Book Title: Jinabhashita 2001 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित दिसम्बर 2001 श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पपौरा जी (टीकमगढ़) म.प्र. दो समाधियाँ आर्यिका माता पूज्य,मुनि परमपूज्य वीर निर्वाण सं. 2529 मार्गशीर्ष वि.सं. 2058 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC जिनभाषित दिसम्बर 2001 वर्ष 1 मासिक अङ्क 7 सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन अन्तस्तत्त्व कार्यालय 137, आराधना नगर, भोपाल-462003 म.प्र. फोन0755-776666 • विशेष समाचार : दो समाधियाँ • आपके पत्र : धन्यवाद . सम्पादकीय : आर्यिका माता पूज्य, मुनि परमपूज्य . प्रवचन : अपने आदर्शों के पीछे चलो : आचार्य श्री विद्यासागर लेख सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द लुहाड़िया पं. रतनलाल बैनाडा डॉ. शीतलचन्द्र जैन डॉ. श्रेयांस कुमार जैन प्रो. वृषभ प्रसाद जैन डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' __शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे. आर.के. मार्बल्स लि.) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश राणा, जयपुर द्रव्य-औदार्य श्री अशोक पाटनी (मे. आर.के. मार्बल्स लि.) किशनगढ़ (राज.) • नई सहस्राब्दी और भारत : डॉ. अशोक सहजानन्द • जैन श्रमण परम्परा के अद्वितीय श्रमण : मुनि श्री अजितसागर समाधिमरण : जीवन सुधार की कुंजी : पं. मिलापचन्द्र कटारिया • डॉ. दरबारीलाल जी कोठिया की अन्तर्यात्रा डॉ. शीतलचन्द्र जैन जैन संस्कृति में पर्यावरण-चेतना : डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव वर्तमान सामाजिक असमन्वय के कारण : डॉ. सुरेन्द्र 'भारती' . शंका समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा . व्यंग्य : कार-कथा : शिखरचन्द्र जैन • स्तुति : कविवर दौलतराम जी .कविताएँ • कोई एक किसी दूरी को : अशोक शर्मा यहाँ कुछ नहीं है अपनी इच्छा से : कमार अनेकान्त जैन जब धर्म का झण्डा डंडा बन जाता है : आचार्य श्री विद्यासागर : प्रो. (डॉ.) सरोजकुमार प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-351428,352278| आवरण 3 आवरण 3 मुखौटे सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000 रु संरक्षक 5,000 रु. आजीवन 500 रु. वार्षिक 100 रु. एक प्रति 10रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। . बोधकथा : धर्मराज का वात्सल्यभाव 17 समाचार 15,17,27,29 Jain Education Interational Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष समाचार दो समाधियाँ पूज्य आर्यिका श्री जिनमति जी का समाधिमरण परमपूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी की शिष्या पूजनीया आर्यिका जिनमति जी का 29 नवम्बर 2001 गुरुवार को रात्रि 2.45 बजे खिमलाशा (सागर म. प्र. ) में शान्तिमय समाधिमरण हो गया। आपका जन्म 8 अक्टूबर 1963 को शाहगढ़ (सागर, म.प्र.) में हुआ था। आपके गृहस्थ जीवन के पिता श्री कोमलचन्द्र जी जैन एवं माता श्रीमती चिन्तादेवी थी। आपने लौकिक शिक्षा बी. ए. द्वितीय वर्ष तक प्राप्त की थी। आपने 30 नवम्बर 1982 को सिद्धक्षेत्र नैनागिरी में दीपावली के दिन आचार्य श्री विद्यासागर जी से आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत लेकर मोक्षमार्ग पर कदम रखा था । श्रावकव्रतों की उत्तरोत्तर साधना करते हुए आपने 10 फरवरी 1987 को सिद्धक्षेत्र नैनागिरी में पंचकल्याणक के अवसर पर दीक्षाकल्याणक के दिन आचार्य श्री विद्यासागर जी से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की थी। सतत स्वाध्यायशीलप्रवृत्ति की धनी माता जी का कर्मसिद्धान्त पर अच्छा अधिकार था। प्रवचनशैली भी बहत ही प्रभावक थी। वे मृदुभाषी और शान्तपरिणामी थीं लेकिन असातावेदनीय के उदय से उन्हें एक असाध्य मस्तिष्क रोग ने घेर लिया था। फिर भी उन्होंने अपनी चर्या में कोई कमी नहीं आने दी और अंतिम समय तक जाग्रत रहते हुए विशुद्ध परिणामपूर्वक देह का परित्याग किया। आर्यिका श्री एकत्वमति जी का समाधिमरण परमपूज्य 'आचार्य श्री विद्यासागर जी की शिष्या पूज्या आर्यिका श्री एकत्वमति जी ने दिनांक 11 दिसम्बर 2001 को शाम 5.45 बजे श्री दिगम्बर जैन मंदिर टी.टी. नगर, भोपाल (म.प्र.) में सल्लेखनापूर्वक देह विसर्जन कर दिया । संघप्रमुखा आर्यिका श्री पूर्णमति जी तथा संघ की समस्त आर्यिकाओं एवं ब्रह्मचारिणियों ने बड़े ही वात्सल्यभाव से उनकी समुचित वैयावृत्य की मृत्यु के समय माता जी के परिणाम अत्यन्त शान्त और वैराग्यभाव से परिपूर्ण थे। उनका जन्म 15 जनवरी 1952 को रायसेन (म.प्र.) जिले के नगड़िया ग्राम में हुआ था। उनके पूर्वाश्रम के पिता श्री कन्हछेदीलाल जी जैन तथा माता श्री तेजाबाई थीं। आर्यिका श्री ने 25 जनवरी 1993 था को नन्दीश्वरद्वीप, मढ़ियाजी, जबलपुर के पंचकल्याणक महोत्सव में परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की थी। तब से वे स्वाध्याय एवं संयम तप की गहन साधना में रत थीं। करीब चार वर्षों से उनके शरीर को असाध्य रोग ने घेर लिया था। फलस्वरूप उन्होंने आचार्यश्री से अनेक बार सल्लेखनाव्रत की प्रार्थना की, किन्तु वे कुछ और प्रतीक्षा करने के लिये कह देते थे। अन्त में 30 अक्टूबर 2001 को उन्होंने प्रार्थना स्वीकार कर ली। उसी दिन से आर्यिका एकत्वमति जी ने सल्लेखनाव्रत ग्रहण कर लिया और 11 दिसम्बर 2001 को प्रतिक्रमण करते हुए तथा आचार्यश्री के चित्र को एकटक निहारते हुए ओंकारध्वनि के उच्चारण के साथ देहपरित्याग कर दिया। 12 दिसम्बर 2001 को प्रातः 8 बजे विमान में पद्मासनमुद्रा में पिच्छी- कमण्डलु के साथ विराजमान कर उनकी समाधियात्रा निकाली गई हजारों जैन जैनेतर लोग यात्रा में शामिल हुए। बाहर से भी बहुत से लोग आ गये थे। भोपाल की आँखों ने प्रसन्नतापूर्वक देह से मोहत्याग का ऐसा हृदयस्पर्शी, अलौकिक, दुर्लभ दृश्य पहले कभी नहीं देखा था। जैनेतर जनता पर इस दृश्य का अनिर्वचनीय प्रभाव पड़ा। वह गदगद होकर श्रद्धा से मस्तक झुका रही थी। प्रातः 10.30 पर श्री दिगम्बर जैन मन्दिर जवाहर चौक, टी.टी. नगर के परिसर में उपयुक्त स्थान पर आर्यिका श्री द्वारा परित्यक्त शरीर का दाहसंस्कार कर दिया गया। पूज्य आर्यिका श्री पूर्णमति जी ने उपस्थित जनसमुदाय को सम्बोधित किया । 'दिसम्बर 2001 जिनभाषित 1 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य में प्रचलित पाश्चात्यीकरण की ओर समाज के झुकाव पर तीखा प्रहार किया है, वह स्तुल्य है। मंदिरों में फिल्मी संगीत के प्रवेश तथा विवाहों के धार्मिक स्वरूप को छोड़कर उसके वीभत्सीकरण का जो चित्रण किया है वह निश्चित ही झकझोरने वाला है समाज को संस्कृति की सुरक्षा के लिये ऐसे बेहूदे कार्यक्रमों का बहिष्कार करने की आदत हालनी होगी। आपके ऐसे लेखों के लिये हार्दिक बधाई। सर्वप्रथम मैं आपको इस बात के लिये बधाई देना चाहता हूँ कि आपके द्वारा सम्पादित 'जिनभाषित (मासिक) का स्तर उच्चतम कोटि का है। जैन समाज द्वारा जो पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित की जा रही हैं, उनमें से अधिकांश अखिल भारतीय स्तर की नहीं है। 'जिनभाषित' एक अखिल भारतीय स्तर की पत्रिका है. इस पर जैन समाज को गर्व होना चाहिये। इस पत्र का मूल उद्देश्य आपके द्वारा सितम्बर, 2001 के अंक में लिखे गये सम्पादकीय के लिये साधुवाद देने का है। आपने अपने सम्पादकीय (वैराग्य जगाने के अवसरों का मनोरंजनीकरण) में जो मुद्दे उठाये हैं वे जैन समाज के लिये गम्भीर चिन्तन के विषय हैं। भक्तिमार्गियों के प्रभाव में आकर हम सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र को शनैः शनैः भूलते जा रहे हैं। 'धर्म की प्रभावना' के नाम पर भौंडे व खर्चीले आयोजनों की आज भरमार है। छात्रावास एवं विद्यालय खोलने जैसे उपयोगी एवं स्थायी प्रभावना वाले विषयों की ओर हमारा ध्यान शायद ही जा पाता है। मैं आशा करता हूँ कि आप इसी प्रकार के सामयिक एवं विचारोत्तेजक विषयों पर अपनी लेखनी चलाते रहेंगे बावजूद इसके कि कुछ लोग आपकी आलोचना करने के लिये तत्पर रहेंगे। कन्हैयालाल जैन (सेवानिवृत्त आई.ए.एस.) ई-4/39, महावीर नगर, भोपाल (म.