा याति च ॥७९॥ ९. अथ निर्वेदः। भ्रातश्चित्त ! विवक्षुरस्मि किमपि क्रोधं विधत्से न चेत् पण्यस्त्रीबहुवश्चितेन भवता यद् यत् कृतं तच्छृणु । पूर्वोपात्तवसुव्ययो न गणितः साध्वी वधूः खं मुहु निन्दन्ती निहिताऽतिदुःखदहने दूनं च पित्रोमनः ॥ ८॥ पृथिव्यां द्रव्यान्धाः कति न परिरब्धाः परिभवै ने वैश्वर्याध्मातक्षितिपकृपणद्वारि पतिताः। स कोऽप्येषः स्वामी न च परिचितो यः परपद प्रतिष्ठामानन्दव्यतिकरवरिष्ठां वितरति ॥ ८१॥ न गङ्गेऽहं त्वयि लातो नगं गेहं न च व्यधाम् । सहे मानक्षितिं लुब्धः सहेमानं जनं नमन् ॥ ८२ ॥ न ध्यातः कचिदपि पापिना पिनाकी नाऽऽकीण जलमरजः सरिद्वरायाः। न भ्रातः ! सकृदपि रामनाम गीतं हा! नीतं निजमिदमेवमेव जन्म ॥ ८३ ॥ मातः ! सरखति ! सहख बहुक्षमात्व मेकं विवेकविकलस्य ममापराधम् । यद्दर्शिताऽसि कविधर्मबहिर्मुखानां मिथ्यावलिप्तमनसामिह पुंस्पशूनाम् ॥ ८४॥ युगमिदं सुकृतैकखलः कलिम्रपतयस्त इमे गुणविद्विषः। उपरता च कथाऽपि महात्मनामहह ! निर्वृतिमेतु कथं मनः ॥८॥ न तद्दिनं यत्र नवं न दुःखं स्थानं न तद् यत्र गतस्य तुष्टिः । न स प्रभुयंत्र च लब्धमाशा मित्रं न तद यत्र निवेदयामि ॥८॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णामृतप्रपा यः पत्तिः स सखेव संप्रति समं संभाषते यः सखा स स्वामी समीहतेऽधिकतमां पूजां समाजस्थितः । यः खामी स रिपूयते किमपरं पुत्रोऽप्युदास्ते हहा ! जन्मेवान्यदिहैव जन्मनि धनाभावेन नीता वयम् ॥ ८७ ॥ काकुस्थेन वनं प्रविश्य विजनं तीर्णः स दुःखार्णवः स्वं निहृत्य विराटवेश्मनि विपत् सोढाऽजमीढेन सा । एते हन्त ! वयं तु दैवतवशादेतां गता दुर्दशा मस्मिन्नेव पुरे नरैः परिचितैः पूर्णे चरामः कथम् ॥ ८८ ॥ अर्थार्थे मुक्तमानैः श्वभिरिव भवनद्वारि तस्थे नृपाणां कामार्थे किं न सोढं परयुवतिरतैस्ताडितं तत्पतीनाम् । धर्मार्थे नैकभक्तव्रतमपि चरितं हा ! महामोहमग्नैर् यैरेते तेऽद्य कृच्छ्राण्यपि वयमधुना निर्धनाः साधयामः ॥ ८९ ॥ जोवारीचूर्णमन्नं तदपि सकृदसंपन्नभक्ताज्यशाकं शीर्ण जीर्ण च वासः कचिदपरजनावासकोणे निवासः । एवं दौर्गत्यदावज्वलनकवलितस्यापि यस्यान्तरात्मा न स्याद् वैराग्यवाही स खलु शिशु-पशु-प्रस्तरेभ्योऽप्यचेताः ॥९०॥ शयनस्थानं मशकैः शयनीयं मत्कुणैश्च संकीर्णम् । गृहचिन्तया च हृदयं तथाऽपि निद्राऽर्थिनी नयने ॥ ९१ ॥ आनन्दामृतशीते कुरु केलिं स्मरसुखेन हृदि सुखिनाम् । स्थित्वा किमिह करिष्यसि दुःखानलसंकुले मनसि ॥ ९२ ॥ किं वाचाल ! करोषि रे ! कलकलं पुंस्कोकिल ! त्वं वृथा कस्मान्मारुत ! वासि वासितवपुस्त्वं मल्लिका- चम्पकैः । चन्द्र ! त्वं च कुतः स्थितोऽसि पुरतः प्रोद्दामदेहद्युते ! नोन्मादं भजते विपत्सु यदिदं दुर्दैवदूनं मनः ॥ ९३ ॥ अकालक्षेपाणि प्रचुरधनसाध्यानि शतशो विधेयान्यायान्ति द्रविणकणिकाऽप्यस्ति न गृहे । न लेशोऽप्याशायाः क्वचिदपि च लाभस्य तदहो ! दरिद्राणामिन्द्रे मयि सति किमन्योऽप्यधृतिमान् ? ॥ ९४ ॥ ११ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरसोमेश्वरदेवविरचिता सपदि विधिर्यः कुरुते तद्वा हृदयं यदनुभवत्यनिशम् । जानाति दुःखसंख्यां कथयितुमज्ञा रसज्ञा मे ॥ ९५ ॥ भीति [:] मृत्योः कस्य न स्यादसाव प्याशास्योऽभूद् दुःखिनामीदृशां नः। सोऽपीदानी प्राप्यते प्रार्थ्यमानो धिक् संसारं धिक् तथैवार्थिनोऽस्मान् ॥ ९६ ॥ दुःखातुरे पितरि मातरि साश्रुमुख्यां क्रोधादिना विधुरिते सुतबन्धुवर्गे । आपत्पयोधिपतितानतिताम्यतोऽस्मान् ___ यद् दैव ! जीवयसि मारयसि ध्रुवं तत् ॥९७॥ धत्ते व्याकरणं न कोऽपि कवितां कुत्रापि नार्थत्यसौ तर्क मर्कटवन्न कोऽपि निकटीकतु कदापीच्छति । वेदाद्विजते जनस्तदपरं नैवाल्पमप्यस्ति मे भ्रातर ! जल्प पणेन केन तदहं वित्तं धनिभ्यो लभे ॥ ९८॥ अवधिदिवसः प्राप्तः सोऽयं प्रयच्छसि किं न मे धनमिति धनिन् ! मा स्म क्रोधं विधेहि शृणु क्षणम् । यदिह दधतो वित्ताभावादवस्तुषु मुख्यतां मम न वचनैरायाति श्रीन याति च जीवितम् ॥ ९९॥ सत्सु प्राणेषु दत्तेषु कृतान्तो विनिवर्तते। याचमानस्त्वसद् द्रव्यं धनिकः केन तोष्यताम् ॥१०॥ यद्यन्नं न घृतं कदापि तदपि स्यात् तन्न तक्रं तदा दैवात् तत् त्रितयं भवत्यथ भवेन्नो भोजनं भुक्तये । दिष्ट्या संघटितं समग्रमपि तत् तावत् कुतोऽप्युत्कटो भट्टोऽभ्येति कृपाणिकाङ्कितकरः प्रत्यूहकारी हहा ॥ १०१॥ आतङ्काय विलोकितः कृतफणाफूत्कारभारः फणी कान्तारे तरसा प्रसारितमुखस्तस्माच पश्चाननः। उद्गुर्णाद्भुतलोहमुद्गरकराकारस्ततोऽप्यन्तकः सर्वेभ्योऽप्यधमर्णतर्णकवृको भट्टः कृपाणीकरः॥१०२॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णामृतप्रपा प्रासादे शयनं विकालमशनं मिथ्यार्थसंदर्शनं खस्यापद्भवनं निशासु गमनं भट्टैश्च संतापनम् । संवन्धानयनं सचाटुवचनं माहात्म्यनिर्वासनं यद्याकर्षसि दुःखकारणमृणं तत्पूर्वमेतत् पठ॥ १०३ ॥ वृक्षच्छायविभागमर्पयति यो वेश्मैव तेनार्पितं दत्ता भूरिह तेन यो रथपथं दत्ते रथस्याग्रतः। तोयं तुच्छमपि प्रयच्छति च यस्तेनैव जीवः पुनः प्रत्युप्तो बत देशभङ्गचलिते लोके धिगेतां दशाम् ॥ १०४॥ वृद्धोक्षः पतति क्षितौ गुरुभराक्रान्तः शताङ्गः क्षतः कान्ता सान्त्वयति क्षुधापरिगतं स्तन्योज्झिता बालकम् । गन्तव्यं च बहु व्यतीत्य गतवान् सार्थः प्रयात्यंशुमान् अस्तं व्यस्तमहा हहा गृहपतिः कां दुर्दशामागतः ॥ १०५॥ तिष्ठत्येव तवान्तिके सुरतर्दानेयदीनात्मनां __ आनन्दं नयनद्वयस्य कुरुते चन्द्रोऽपि सान्द्रद्युतिः। देवेनाऽपि दितेः सुतान् दलयता नाकश्च निष्कण्टक: श्रीसिद्धाधिपति विधे! स्वसविधे तत् किं भवान् नीतवान् ॥१०६ तानेव स्तुमहे महेश ! महितां प्रागेव यातान् महीं यस्मादस्तमिते महात्मनि हहा श्रीकर्णदेवात्मजे। लात्वा दुस्तरशोकलोकनयनभ्रष्टैर्जलैर्बिभ्रती शुभं कीर्तिपटं प्रियेण रहिता भूरद्य दृष्टा न यैः॥ १०७॥ सिद्धेशप्रमुखैः पुरा परिहृतं प्राणैरिव क्षोणिपैः पश्चान्मुक्तममुक्तधर्ममतिभिर्बन्धूपमैर्मन्निभिः। स्थायं स्थायमथ श्रिया कथमपि त्यक्तं जनन्येव यत् तत् कैश्चित् पुरमर्धदग्धमधुना ध्वाङ्गैर्यथा भक्ष्यते ॥ १०८॥ मुण्डेव खण्डितनिरन्तरवृक्षखण्डा निःकुण्डलेव दलितोज्वलवृत्तवप्रा । दूरान्निरस्तविषया विधवेव दैन्यमभ्येति गूर्जरधराधिपराजधानी ॥१०९॥ mmmmammmmmmmmmmmm Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरसोमेश्वरदेवविरचिता १०. अथ प्रकीर्णकाव्योक्तयः । इयतैव मया ज्ञाता सरसस्तव सारता हंसीभूय बकैर्यत्र राजहंसः परीक्ष्यते ॥ ११०॥ एकत्रैव सरोवरे विहरणं तुल्यैव देहद्युतिः पक्षित्वं च सदृक्षमेव विगुणं किं राजहंसान्मम । इत्यन्तः सततं वराक ! बक! रे ! बिभ्रन्न संभ्राम्यसि प्राप्तेऽप्यन्तिकमुत्तमेऽत्र तदहो ! धिक् त्वां मुधा मानिनम् ॥१११॥ जातीवियोगविधुरस्तपसे गङ्गां जगाम भृङ्गयुवा। तत्रापि पद्मिनीनां मधु लब्ध्वाऽधिकतरं मत्तः ॥ ११२॥ अयि कृतज्ञ ! बकोट ! बहु त्वया यदुषितं सरसीह निरम्भसि । तदधुनाऽपि सहख दिनद्वयं यदयमम्बुधरः पुर एव ते ॥ ११३ ॥ मधुपः केतकीगन्धभङ्गिरङ्गितमानसः। कण्टफस्योत्कटां पीडां सहते दुस्सहामपि ॥ ११४ ॥ ददति पदानि स्कन्धे दलयन्ति दलानि यदपि कपिनिवहाः । सहकारस्य विकारस्तदपि न सर्वंसहस्यासीत् ॥ ११५ ॥ सत्कार्यः सुजनोऽयमागत इतः स्थाता च नासौ चिरा दौचित्याय भविष्यति फलस्फीतिर्विलम्बेन मे। मैवं भूर्भुवनोपकारचतुर ! त्वं चूतपर्याकुलः पर्याप्तं यदनेन किं घटनया त्वच्छाययैवानया ॥ ११६ ॥ शाखाशतैर्वसुमतीवलये ! नमामि लब्ध्वा पुनः फलसमृद्धिमहं नमामि । चूतश्चिरं सुरभिदूतरुतैरितीव दत्ते धनोद्धतधियां विनयोपदेशम् ॥ ११७ ॥ दग्धा मुग्धदलावलीति न फलश्रेणी विशीर्णेति न श्रान्ताध्वन्यमनःप्रमोदजननी छाया विशीर्णेति न । खेदश्चततरोर्दवार्त्तवपुषः किन्त्वस्य सैव व्यथा सत्कार्योऽयमसत्कृतः सुहृदितः पुंस्कोकिलो याति यत् ॥ १९८॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णामृतप्रा आपृष्टोऽसि महीरुहेन्द्र ! भवते स्वस्त्यस्तु यामो वयं लब्धव्यं यदि किञ्चिदस्ति तदितोऽन्यत्रापि लप्स्यामहे । कल्पोर्वीरुहसेवयाऽप्यभिमता न प्राप्यते श्रीरिति ख्यातिस्ते भविता पुनर्जगति यत् तेनैव लज्जामहे ॥ ११९ ॥ छायेच्छया तव समीपमुपागतस्तन्माकन्दपादप ! तथा सुखितस्त्वयाऽहम् । क्षुद्रः करीरविटपी कटुकण्टकोऽपि त्यक्तः कुतः पथि मयेति तथा स्मरामि ॥ १२० ॥ उष्णे पूष्णि रुषैव पिंषति शिरोदेशान्निशातैः करैरयेनाकारि तरूत्तमेन जनतासंतापनिर्वारणम् । सोऽयं तोयद! दैवदुर्विलसितादेतां गतो दुर्दशामाशामस्य तदाशु पूरय परप्रीत्यै यतस्त्वादृशाः ॥ १२१ ॥ आसंसारं शिशिरमधुरैः पूरितस्तोय पूरैः कासारोऽसौ भवतु भगवन्नम्बुद ! त्वत्प्रसादात् । यः संपूर्णः पृणति पृथिवीं नात्मनैवान्तिकस्थं वापीकूपप्रभृति च भृतं भोगयोग्यं करोति ॥ १२२ ॥ तुच्छास्वच्छकवोष्णवारिविभवः कासारवर्गः परं तिग्मांशुस्तपति स्फुरन्ति पुरतो दावस्फुलिङ्गाकुलाः । इत्थं मृत्युमुखागतस्य पथिकत्रातस्य तत् किश्चन न्यग्रोधेन कृतं कृतं न खलु यत् पित्रा च पुत्रेण यत् ॥ १२३॥ मासान् मांसलपाटलापरिमलव्यालोलरोलम्बिनः प्राप्य प्रौढिमिमां समीर । महतीं हन्त त्वया किं कृतम् । सूर्याचन्द्रमसौ निरस्ततमसौ दूरं तिरस्कृत्य यत् पादस्पर्शसहं विहाय सितयोः स्थाने रजः स्थापितम् ॥ १२४ ॥ हे विश्वाश्वासनैकव्यसनधन ! तव प्रोन्नतस्य प्रसादात् कासारः स्फारवीचिर्न खलु न भविताऽशेषशोषं गतोऽपि । किन्तु क्लान्तेऽजपुञ्जे चलदलिनि जवात् त्वं पयःसेकमेकं यथाsil शफरपरिकरप्राणिनि प्राणशेषः ॥ १२५ ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरसोमेश्वरदेवषिरचिता हे वारिवाह ! सहकारमहीरहेण प्राप्ता मनोरथशतैरियमुन्नतिस्ते । आविर्भवत्यचिरमुं प्रति संप्रति त्वं तत् कर्तुमिच्छसि दवोऽपि न यच्चकार ॥ १२६ ॥ सुखमासीनः पश्यति कृतार्थितामात्मना महीमखिलाम् । संप्रति निर्व्यापारो निर्मलरुचिरेष घन [:] सुजनः ॥ १२७ ॥ हे कासार ! शिरोऽवतंसविकसत्पद्मासनेन त्वया पीयूषप्रतिमैर्जलैर्विदलिताः केषां न तृष्णातयः। तं त्वां तीर्थमुपेयुषः कुलपतेरस्याम्बुवृत्तेः कृते खल्पः कोऽपि यदि व्ययः किमियता विश्वोपजीव्यस्य ते ॥१२८॥ कूपोऽयमल्पसलिलस्त्रुटितावशिष्ट सप्ताष्टसंकटघटीभृदिहारघट्टः। छिद्राकुलं च जलपानपदं तदत्र भ्रातः ! कथं कथय पास्यसि पान्थ ! पाथः॥१२९ ॥ करभ! सरभसं भज! त्वमन्यद वनमवनं वपुषश्चिकीर्षितं तत् । इह विहरति केसरी करीन्द्र ब्रजविजयोद्धरकन्धरः पुरस्तात् ॥ १३०॥ देवादपास्य पाशान् कुशलिनि दूरं गते कुरङ्गपतौ । लुन्धक-जम्बुक-वायसमनोरथा व्यर्थतां याताः ॥ १३१॥ भूमीभारं विभृमह इति स्फारितोत्तुङ्गशृङ्गाः शैलाः सन्तु प्रसृमरमदाः सन्तु दिग्दन्तिनोऽपि । त्वं तु क्षोणी क्षणमपि फणान्मा मुचः शेष! तेषां - शक्ति द्रष्टुं स्फुटमितरथा नावनिर्नोद्धतास्ते ॥ १३२ ।। तस्मै तिम्मरचे नमस्तमसि यो मनां व्यनक्ति क्षिति बन्छ। सोऽपि सितातिर्यदुदयात् को नाम नामोदते ? । दुश्चेष्ठाभिरवग्रहप्रभृतिभिः संख्यापयन्तः पुनमाया यदमी समं ग्रहततौ वल्गन्ति तत्कौतुकम् ॥ १३ ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णामृतप्रपा कामं करोतु सुजनेऽपि रुजं कुजन्मा यस्मादसौ जगति वक्र इति प्रसिद्धः। त्वां तु ब्रवीति सवितारमिनं च मित्रं लोकस्तदर्क ! किमु तापयसि त्वमेनम् ॥ १३५A ॥ सर्वे स्थ हे विहङ्गाः ! कथयत मित्राणि मे द्वयोरेकम् । स्थानं वा सततदिनं प्राणानां त्यागमार्ग वा ॥ १३५B ॥ पुनः फलन्त्यस्तफला अपि द्रमाः . सरांसि रिक्तान्यपि यान्ति पूर्णताम् । दृढं विधायाढ्यचरैर्मनस्ततः । प्रतीक्षणीयः समयः समृद्धये ॥१३६॥ पाथेयमत्ति पान्थः सच्छायं दूरतोऽपि तरुमेत्य । निजमपि सुखेन भोक्तुं शक्यं हि सदाश्रयेणैव ॥ १३७॥ अतिपिशुने पिशुनत्वं जनयन्नपि जगति जायते सुजनः । विषमाभोगे रोगे दाहोऽपि हितः शरीराय ॥ १३८॥ धनिके निधनमुपेते तद्भार्यायाः पुरोऽधमणेन । किल दुःखितेन रुदितं मुदश्रुमिश्राक्षियुगलेन ॥ १३९ ॥ खेट ! प्रसिद्धिर्यदिह ग्रहाणां _बभूव युक्तं प्रतिभाति तन्मे । यस्मादमी शिष्टजनेऽप्यनिष्टां दशां दिशन्ते तिलमुष्टिलुब्धाः ॥ १४० ॥ दूरस्थः पथि याति जल्पति पतिद्विष्टैः क्रियोपक्रमे दृष्टिं मुञ्चति भोजनाय यतते यः स्त्रीषु विभ्राम्यति । ज्ञानीव प्रहितो महालसतया ब्रूते स्थितो निर्णयं - शेते वक्ति च भूरिकुण्ठमतये वण्ठाय तस्मै नमः॥१४१॥ चिन्तायामपि नेच्छयाऽभिगमनं स्वस्मै न पाकक्रिया लब्धं कृच्छ्रशतैरपि प्रतिदिनं पात्रप्रदेयं धनम् । एवं पूर्वमनीषिभिः प्रतिहतखैरप्रचारे पथि प्रक्रीडन्ति कृतेन्द्रियप्रियतया ये केपि तेभ्यो नमः॥१४२॥ क०३ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरसोमेश्वरदेवविरचिता किं कुर्वतामहह किं शरणं श्रयन्ता माख्यान्तु कस्य पशवस्त इमे वराकाः। येषां सुराश्च पितरश्च नराश्च हिंस्र जीवाश्च मांसमुपभोक्तुमुपक्रमन्ते ॥ १४३ ॥ प्रकटयति हृदयदाहं पुरुषः प्रायेण सज्जने मिलिते। ग्रावा दग्धः सलिले पतिते पुनरुद्वमत्यग्निम् ॥ १४४ ॥ ... चिन्ताभल्ली दधदुःखां विधिव्याधाहृतां हृदि । दरिद्रहरिणः शून्यो भ्रमत्याशाश्च वीक्षते ॥ १४५॥ ११. अथ शमः। ऐक ते दिवसा रसान्धहृदयैः सश्रद्धमाकर्णिता न्यस्माभिर्मधुमत्तवारवनितागीतानि यत्रादरात् । एते यान्ति पुनः पुराणपुरुषध्यानकतानात्मना मस्माकं मधुराक्षरक्रमशुकव्याहारकौतूहलैः ॥ १४६ ॥ इयद्भिरपि जन्मभिर्न भवता क्षणं शिक्षितं तदीश ! विनिमज्यते वृजिनसागरे दुस्तरे । प्रबुद्धमधुना मया यदयमाश्रितः श्रीपति स्तदुच्छिदुपदेशने स हि गुरुस्त्रिलोकीगुरुः॥१४७॥ प्रपश्चः पश्चेषोः स परिचरितः किश्च वपुषः परिज्ञातं तत्त्वं द्रविणपरिणामोऽपि पठितः। चरित्रं मित्राणामवगतमतः सांप्रतमहो! महादेवादीहे तदमृतमनास्वादितरसम् ॥ १४८ ॥ नमस्तुभ्यं चेतो भव ! सुभगभावोऽसि तदपि त्वदीयादासङ्गादुपरतमिदं हन्त ! हृदयम् । प्रयागे गङ्गाम्भाप्लवनमनवद्येन पयसा प्रभासे वा सेवामभिलषति शम्भोर्भगवतः॥ १४९ ॥ सरखत्यां लानं शिरसि हरशेषा सुमनसः प्रसन्ना हृद्धृत्तिः शतपथकथाऽऽकर्णनरसः। मुनीनामाराध्या परिषदरिषड्वर्गजयिनी .... विना पुण्येनैषा न भवति मनीषा तनुभृताम् ॥ १५० ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णामृतपा पराभूतैरेभिः किमिह बहिरङ्गैः परिजनैः परद्रोहादहः पविरुपरि येषां पिपतिषुः । तदेतज्जेतव्यं जितसितमयूखैर्मृगदृशां मुखैराविर्भूतैर्भवदवशमाशु स्वहृदयम् ॥ १५१ ॥ नगोपान्ते कान्ते कचिदपि निकुञ्जे श्रुतिजपैरुपेन्द्रध्यानैर्वा सकलमपि कालं गमयतः । हिमाकारं हारि त्रिदशतटिनीवारि पिबतः कदा कन्दैर्वृत्तिर्मम शमरतेरीश ! भविता ॥ १५२ ॥ हे पुत्राः ! परिपात मातरमिमां गेहादिसर्व हि वः स्वं स्वं गच्छत पुत्रिकाः पतिगृहं शीलं च मा मुञ्चत । आपृच्छे सुहृदः प्रमोदसदनं भूयास्थ यूयं सदा यस्मादस्मि समुत्सुकः शुकमुनिकान्ते पथि क्रीडितुम् ॥ १५३॥ कृता कल्पश्चिन्तामणिभिरिव कल्पद्रुमवने करोमीव क्रीडां सुरसुरभिवृन्दैर्वृत इव । यतः शान्ताऽसौ मे कृपणनृपतिभ्योऽर्थकणिका कदाऽऽशा दाशार्ह ! त्वदधिगमनाधीनमनसः ॥ १५४ ॥ किमाख्यामस्तेषामविषयमनोभिः स भगवान् स्वजन्मा यैर्जन्मावधिवदेकः प्रणिहितः । नमस्यः सोऽपि स्यान्निवसति जराजर्जरवयाः प्रयागप्रत्यन्तप्रसृतसलिलायां सरिति यः ॥ १५५ ॥ wwwwww अर्थार्थिभिर्गुरुगृहे प्रथमं वयस्तदर्थार्थिभिर्नृपगृहे गमितं द्वितीयम् । मोक्षार्थिनः पुनरिदं त्रिदिवस्रवन्त्या स्तीर तृतीयमतिवाहयितुं व्रजामः ॥ १५६ ॥ यस्मादेते विषयाः कर्त्तारं तापयन्ति नरमन्ते । तेनैतेषु विषेष्विव विदुषां हृदयानि न रमन्ते ॥ १५७ ॥ हारेण हृदयस्थेन सौधे वित्तवतां न तत् । हरेण यत् सुखं नाम वने वल्कलवाससाम् ॥ १५८ ॥ १९ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुरसोमेश्वरदेवविरचिता स्वयं श्रीरायातु प्रकृतिचपला यातु यदि वा शिवाः कश्चिद् वाचो वदतु यदि वा वक्तु विरसाः। तथाऽप्येते भ्रातर् न खलु विलसामो न च वयं विषीदामो द(दामोदरचरणचर्यासु रसिकाः ॥ १५९॥ अननं नश्चेतः प्रणतिशतलभ्यास्तु विभवा__ श्चटुग्राह्यः खामी वयमपि समीचीनवचसः। तदस्माभिर्लोकव्यवहृतिविभिन्नप्रकृतिभि वितृष्णं श्रीकृष्णे हृदयमिदमाबद्धमधुना ॥ १६० ॥ चित्तं यस्य न तप्यते परिभवैर्यः श्वेव पिण्डार्थितां कर्तुं कामयते विवेकविकलान् स स्वामिनः सेवताम् । यस्तस्मिन् विजिहीर्घरच्युतपदे क्लेशाञ् जिहासुश्च यः सोऽस्माकं सविधे वसिष्ठवचनाधीनात्मनां तिष्ठतु ॥१६१ ॥ वित्ताय त्वरतां स्त्रियै विकुरुतां प्रक्रीडतु कुध्यतु द्वेष्टु लिह्यतु वा स एष विषयव्याकृष्टचित्तो जनः। एतत् सर्वमतात्त्विकं तु विदता वेदोपदेशान्मया ह्यस्मिन्नेव मनः समाहितमिदं नित्योदिते ज्योतिषि ॥ १६२ ॥ १२. अथोपदेशाः। सखेऽयमिन्द्रियग्रामः स्वैरित्वादनिवारितः। घनच्छन्न इवादित्यः पश्चात्तापं करिष्यति ॥ १६३ ॥ चित्तं दमय मा कूर्च वृत्तं संस्कुरु मा वपुः । गीतां शृणु च मा गीतं पुरुषं पश्य मा स्त्रियम् ॥ १६४ ॥ महती मोहनिद्रेयमहो विषयिणां नृणाम् । यदेते शोचतामुच्चै क्रन्दैरपि जाग्रति ॥ १६५ ॥ जन्म सन् मन्यतां तस्य तीर्णस्तेन महार्णवः। कर्तुं यागं च योगं च येनारण्याग्रहः कृतः॥ १६६ ॥ अपलप्य सज्जनानां रहसि कुबुद्धे ! कुकर्म किं कुरुषे । पश्यति शरीरवत्ती पुरुषः किं नैष चरितं ते ॥ १६७ ॥ कृष्णीकृतैः किमेभिर्जरसा कल्माषितैः कचैर्व्यसनिन् !। आत्मानमेव कृष्णीकुरु पुरुषध्यानयोगेन ॥ १६८॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णामृतप्रपा कुरु सुकृतं सुकृतं सुकृतं नित्यमेव कुरु सुकृतम् । भवति शुभं शुभं शुभं येन भवति शुभम् ॥ १६९ ॥ रे मुग्धमानस ! तव स्वयमेव नास्ति संसारसंविदि यदि प्रतिभाप्ररोहः। तत् किं समातृ-पितृ-पुत्र-कलत्र-मित्र विच्छेददं त्वमपि वेत्सि न तत्वरूपम् ॥ १७० ॥ नेत्रे निमील्य कतिचिद् दिवसान् सहख __ श्रेयासमं किमपि हे हृदय ! प्रसीद। विश्वात्मना भगवता सममेकपात्रे पातुं स्पृहा तदमृतं यदि वर्तते ते ॥ १७१॥ भुवनविपिने भ्रान्तं तावत् सपल्लवके त्वया फलमिह न तल्लब्धं चेतःकपे ! यदपेक्षसे । स्फुरति यदि ते तस्याखादस्पृहा महती ततः प्रशमितविपत्तापं धर्मद्रुमं द्रुतमाश्रय ॥ १७२॥ अभिमतफलारामं कामं स मा स्म करोत् तपः खयमपि कृतं यस्यागारे हरिप्रियया पदम् । प्रभवति पुनर्यस्यान्येभ्यो भुजिष्यतया भुजिः स किमु कुरुते मोघां जन्मद्वयीमिह निस्तपाः ॥ १७३ ॥ हे वीर ! स्थविर ! स्थिरो भव ननु प्राप्ता जरेयं ततः संग्रामाय किमाकुलत्वमधुना धत्से कृतेऽस्याः क्षितेः। यस्मात् के निधनं गता न पतयो युवा यदर्थे मिथः सुस्थैवार्थिपरं तदस्ति शकलश्रेण्या हसन्तीव सा ॥१७॥ तथ्यं वः कथयामि किश्चिदथवा दक्षाः स्थ यूयं स्वयं तन्मां ब्रूत नृपास्तदेतदवनेः किं दत्ति-भुक्त्योर्महत् । भोक्तारः कति नाभवन्निह परं नाख्याऽपि तेषां कचिद् दाताऽद्यापि तु विद्यते विमलया मूत्यैव कीा बलिः ॥१७॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर सोमेश्वरदेव विरचिता स्वामिन्नधतापते ! गमयता पातालमूले बलिं स्वस्यायं भवता लघुत्वपदहः स्पष्टीकृतः केवलम् । यस्मादेष पुरः स्थितेऽर्थिनि जगन्नाथे त्वयि क्षोणिका मात्रोत्सर्जनलज्जया खयमधो गन्तुं ततोऽपीच्छति ॥ १७३ ॥ २२ वित्तं तदखिलमपि परिगलितं, प्रादुर्भूतं शिरसि च पलितम् । तदपि न हृदयं विषय वितृष्णं, संसेवितुमभिलष्यति कृष्णम् ॥ ९७७ ॥ इयमपि दशनश्रेणी पतिता, सा च समाप्ता जगदधिपतिता । तज्जगदाश्रयमाश्रय देवं, हृदय ! विरंस्यसि दुःखादेवम् ॥ १७८ ॥ सत्पात्रेषु न दत्तं दानं, मन्ये तत् तव दास्थ्यनिदानम् । प्रणतः कचिदपि न स गोविन्दः, तदयं प्रहरति कालपुलिन्दः ॥ १७९ ॥ तृणमिव गणयति जगदपि मूढः, चञ्चलकमलामदमधिरूढः । विपदि तु पतितः प्रतिजन मास्यं, दीनः पश्यति याति च दास्यम् ॥ १८० ॥ सधनः कुरुते जगदुपहासं, रचयति नीचैः सह संवासम् । विभवे नीते भवति विनीतः, चरति रजन्यामृणभयभीतः ॥ १८९ ॥ तावत् पापं चरति हताशः, कण्ठे यावन्न पतति पाशः । पाशे पतिते निन्दति दैवं, वदति च हन्त । करिष्ये नैवम् ॥ १८२ ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णामृnter गायति नृत्यति विभवक्षीवः, प्रतिपदमुद्धतबुद्धिरतीव । परतरुणीहरणाय च धावन्, न विधेर्वेत्ति खलस्य हि भावम् ॥ ९८३ ॥ कोऽयं कुमते ! परिजनगर्वः, श्रयति हि लक्ष्मीलुब्धः सर्वः । त्वामयमधनं मुक्त्वा लोकः, पुनरपि यास्यति धनिनामोकः ॥ १८४ ॥ धनमिदमास्ते यावदधीनं, पुरपि तिष्ठति यावत्पीनम् । तावज्जागृहि सुकृतविधाने, निजमपि परगं स्यादवसाने ॥ १८५ ॥ यद् यदुपात्तं वित्तमकृत्यैर्, गिलितं तदखिलमपि दुर्भृत्यैः । हतमतिरधुना सोऽयं दीनः, सहजे सीदति कृतकौपीनः ॥ ९८६ ॥ भवति विदग्धः किमपि विदित्वा, धीरंमन्यश्चित्तमजित्वा । नैतत् पश्यति यन्मम कार्ये, कोऽयं विलसति विपुलापाये ॥ ९८७ ॥ ये दिवसस्य प्रथमे यामे, ष्टा नष्टास्तेsपि विरामे । येषां भवने कलभविलासः, संप्रति तेषामपि वनवासः ॥ १८८ ॥ क्क हरिश्चन्द्रः कान्त्यजदास्यं, क पृथासूनुः क च नटलास्यम् । क च वनकष्टं कासौ रामः, कटरे विकटो विधिपरिणामः ॥ १८९ ॥ २३. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरसोमेश्वरदेवविरचिता समजनि सफलं जन्म ममाद्य, ___ त्वमपि कृतार्थ मानस ! माद्य । हरधरणीधरधवलतरङ्गा, यदियं प्रत्यासीदति गङ्गा ॥१९॥ अविरलविगलल्लालाजालं, - शशधरकरनिकरोज्ज्वलवालम् । निजमिदमधुना मातर्गङ्गे !, वपुरिह निहितं भवदुत्सङ्गे ॥ १९१ ॥ यदि तव हृदयं दहति स पापः, संसारज्वरजनितखापः। शिवनयनाग्निकथितं पथ्यं, तत् पिब गङ्गाजलमिति तथ्यम् ॥ १९२ ॥ सुकृतं सुकृतं तस्य भणामः, परवनितायां यस्य न कामः। निपतति मूद्धनि गङ्गापाथः, चेतसि नित्यं स जगन्नाथः ॥ १९३॥ वहति विपद्यपि यः परितोषं, __ जल्पति पिशुनस्यापि न दोषम् । सततं तनुधनवानपि दाता, जगति स मर्त्यमिषेण विधाता ॥ १९४ ॥ भवदवदाहोपद्रवभग्नः, तस्मिन् परमानन्दे मग्नः। सुकृती निवसति निर्मलनीरे, । भगवति भागीरथि! तव तीरे ॥ १९५ ॥ कोऽपि कथञ्चन मज्जति जन्तुः, व्यसनावर्ते विरचितमन्तुः। सुखमिह किश्चन न हि संसारे, तदितस्त्वं मामव कंसारे !॥ १९६ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णामृतप्रपा १३. अथ श्रीकृष्णप्रार्थना। कृतानि पुण्यानि मया न पूर्वमेवंविधां तेन दशां गतोऽस्मि । संप्रत्यहं त्वां शरणं प्रपन्नो यद् रोचते तत् कुरु देवदेव ! ॥१९७॥ तवाग्रतो देव ! निजामवस्थां पुनः पुनर्विज्ञपयन् बिभेमि । परं त्वमेकोसि पतिस्त्रिलोक्यास्तदर्थये नाथ! कमन्यमत्र ॥१९॥ कर्तुं नवं भगवतः स्तवमक्षमोऽहं मोहं विहाय न भजामि भवन्तमेव । यद्यतया हृदयवासनयाऽसि तुष्ट___ स्तद्विष्टपाधिप ! कृपां कुरु पुत्रकेऽस्मिन् ॥ १९९ ॥ दुःकृतं कृतमपि व्यपोहसि त्वं मदीयमिदमच्युतः स्मृतः। नाथा तत्प्रथममेव मे कथं कापथान्न कुरुषे मनः पृथक् ॥ २०॥ हृषीकैर्विहितं कर्म हृषीकेश ! हरख मे। खामी भृत्यापराधानामपनेता यतः स्मृतः ॥२०१॥ अयमहमयताऽऽत्मना कृतेन प्रतिकुलमाकुलितोऽस्मि कश्मलेन । विपदपहरणप्रवीण ! तन्मे कुरु करुणामरुणानुजध्वज ! त्वम् ॥ २०२॥ स्वामिन् ! न कुप्यसि हरे ! यदि तद् बदामि तुल्यस्त्वया न खलु कर्मकरः परोऽस्ति । संसारिणां स्मृतिभृतेश्चिरसंभृतं यद् दुःकर्मपुञ्जमपसारयसि त्वमेकः ॥ २०३ ॥ बध्नाति श्रीतनयः श्रीपतिरखिलं विमोचयत्येतत् । पुत्रकृते ह्यपराधे पितैव कुरुते प्रतीकारम् ॥ २०४ ॥ अनन्यसदृशं द्वन्द्वं तदेतदिह दृश्यताम् । न संसारसमो रोगो न गोविन्दसमो भिषक् ॥ २०५ ॥ दौस्थ्ये त्राता भये पाता पातके पविता च यः। अस्मन्मनसि वास्तव्यः सोऽस्तु कौस्तुभलाग्छमम् ॥ २०६ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ठक्कुरसोमेश्वरदेषविरचिता कामं कर्म पुरा शुभं न कृतमित्यस्मिन् महादुस्तरे दुःखान्धौ पतितोऽस्मि साधु तदिदं धर्माद्धि शर्मागमः । चिन्त्यं किन्तु तदीश ! भुवनत्राणक्षमोऽप्याश्रितं यन्मज्जन्तमुपेक्षसे त्वमिह मां किं तेन सा वाच्यता ॥ २०७॥ या काsपि त्वदुपासनव्यसनिता तां वेत्सि चान्तर्गतो जाता यत् सुकृपा तवैव जगदुद्धर्तु त्वमेकः क्षमः । एवं सत्यपि सत्यलोकसदन ! त्वत्सेवकोऽयं जनः खिन्नो याति गृहान्तरेषु किमियं नेर्ष्याऽपि लज्जाऽपि ते ॥२०८ अन्तः संततमत्सरव्यतिकराः क्षोणीश्वराः सन्तु वा निर्मर्यादमुदीरयन्तु यदि वा दोषानलीकान् खलाः । दैवं वाऽपि विरुद्धमस्तु दधतामत्युग्रतां वा ग्रहा भक्तिश्चेत् त्वयि भक्तवत्सल ! ततः क्षेमक्षितिनैव मे ॥ २०९ ॥ विपदपसृता श्रीरायाता हताः परिपन्थिनः फलितमखिलैर्निः पर्यायं मनोरथपादपैः । यदमृतसरस्तीरे रङ्गत्तरङ्गमनोज्ञया तव धवलया दृष्ट्या दिष्ट्या गिरीश ! निरीक्षितः ॥ २९० ॥ न तं मनो वनोद्देशं दग्धुं भवदवः क्षमः । यत्रास्ति हृतसंतापः कृष्णो मेघ इवोन्नतः ॥ २११ ॥ सूनुः सच्चरितः सती सहचरी स्वामी प्रसादोन्मुखः स्निग्धं मित्रमवञ्चकः परिजनो निःक्लेशलेशं मनः । आकारो रुचिरः स्थिरश्च विभवो विद्यावदातं मुखं तुष्टे विष्टपदुःखहारिणि हरौ संपद्यते देहिनाम् ॥ २१२ ॥ स मे क्षणः कदा यत्र वीक्ष्यस्त्वमसमेक्षणः । हिमालयात्मजाकान्त ! विराजन्नहिमालया ॥ २९३ ॥ * दामोदर ! श्रीधर ! कृष्ण ! केशव ! श्रीवत्स ! विश्वम्भर ! भक्तवत्सल ! अस्मिन्नगाधे भवसागरे हरे ! मज्जामि मज्जाम्यहमुद्धरोद्धर ॥ २१४ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णामृतप्रपा देव ! त्वमेव जनको जननी त्वमेव स्वामी त्वमेव परमार्थगतिस्त्वमेव । तद्दुस्तरे दुरितवारिधिवारिपूरे मज्जन्तमुद्धर गदाधर पुत्रकं वा ॥ २१५ ॥ त्वमपि न तथा तात ! ध्यातः प्रमादितया मया फलमभिमतं निःशङ्कस्त्वां यथाऽहमिहार्थये । तदपि करुणात्मानं मत्त्वा भवन्तमुपाश्रित स्तदवतु जवान्मामेतस्माद् भवाभिभवाद् भवान् ॥ २१६ ॥ संसारस्थलदुःस्थानां प्राणिनां प्रीतिहेतवे । श्री सोमेश्वरदेवेन कृता कर्णामृतप्रपा ॥ २१७ ॥ www. इति श्रीठक्कुर - सोमेश्वरदेव - विरचिता कर्णामृतप्रपा सुभाषितावली संपूर्णा । * प्रान्ते पुस्तक प्रतिलिपिकर्तृकपद्यद्वयम् । नवाभ्रशरचन्द्रस्तु निर्मिते वत्सरे वरे । चैत्रमास्यसिते पक्षे दशम्यां भूमिनन्दने ॥ १ ॥ षट्पद्रनागरेणेयं महिराजेन धीमता । सुभाषितप्रपा नाम्ना लिखिता रुचिराक्षरैः ॥ २ ॥ यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ॥ ॥ संवत् १५ (१५०९१ ) कल्याणमस्तु ॥ श्रीः ॥ मङ्गलमस्तु ॥ * २७ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमेश्वरकविकृता सज्जन-दुर्जनवर्णना [ कीर्तिकौमुदीकाव्यान्तर्गता] हृदा यादःपरित्यक्ता नियाला मलयद्रुमाः। अमालिन्यकृतो दीपाः श्रीपात्रं सन्तु साधधः ॥१॥ साधूनां लुब्धता काचिदचिन्त्यैव तथाहि ये। परेषामेव गृह्णन्ति गुणान् भूरिगुणा अपि ॥२॥ रमयन्ति न के नाम सन्तश्छायाद्रुमा इव । पुष्यन्ति स्मितपुष्पं ये सूचितोचैः फलोदयम् ॥३॥ अमृतैर्मानसं मन्ये सम्पूर्ण सततं सताम् । स्यन्देनेव तदीयेन वाचो मुश्चन्ति नार्द्रताम् ॥४॥ अश्रुप्रवर्तकैधूमैरिव किं तैरसाधुभिः। रसवत्यां कवेरुक्तौ मालिन्यं जनयन्ति ये ॥५॥ वृश्चिकानां भुजङ्गानां दुर्जनानां च वेधसा। विभज्य नियतं न्यस्तं विषं पुच्छे मुखे हदि ॥६॥ अस्मिन् कलौ खलोत्सृष्टदुष्टवागवाणदारुणे। कथं जीवेजगन्न स्युः सन्नाहाः सज्जना यदि ॥७॥ निदानं नात्र पश्यामि यदुपेत्यापि दुर्जनाः। आक्रोशन्ति भृशं साधूनध्वगानिव कुकुराः ॥८॥ दोषस्तेन राज्ञेव सह साधनरा सभा। त्याज्याऽवकरभूमीव सहसा घनरासभा ॥