प्र.) सितम्बर, 2001 का अंक मिला, पढ़कर बहुत अच्छा लगा! सम्पादकीय "वैराग्य जगाने के अवसरों का मनोरंजनीकरण" वर्तमान समय में फैलती एक बड़ी कुरीति पर करारा तमाचा है। मैं काफी समय से धर्मकार्यों में फिल्मी धुन व फिल्मी संगीत के बढ़ते प्रयोग से चिंतित था। हमारा जैनधर्म निवृत्तिप्रधान है, उसमें इस फूहड़ता का हम सभी को कठोर विरोध करना चाहिये। जहाँ कहीं भी विधान, पंचकल्याणक या अन्य धार्मिक कार्यक्रम हो, उनमें आनेवाली संगीत पार्टियों को स्पष्ट निर्देश दिये जायें कि फिल्मी धुनों का प्रयोग न करें। जिन आचार्य, मुनि या आर्थिका जी के सान्निध्य में ये कार्यक्रम हों, वे इसका निषेध करें, तो इस समस्या का समाधान सम्भव हो सकता है। 'जिनभाषित' आने वाले समय में श्रेष्ठ पत्रिका बनेगी। एक सुझाव है कि जैन धर्म पर आधारित शब्द-सागर वर्ग पहेली भी शुरू करें। आशा है मेरी बात को आप स्थान देंगे। भूपेन्द्र जैन तुलसी नगर, भोपाल (म.प्र.) 'जिनभाषित' पत्रिका के सितम्बर-अक्टूबर के अंक प्राप्त हुये। सम्पादकीय लेख 'वैराग्य जगाने के अवसरों का मनोरंजनीकरण' एवं 'विवाह एक धार्मिक अनुष्ठान' पढ़ने पर ऐसा लगा कि आपने वर्तमान 2 दिसम्बर 2001 जिनभाषित आवरण पृष्ठ पर आचार्य भगवन्तों के चित्र के साथ जन्मतिथि व पुण्यतिथि का उल्लेख भी किया जाये, तो श्रेयस्कर होगा। माणिकचन्द जैन पाटनी राष्ट्रीय महामंत्री दि. जैन महासमिति ए/16, नेमीनगर (जैन कालोनी) इंदौर-452009 (म.प्र.) 'जिनभाषित' के मई 2001 से सितम्बर 2001 तक के सभी अंक अनवरत अधिगत हो रहे हैं। सर्वप्रथम आपने पत्रिका का नाम 'जिनभाषित' युक्तियुक्त, समीचीन और अभिनव रखा है। अब तक के ये चारों अंक मुद्रण, गैटप, कागज, विषय-वस्तु सभी दृष्टि से सामयिक और सुन्दर / आकर्षक बने हैं। ऐसे अतिशोभन प्रकाशन पर आप सभी साधुवाद के पात्र हैं। सभी अंकों के सम्पादकीय समीचीन और अपरिहार्य रूप से पठनीय हैं। सितम्बर अंक का सम्पादकीय तो जैन समाज में आ रही विसंगतियों की ओर समाज को जागृति, देता है। इसी अंक में 'जैन निबन्ध रत्नावली' से साभार गृहीत लेख प्रतिष्ठाचार्यों के लिये विचारणीय है। प्रत्येक अंक में आपका 'जिज्ञासासमाधान' 'जिनभाषित' के अनुकूल है। आर्थिका नवधाभवित विवादविषयक न होकर चर्चापरक ही बना रहे पं. मूलचंद जी लुहाड़िया का कथन युक्तियुक्त है। सभी अंकों में अन्य आलेख भी पठनीय हैं। प.पू. आचार्य विद्यासागर जी के प्रवचनांशों का प्रकाशन प्रारंभ में ही अपेक्षित है। "जिनभाषित" की अक्षर कला एवं मुखपृष्ठ पर अध्यात्म-महापुरुष का चित्र पत्रिका को द्विगुणित शोभा प्रदान करते पुनः साधुवाद के साथ डॉ. प्रेमचन्द्र रांवका 22, श्री जी नगर दुर्गापुरा, (जयपुर) राज. -302018 'जिनभाषित' का अक्टूबर अंक प्राप्त हुआ आपके श्रेष्ठ सम्पादकत्व एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ के प्रकाशकत्व में प्रस्तुत यह पत्रिका समाज एवं अन्य प्रकाशनों के लिये उदाहरणस्वरूप है। निम्न विशेषताएँ मन को आकर्षित करने वाली है 1. कुरीतियों एवं समाज तथा धर्म को लज्जित करने वाली प्रवृत्तियों पर गम्भीरता एवं व्यंग्यात्मक पद्धति से प्रहार 2. आगमविरोधी एवं मुनिविरोधी प्रवृत्तियों से समाज को सावधान करने का प्रयास । 3. सामयिक चर्चाओं का प्रकाशन । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. आगम विषयक ऊहापोह। मेरे लिये उपयुक्त लगा, 'धर्ममंगल' में पुन: प्रकाशन की अनुमति 5. जैन संस्कृति का संरक्षण, धर्म प्रभावना। . देवें। आपके सम्पादकीय भी अध्यात्म, मनोविज्ञान, समाज विज्ञान 6. साधु परम्परा विशेष तौर पर सन्त शिरोमणि 108 | का बेजोड़ संयोग होते है। पं. श्री रतनलालजी बैनाड़ा के लेख भी आचार्य श्री विद्यासागर जी के दिव्य उपदेशों का प्रसार। बहुत पसंद आते हैं। प्रस्तुत अंक में आपका सम्पादकीय 'विवाह एक धार्मिक सौ. लीलावती जैन अनुष्ठान' तथा 'कर्मों का प्रेरक स्वरूप' दोनों ही दिशाबोधक एवं धर्ममंगल, 5 दिशांत अपार्टमेंट ज्ञानवर्द्धक हैं। पुराने लेखकों - स्व. पं. नाथूराम प्रेमी, पं. जुगलकिशोर दिपा. हा. सोसा. संघवीनगर, औंध, पुणे-7 मुख्तार, पूज्य वर्णीजी आदि को आप अवश्य स्थान देते हैं, यह स्पृहणीय है। "शंका-समाधान" में बैनाड़ाजी जिज्ञासाओं को जाग्रत "जिनभाषित' के सितम्बर व अक्टूबर के अंक मिले, जिन्हें कर ऊहापोह का मार्ग प्रशस्त करते हैं। देखकर प्रसन्नता हुई। पं. रतनलालजी बैनाड़ा द्वारा “शंका-समाधान" पत्रिका हर दृष्टि से श्रेष्ठ है। आप सभी की मुक्त कंठ से प्रशंसा पढ़कर आनन्द की अनुभूति हुई। आज तक इस पत्रिका के जितने करता हूँ। भी अंक आये हैं हमने उनकी पूरी फाईल बनाई है, जिसे हम जब शिवचरणलाल जैन सीताराम मार्केट, मैनपुरी (उ.प्र.) चाहें, तब देख सकते हैं। अभी तक ऐसी सुन्दर पत्रिका देखने को पिन कोड-205001 नहीं मिली, शाम को स्वाध्याय के समय पढ़ने का आनन्द आता है। यह पत्रिका अच्छी निकल रही है। स्वच्छ मुद्रण, आकर्षक साजसंयोग से 'जिनभाषित' के सितम्बर एवं अक्टूबर दोनों ही अंक सज्जा एवं सुरुचिपूर्ण सामग्री - इन तीनों ही दृष्टियों से यह पत्रिका एक साथ मिले है। पत्रिका दोनों ही सरसरी तौर पर पढ़ गया हूँ। बेहद | स्तरीय है। स्तरीय एवम् सामयिक सामग्रीयुक्त, सुन्दर प्रकाशन, उत्तम सम्पादन सुरेश भाई एम. गाँधी के लिये हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकार करें। आवरण पृष्ठ पर आचार्य गाँधी मेडीकल स्टोर्स वीरसागर जी एवं आचार्य शिवसागरजी के चित्र बेहद प्रेरक हैं। हमें डॉ. गाँधी रोड, हिम्मतनगर (गुज.) पूर्वाचार्यों को ज्यादा प्रसारित/रेखांकित करना चाहिये। "वैराग्य के "जिनभाषित' पत्रिका एक उच्च कोटि की पत्रिका है। इसके सभी अवसरों का मनोरंजनीकरण'' पर सम्पादकीय अत्यन्त सामयिक एवं लेख किसी न किसी विषय पर अच्छा प्रकाश डालते हैं। इस माह प्रभावी है। स्व. मुख्तार जी का भवाभिनन्दी मुनि वाला लेख भी का सम्पादकीय लेख "विवाह एक धार्मिक अनुष्ठान" पठनीय और द्रष्टव्य एवं विचारणीय है। एक बार पुनः सुन्दर प्रकाशन हेतु शुभेच्छा। अनुकरणीय है। इस पत्रिका में कुछ दिवगंत विद्वानों के लेख भी रहते डॉ. चिंरजीलाल बगड़ा सम्पादक - दिशाबोध हैं, जो पुराने होते हुये भी नूतन जैसे ही लगते हैं और उनके द्वारा 48, स्ट्रेण्ड रोड, (3rd फ्लोर) कोलकाता - 700007 अच्छा बोध प्राप्त होता है। सितम्बर के अंक में स्व. क्षुल्लक श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी आदि 5 स्व. विद्वानों के लेख हैं, जो पठनीय होने आपके द्वारा सम्पादित पत्रिका 'जिनभाषित' के तीन अंक | के साथ ही शिक्षाप्रद है। पं. रतनलालजी बैनाड़ा का 'शंका-समाधान' जुलाई-अगस्त, सितम्बर एवं अक्टूबर प्राप्त हुये। तीनों अंकों पर | का पृष्ठ तो अत्युत्तम है, जो अनेक शंकाओं पर अच्छा समाधान आचार्य श्री शांतिसागरजी, आ. वीरसागर जी. आ. शिवसागरजी । प्रस्तुत करता है। के चित्र प्रकाशित किये गये हैं, जो बहुत ही सुन्दर एवं चित्त को । संक्षेप में यह पत्रिका अनेक दृष्टियों से अत्यन्त उपयोगी और भारत को पहले कौनो आशांतिसागर जी का जीवन- । पठनीय है। इन सब संयोजनों के लिये प्रधान सम्पादक का प्रयत्न चारित्र दिया है। बहुत ही अच्छा होता यदि अन्य अंकों में भी आ. अत्यन्त सराहनीय है। ऐसी उत्तमकोटि की पत्रिका के प्रकाशन के लिये वीरसागरजी व आ. शिवसागरजी के जीवन-चारित्र का परिचय | सबको हार्दिक बधाई। प्रकाशित किया जाता। महान् गुरुओं के जीवन-चारित्र से पाठकों को उदयचन्द्र जैन, सर्वदर्शनाचार्य प्रेरणा मिलती है। वाराणसी 'जिनभाषित' के अकों में उत्तम लेख दिये गये हैं, जो आपकी विद्वत्ता का परिचय देते हैं। पत्रिका अनुपम, सुन्दर एवं आकर्षक है। 