९॥ दुर्जनस्तय॑मानस्य साधोरधिकमेधते। भस्मभिर्मुज्यमानस्य मुकुरस्येव चारुता ॥१०॥ आस्तां तावत् कृतक्रोधः, सप्रमोदोऽपि दुर्जनः । कष्टाय जायते दृष्टो रतवानिव वायसः॥११॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णामृतप्रपा दुर्जनानां द्विजिह्नत्वख्यातिरेषा मृषैव यत् । विश्वोपतापिनां तेषामुचिता सप्तजिह्वता ॥ १२ ॥ अस्मिन्नसमयारण्ये खलवेतालसङ्कले । चरतः सज्जनालापाः शिखाबन्धी भवन्तु मे ॥ १३ ॥ सोऽस्ति कश्चन यो दृष्टोऽप्यशुद्धानां विशुद्धये । तेsपि तिष्ठन्ति ये दृष्टाः शुद्धानामप्यशुद्धये ॥ १४ ॥ * संसारस्थितिवर्णना । * अहो ! संसारकारान्तर्मायानिगडितात्मनाम् । जायते जातु जन्तूनां न कथञ्चन निर्वृतिः ॥ १ ॥ केचिद् द्युम्नाय धावन्ति प्रद्युम्नाय च केचन । Rights धर्मा सर्वाभिप्रेतहेतवे ॥ २ ॥ मोदमानोऽन्तरात्मैव साक्षी यत्कर्म शर्मणे । तमप्युपेक्षते धर्ममहो ! मूढमना जनः ॥ ३ ॥ यस्मिन् सन्निहिते वह्नि-विषाद्याः प्रभवन्ति न । धर्मादप्यपरस्तस्मात् कः शरण्यः शरीरिणाम् ? ॥ ४ ॥ धर्मसिद्धौ ध्रुवा सिद्धिर्द्युम्न- प्रद्युम्नयोरपि । दुग्धोपलम्भे सुलभा सम्पत्तिर्दधि- सर्पिषोः ॥ ५ ॥ उच्चैर्गर्वे समारोप्य नरं श्रीराशु नश्यति । दौःस्थ्यदत्तावलम्बोऽथ स तस्मादवरोहति ॥ ६॥ जितं लक्ष्मि ! त्वया यस्यै जनस्तमपि सेवते । धनं नकारपूर्वं यत् प्रदत्ते प्रेतनाथवत् ॥ ७ ॥ धनस्याधर्मलब्धस्य मुग्धो लाभेन तुष्यति । सुकृतस्य दुरापस्य न तु हानिमवेक्षते ॥ ८ ॥ आसाद्यते यया स्वर्गः श्रिया सन्मार्गदत्तया । त्यक्त्वा तामप्यधर्मेण मूर्खाः क्रीणन्ति दुष्कृलिम् ॥ ९ ॥ 28 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठकुरसोमेश्वरदेवविरचिता खयमुत्पादितां लक्ष्मी पुत्रीमिव मनीषिणः। दत्वा पात्राय तद्दानफलमेवोपभुञ्जते ॥१०॥ पित्राद्यैरुपभुक्ता या पुत्राद्यैरपि भोक्ष्यते। कामयन्ते न तां सन्तो ग्रामवेश्यामिव श्रियम् ॥ ११॥ तस्करैर्वा दुरीशैर्वा हृतं संसहते धनम् । कदर्यो नैव सत्कार्ये कल्पयत्यल्पमप्यदः ॥१२॥ अन्धा एव धनान्धाः स्युरिति तथ्यं तथाहि ये। अन्योक्तेनाध्वना गच्छन्त्यन्यहस्तावलम्बिनः॥१३॥ धनी धनात्यये जाते दूरं दुःखेन दूयते । दीपहस्तः प्रदीपेऽस्ते तमसा बाध्यतेऽधिकम् ॥१४॥ आदावेव विकारं यः प्रदर्शयति देहिनाम् । भवोच्छेदैकभावेभ्यो विभवः खाद्यते स किम् ? ॥१५॥ न संसारस्य वैरस्यमिदं वेत्ति जडो जनः । यत् सुखं स सुखाभासो यद् दुःखं दुःखमेव तत् ॥१६॥ रमयन्ति मनस्तावद् भावाः संसारसम्भवाः । यावन्न श्रूयते साश्रुलोकपूत्कारकाहला ॥१७॥ अहो ! देहभृतां मोहः प्ररोहति महानयम् । यदेते सुखमिच्छन्ति विषयैर्दुःखहेतुभिः ॥१८॥ छत्रच्छायाच्छलेनामी धात्रा चक्रे निवेशिताः। भ्रमन्तोऽपि स्वमात्मानं मन्वते स्थिरमीश्वराः॥१९॥ मदान्धास्ते परं लोकं कथं पश्यन्तु भूभुजः। तमोमण्डलमध्यस्थाश्छत्रच्छायाच्छलेन ये ॥२०॥ सुखं विषयसेवेति सक्तास्तत्रैव जन्तवः । यः प्रमोदस्तु तत्त्यागात् तदाखादः कचिद् यदि ॥२१॥ अवश्यं नश्वरे देहे दुर्दमे च यमे द्विषि । हास्यमास्याद् विनिर्याति यत् पुंसामिदमद्भुतम् ॥२२॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णामृतप्रपा कालेन शौनिकेनेव नीयमानो जनः पशुः । क्षिपत्येष धिगासने मुखं विषयशाद्वले ॥ २३ ॥ कायः कर्मकरोऽयं तन्नात्र कार्याऽतिलालना । भृतिमात्रोचितो ह्येष प्रपुष्टो विचिकीर्षते ॥ २४ ॥ प्रयोजकान्यकार्येषु नश्यन्त्याशु महापदि । दुर्मित्राणीव खान्येव बन्धुवुद्धिरधीमताम् ॥ २५ ॥ योऽयं जीवित भूतेषु स्नेहग्रन्थिः सुतादिषु । विभागावसरे पुंसां व्यक्तः सोऽपि भविष्यति ॥ २६ ॥ दुःखाग्निर्वा स्मराग्निर्वा क्रोधाग्निर्वा हृदि ज्वलन् । न हन्त शान्तिमायाति देहिनामविवेकिनाम् ॥ २७ ॥ अविद्यामेव सेवन्ते हन्त ! विद्यां व्युदस्य थे । ते दूत्यामनुरज्यन्ते वरारोहाविहायिनः ॥ २८ ॥ तटस्थः प्रेक्षते योगी जगदस्मिन् भवार्णवे । मज्जनोन्मज्जने कुर्वद् दुष्कृतैः सुकृतैर्निजैः ॥ २९ ॥ विषयामिषमुत्सृज्य दण्डमादाय ये स्थिताः । संसारसारमेयोऽसौ बिभ्यत् तेभ्यः पलायते ॥ ३० ॥ सत्यं संसृतिगर्तेयं दुःखैः पूर्णा निरन्तरम् । यतस्तद्व्यतिरेकेण नान्यत् किश्चिदिहाप्यते ॥ ३१ ॥ विधौ विध्यति सक्रोधे वर्म धर्मः शरीरिणाम् । स एव केवलं तस्मादस्माकं जायतां गतिः ॥ ३२ ॥ प्रकीर्णसूक्तानि हृप्यनुजाः क्षितिभुजः श्रियमर्जयन्ति नीत्या समुन्नयति मन्त्रिजनः पुनस्ताम् । रत्नावलीं जलधयो जनयन्ति किन्तु संस्कारमत्र मणिकारगणः करोति ॥ २, ११३ * ३१ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ठक्कुर सोमेश्वरदेवविरचिता विद्युदञ्चलचलाचलां श्रियं सन्निवेश्य सचिवेषु साधुषु । संप्रहारभरसंभृतश्रमाः शेरते सुखममी क्षमाभुजः ॥ ३, ६३ सप्रसादवदनस्य भूपतेर्यत्र यत्र विलसन्ति दृष्टयः । तत्र तत्र शुचिता कुलीनता दक्षता सुभगता च गच्छति ॥ ३, ६८ जायते जलदवृन्दवृष्टिभिः शाखिनां सफलता शनैः शनैः । तुष्यतां क्षितिभृतां नु दृष्टिभिस्तत् क्षणादपि नृणां फलोदयः ॥ ३, ६९ नास्ति तीर्थमिह पार्थिवात् परं यन्मुखाम्बुजविलोकनादपि । नश्यति द्रुतमपायपातकं संपदेति च समीहिता सताम् ॥ ३, ७० येन केन च सुधर्मकर्मणा भूतलेऽत्र सुलभा विभूतयः । दुर्लभानि सुकृतानि तानि यैर्लभ्यते पुरुषरत्नमुत्तमम् ॥ ३, ६४ न सर्वथा कश्चन लोभवर्जितः करोति सेवामनुवासरं विभोः । तथापि कार्यः स तथा मनीषिभिः परत्र बाधा न यथाऽत्र वाच्यता ॥ ३, ७५ * बलिमाऽप्यरिणा रणप्रवृत्तौ सुभटानां हि पदानि सम्मुखानि ॥ * विमृशन् बहुशोऽपि सन्दिहानो न जनो निश्चिनुते स्थितिं गतिं वा ॥ जलधिर्विगत्तैरुपागतैः स्यान्नहि भिद्योद्ध्यजलैः क्षयी चयी वा ॥ असक्तमासक्तमभीप्सितेऽर्थे कालातिपातं नहि वेत्ति चेतः ॥ * महात्मनामीहितकार्यसिद्धौ विधिर्विधित्ते हि सदानुकूल्यम् ॥ * न केवलं स्वेन कृतार्थतेन परैः कृतायैः कृतिनः कृतार्थाः ॥ * उपक्रमे पुण्यकृतां क्रियाणां राभस्यमभ्यस्यति को न साधुः ॥ स्वभावशुद्धाः सुधियो हि तेषां पावित्र्यलाभाय तथापि लोभः ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् rcoroor कर्णामृतप्रपायाः पद्यानुक्रमणिका श्लोक संख्या पृष्ठ संख्या ६४ १३८ 946 २०५ २०६ ० ० ० ० १६७ १७३ २०२ x ११३ १ अकालक्षेपाणि प्रचुरधनसाध्यानि २ अतिपिशुने पिशुनत्वं ३ अथवा शान्तं पापं ४ अनन्यसदृशं द्वन्द्वं ५ अननं नश्चेतः ६ अन्तझम्पापातनिर्मुक्त० ७ अन्तः संततमत्सरव्यतिकरा: अन्धा एव धनान्धा: है अन्यायसंभवा श्री: १० अपलप्य सज्जनानां ११ अभिमतफलाराम १२ अमृतर्मानसं मन्ये १३ अयमहमयताऽऽत्मना कृतन १४ अयि कृतज्ञ ! बकोट ! १५ अथिभिर्गुरुगृहे १६ अर्थार्थे मुक्तमानः १७ अवदतामपि दुर्वचनम् १८ अवधिदिवसः प्राप्त: १६ अवश्यं नश्वरे देहे २० अविद्यामेव सेवन्ते २१ अविरलविगलल्लालाजालं २२ अश्रुप्रवर्तकधूमैरिव २३ असक्तमासक्तम् २४ अस्मिन्कलौ खलोत्सष्ट २५ अस्मिन्नसमयारण्ये २६ अहो ! देहभृतां मोहः २७ अहो ! संसारकारान्तर्माया० २८ अहो ! संसारकारान्तर्माया. २६ अातङ्काय विलोकितः १५६ Wx dr - ___wr morn mrrrr 00M. Mor७८ ० ० 9 mrUM ०४ १०२ ducation International www.jainei Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० श्रादावेव विकारं यः ३१ श्रानन्दामृतशीते कुरु केलि ३२ श्रापृष्टोऽसि महीरुहेन्द्र ! ३३ श्राशाः पश्यति कि ३४ ३५ ३६ प्रास्तां तावत् ३७ इयतैव मया ज्ञाता प्रासंसारं शिशिरमधुरैः श्रासाद्यते यया स्वर्गः ३८ इयद्भिरपि जन्मभि: ३६ ४० इयमपि दशनश्रेणी पतितः उच्चैर्गर्वे समारोप्य उच्चैर्गर्वे समारोप्य उपक्रमे पुण्यकृतां उषित्वा कंसारेश्चिरमुरसि ४१ ४२ ४३ ४४ उष्णे पूष्ण रुक्षेत्र पिंषति ४५ एकत्रैव सरोवरे विहरणं ४६ एकदृशं लोलतया द्विजिह्वम् ४७ एके ते दिवसा रसान्धहृदयैः ४८ एतैः पातकवृत्तिभिः ४६ ऐदंयुगीनस्य जनस्य वृत्तैः ५० ऐश्वर्येण न दुर्दशा भवति ५१ कः खलु सुभगो भुवि ५२ करभ ! सरभसं भज ५.३ करे यष्टिर्द्रष्ट ५४ कर्तुं नवं भगवतः ५५ कलिद्विजेभ्यः प्रणतोऽस्मि ५६ कष्ट/नष्टापि निविश्य ५७ कामं करोतु सुजनेऽपि ५८ कामं कर्म पुरा शुभं ५६ काकुस्थेन वनं प्रविश्य ६० कायः कर्मकरोऽयं कालविशेषवशेन ६१ ६२ कालेन शौनिकेनेव ६३ कि कुर्वतामह ६४ कि निन्दसि नृपानेतान् ६५ किं वाचाल ! करोषि रे ! [ ३४ ] १५ ६२ ११६ ३८ १२२ ह ११ ११० १४७ १७८ १० ६ १३ १५ १२१ १११ ६१ १४६ ५४ ३४ ७६ ६७ १३० २४ १६६ ३३ ४ १३५A २०७ ८८ २४ ६८ २३ १४३ ५५ ६३ ३० ११ १४ ५ १५ २६ w 15 ) २८ १४ १८ २२ २ २६ ३२ २ १५ १४ ८ १८ ७ ५ १० ५ १६ ३ २५ ५ १ १७ २६ ११ ३१ ५ ३१ १८ ७ ११ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ १६ १६६ १२६ xw GMGAMKmmmmm १८४ १८६ १४० ६६ किमाख्यामस्तेषां ६७ कुर्वन्त्येवं सर्वलोकोपहास्यं ६८ कुरुतां विधिविरुद्ध ६६ कुरु सुकृतं ७० कूपोऽयमल्पसलिलस्त्रुटिता. ७१ कृता कल्पश्चिन्तामणिभिरिव ७२ कृतानि पुण्यानि मया ७३ कृष्णीकृत:किमेभिः ७४ केचिद् घुम्नाय धावन्ति ७५ केचिद् द्युम्नाय धावन्ति ७६ कोऽपि कथञ्चन मज्जति ७७ कोऽयं कुमरो ! परिजनगर्वः ७८ क्व हरिश्चन्द्रः क्वान्त्यजदास्य ७६ खेट ! प्रसिद्धिर्यदिह ग्रहाणां ८० गायति नृत्यति विभवक्षीव ८१ गुणी क्षोणीशोऽयं ८२ गेहं गोमयलिप्तं ८३ गोपीचन्दन तिलकैनवोपवीतैः ८४ गोमांसमश्नामि ८५ चित्तं दमय मा कूर्च ८६ चित्तं यस्य न तप्यते ८७ चिन्ताभल्ली दधद ८८ चिन्तायामपि नेच्छयाऽभिगमनं ८६ छत्रच्छायाच्छलेनामी १० छायेच्छया तव समोपं ६१ जन्म सन् मन्यतां तस्य ६२ जलधिविगतरुपागतः ६३ जितं लक्ष्मि ! त्वया ६४ जितं लक्ष्मि ! त्वया ९५ जातीवियोगविधुरः ६६ जायते जलदवृन्दवृष्टिभिः ६७ जोवारीचूर्णमन्नं २८ तं स्मरामि स्मरामित्रं ६६ तटस्थः प्रेक्षते योगी १०० तथ्यं यः कथयामि Ummarr १४५ १४२ ०७ m.0 KM WOM १० र . . . १७५ International Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ तवाग्रतो देव ! निजामवस्थां तरकरैर्वा दुर्वा १०२ १०३ तस्मं तिग्मरुचे १०४ तात: परस्व-परदार० १०५ तानेव स्तुमहे महेश ! १०६ तापयत्य सुखवह्नना १०७ तावत् पापं चरति हताशः १०८ तावदमी दातारः १०६ तिष्ठत्येव तवान्तिके ११० तुच्छास्वच्छक वोष्णवारि० १११ तुल्ये पितर्यपि च जन्मनि ११२ तृणमिव गणयति जगत् ११३ त्वमपि न तथा तात ! ११४ दग्धा सुरधदलावलीति न० ११५ ददति पदानि स्कन्धे ११६ दामोदर ! श्रीधर ! कृष्ण ! ११७ दुःकालभूपालहतावशिष्ट ११८ दुःकृतं कृतमपि व्यपोहसि ११३ दुःखाग्निर्वा स्मराग्निर्वा १२० दु:खासुरे पितरि मातरि १२१ दुर्जनानां गुणश्रेणिः १२२ दुर्जनानां द्विजिह्वत्वख्यातिः १२३ दुर्जनैस्तर्ज्यमानस्य १२४ दुर्वर्णस्वरमन्त्रमात्रपठनात् १२५ दूरस्थः पथि याति १२६ १२७ १२८ देवादपास्य पाशान् १२६ दोषज्ञैस्तेन राज्ञेव दौस्थ्ये त्राता भये पाता १३० १३१ द्वारि मोक्षः कदर्याणां १३२ द्वारि द्वास्थजनो ० १३३ धत्ते व्याकरणं न कोऽपि १३४ १३५ १३.६ दृप्यद्भुजा: क्षितिभुजः देव ! त्वमेव जनको० [ ३६ ] धनमिदमास्ते धनस्याधर्म लब्धस्य धनिके निधन १६८ १२ १३३ २६ १०७ ७३ १८२ ४६ १०६ १२३ ७७ १८० २१६ ११८ ११५ २१४ ६३ २०० २७ ६७ ६५ १२ १० ४३ १४१ १ २१५ १३१ S २०६ ५३ ५२ ६८ १८५ ८ १३६ २५ ३० १६ ४ १३ ह २२ ६ १३ १५ ε २२ २७ १४ १४ २६ ५ २५ ३१ १२ द २६ २८ ६ १७ ३१ २७ १६ २८ २५ ७ ७ १२ २३ २६ १७ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ७० १४६ - ~ ३२ २८ [ ३७ ] १३७ धनी धन त्यये जाते १३८ धर्मसिद्धौ ध्रुवा सिद्धिः १३६ धातर् ! विज्ञपयामि १४० न केवलं स्वेन कृताथितेन १४१ न गङ्गऽहं त्वयि स्नातो. १४२ नगोपान्ते कान्त १४३ न तं मनो वनोद्देशं १४४ न तद्दिनं यत्र नवं न दुःखं १४५ न ध्यातः क्वचिदपि पापिना १४६ न महे निजेऽपि महत १४७ नमस्तुभ्यं चेतो. १४८ नमस्तुभ्यं तस्यै प्रकृतिचपले ! १४६ न संसारस्य वैरस्यम् १५० न सर्वथा कश्चन १५१ नवाभ्रश रचन्द्रस्त १५२ नास्ति तीर्थमिह पार्थिवात १५३ निदानं नात्र पश्यामि १५४ नीता: कतौ ये पशवः शवत्वं १५५ नेत्र निमील्य कतिचित १५६ पराभूतैरेभिः १५७ परिहृतिमर्हति दूरात १५८ पाथेयमत्ति पान्थः १५६ प्रकटयति हृदयदाहं १६० प्रपञ्चः पञ्चेषोः १६१ प्रयोजकान्यकार्येषु १६२ पित्राद्य रुपभुक्ता या १६३ पी (पे?)षणीप्रमुखाः १६४ पुण्यमहो महदेषां १६५ पुनः फलन्त्यस्तफला १६६ पृथिव्यां द्रव्यान्धा: कति न १६७ प्रासादे शयनं १६८ बध्नाति श्रीतनयः १६६ बलिनाऽप्यरिणा रणप्रवृत्ती १७० भवति विदग्धः किमपि १७१ भवदवदाहोपद्रवभग्न: १७२ भाग्यानि तानि भुवनस्य १५१ ° १५६ १४४ १४८ २५ १८ ३१ ४४ १८७ १६५ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ al १७२ १३२ m" १ mm Norw. . WW. MMK .com 0 0 M ७४ १६५ W० ८४ १२४ K ४५ [ ३८ । १७३ भीति:] मत्यो कस्य १७४ भुवनविपिने भ्रान्तं १७५ भूमीभार विभृमहे १७६ भूमौ दासवदासितं १७७ भ्रातश्चित्त ! विवक्षुरसिम्म १७८ मज्जन जले १७६ मदान्धास्ते १८० मधुपः केतकीगन्ध० १८१ मनस्तापं तन्वन् १८२ मनोऽस्ति मुक्तावनुरक्तम् १८३ मम दुःखाग्निना नूनम् १८४ महती मोहनिद्रेयमहो ! १८५ महात्मनामीहितकार्यसिद्धी १८६ महान्ववायान् शुभशुद्धबुद्धीन १८७ मात: ! सरस्वति ! सहस्व १८८ मासान् मांसलपाटलापरिमला। १८९ मुक्ते सौधसुखे १६० मुण्डेव खण्डितनिरन्तर० १९१ यं पद्मा सेवते १६२ यदभ्यर्ण कर्णे १६३ यदि तव हृदयं १६४ यद्यदुपा १६५ यद्यन्न न घृतं १६६ यद्यपि परःसहस्राः १६७ य. पत्तिः स सखेव १६८ यल्लाभाय महीभुजः १९९ यस्मादेते विषयाः २०० यस्मिन् सन्निहिते २०१ या कापि त्वदुपासन० २०२ यातोऽन्यत: प्रिया २०३ यातास्ते जगतीतलैकतिलकाः २०४ यावृशं पुस्तके वृष्टं २०५ यावद् यावदुपास्महे २०६ युगमिदं सुकृतकखल: २०७ ये दिवसस्य प्रथमे यामे २०८ येन केन च कर्मणा १०६ १८६ २३ १६२ 4 . 