'जिनभाषित' का अक्टूबर, 2001 का अंक यथा समय प्राप्त पत्रिका द्वारा जैन धर्म का प्रचार-प्रसार होता रहेगा। आपको बहुत-बहुत हुआ। सर्वप्रथम, सम्पादकीय ही पढ़ता हूँ, “विवाह एक धार्मिक बधाई। अनुष्ठान" में जिन-शास्त्रसम्मत अवधारणाओं से विवाह के धार्मिक पुरुषोत्तम दास जैन अनुष्ठान एवं विवाह-विधि की धार्मिकता एवं सात्त्विकता प्रतिपादित 1088, डागान स्ट्रीट की गयी है। लेख तैयारी के श्रम, शोध, पुरुषार्थ निश्चिंत ही प्रशंसनीय पो. - जगाधरी (हरियाणा) 135003 | हैं। वर्तमान में पश्चिम के अंधानुकरण की दौड़ ने युवा पीढ़ी को भ्रमित कर रखा है, इस पावन संस्कार में जो कलुषता एवं वीभत्सता आ आपके सफल, उत्कृष्ट सम्पादन से ओतप्रोत पत्रिका | गई है, इसे देख-विचार कर हम अभी सचेत और सतर्क नहीं हुए, "जिनभाषित' बराबर मिल रही है। पत्रिका अन्तर्बाह्य दोनों ओर से | तो हमें अपने आपको जैन कहलाकर गौरवान्वित होने का कोई अधिकार सर्वांग सुन्दर है। गत अंक में "भवाभिनन्दी और मुनिनिन्दा” लेख | नहीं बनता है। आवश्यकता इस बात की है कि इन दुष्प्रवृत्तियों एवं -दिसम्बर 2001 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदर्शनों को जड़-मूल से नष्ट किया जाये। इस बाबत किये जाने वाले प्रयास प्रशंसनीय हैं ही, संस्कृति के संरक्षण का कार्य भी कर रहे हैं। काव्य समीक्षा के अन्तर्गत "संवेदनाएँ एवं संस्मरण" में अभिव्यक्त हृदय के विचारों को लिपिबद्ध देखकर आत्मिक आनन्द से भर गया। पूज्य श्री क्षमासागर जी महाराज के व्यक्तित्व के प्रति आस्था, श्रद्धा एवं विकास को शब्द मिल गये हम श्री शुक्लजी के प्रति आभार व्यक्त करते हैं। 'शंका-समाधान' बहुत ही उत्कृष्ट कॉलम है। पं. रतनलाल जी बैनाड़ा द्वारा पाठकों के प्रश्नों का सम्पक् समाधान प्राप्त होता है। अरविन्द फुसकेले उपा. पारस जन कल्याण संस्थान EWS- 541, कोटरा, भोपाल - 462003 'जिनभाषित' का अक्टूबर, 2001 अंक प्राप्त हुआ। मुखपृष्ठ पर 108 आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के दादागुरु 108 आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज का चित्र देखकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई । पत्रिका की साज-सज्जा, छपाई अत्यधिक मनमोहक है। - सम्पादकीय - 'विवाह एक धार्मिक अनुष्ठान' पढ़कर ऐसा लगा जैसे आपने मेरे मन की बात कह दी। संपादकीय में आपने सभी सामाजिक पक्षों पर प्रकाश डालकर भटकते हुये समाज को अपनी सशक्त लेखनी के माध्यम से भँली प्रकार मार्गदर्शन दिया है। आपका लेख विवाह के सभी पक्षों को उजागर करने वाला है। मेरी ओर से दिसम्बर 2001 जिनभाषित बधाई स्वीकार करें। इसी प्रकार एक अन्य लेख 'वनवासी और चैत्यवासी स्व. पं. नाथूरामजी प्रेमी का ऐतिहासिक एवं महत्त्वपूर्ण है। श्वेताम्बर, दिगम्बर साधुसमाज का स्पष्ट चित्रण करने वाले उपयोगी लेख अवश्य आने चाहिये, जिससे निर्बंध साधुओं का असली रूप समझ में आ सके। इसकी अन्य दो किश्तें आने पर पूरी जानकारी प्राप्त हो सकेगी। अनूपचन्द न्यायतीर्थ 769, गोदिकों का रास्ता किशनपोल बाजार, जयपुर (राज.) 'जिनभाषित' का अक्टूबर, 2001 अंक मिला। सम्पादकीय 'विवाह एक धार्मिक अनुष्ठान' पढ़कर अत्यन्त आनन्द हुआ, इस लेख में समाज में फैली हुई कुरीतियों का अच्छा चित्रण किया गया है । इस पत्रिका का प्रत्येक अंक अपने आप में अनूठा, आकर्षक और आध्यात्मिक सामग्री से भरा होता है, जिसे खोलने के बाद मैं अन्तिम पृष्ठ तक पढ़ने के बाद ही इसे बन्द करता हूँ। यह पत्रिका धर्म में आई कुरीतियों को दूर करने के साथ-साथ सामाजिक अन्धविश्वासों को भी समाप्त करेगी, यह मेरा विश्वास है। स्पष्टीकरण भाई पंकज शाह ने अक्टूबर अंक में मेरे लेख 'श्री महावीर उदासीन आश्रम कुण्डलपुर' की स्थापना के संबंध में स्पष्टीकरण चाहा है मेरा पुनः निवेदन है (लेखानुसार) कि कुण्डलपुर आश्रम की स्थापना पू. गोकुलचन्द्र जी वर्णी नं. 1910/11 में की थी। उन्होंने थोड़ी जमीन खरीदी और झोपड़ियों में त्यागी वृन्द रह कर स्वयं भोजन बनाते थे। इस आश्रम के भवननिर्माण हेतु वे अर्थसंग्रह को इन्दौर गये थे। सर सेठ हुकमचन्द्रजी ने इस योजना को साकार करने हेतु प्रेरणा की और इन्दौर में ऐसे आश्रम की स्थापना के लिये आग्रह किया । अतः 1914 में इन्दौर आश्रम स्थापित हुआ और कुछ समय उसका संचालन भी किया। ब्र. गोकुलचन्द्र जी से सरसेठ सा. ने प्रश्न किया आपको इन्दौर आने से क्या लाभ मिला। ब्र जी ने उत्तर दिया मैं एक आश्रम को लेकर प्रायस रत था। अब दो हो गये एक कुण्डलपुर दूसरा इन्दौर। भवन के लिये भिन्न स्थानों से चन्दा करके ब्र. गोकुलचंद्र जी ने प्रायः बारह हजार की लागत से कुण्डलपुर में आश्रम के भवन का निर्माण पूर्व में झोपड़ियों के स्थान पर कराया (सन् 1915 में)। भवन का उद्घाटन सन् 1918 में हुआ। इस तरह दि. जैन समाज का महावीर उदासीन आश्रम कुंडलपुर प्रथम आश्रम है इसकी स्थापना 1910/11 में हुई, फिर भी भवन का निर्माण 1915/18 में हुआ, जबकि इंदौर आश्रम का भवन 1914 को अस्तित्व में आ गया था। इस स्पष्टीकरण से न तो लेखक की ओर न पत्रिका की विश्वनीयता पर आँच आती है। संदर्भ- मेरी जीवनगाथा (पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी पेज 288 बाबा गोकुल चन्द जी तथा द्वादश वर्षीय विवरण श्री दि. जैन उदासीन आश्रम इन्दौर सन् 1927 (1914 से 1926 तक की रिपोर्ट) अशोक जैन प्रचार मंत्री- श्री शांतिनाथ दि. जैन अतिशय क्षेत्र 'सुदर्शनोदय' आँवा, जिला - टोंक (राज.) पिनकोड 304802 अमरचन्द्र जैन, श्री दि. जैन महावीर आश्रम, कुण्डलपुर, दमोह-470773 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय आर्यिका माता पूज्य, मुनि परमपूज्य एक प्रश्न उठाया गया है कि क्या आर्यिका माताएँ पूज्य है? | 2. 'प्रणामेनार्चित: नारदो मुनिः।' (हरिवश पु. 43/228) मेरा उत्तर है- अवश्य। 'पूजा' शब्द आदर - सम्मान का वाचक है, | 3. 'इच्छाकारादिना सम्यक् सम्पूज्य।' (पद्मपुराण 100/40) इसलिये किसी भी व्यक्ति की सम्मानविधि के लिये 'पूजा' शब्द का 4. 'वन्दनीया नमोऽस्तु-शब्द योग्याः ।' (सुत्तपाहुड, टीका 12) प्रयोग किया जा सकता है। यथा 5. 'वस्त्रादिभिः पूजयित्वा।' (र.क.श्रा. जयकुमार कथा) स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते धनी। 6. 'पूजितः आसनादिप्रदानेन।' (पद्मपुराण 102/3) स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।। 7. 'आशीर्भिरम्यर्च्य ततः क्षितीन्द्रम्' (भट्टिकाव्य 1/24) अर्थात् मूर्ख की पूजा (सम्मान) अपने ही घर में होती है, धनवान् | सम्मानसामग्री का नाम अर्घ्य अपने ग्राम में ही पूजा जाता है, राजा की पूजा उसके देश तक ही भारतीय संस्कृति में अर्ध्य केवल देवपूजा का द्रव्य नहीं है, सीमित होती है, किन्तु विद्वान् सब जगह पूजा जाता है। अपितु अतिथिसत्कार की लोकप्रचलित सामग्री भी है। वैदिक संस्कृति मातङ्गो धनदेवश्च वारिषेणस्ततः परः। में इन आठ पदार्थों से अर्ध्य बनाया जाता है : जल, दुग्ध, कुशाग्र, नीली जयश्च सम्प्राप्ताः पूजातिशयमुत्तमम्।। दधि, घृत, तण्डुल, जौ और सरसों(र.क.श्रावकाचार) आपः क्षीरं कुशाग्रं च दधि सर्पिः सतुण्डलम्। अर्थात् यमपाल नामक चाण्डाल, धनदेव नामक व्यापारी, नीली यवः सिद्धार्थकश्चैव अष्टाङ्गोऽर्घः प्रकीर्तितः॥ नामक स्त्री तथा वारिषेण और जयकुमार नाम के राजकुमार अहिंसादि यह देवताओं और सम्मान्य व्यक्तियों दोनों को समर्पित किया अणुव्रतों के कारण पूजातिशय को प्राप्त हुए। जाता है। (आप्टे संस्कृत-हिन्दी कोश) इस तरह 'पूजा' शब्द का प्रयोग मूर्ख की आव भगत के लिये वस्तुतः स्वागतसत्कार की वस्तु का नाम अर्घ है। अत: यह भी हो सकता है, धनवान् के सम्मान के लिये भी, राजा के आदर जरूरी नहीं है कि वह आठ या अनेक द्रव्यों से मिलकर बने। कोई सत्कार के लिये भी, विद्वान् के अभिनन्दन के लिये भी, दिक्पालों एक द्रव्य भी अर्घ बन जाता है। कालिदास के 'मेघदूत' में निर्वासित के स्वागत के लिये भी, श्रावक, क्षुल्लक, एलक और आर्यिका के | यक्ष जब मेघ के द्वारा अपनी प्रिया को सन्देश भेजना चाहता है तब आदर-सम्मान के लिये भी और पंचपरमेष्ठियों की आराधना के लिये केवल कुटजपुष्पों के अर्घ से ही मेघ की पूजा करता हैभी। इतना ही नहीं, हम अपने सम्बन्धियों, मित्रों और अतिथियों का सः प्रत्यप्रैः कुटजकुसुमैः कल्पितार्घय तस्मै जो स्वागत-सत्कार करते हैं, वह भी पूजा ही कहलाता है। प्रीतः प्रीतिप्रमुखवचनं स्वागतं व्याजहार। पूजा की विधियाँ मल्लिनाथ यहाँ अर्घ की व्याख्या करते हुये कहते हैंविनय के निम्नलिखित उपचारों से आदर-सम्मान की | “कल्पितार्घाय कल्पितोऽनुष्ठितोर्घः पूजाविधिर्यस्मै तस्मै।" अर्थात् अभिव्यक्ति होती है, अतः ये पूजा की विधियाँ हैं 'अर्घ' पूजाविधि या पूजाद्रव्य का नाम है। राजगृही में समवशरण में 1. जुहार, नमस्कार, वन्दे, नमोऽस्तु, इच्छामि, इन | स्थित भगवान महावीर की पूजा के लिये मेंढक एक ही पुष्प मुँह में विनयसूचक शब्दों का उच्चारण, गुणस्तवन, जयजयकार करना, | दबाकर ले गया था। आशीर्वचन कहना, कुशल - क्षेम पूछना आदि। इससे सिद्ध है कि केवल देवपूजा की सामग्री अर्घ्य या अर्घ 2. हाथ जोड़ना, मस्तक झुकाना, पंचागनमन, अष्टांगनमन, | नहीं कहलाती, अपितु किसी के भी सत्कार की सामग्री का नाम अर्घ चरणस्पर्श, पादप्रक्षालन, पादोदक मस्तकारोहण, अभ्युत्थान, प्रद- | है, चाहे वह एक हो अथवा अनेक द्रव्यों का समूह, जलादि अष्टद्रव्य क्षिणीकरण, पैर दबाना आदि। हों या वस्त्राभूषणादि। 3. तिलक लगाना, माला पहनाना, श्रीफल भेंट करना, आरती, | इसलिए यदि आर्यिकादि को अर्घ चढ़ाया जाता है या अष्टद्रव्य उतारना, गन्धद्रव्य से सुवासित करना, उच्चासन, वस्त्राभूषण आदि अर्पित किये जाते हैं, तो इसका आगम से कोई विरोध प्रतीत नहीं प्रदान करना, दुग्धादि सेवन कराना, अभिषेक करना, अर्ध्य या अष्ट | होता, क्योंकि जब पंचकल्याणकादि पूजाओं में विघ्नविनाशनार्थ द्रव्य समर्पित करना आदि। आहूत किये गये दिक्पालादि को सम्मानित करने के लिये अष्ट इन पूजोपचारों का वर्णन आचार्यों ने इस प्रकार किया है- | द्रव्यात्मक अर्घ प्रदान किया जाता है. तब आर्यिका. एलक और 1. "गन्धपुष्पधूपाक्षतादिदानमर्हदाधुद्दिश्य द्रव्यपूजा। अभ्यु- क्षुल्लक तो उनसे गुणस्थान की अपेक्षा ऊँचे ही हैं। फिर आर्यिकाओं त्थान-प्रदक्षिणीकरण - प्रणमनादिका-कायक्रिया च। वाचा गुणस्तवनं का सम्मान करने के लिये हम उन्हें श्रीफल अर्पित करते ही हैं, बल्कि च।" (भग आरा./विज, 47) आजकल तो धर्मसभाओं में महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के द्वारा उनके नाम -दिसम्बर 2001 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुकार-पुकार श्रीफल अर्पित करवाये जाते हैं। श्रीफल से श्रेष्ठ और कोई | केवलिप्रणीत धर्म। मोक्षार्थी चारों की ही शरण में जाने की कामना करता पूजाद्रव्य नहीं है। पंचपरमेष्ठियों को तो हम इसे मोक्षफल की कामना | है : ‘चत्तारिसरणं पव्वज्जामि', अतः 'वन्दना' शब्द पंचपरमेष्ठियों से अर्पित करते हैं। अतः जल, चन्दन, आदि अन्य सभी द्रव्य श्रीफल | के प्रति विनय का सूचक है। से हीन हैं। जब सर्वश्रेष्ठ पूजाद्रव्य आर्यिका को अर्पित करने में कोई श्रीफल, पुष्प, चन्दन, अक्षत आदि द्रव्य पंच परमेष्ठियों को आगमविरोध नहीं होता, तो जलचन्दनादि अर्पित करने में आगम | भी अर्पित किये जाते हैं, दिक्पाल आदि देवों और लोक के सम्माननीय विरोध का प्रश्न ही नहीं उठता। और जब एक ही सर्वश्रेष्ठ द्रव्य अर्पित पुरुषों, अतिथियों एवं सम्बन्धियों को भी। सम्माननीय पुरुषों को कर देने से पूजा हो जाती है, तब शेष द्रव्य अर्पित करने या न करने | तिलक लगाया जाता है, माला पहनायी जाती है, श्रीफल अर्पित किया से क्या फर्क पड़ता है? फर्क पड़ता है सिर्फ वन्दना और गुणस्तवन | जाता है, शाल उढ़ाया जाता है, और आरती भी उतारी जाती है। पूर्वक या मोक्षप्राप्ति की कामना करते हुए पूजा द्रव्य समर्पित करने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर दिक्पालों, इन्द्रों, नवग्रहों, से, क्योंकि यह भक्तिरूप पूजा है और भक्तिपूजा के पात्र केवल | देवियों आदि का आह्वान कर उनके सत्कारार्थ इस प्रकार अष्टद्रव्य पंचपरमेष्ठी हैं। अर्पित किये जाते हैं - सम्मानपूजा और भक्तिपूजा में भेद ___'हे आदित्य आगच्छ, आदित्याय स्वाहा। ओं आदित्याय सम्मानपूजा और भक्तिपूजा में भेद है। सम्मानपूजा सम्मान | स्वगणपरिवृताय इदमयं पाद्यं गन्धं पुष्पं धूपं दीपं चरुं बलिं स्वस्तिकं की भावना से की जाती है और भक्तिपूजा गुणानुरागजनित आन्तरिक यज्ञभागं च यजामहे। प्रतिगृह्यता, प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतामिति स्वाहा।' श्रद्धाविशेषरूप भक्ति से। ('भक्तेर्गुणानुरागजनितान्तःश्रद्धाविशेष (प्रतिष्ठासारोद्धार पं. आशाधर जी 2/28) लक्षणायाः' र.क.श्रा.टीका 4/25)। अतः सम्मानपूजा में पूजाद्रव्य 'ओं ह्रीं श्रीप्रभृतिदेवताभ्यः इदं जलं गन्धमक्षतान् पुष्पाणि चरूं सामान्यरूप से (बिना वन्दनादि किये) ही समर्पित कर दिया जाता | दीपं धूपं फलं पुष्पाञ्जलिं च निर्वपामीति स्वाहा।' (वही 2/82) है, किन्तु भक्तिपूजा में गुणस्तवन एवं वन्दना (वन्दे, नमोऽस्तु आदि यह उनके सत्कार की विधि है जैसा कि पं. आशाधर जी ने शब्दों) के द्वारा भक्तिभाव प्रकट करते हुए अर्पित किया जाता है, कहा है - 'अथ दिक्पालान् द्वारपालान् यक्षांश्च संक्षेपेण सत्कुर्यात्॥' जैसा सोमदेव सूरि के कथन से ज्ञात होता है। वे उपासकाध्ययन | (वहीं 3/125) (श्लोक 697-698) में कहते हैं इसलिये इन द्रव्यों का समर्पण पूजा में वैशिष्ट्य उत्पन्न नहीं देवं जगत्त्रयीनेत्रं व्यन्तराद्याश्च देवताः। करता, अपितु इनके समर्पण के साथ जो वन्दना या सम्मान का भाव समं पूजाविधानेषु पश्यन्दूरं व्रजेदधः।। होता है उससे वैशिष्ट्य उत्पन्न होता है। नीतिज्ञों ने कहा है - ताः शासनाधिरक्षार्थं कल्पिताः परमागमे। मनः कृतं कृतं मन्ये न शरीरकृतं कृतम्। अतो यज्ञांशदानेन माननीयाः सुदृष्टिभिः।। येनैवालिङ्गिता कान्ता तेनैवालिङ्गिता सुता। अर्थ - 'तीनों लोकों के द्रष्टा जिनेन्द्र-देव और व्यन्तरादिक अर्थात् मन से किया गया कार्य ही वास्तविक कार्य होता है, देवताओं को जो पूजाविधानों में समानरूप से दखता है, वह नरक | शरीर से किया गया कार्य नहीं। क्योंकि पुरुष जिस शरीर से पत्नी में जाता है। परमागम में शासन की रक्षा के लिये उनकी कल्पना की का आलिंगन करता है उसी से पुत्री का भी करता है, किन्तु मनोभाव गई है। अतः सम्यग्दृष्टियों को चाहिए कि पूजा का अंश देकर उनका | भिन्न-भिन्न होने से आलिंगन का स्वरूप भी भिन्न-भिन्न हो जाता सम्मान करें।' है। एक रतिरूप होता है, दूसरा वात्सल्यरूप। 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यइस पर टिप्पणी करते हुए पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते | परोपणं हिंसा' इस सूत्र से भी मनोभाव की भिन्नता से क्रिया के स्वरूप हैं- उक्त कथन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। (उसमें) सम्यग्दृष्टियों से कहा | की भिन्नता का मनोविज्ञान ध्वनित होता है। गया है कि वे उनको (जिन शासन की रक्षा के लिये कल्पित देवताओं अतः जब वन्दना के भाव के साथ श्रीफल आदि अर्पित किये को) यज्ञांश (पूजाद्रव्य) देकर सम्मान करें, नमस्कार या स्तुति आदि जाते हैं तब उनका अर्पण भक्तिपूजा का रूप धारण करता है और के द्वारा नहीं। इसके अधिकारी तो जिनेन्द्र देव ही हैं।” (| जब सम्मानभाव के साथ अर्पित किये जाते हैं, तब सम्मानपूजा का उपासकाध्ययन, पृष्ठ 58) रूप ले लेता है। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने असंयतों के लिये किसी इससे यह बात स्पष्ट होती है कि किसी को सर्वाधिक | द्रव्य के समर्पण का निषेध नहीं किया, अपितु उनकी वन्दना का निषेध महिमामण्डित करने वाला विनयोपचार अर्घ या अष्टद्रव्यों का समर्पण किया है - 'असंजदं ण वन्दे' (दसणपाहुड, 26)। और उन्होंने जो नहीं है, अपितु वन्दना एवं स्तुति करना है। वन्दना का अर्थ है समर्पण यह कहा है कि संयमी ही वन्दनीय है, शेष सभी सग्रन्थलिंगी भाव अर्थात् किसी की आज्ञा को सर्वोच्च मान्यता देना। मोक्षमार्ग | 'इच्छाकार' के योग्य हैं (सुत्तपाहुड, 13), इसका भी यही रहस्य में पंचपरमेष्ठियों की ही आज्ञा को सर्वोच्च मान्यता दी जा सकती। है कि केवल 'वन्दना' और 'इच्छाकार' के विनयोपचारों से द्रव्यपूजा है, अतः वे ही वन्दनीय हैं। इस प्रकार वन्दना का भाव समर्पणभाव | के स्वरूप में फर्क पड़ता है। इच्छाकार ('इच्छामि' शब्द बोलने) का को द्योतित करता है। इसलिये 'वन्दना' का विनयोपचार सब के साथ | अर्थ है 'मुझे शुद्धात्म तत्त्व की उपलब्धि हो' ऐसी भावना करना नहीं किया जा सकता। समर्पण भाव के ही दूसरे नाम 'भक्ति' और | (सूत्रप्रामृत गाथा 15, पं. पन्नालाल साहित्यचार्य) अथवा 'मैं 'शरणागति' हैं, और शरण चार ही हैं - अरहंत, सिद्ध, साधु एवं | मोक्षभिलाषी हूँ' यह भाव निवोदित करना' (सागारधर्मामृत 7/49, 6 दिसम्बर 2001 जिनभाषित - Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. पन्नलाल जी साहित्याचार्य)। यह मुनि से नीचे के मोक्षसाधकों [ न मानकर संयम का उपकरण (साधन) मानते हैं। इसे दिगम्बरमत के प्रति विनय प्रकट करने का एक तरीका है। यह 'वंदना' और | अमान्य करता है। आर्यिका मध्यमपात्र है, मुनि उत्तमपात्र- 'यतिः 'नमोऽस्तु' शब्दों में गर्भित भक्तिभाव या समर्पणभाव का सूचक | स्यादुत्तमं पात्रं' (सा.