9 ८७ ~ १ X 2 " ur m २३ १८८ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ येषां न चाटुरचना २१० योऽयं जीवितभूतेषु २११ यो यः प्रादुरभूत् २१२ रमयन्ति न कं नाम २१३ रमयन्ति मनस्तावत् २१४ रे मुग्धमानस ! २१५ लब्धे यत्र वसुन्धरां २१६ वदसि मधुरां वाणीं २१७ वरं सा संसारप्रणय० २१८ वहति विपद्यपि यः २१६ वित्तं तदखिलमपि वित्ताय स्वरतां विद्यदञ्चलचलाचलां २२० २२१ २२२ विधौ विध्यति सक्रोधे २२३ विपदपसृता श्रीरायाता २२४ विमृशन् बहुशोऽवि २२५ विषय रसनिरन्तरानुपान ० २२६ विषयामिषमुत्सृज्य २२७ वीतास्ते दिवसा : २२८ वृक्षच्छायविभागमर्पयति २२ε वृद्धोक्षः पतति क्षितौ २३० वृश्चिकानां भुजङ्गानां २३१ वंदेही दयितेऽपि २३२ शङ्काऽत्र का तव २३३ शयनस्थानं मशकै: २३४ शाखाशर्त वसुमतीवलये ! २३५ शिवा खादति मांसानि २३६ शूद्राणां पुरु ( र ) तः २३७ षट्पद्रनागरेणेयं २३८ संभाषणीयः स मनीषिणां २३६ संसारस्थलदुःस्थानां संसारोऽयमसार: २४० २४१ सखेऽयमिन्द्रियग्राम: २४२ सत्कार्यः सुजनोऽयमागतः सत्पात्रेषु न दत्तं दानं २४३ २४४ सत्यं संसृतिगर्तेऽयं [ ३६ ] २० २६ ६ ३ १७ १७० ३० ३५ २५ १६४ १७७ १६२ १ ३२ २१० ८ ५ .३० ३७ १०४ १०५ ६ ७१ ५१ ६१ ११७ ५८ २७ २ ६२ २१७ ७ १६३ ११६ १७६ ३१ ३१ १ २८ ३० २१ ५ ४ २४ २२ २० ३२ ३१ २६ ३२ १ ३१ ५ १३ १३ २५ を ७ ११ १४ ५ X ४ २७ ८ २७ १ २० १४ २२ ३१ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४० ] ५० १०० १२ १८१ १८ १२ २ ३२ १६० २४ २१३ १५० १३५ बी १७ १०८ १६३ २८ २१ २४ ४ ३० १२५ २१२ २४५ सत्त्वनिविष्ट: शिष्ट: २४६ सत्सु प्राणेषु दत्तेषु २४७ सधनः कुरुतं जगत २४८ सन्तः कथं नाम न ते २४६ सपदि विधिर्यः कुरुते २५० सप्रसादवदनस्य भूपतः २५१ समजनि सफलं जन्म २५२ स मे क्षण: कदः २५३ सरस्वत्यां स्नानं २५४ सर्वे स्थ हे विहङ्गाः ! २५५ साधूनां लुब्धता काचित् २५६ सिद्धेशप्रमुखैः पुरा २५७ सुक्रतं सुक्रतं तस्य २५८ सतकृतमत: परं २५६ सुखं विषयसेवेति २६० सुखमासीनं: पश्यति २६१ सुरजनमसुरजनं वा गच्छत २६२ सूनुः सच्चरित: सती २६३ सृष्टाः कस्मात कुवलयदृश: २६४ सोऽस्ति कश्चन २६५ स्वभावशुद्धा. सुधयः २६६ स्वयं करोति शक्तश्चेद् २६७ स्वयं श्रीरायातु २६. स्वयमुत्पादितां लक्ष्मी २६६ स्वामिन् ! न कुप्यसि २७० स्वामिन्नधिसुतापते ! २७१ हतमतिषु नृपेषु येन २७२ हारेण हृदयस्थेन २७३ हिनस्ति हा मां २७४ हृषीक विहितं कर्म २७५ हे कासार ! शिरोवतंस० २७६ हे पुत्रा: ! परितात मातरम् २७७ हे वारिवाह ! सहकारमहीरहेण २७८ हे विश्वाश्वासनकव्यसनधन ! २७६ हे वीर ! स्थविर ! २८० हदा याव:परित्यक्ता २१ १४ ३२ १५६ १० २०३ १७६ १५८ २२ و ل ع » १२५ १७३ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Just राजस्थान सरकार राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान ( Rajasthan Oriental Research Institute ) जोधपुर SP G.GE0a सूची-पत्र * राजस्थान पुरातन गरमाला प्रधान सम्पादक-पद्मश्री जिनविजय मुनि, पुरातत्त्वाचार्य मई, १९६३ ई० ternational Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थ-माला प्रधान सम्पादक-पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य लिन प्रकाशित ग्रन्थ १. संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश १. प्रमाणमंजरी, ताकिकचूड़ामणि सर्वदेवाचार्यकृत, सम्पादक - मीमांसान्यायकेसरी पं० पट्टाभिरामशास्त्री, विद्यासागर । मूल्य-६.०० २. यन्त्रराज रचना, महाराजा-सवाई जयसिंह-कारित । सम्पादक-स्व. पं० केदारनाथ ज्योतिर्विद्, जयपुर। मूल्य-१.७५ ३. महर्षिकुलवैभवम्, स्व० पं० मधुसूदनअोझा-प्रणीत, भाग १, सम्पादक-म० म० पं० गिरिधरशर्मा चतुर्वेदी। मूल्य-१०.७५ ४. महर्षिकुलवैभवम्, स्व० पं० मधुसुदनोझा प्रणीत, भाग २, मूलमात्रम् सम्पादक-पं० श्रीप्रद्युम्न अोझा। मूल्य-४.०० ५. तर्कसंग्रह, अन्नं भट्टकृत, सम्पादक-डॉ. जितेन्द्र जेटली, एम.ए., पी-एच. डी., मूल्य-३.०० ६. कारकसंबंधोद्योत, पं० रभसनन्दीकृत, सम्पादक-डॉ० हरिप्रसाद शास्त्री, एम. ए., पी-एच. डी.। मूल्य-१.७५ ७. वृत्तिदीपिका, मोनिकृष्णभट्टकृत, सम्पादक-स्व.पं. पुरुषोत्तमशर्मा चतुर्वेदी, साहित्याचार्य । मूल्य-२.०० ८. शब्दरत्नप्रदीप, अज्ञातक तृ'क, सम्पादक-डॉ. हरिप्रसाद शास्त्री, एम. ए., पी-एच.डी. । मूल्य-२.०० ६. कृष्णगीति, कवि सोमनाथविरचित, सम्पादिका-डॉ. प्रियबाला शाह, एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट् । मूल्य-१.७५ १०. नृत्तसंग्रह, अज्ञातकर्तृक, सम्पादिका-डॉ. प्रिय बाला शाह, एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट् । मूल्य-१.७५ ११. शृङ्गारहारावली, श्रीहर्षकवि-रचित, सम्पादिका-डॉ. प्रियबाला शाह, एम. ए., पी-एच.डी., डी.लिट् ।। मूल्य-२.७५ १२. राजविनोदमहाकाव्यम् , महाकवि उदयराजप्रणीत, सम्पादक-पं० श्रीगोपालनारायण बहुरा, एम. ए., उपसञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर । मूल्य-२.२५ १३. चक्रपाणिविजय महाकाव्य, भट्टलक्ष्मीधरविरचित, सम्पादक-पं० श्रीकेशवराम काशीराम शास्त्री। मूल्य-३.५० १४. नत्यरत्नकोश (प्रथम भाग), महारागाा कुम्भकर्णकृत, सम्पादक-प्रो. रसिकलाल छोटा लाल पारिख तथा डॉ. प्रियबाला शाह, एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट् । मूल्य-३.७५ १५. उक्तिरत्नाकर, साधसुन्दरगरिणविरचित, सम्पादक-पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजयजी, पुरा तत्त्वाचार्य, सम्मान्य संचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर । मूल्य-४.७५ १६. दुर्गापुष्पाञ्जलि, म०म० पं० दुर्गाप्रमादद्विवेदिकृत, सम्पादक-पं० श्रीगङ्गाधर द्विवेदी, साहित्याचार्य । मूल्य-४.२५ १७. कर्णकुतहल, महाकवि भोलानाथविरचित, इन्हीं कविवर की अपर संस्कृत कृति श्रीकृष्ण लीलामतसहित, सम्पादक-पं० श्रीगोपालनारायण बहुरा, एम. ए., मूल्य-१.५० १८. ईश्वरविलासमहाकाव्यम्, कविकलानिधि श्रीकृष्गाभट्ट विरचित, सम्पादक-भट्ट श्रीमथरानाथशास्त्री, साहित्याचार्य, जयपुर। स्व. पी. के. गोड़े द्वारा अंग्रेजी में प्रस्तावना सहित । मूल्य-११.५० १६. रसदोधिका, कविविद्यारामप्रणीत, सम्पादक-पं० श्रीगोपालनारायण बहुरा, एम.ए. मूल्य-२.०० २०. पामुक्तावली, कविकलानिधि श्रीकृष्ण भट्टविरचित, सम्पादक-भट्ट श्रीमथरानाथ शास्त्री, साहित्याचार्य। मूल्य-४.०० २१ काव्यप्रकाशसंकेत भाग १ भट्टसोमेश्वरकृत, सम्पा.--श्रीरसिकलाल छो० पारीख, Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. काव्यप्रकाशसंकेत, भाग २ भट्टसोमेश्वरकृत, सम्पा-श्रीरसिकलाल छो० पारीख, मूल्य-८.२५ २३. वस्तुरत्नकोष, अज्ञातकर्तृक, सम्पा०-डॉ. प्रियबाला शाह । मूल्य-४-०० २४. दशकण्ठवधम्, पं० दुर्गाप्रसाद द्विवेदिकृत, सम्पा०-५० श्रोगङ्गाधर द्विवेदी। मूल्य-४.