ध. 5/44, बारसाणुवेक्खा 17, पद्म, पंचविंश. नहीं है। यदि होता तो इस पृथक् शब्द के प्रयोग की आवश्यकता 2148)। आर्यिका साक्षात् मोक्षमार्गी नहीं होती, मुनि साक्षात् ही क्यों होती? यह शब्द सग्रन्थलिंगियों के प्रति सामान्य सम्मानभाव मोक्षमार्गी होता है। आर्यिका पुरुष को मुनिदीक्षा नहीं दे सकती, प्रकट करने के उद्देश्य से निर्धारित किया गया है। इसलिये वह गुरु नहीं है, मुनि दे सकता है इसलिये वह गुरु है। सवस्त्र अतः यदि आर्यिकादि की वन्दना-स्तुति न की जाय, न ही | होने के कारण आर्यिका गृहलिंगी या सागारलिंगी है, मुनि जिनलिंगी उनसे मोक्ष की कामना की जाय, केवल इच्छाकार के द्वारा विनय | या अनगारलिंगी, जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है - निवेदित करते हुए उन्हें श्रीफल, अर्घ या अष्टद्रव्य समर्पित किये जायँ, तम्हा दुहित्तु लिंगे सागारणगारएहिं वा गहिए।(स.सा.411) तो यह दिक्पालादि देवों की पूजा की तरह भक्तिरूप पूजा नहीं होगी, पाखंडीलिंगेसु व गिहिलिंगेसु वा बहुप्पयारेसु। (स.सा. मात्र सम्मान रूप पूजा होगी। इससे आगम का विरोध नहीं होता। इस 413) प्रकार आर्यिका, एलक और क्षुल्लक सम्मानपूजा के पात्र हैं, भक्तिपूजा ववहारिओ पुण णओ दोण्णिवि लिंगाणि भणइ के नहीं। इसके कारणों पर आगे प्रकाश डाला जा रहा है। मोक्खपहे। (स.सा. 414) पूजाविधि में पात्रानुसार विशेषता इन गाथाओं में आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्षमार्ग में दो ही लिंग (मोक्षमार्ग में दीक्षित मनुष्यों के वेश) बतलाये हैं : सागार और मनुष्य की सम्माननीयता या पूजनीयता के स्तर के अनुसार उसकी पूजाविधि का स्तर साधारण या असाधारण होता है। पूजाविधि अनगार अथवा मुनिलिंग एवं गृहिलिंग। के स्तर की साधारणता-असाधारणता से ही सम्माननीयता का स्तर आचार्य अमृतचन्द्र ने भी 'श्रमण' और 'श्रमणोपासक' के भेद सूचित होता है। यदि परमसम्माननीय की पूजाविधि का स्तर से दो ही लिंगों का कथन किया है - 'यः खलु श्रमण-श्रमणोपासकभेदेन अल्पसम्माननीय की पूजाविधि के समान हो, तो उसकी परमसम्मा द्विविधं द्रव्यलिङ्ग मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकारः।" (स.सा./आ. ननीयता द्योतित नहीं होगी, अपितु वह अल्प सम्माननीय सिद्ध होगा, 414) जिससे उसका सम्मान न होकर अपमान होगा। मनुष्य की जयसेनाचार्य ने इन दो लिंगों का स्वरूप इस प्रकार बतलाया सम्माननीयता का स्तर उसके पद और गुण के द्वारा निर्धारित होता | है- 'निर्विकारशुद्धात्मसंवित्तिलक्षणभावलिङ्गसहितं निर्ग्रन्थयतिलिङ्ग है। गुरु और शिष्य, उपास्य और उपासक, स्वामी और सेवक, राजा कौपीनकरणादिबहुभेदसहितं गृहिलिङ्ग चेति द्वयमपि मोक्षमार्गे व्यवऔर राजकर्मचारी के गुण और पद परस्पर उच्च-निम्न होते हैं, अत: हारनयो मन्यते।' (स.सा./ता.वृ. 414) उनकी सम्माननीयता का स्तर भी उच्च-निम्न होता है, इसलिये उनके । अर्थात् निर्विकार शुद्धात्मानुभूतिरूप भावालिंग सहित निम्रन्थ सम्मान की विधियाँ भी उच्च-निम्न होती हैं। (नग्न) लिंग मुनिलिंग है और लँगोटी लगाना आदि अनेक भेदरूप गृहिलिंग है। मुनि और आर्यिकादि के पद उच्च-निम्न यहाँ स्पष्ट शब्दों में निर्ग्रन्थ (नग्न) लिंग को मुनिलिंग और मुनि का पद आर्यिका, एलक और क्षुल्लक के पदों से उच्च सग्रन्थ (सवस्त्र) लिंग को गृहिलिंग कहा गया है। इससे यह निर्विवाद होता है और आर्यिकादि के पद मुनिपद से निम्न। आर्यिका । है कि क्षुल्लक, एलक और आर्यिका के लिंग गृहिलिंग या सागारलिंग उपचारमहाव्रती होती है, मुनि यथार्थ महाव्रती। उपचारमहाव्रत उन | हैं, क्योंकि वे वस्त्रधारी होते हैं। बाह्य महाव्रतों को कहते हैं जो भावमहाव्रतों के अभाव में वास्तव केवल मुनि का निर्ग्रन्थ लिंग जिनलिंग है। क्षुल्लक, एलक और में महाव्रत नहीं होते, अपितु जिन्हें सादृश्यवश महाव्रत नाम दिया | आर्यिका के लिंग जिनलिंग नहीं है। किन्तु कुछ आधुनिक विद्वानों ने जाता है। आर्यिका के पंचमगुणस्थान होता है, मुनि के षष्ठादि क्षुल्लकादि के सवस्त्रलिंग को भी जिनलिंग मान लिया है (देखिये गुणस्थान। आर्यिका के भावसंयम नहीं होता, मुनि के होता है- "न पुस्तक 'क्या आर्यिका माताएँ पूज्य हैं? पृष्ठ 18-20)। यह सर्वथा तासां भावसंयमोऽस्ति, भावासंयमाविनाभाविवस्त्राद्युपादानान्यथानुप | आगम-विरुद्ध है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा हैपत्तेः" (धवला, पुस्तक 1, सूत्र 93)। आर्यिका सग्रन्थ (वस्त्रपरि एक्कं जिणस्स रूवं बीयं उक्किट्ठसावयाणं तु। ग्रहयुक्त) होती है, मुनि निर्ग्रन्थ (नग्न)। निर्वस्त्र रहने पर स्त्री के लिए अवरट्ठियाण तइयं चउत्थं पुण लिंगदंसणं णत्थि।। लज्जा एवं जुगुप्सा परीषहों का सहन और ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा संभव (दंसणपाहुड, 18) नहीं है। इसलिए वह वस्त्रधारण करने की इच्छा का परित्याग नहीं अर्थात् लिंग तीन ही हैं : एक तो जिनरूप, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकों कर सकती। इसी कारण आगम में आर्यिका के लिए सवस्त्र लिंग | (क्षुल्लक-एलक) का रूप और तीसरा आर्यिकाओं का रूप। इनके निर्धारित किया गया है। अतः वह वस्त्रेच्छारूप आभ्यन्तर परिग्रह | अलावा चौथा लिंग नहीं है। एवं वस्त्रग्रहणरूप बाह्य परिग्रह से युक्त होती है, किन्तु मुनि इन दोनों | यहाँ रूप और लिंग पर्यायवाची हैं, अत: जिनलिंग का अर्थ परिग्रहों से मुक्त होता है। श्वेताम्बरमत में सवस्त्रमुक्ति मानी गई | जिनेन्द्र भगवान् जैसा नग्न रूप है। टीकाकार श्रुतसूरि ने कहा भी हैहै, इसलिए वे साधु-साध्वियों द्वारा धारण किये गये वस्त्रों को परिग्रह | "एकमद्वितीयं जिनस्य रूपं नग्नरूपम्।' निम्नलिखित कथन से भी दिसम्बर 2001 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यही बात सिद्ध होती है "अथाभव्या जिनालिङ्गेन कियद्दूरं गच्छन्तीत्याशंकायामाह - जा उवरिमगेवेज्जं उववादो अभवियाण उक्कस्सो । उक्कट्ठेण तवेण दु णियमा णिग्गंथलिंगेण ।। " (मूलाचार, गाथा 1177) यहाँ जिनलिंग को निर्ग्रन्थलिंग का ही वाचक बतलाया गया है। इस प्रकार क्षुल्लक, एलक और आर्यिका के लिंग जैनलिंग (जिनानुयायियों के लिंग) तो हैं, किन्तु जिनलिंग नहीं। वे गृहलिंग ही हैं। इन भिन्नताओं से सिद्ध है कि मुनि का पद उच्च है और आर्यिकादि का निम्न। आर्यिकादि पूज्य मुनि परमपूज्य फिर भी क्षुल्लक, एलक और आर्यिका के लिंग मोक्षमार्ग में दीक्षित लोगों के लिंग है और प्रथम दो ग्यारह प्रतिमाधारी हैं तथा आर्यिकाएँ उससे भी ऊपर उपचारमहाव्रतधारी हैं। इसलिये वे सामान्य श्रावकों से बहुत उच्च हैं। आर्यिका को तो उपचारमहाव्रतधारी होने से उपचारत: श्रमणी, संगती और विरती भी कहा गया है। इससे यह सूचित किया गया है कि वे मुनितुल्य तो नहीं, पर मुनिकल्प (अंशत: मुनि सदृश) हैं । उपचारमहाव्रत यद्यपि बाह्य महाव्रत हैं तथापि उनकी साधना बहुत कठोर है। एक साड़ी धारण करने के कारण यद्यपि मुनिवत शीतोष्णदंशमशकादि परीषहों के सहन का कठोर तप आर्यिका को नहीं करना पड़ता तथा स्त्रीशरीर एवं सवस्त्रता के कारण अहिंसा महाव्रत का भी पालन मुनिवत् नहीं होता, तथापि सत्य, अस्तेय और ब्रह्मचर्य महाव्रतों का पालन मुनितुल्य ही होता है। अतः आर्यिका की श्रमणी संज्ञा द्रव्यसंयम की अपेक्षा सार्थक है। · यद्यपि यह द्रव्यसंयम (उपचार महाव्रत ) मोक्ष का साक्षात् मार्ग नहीं है और न स्त्रीशरीर से मोक्ष की साक्षात् साधना के योग्य षष्ठगुणस्थान प्राप्त किया जा सकता है, तथापि स्त्री को बाह्य महाव्रतों की दीक्षा देने का एक महत्त्वपूर्ण प्रयोजन है वह है उसे स्त्रीशक्ति के अनुसार उच्चतम त्याग और तप की प्रेरणा देना और यह ज्ञापित करना कि स्त्री भी त्याग और तप की बहुत ऊँचाई तक पहुँच सकती है और यह उच्च त्याग तप निरर्थक नहीं है। यद्यपि इससे कर्मों का संवर और निर्जरा मुनि के बराबर नहीं होती, तथापि सम्यग्दर्शन सहित होने से ऐसे उत्कृष्ट पुण्य का बन्ध होता है, जिससे वह खीलिंग का छेदकर सोलहवें स्वर्ग का देव बन जाती है, साथ ही अगले भव में मुनिव्रत धारण करने योग्य पुरुषशरीर एवं उत्तमसंहननादि सामग्री उपलब्ध कर लेती है। इस प्रकार उपचारमहाव्रत परम्परया मोक्षसाधक होने से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । इस महत्त्वपूर्ण साधना के कारण आर्यिका लिंग पूज्य है, आदर-सम्मान के योग्य है। इसी प्रकार क्षुल्लक- एलक भी यद्यपि अणुव्रतधारी हैं, तथापि उनकी ग्यारह प्रतिमा रूप साधना कुछ अंश में मुनिसदृश ही होती है। क्षुल्लक शब्द क्षुद्र अर्थात् 'छोटा' अर्थ का वाचक है, जो उसके लघुमुनित्व को द्योतित करने के लिये प्रयुक्त किया गया है। इसलिये पद्मपुराण में क्षुल्लक नारद को गृहस्थमुनि कहा गया है और लवण और अंकुश द्वारा उनकी पूजा किये जाने का वर्णन है दिसम्बर 2001 जिनभाषित 8 दर्शनेऽवस्थितौ वीरौ प्राप ताभ्यांच पूजितः । आसनादिप्रदानेन गृहस्थमुनिवेषभृत् ॥102/3 यहाँ 'गृहस्थ' शब्द क्षुल्लक के सवस्त्र गृहिलिंग का सूचक है और 'मुनि' शब्द अंशत: मुनिसदृश (मुनितुल्य नहीं) त्याग तप तथा ब्रह्मचर्यादि व्रतों के पालन का सूचक है। 'एलक' शब्द भी 'अचेलक' (अल्पचेलक) शब्द का प्राकृतरूप है और इससे भी अंशत: मुनिसदृश चर्या द्योतित होती है । सोमदेवसूरि ने भी इसी दृष्टि से यशस्तिलकचम्पू में अभयमति क्षुल्लिका के लिये 'मुनिकुमारिका' (श्लोक 175 का गद्य) शब्द का उपचारत: प्रयोग किया है। इससे क्षुल्लक और एलक की भी पूज्यता प्रकट होती है। फिर भी क्षुल्लक, एलक और आर्यिका तीनों के लिंग समन्य होने से गृहिलिंग हैं। निर्मन्थलिंग से रहित होने के कारण उनमें गुरु बनने की योग्यता नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि जो हिंसा रहित क्रियाओं को ही धर्म, अठारह दोषरहित आत्मा को ही देव तथा निर्मन्य उपदेष्टा को ही गुरु मानता है वही सम्यग्दृष्टि है हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे । णिग्गंथे पावयणे सहहणं होड़ सम्मतं ।। (मोक्षप्राभृत, 90) इससे स्पष्ट होता है कि सग्रन्थ को गुरु माननेवाला मिध्यादृष्टि है। कुन्दकुन्द ने यह भी कहा है कि जिनबिम्बस्वरूप आचार्य, उपाध्याय और साधु ही कर्मक्षय की कारणभूत दीक्षा शिक्षा देने के अधिकारी हैं, क्योंकि वे संयम से शुद्ध, और वीतराग होते हैं - जिणविम्बं णाणमयं संजममुद्धं सुवीयरायं च जं देह दिक्खसिक्खा कम्मक्खयकारणे सुद्धा । (बोधपाइड 16) आगे वे कहते हैं कि जिसके पास जो होता है, वही तो वह दूसरों को दे सकता है। जो वस्तु मनुष्य के पास नहीं है, वह दूसरों को कैसे दी जा सकती है? जिसके पास धन होता है वह दूसरों को धन दे सकता है, जिसके पास काम (इन्द्रिय सुख की सामग्री) होता है वह काम दे सकता है, जिसके पास धर्म होता है वह धर्म दे सकता है, जिसके पास ज्ञान होता है वह ज्ञान दे सकता है तथा जिसके पास प्रव्रज्या (‘पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता, बोधपाहुड, 25 ) होती है, वह प्रव्रज्या दे सकता है सो देवो जो अत्थं धम्मं कामं सुदेइ णाणं च । सो देइ जस्स अस्थि दु अत्थो धम्मो य पव्वज्जा ।। (बोधपाहुड, 24 ) टीकाकार श्रुतसागर सूरि इसे स्पष्ट करते हुये लिखते हैं- "स ददाति यस्य पुरुषस्य यद् वस्तु वर्तते असत्कथं दातुं समर्थः ? यस्याऽर्थो वर्तते सोऽर्थं ददाति यस्य धर्मो वर्तते स धर्मं ददाति यस्य प्रव्रज्या दीक्षा वर्तते स केवलज्ञानहेतुभूतां प्रव्रज्यां ददाति । " इस प्रकार जो क्षुल्लक, एलक और आर्यिका स्वयं निर्ग्रन्थता रूप प्रव्रज्या से युक्त नहीं हैं, वे दूसरों को यह प्रव्रज्या कैसे दो सकते हैं ? अतः उनमें गुरु बनने की योग्यता नहीं है। फलस्वरूप मोक्षार्थी के लिये वे उपास्य या शरणभूत नहीं हैं। शिक्षा प्रव्रज्या से युक्त मुनि Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही होते हैं, अत: उन्हीं से वे मोक्षार्थियों को प्राप्त हो सकती हैं। इसलिये | इसकी व्याख्या करते हुए श्रुतसागरसूरि कहते हैंमुनि ही उपास्य या शरणभूत हैं। इस गुण के कारण मुनि का पद "असंयतं गृहस्थवेषधारिणं संयमपालयन्तमपि न वन्देत। आर्यिकादि से बहुत उच्च होता है। अतः आर्यिकादि पूज्य हैं, किन्तु | वस्त्रविहीनोऽपि नग्नोऽपि संयमरहितो न वन्द्येत, न नमस्क्रियेत। मुनि परमपूज्य हैं। द्वितयेऽपि समाना संयमरहिता भवन्ति।" पूज्य और परमपूज्य की पूजाविधियों में अन्तर अर्थ- गृहस्थवेशधारी यदि द्रव्यसंयम का भी पालन करता हो, पूज्य और परमपूज्य की पूजाविधियों में अन्तर होना स्वाभाविक | तो भी उसकी वन्दना नहीं करनी चाहिये और जो नग्न होते हुए भी है। उनमें ऐसा अन्तर होना चाहिये जिससे पूज्य की पूज्यता और भाव-संयम से रहित है वह भी वन्दनीय नहीं है, क्योंकि दोनों ही समान परमपूज्य की परमपूज्यता द्योतित हो। यदि दोनों की पूजाविधियाँ एक रूप से संयमरहित हैं। जैसी हुई तो परमपूज्य की परमपूज्यता द्योतित न हो सकेगी, वह इस तरह कुन्दकुन्द के अनुसार आर्यिका और द्रव्यलिंगी मुनि सामान्य पूज्य जैसा ही प्रतीत होगा। इससे पूजाविधि उसके सम्मान दोनों ही अवन्दनीय हैं, अर्थात् 'वन्दे', 'नमोऽस्तु', 'नमामि', का माध्यम न बनकर अपमान का माध्यम बन जायेगी। जैसे किसी 'प्रणमामि' आदि शब्दों के द्वारा पूजने योग्य नहीं है। यहाँ ध्यान देने धर्मसभा में हम मुनि और आर्यिका दोनों को बराबर ऊँचाई के आसन योग्य है कि कुन्दकुन्द ने केवल निर्ग्रन्थ मुनि को ही वन्दना के योग्य प्रदान करें, तो इससे मुनि के प्रति उसके उच्चपदानुरूप विनय प्रकट बतलाया है, अन्य सभी सग्रन्थलिंगियों को वन्दना के अयोग्य कहा न हो सकेगी और यह उसकी अविनय का कारण बन जायेगा। अत: है। इससे सिद्ध होता है कि 'वन्दे' और 'नमोऽस्तु' शब्द अत्यन्त पूजाविधियों में पद के अनुसार विशेषता होनी चाहिये। मूलाचार की महिमाशाली हैं, वे परम-पूज्यता के द्योतक हैं। इनका प्रयोग केवल 'रादिणिए उणरादिणिए' गाथा (384) में मुनियों के लिये भी अपने मुनि के लिये ही किया जाना चाहिये, सामान्य पूज्यों के लिये नहीं। से उच्च और निम्नपद वालों के प्रति यथायोग्य (उच्च- सामान्य पूज्यों के लिये 'इच्छामि' शब्द का ही प्रयोग औचित्यपूर्ण निम्नपदानुसार) विनय करने का नियम बतलाया गया है। उसकी है। अर्थात् आर्यिकाओं के लिये भी 'वन्दे' या 'वन्दामि' शब्द का व्याख्या करते हुए आचार्य वसुनन्दी कहते हैं प्रयोग उचित नहीं हैं। आजकल उनके लिये 'वन्दामि' शब्द का प्रयोग "विनयो यथार्हो यथायोग्यो कर्त्तव्यः अप्रमत्तेन प्रमादरहितेन। किया जाता है। यह कहीं-कहीं पुराणों में भी मिलता है- 'धन्या भगवति! साधूनां यो योग्यः, आर्यिकाणां यो योग्यः, श्रावकाणां च यो योग्यः, | त्वं नो वन्द्या जाता' (पद्मपुराण 161/43)। यह आचार्य कुन्दकुन्द अन्येषामपि च यो योग्यः स तथा कर्तव्यः। केन? साधूवर्गेण।" के उपर्युक्त कथन के विरुद्ध है। 'वन्दामि' संस्कृत 'वन्दे' का प्राकृत निम्नपदवालों के 'नमोऽस्तु' करने पर प्रसन्नमुद्रा में आशीर्वाद | रूप है और 'नमोऽस्तु' का पर्यायवाची है, जैसा कि 'वंदित्तु देना ही साधु का निम्नपदवालों के प्रति विनय-प्रकाशन है। तात्पर्य | सव्वसिद्धे', 'णमो सिद्धाणं', 'वन्दे तद्गुणलब्धये' में दृष्टिगोचर यह कि उच्च-निम्न पद के अनुसार पूजाविधि में अन्तर होना पदानुसार होता है। अतः जो 'वन्दामि' शब्द अरहन्त, सिद्ध और साधु के लिये सम्मान व्यक्त करने के लिये आवश्यक है। प्रयोज्य है, वह सग्रन्थ आर्यिका के लिये प्रयोज्य कैसे हो सकता है? आचार्य कुन्दकुन्द ने इस अन्तर पर प्रकाश डालते हुए 'वन्दे' या 'नमोऽस्तु' शब्द के उच्चारण के साथ पंचपरमेष्ठी 'सूत्रपाहुड' (गाथा 11-13) में कहा है कि केवल निर्ग्रन्थमुद्राधारी | के लिये पंचाग या अष्टांग नमन भी किया जाता है। जैसा कि इस ही वन्दनीय हैं, शेष सब सचेललिंगी 'इच्छाकार' के योग्य हैं- कथन से ज्ञात होता है- "तस्य च जिनबिम्बस्य जिनबिम्बमूर्तेराचा जो संजमेसु सहिओ आरंभपरिग्गहेसु विरओ वि। र्यस्य प्रणामं नमस्कारं पञ्चाङ्गमष्टाङ्ग वा कुरुत" (बोधपाहुड/टीका, सो होइ वंदणीओ सुरासुरमाणुसे लोए। 