०० २५. श्री भुवनेश्वरीमहास्तोत्रम्, सभाष्य, पृथ्वीधराचार्यविरचित, कवि पद्मनाभकृत, भाष्य सहित पूजापञ्चाङ्गादिसंवलित । सम्पा०-पं. श्रीगोपालनारायण बहुरा। मूल्य-३.७५ २६. रत्नपरीक्षादि-सप्त ग्रन्थ-संग्रह, ठक्कुर फेक विरचित, संशोधक-पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य। - मूल्य-६.२५ २७. स्वयंभूछन्द, महाकवि स्वयंभूकृत, सम्पा० प्रो० एच. डी. वेलणकर । विस्तृत भूमिका (अंग्रेजी में) एवं परिशिष्टादि सहित मूल्य-७.७५ २८. वृत्तजातिसमुच्चय कवि विरहावरचित, " , " मूल्य-५.२५ २६. कविदर्पण, अज्ञातकतक, मूल्य-६.०० ३०. कर्णामतप्रपा, भट्ट सोमेश्वर कृत सम्पा०-पद्मश्री मुनि जिनविजय । मूल्य-२.२५ २. राजस्थानी और हिन्दी ३१. कान्हडदेप्रबन्ध, महाकवि पद्मनाभविरचित, सम्पा०-प्रो० के.बी. व्यास, एम. ए.। मूल्य-१२.२५ ३२. क्यामखा-रोसा, कविवर जान-रचित, सम्पा०-डॉ दशरथ शर्मा और श्रीनगरचन्द नाहटा। मूल्य-४.७५ ३३. लावा-रासा, चारण कविया गोपालदानविरचित, सम्पा०-श्रीमहताबचन्द खारैड़। मूल्य-३.७५ ३४. वांकीदासरी ख्योत, कविराजो वांकीदासरचित, सम्पाल-श्रीनरोत्तमदास स्वामी, एम. ए., विद्यामहोदधि । मूल्य-५.५० ३५. राजस्थानी साहित्यसंग्रह, भाग १, सम्पा०-श्रीनरोत्तमदास स्वामी, एम.ए.। मूल्य-२.२५ ३६, राजस्थानी साहित्यसंग्रह, भाग २, सम्पा०-श्रीपुरुषोत्तमलाल मेनारिया, एम. ए., साहित्यरत्न । मूल्य-२.७५ ३७. कवीन्द्र कल्पलता, कवीन्द्राचार्य सरस्वतीविरचित, सम्पा०-श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत । __मूल्य-२.०० ३८. जुगलविलास, महाराज पृथ्वीसिंहकृत, सम्पा०-श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत। मूल्य-१.७५ ३६. भगतमाळ, ब्रह्मदासजी चारण कृत, सम्पा०-श्री उदराजजी उज्ज्वल । मूल्य-१.७५ ४०. राजस्थान पुरातत्त्व मन्दिरके हस्तलिवित ग्रंथोंकी सूची, भाग १। मूल्य-७.५० ४१. राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठानके हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची, भाग २। मूल्य-१२.०० ४२ मुंहता नणतीरी ख्यात, भाग १, मुंहता नैणसीकृत. सम्पा०-श्रीबद्रीप्रसाद साकरिया।। मूल्य-८.५० मूल्य-६.५० ४४. रघुवरजसप्रकास, किसनाजी पाढाकृत, सम्पा०-श्री सीताराम लाळस । मूल्य-८.२५ ४५. राजस्थानी हस्तलिखित ग्रन्थ-सूची, भाग १ सं. पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । मूल्य-४.५० ४६. राजस्थानी हस्तलिखित ग्रन्थ-सूची, भाग २–सम्पा०-श्री पुरुषोत्तमलाल मेनारिया एम.ए., साहित्य रत्न । मूल्य-२.७५ ४७. वीरवाण, ढाढ़ी बादरकृत, सम्पा०-श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चुंडावत । मुल्य-४.५० ४८. स्व० पुरोहित हरिनारायणजी विद्याभूषण-प्रन्थ-संग्रह-सूची, सम्पा०-श्रीगोपाल नारायण बहुरा, एम. ए. और श्रीलक्ष्मीनारायण गोस्वामी, दीक्षित । मूल्य-६.२५ ४६. सूरजप्रकास, भाग १-कविया करणीदानजी कृत, सम्पा०-श्री सीताराम लाळस। मूल्य-८.०० मूल्य-६.५० ५१. नेहतरंग, रावराजा बुधसिंह कृत-सम्पा-श्री गमप्रसाद दाधीच एम.ए. मूल्य-४.०० ५२ मत्स्यप्रदेश की हिन्दी-साहित्य को देन, प्रो. मोतीलाल गुप्त,एम.ए.,पीएच.डी. मूल्य-७.०० ५३. वसन्तविलास फागु, अज्ञातकर्तृ'क, सम्पा०-श्री एम. सी. मोदी। मूल्य-५.५० Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] प्रेसों में छप रहे ग्रंथ संस्कृत १. शकुनप्रदीप, लावण्यशमंरचित, सम्पा०- पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । २. त्रिपुरा भारतीलघुस्तव, धर्माचार्यप्रणीत, सम्पा० - पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय ! ३. बालशिक्षाव्याकरण, ठक्कुर संग्रामसिंहरचित, सम्पा०- पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय | ४. पदार्थरत्नमंजूषा, पं० कृष्ण मिश्रविरचित, सम्पा० - पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय | ५. नन्दोपाख्यान, अज्ञातकर्तृक, सम्पा० - श्री बी. जे. सांडेसरा । ६. चान्द्रव्याकरण, प्राचार्य चन्द्रगोमिविरचित, सम्पा० - श्री बी. डी. दोशी । ७. प्राकृतानन्द, रघुनाथकविरचित, सम्पा० - पद्मश्री मुनि श्री जिनविजय । ८. कविकौस्तुभ, पं० रघुनाथरचित, सम्पा० - श्री एम. एन. गोरे । ६. एकाक्षर नाममाला – सम्पा० - मुनि श्री रमणिकविजय । १०. नृत्य रत्नकोश, भाग २, महाराणा कुंभकर्णप्रणीत, सम्पा० - श्री आर. सी. पारीख और डॉ. प्रियबाला शाह । ११. इन्द्रप्रस्थ प्रबन्ध, सम्पा०-डॉ. दशरथ शर्मा । १२. हमीर महाकाव्यम्, नयचन्द्रसूरिकृत, सम्पा० - पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । १३. स्थूलभद्र काकादि, सम्पा०-डॉ० आत्माराम जाजोदिया । १४. वासवदत्ता, सुबन्धुकृत, सम्पा० - डॉ० जयदेव मोहनलाल शुक्ल । १५. वृत्तमुक्तावली, कविकलानिधि श्रीकृष्ण भट्ट कृत; सं० पं० भट्ट श्री मथुरानाथ शास्त्री । १६. आगमरहस्य, स्व० पं० सरयूप्रसादजी द्विवेदी कृत, सम्पा०-प्रो० गङ्गाधर द्विवेदी । राजस्थानी और हिन्दी १७. मुंहता नैणसीरी ख्यात, भाग ३, मुंहता नैणसीकृत, सम्पा० - श्री बद्रीप्रसाद साकरिया । १८. गोरा बादल पदमिणी चऊपई, कवि हेमरतनकृत सम्पा० - श्रीउदयसिंह भटनागर, एम. ए. १६. राजस्थान में संस्कृत साहित्य की खोज, एस. आर. भाण्डारकर, हिन्दी अनुवादकश्रीब्रह्मदत्त त्रिवेदी, एम. ए., २०. राठौडांरी वंशावली, सम्पा० - पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । २१. सचित्र राजस्थानी भाषासाहित्यग्रन्थसूची, सम्पा०- पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । २२. मीरां बृहत् पदावली, स्व० पुरोहित हरिनारायणजी विद्याभूषण द्वारा संकलित, सम्पा० - पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । २३. राजस्थानी साहित्यसंग्रह, भाग ३, संपादक - श्रीलक्ष्मीनारायण गोस्वामी । २४. सूरजप्रकाश, भाग ३. कविया करणीदानकृत सम्पा० - श्रीसीताराम लाळस । २५. रुक्मिणी हरण, सांयांजी भूला कृत, सम्पा० श्री पुरुषोत्तमलाल मेनारिया, एम.ए., सा. रत्न । २६. सन्त कवि रज्जबः सम्प्रदाय और साहित्य, डॉ० व्रजलाल वर्मा । २७. समदर्शी प्राचार्य हरिभद्रसूरि, श्री सुखलालजी सिंघवी । २८. पश्चिमी भारत की यात्रा, कर्नल जंम्स टॉड, प्रनु० श्रीगोपालनारायण बहुरा, एम. ए. अंग्रेजी 29. Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts Part I, R.OR.I. ( Jodhpur Collection ), ed., by Padamashree Jinvijaya Muni, Puratattvacharya. 30. A List of Rare and Reference Books in the R,O.R.I., Jodhpur, compiled by P.D. Pathak, M.A. विशेष - पुस्तक-विक्रेताओं को २५% कमीशन दिया जाता है । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- _