17)। यह भी परमपूज्यता का प्रकाशक है। अत: जो परमपूज्य नहीं जे वावीसपरीसह सहति सत्तीसएहिं संजुत्ता।। है, उसके लिये पचांगनमन या अष्टांगनमन भी अनुचित है, क्योंकि ते होंति वंदणीया कम्मक्खयनिज्जरा साहू।। इससे परमपूज्य की अवमानना होती है। यह उसी प्रकार का कृत्य अवसेसा जे लिंगी दंसणणाणेण सम्मसंजुत्ता। है, जैसे आचार्य के आसन पर उपाध्याय या साधु को बैठाल दिया चेलेण य परिगहिआ ते भणिया इच्छाणिज्जाय।। जाय या स्वामी की उपाधियाँ सेवकों के साथ जोड़ दी जायें। सचेललिंगियों में क्षुल्लक, एलक और आर्यिका तीनों आ जाते | जो 'नमः', 'वन्दे' आदि शब्द परमपूज्य के योग्य हैं, उनका हैं। अत: इन तीनों को कुन्दकुन्द ने 'इच्छाकार' के योग्य बतलाया प्रयोग सामान्यपूज्य के लिये किये जाने में एक और दोष है। वह यह है। इससे स्पष्ट होता है कि मुनि की पूजा 'वन्दे' या 'नमोऽस्तु' शब्द कि महाव्रतों के बिना ही नमस्कार किये जाने से वे अभिमानग्रस्त के उच्चारण द्वारा की जानी चाहिये और आर्यिका, एलक एवं क्षुल्लक हो सकते हैं और महाव्रतों को धारण करने में प्रमाद कर सकते हैं। की 'इच्छामि' शब्द के उच्चारण द्वारा। टीकाकार श्रुतसागरसूरि ने स्पष्ट अतः अहंकारग्रस्त जीवों की सम्यक्चारित्र में प्रवृत्ति कराने के लिये किया है- "वन्दनीया नमोऽस्तुशब्दयोग्याः", अर्थात् 'वन्दनीय' का और उस प्रवृत्तिमार्ग में भक्ति प्रकट करने के लिये उन्हें नमस्कार नहीं अर्थ है 'नमोऽस्तु' शब्द के योग्य होना। कुन्दकुन्द ने 'दंसण पाहुड' | किया जाना चाहिये। यह बात धवलाटीकाकार ने निम्नलिखित शब्दों (गाथा 26) में भी कहा है - में कही हैअसंजदं ण वंदे वच्छविहिणो वि सो ण वंदिज्ज। "महव्वयविरहिद-दोरयणहराणं ओहिणाणीण-मणोहिणाणीणं च दुण्णिवि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि॥ । किमटुं णमोक्कारो ण कीरदे? गारवगरुवेसु जीवेसु चरणाचारपय - दिसम्बर 2001 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्ठावणटुं उत्तिमग्गविसयभत्तिय-पयासणटुं च ण कीरदे।" (पुस्तक 9, | चूँकि अन्तर्बाह्य निर्ग्रन्थ शरीर ही पवित्र होता है अतः उसके ही चरणों सूत्र 4, पृष्ठ 41) को छूकर आया हुआ उदक मस्तक पर धारण करने के योग्य है तथा अर्थ- महाव्रतों से रहित दो रत्नों (सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान) उसी को अष्टद्रव्य समर्पित करने से निर्ग्रन्थता के प्रति अनन्य भक्ति के धारक अवधिज्ञानी तथा अवधिज्ञान से रहित जीवों को भी नमस्कार प्रकट होती है और हम निर्ग्रन्थता के अनन्य उपासक या श्रमणोपासक क्यों नहीं किया जाता? अहंकार से बोझिल जीवों में चरणाचार का पद प्राप्त करते हैं। फलितार्थ यह कि आर्यिकादि सग्रन्थ होने से (सम्यग्चारित्र) की प्रवृत्ति कराने के लिये तथा प्रवृत्तिमार्ग-विषयक उपास्य नहीं हैं, अत: उनकी आहारदान सम्बन्धी पूजाविधि में भक्ति का प्रकाशन करने के लिये उन्हें नमस्कार नहीं किया जाता। | पादप्रक्षालन एवं वन्दनादिपूर्वक अष्टद्रव्यसमर्पण ये दो उपचार सम्भव इस प्रकार पचांग या अष्टांगनमनपूर्वक 'नमोऽस्तु', 'वन्दे', | नहीं है। इसलिये उनकी पूजाविधि सप्तांगी है। वे सात अंग हैं : आदि शब्दों के उच्चारण द्वारा केवल परमपूज्यों (पंचपरमेष्ठियों) की प्रतिग्रहण (प्रदक्षिणारहित), उच्चासनदान, इच्छाकार तथा चतुर्विध ही पूजा का विधान जिनागम में किया गया है। आर्यिका, एलक और । | शुद्धि का निवेदन। इस तरह आर्यिका, एलक एवं क्षुल्लक सप्तविध क्षुल्लक सग्रन्थ लिंगी हैं, अतः उनकी पूजा (सम्मान) हाथ जोड़कर | पूजा के पात्र हैं। नवधा भक्ति के पात्र केवल निर्ग्रन्थ मुनि हैं। और मस्तक झुकाकर 'इच्छामि' शब्द के उच्चारण द्वारा ही की जानी कार्तिकेयानुप्रेक्षा (गाथा 360) में जो यह कहा गया है कि चाहिये। पद्मपुराण में इसके उदाहरण मिलते हैं 'उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्रों को नवदानविधिपूर्वक आहारदान जिनशासनदेवीव सा मनोहरभावना। करना चाहिये', इस कथन में 'यथायोग्य' (योग्यतानुसार) अर्थ गम्य दृष्ट्वा क्षुल्लकमुत्तीर्य सम्भ्रान्ता नवमालिकाम्।। है। क्योंकि ऐसा न हो तो संयतासंयत श्रावक (मध्यम पात्र) को उपगत्य समाधाय करवारिरुहद्वयम्। असंयत सम्यग्दृष्टि (जघन्यपात्र) का चरणोदक मस्तक पर रखना इच्छाकारादिना सम्यक् सम्पूज्य विधिकोविदा।। पड़ेगा, जो विनय की दृष्टि से असंगत है। यह विनय के अर्थ पर (100/39-40) | ही पानी फेर देनेवाला है। 'श्रमण संघ संहिता' के निम्न श्लोक में यहाँ बतलाया गया है कि सीता ने हाथ जोड़कर 'इच्छामि' | 'यथायोग्य' शब्द का स्पष्टत: प्रयोग किया गया हैनिवेदन करते हुये क्षुल्लक सिद्धार्थ की पूजा की। जघन्यमध्यमोत्कृष्टपात्राणां गुणशालिनाम्। जब सीता आर्यिका हो जाती हैं, तब लक्ष्मण केवल हाथ नवधा दीयते दानं यथायोग्यं सुभक्तितः।। जोड़कर प्रणाम करते हुए उनका अभिनन्दन करते हैं रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भी स्पष्टरूप से कहा गया है कि नारायणोऽपि सौम्यात्मा प्रणम्य रचिताञ्जलिः। नवधाभक्ति पूर्वक दान आर्यों (मुनियों) को दिया जाना चाहिएअभ्यनन्दयदार्यां तां पद्मनाभमनुब्रुवन्।। नवपुण्यैः प्रतिपत्तिः सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन। पद्म पु.107/42 अपसूनारम्भाणामार्याणामिष्यते दानम्।। परमपूज्य और सामान्यपूज्य की पूजाविधियों में यह पहला प्रभाचन्द्र ने 'आर्याणां' का अर्थ 'मुनि' किया है- 'आर्याणां अन्तर है। सद्दर्शनादिगुणोपेतमुनीनाम्।' नवधा भक्ति एवं सप्तधा पूजा किसी भी ग्रन्थ में आर्यिका की नवधाभक्ति का उल्लेख नहीं वसुनन्दिश्रावकाचार में मुनि के लिये आहारदान की नौ विधियाँ | है और मुनि की नवधाभक्ति के विधान में आर्यिका की नवधाभक्ति (नवधाभक्ति) इस प्रकार बतलाई गई हैं : 1. प्रतिग्रहण (पड़गाहना) का विधान गर्भित मानने का कोई आधार नहीं है। यदि बिना आधार एवं प्रदक्षिणा करना, 2. उच्चस्थान पर बैठाना, 3. पादप्रक्षालन कर | के ही गर्भित मान लिया जाये, तो एलक, क्षुल्लक और असंयत पादोदक को मस्तक पर रखना, 4. अष्टद्रव्य से पूजा करना, 5. सम्यग्दृष्टि की भी नवधाभक्ति का विधान गर्भित माना जा सकता प्रणाम करना, 6. मनः शुद्धि, 7. वचनशुद्धि, 8. कायशुद्धि और | है। किन्तु इससे पूर्वोक्त दोष का प्रसंग आता है। अत: सिद्ध है कि 9. एषणाशुद्धि (आहारजलशुद्धि) की घोषणा करना। जिनागम में आर्यिका की नवधाभक्ति मान्य नहीं की गई है। ___ इनमें प्रदक्षिणा, पादप्रक्षालन, पादोदकमस्तकारोहण और इस प्रकार आर्यिका माता पूजनीय तो हैं, लेकिन उनकी वन्दनादिपूर्वक अष्टद्रव्य-समर्पण, ये सम्मानरूप पूजा की विधियाँ | पूजाविधि मुनि के समकक्ष नहीं है, अपितु उससे कुछ अवरश्रेणी की नहीं, भक्तिरूप पूजा की विधियाँ हैं। ये उसी के साथ व्यवहृत हो | है। वह उपास्यकोटि की नहीं, बल्कि उत्कृष्ट-उपासक-कोटि की है। सकती हैं, जो हमारा उपास्य या आराध्य हो। हमारा उपास्य वही हो | आगमानुसार उनके प्रति विनय का प्रदर्शन हाथ जोड़कर मस्तक सकता है जिसके दर्शन, ध्यान और गुणस्तवन से मन में अन्तर्बाह्य | झुकाते हुये 'इच्छामि' शब्द के उच्चारण द्वारा किया जाना चाहिये निर्ग्रन्थता का दृश्य उपस्थित हो जाय, क्योंकि वही दृश्य हमारे भीतर | तथा आहारदान के समय उपर्युक्त सात उपचार ही पूजा में प्रयुक्त निम्रन्थता की जन्मभूमि बन सकता है। इस दृश्य की उपस्थिति | किये जाने चाहिये। हाँ, वन्दना, स्तुति और मोक्षकामना के बिना अर्घ निम्रन्थमुनियों और जिनबिम्बों के ही दर्शन, ध्यान एवं गुणस्तवन से | या अष्टद्रव्यों का समर्पण किया जाय, तो किया जा सकता है। संभव है, सग्रन्थों के नहीं। अत: निर्ग्रन्थ मुनि और अरहन्त ही हमारे | ‘परमपूज्य' विशेषण के प्रयोग में भी सावधानी बरतनी चाहिये। यह उपास्य हैं। फलस्वरूप प्रदक्षिणादि के योग्य वही हैं, क्योंकि निर्ग्रन्थ | केवल परमस्थान में स्थित पंचपरमेष्ठियों के लिये प्रयुक्त किया जा की प्रदक्षिणा करने से ही निर्ग्रन्थ रूप बार-बार दृष्टि में आता है। और | सकता है। 10 दिसम्बर 2001 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मघाती चेष्टा न युक्ता। यदि ता वन्दन्ते तदा मुनिभिर्नमोस्त्विति न वक्तव्यम्। कि आचारग्रन्थों में आर्यिका को उपचार (नाम मात्र) से महाव्रती, | तर्हि वक्तव्यम्? समाधिकर्मक्षयोस्त्विति। ये तु परस्परं मत्थएण श्रमणी, संयती और विरती तथा पुराणों में क्षुल्लक को 'गृहस्थमुनि' वंदामीति आर्याः प्रतिवदन्ति तेप्यसंयमिनो ज्ञातव्याः। दिगम्बराणां और 'मुनिकुमार' कहा गया है। इसका अनुसरण करते हुये कुछ | मते या नीतिः सा प्रमाणमिति मन्तव्यम्।" (मोक्षप्राभृत, गाथा 12) आधुनिक विद्वानों ने उन्हें उपचार से गुरु भी कह दिया है। स्याद्वादियों यहाँ श्रुतसागरसूरि ने स्पष्ट किया है कि आर्यिकाएँ मुनियों के को इसमें असंगति प्रतीत नहीं हो सकती। किन्तु इस उपचार के बहाने द्वारा वन्दनीय नहीं हैं, क्योंकि वे मुनियों के समान संयमी नहीं हैं। उक्त विद्वानों ने उनके लिये परमार्थ महाव्रतियों के तुल्य विनयोपचार श्वेताम्बरमत में आर्यिका जब मुनि को 'मत्थएण वंदामि' कहती है और नवधाभक्ति का औचित्य सिद्ध करने की चेष्टा की है। (देखिये | तब मुनि भी ऐसा ही कहते हैं। यह उनके यहाँ उचित है, क्योंकि दोनों पुस्तक - "क्या आर्यिका माताएँ पूज्य हैं?'') यह एक आत्मघाती | सवस्त्र होने से असंयमी हैं। किन्तु दिगम्बर मत में मुनि निम्रन्थ होने कदम है। इससे यह तर्क उठता है कि जब सग्रन्थव्रती निन्थव्रती | से संयमी होता है और आर्यिका सवस्त्र होने से संयमासंयमी। अत: के बराबर ही विनय का पात्र, वन्दनीय या पूजनीय है तो उनके चारित्र | मुनि का आर्यिका के 'नमोऽस्तु' के उत्तर में 'नमोऽस्तु' कहना अनुचित या संयम में क्या फर्क रहा? उनके संयम भी तुल्य सिद्ध होते हैं. | है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि 'वन्दामि' या 'वन्दे' शब्द मुनि के और जब सवस्त्र और निर्वस्त्र के संयम तल्य हैं. तब जैसे नग्न संयमी | साथ ही प्रयोज्य है, आर्यिका के साथ नहीं, चाहे वह किसी के भी साक्षात् मोक्षमार्गी है, वैसे ही सवस्त्र संयमी भी साक्षात् मोक्षमार्गी | द्वारा प्रयुक्त किया जाय। यदि श्रावक आर्यिका के प्रति मुनि के समान क्यों नहीं हो सकता? यह तर्क सवस्त्र को भी निर्ग्रन्थ की तरह मोक्ष | ही 'वन्दामि' या 'नमोऽस्तु' शब्द के द्वारा विनय प्रकट करते हैं, तो का पात्र सिद्ध कर देता है, जिससे श्वेताम्बर और यापनीय मतों का | | इससे सिद्ध होता है कि वे आर्यिका को मुनितुल्य संयमी मानते हैं, अनुमोदन होता है और दिगम्बर मत युक्तिहीनता की स्थिति में पहुँच | जो श्वेताम्बर मत का अनुसरण और दिगम्बर मत की अवहेलना है। जाता है। अतः इस चेष्टा का दृढ़ता से निषेध किया जाना चाहिये और | यह मिथ्यात्व का लक्षण है। अत: दिगम्बरों को दिगम्बर मत के यह तथ्य प्रचारित किया जाना चाहिये कि दिगम्बर आम्नाय में सग्रन्थ | अनुसार ही प्रवृत्ति करनी चाहिये। आर्यिकादि निम्रन्थ मुनि के तुल्य पूजनीय नहीं हैं। निष्कर्ष यह कि आर्यिकाओं के उपचारमहाव्रती होते हुये भी आगम में कहा गया है कि मुनियों के द्वारा 'नमोऽस्त' किये | उनके साथ परमार्थ महाव्रतियों के समान विनयोपचार नहीं किया जा जाने पर उनसे बड़े मुनि एवं आचार्य भी 'नमोऽस्तु' शब्द बोलकर सकता, अपितु उत्कृष्ट श्रावकों के समान ही किया जा सकता है। प्रतिवन्दना करते हैं। यही वन्दना की स्वीकृति है (मूलाचार गाथा आर्यिकाएँ पूज्य हैं, किन्तु उनकी पूज्यता उपास्यवत् नहीं है, अपितु 612/भावार्थ-गणिनी ज्ञानमती जी)। किन्तु आर्यिकाओं के वन्दना उत्कृष्ट उपासकवत् है। दूसरे शब्दों में, आर्यिकाएँ आभ्यन्तर करने पर मुनि प्रतिवन्दना नहीं करते, अपितु 'समाधि के द्वारा कर्मक्षय | संयमासंयम एवं बाह्य द्रव्यसंयम के कारण पूज्य हैं, किन्तु मुनि हो' यह प्रत्युत्तर देते हैं, ताकि वे अल्पसंयमी के समकक्ष न हो जायँ'। आभ्यन्तर और बाह्य दोनों संयमों के धनी होते हैं, इस कारण वे जैसा कि श्रुतसागर सूरि ने कहा है परमपूज्य हैं। अतः दोनों के विनयोपचार एवं आहारदान सम्बन्धी "सज्जातिज्ञापनार्थ स्त्रीणां महाव्रतान्युपचर्यन्ते, न परमार्थत- | पूजाविधियों में अन्तर होना अनिवार्य है। स्तासां महाव्रतानि सन्ति, तेन मुनिजनस्य स्त्रियाश्च परस्परं वन्दानापि रतनचन्द्र जैन गीत कोई एक किसी दूरी को कोई एक किसी दूरी को अंतराल में होना है जहाँ जहाँ कुछ पाना है वहाँ-वहाँ कुछ खोना है। तन से मन की दुरी सबको मिली विरासत में और ले लिया कुछ साँसों ने हमें हिरासत में साथ-साथ चलते हैं लेकिन होते साथ नहीं यही विवशता साले हरदम देह-रियासत में अपने-अपने गलियारे का दर्द सभी को ढोना है।। अपने-अपने दुःख-सुख की है धूप-छाँव अब नीड़ों में जो हुए पराजित अंतर में, वे भटके बाहर भीड़ों में अशोक शर्मा अपनी पीड़ाएँ सहकर जो पीते औरों के आँसू यह मैंने तुमने देखा है वे सब शामिल हैं पीरों में जिनके जैसा होना है उनके जैसा बोना है। आँख हमारी नींद हमारी पर सपने बेगाने हैं जितने भी अफसाने हैं सब पर-पीड़ा अफसाने हैं जो दिन में अपने हो न सके बन आते सपने नींदों में इस मृग तृष्णा में प्यासे मन फिर और और अकुलाने हैं उजड़े रेत-घरौंदों में बस रेत ओढ़कर सोना है। अभ्युदय निवास, 36-वी, मैत्रीविहार, सुपेला, भिलाई (दुर्ग), छत्तीसगढ़ -दिसम्बर 2001 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ___ अपने आदर्शों के पीछे चलो दुनिया के पीछे नहीं आचार्य श्री विद्यासागर संसार में कोई यदि आदर्श मार्ग पर 28 नवम्बर 2001 को प्रातः दि. जैन सुन लेता हूँ और सबके लिये यही कहता हूँचलना चाहता है तो उससे कहा जाता है कि अतिशय क्षेत्र कोनी जी में आचार्य श्री देखो हम किसी को 'हाँ' नहीं कहते, तो किसी तुम अपने आदर्शों के पीछे, अपने गुरुओं के | का ससंघ पदार्पण हुआ। वहाँ तीसवें को 'न' भी नहीं कहते हैं। यदि हम किसी को पीछे चलना, दुनिया के पीछे नहीं चलना और हाँ कह दें तो दूसरा नाराज हो जायेगा और इस दुनिया के पीछे भी नहीं पड़ना। यही सूत्र आचार्य पदारोहण दिवस पर2 दिसम्बर उसके लिये 'न' कह दें तो वह नाराज हो मुझे आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने 2001 को दिया गया प्रवचन जायेगा। इसलिये 'देखो' हमारा सूत्र-वाक्य दिया था। उन्होंने हमसे कहा था - तुम्हें कछ है। यह तो हमारे पास सदा मिलेगा। हमें तो कहना नहीं है, कर्तव्य समझकर करते जाना स्वीकारना नहीं चाहती। वह संसार के बंधन | गुरु महाराज ने कहा था- सुनना सबकी पर और करते ही चले जाना। सब कुछ होता चला में रचनापचना नहीं चाहती। उसी की विशेषता करना मन की। बस में वही कर रहा हूँ, सबकी जायेगा। बस पीछे मुड़कर नहीं देखना और है कि इतने सारे साधक आज मंचासीन हैं। | सुनता हूँ और किसी को नाराज नहीं करता न ही कहीं पर रुकना। यदि कहीं पर रुकते एक व्यक्ति रास्ते से जा रहा था। उसके हूँ। जैसे आप लोग अपनी दुकान चलाते हैं, हैं तो बहुत सी रुकावटें आ जाती हैं। यह कोनी पास जेब में कोयला है। एक गुफा के रास्ते अगर छोटा लड़का भी आ जाता है तो उसे क्षेत्र का इस बार का प्रथम रविवार है और से जा रहा है, उसने दूसरे को रास्ता बताने भी दद्दा दद्दा कहकर अपनी दुकान चलाते हैं। शीतकाल के प्रवास की आप लोगों ने अभी के लिय क्रास लगा दिया और आगे बढ़ गया। उसे नाराज नहीं करते हैं, बस मैंने भी अपनी बात की तो इस बारे में हम कछ कह नहीं | बहत से पीछे आने वालों का मार्ग प्रशस्त | दुकान को चलाने का तरीका आप लोगों से सकते हैं, क्योंकि बंधन से मुक्त होकर तो हो गया। इसलिए कोयला काम तो करता है। सीखा है। किसी को नाराज नहीं करना और आये हैं। इस बार तो और पाँच माह का हमने भी यहाँ आये ऐसे कोयलों को छाँटा, अपना काम करना। इसी का परिणाम है इतनी चातुर्मास था। इसलिए पाँच माह के बंधन के | जिनमें सागर, जबलपुर, ललितपुर आदि बड़ी दुकान है। गुरु महाराज ने कहा था- संघ बाद पुनः बन्धन की बात स्वीकारना ठीक आदि स्थानों से अच्छे-अच्छे कोयलों को | को गुरुकुल बनाना। बस यह सब उनका ही नहीं। आगे के बारे में तो कुछ कह नहीं सकते छाँटा और आज हीरे जैसे बने बैठे हैं। यह आशीर्वाद है। हम तो बस आचार्य श्री हैं। आज तो मैं बैठा बैठा सुन रहा था। अच्छा सब आप देख ही रहे हैं। यह बात सत्य है ज्ञानसागर जी महाराज की एजेंसी चला रहे लग रहा था। अभी ऐलक जी ने कहा था - कि गुरु के गुणों की महिमा गाने से गुरु के हैं। मैं तो बस एक एजेंट की तरह काम कर असंयमी कैसा होता है? तो कोयले के समान प्रति बहुमान बढ़ता है। हमारे लिये गुरुमहाराज रहा हूँ और करता ही जाऊँगा। यह मंच बड़ा कहा गया था। इसलिये कोयले से बचना ने जो कहा था वही मैं कर रहा हूँ। पद की होता जा रहा है। यह सब उन्हीं की कृपा का चाहिए, उस जलते हुए कोयले को छूते हैं तो, कोई बात नहीं है। हमें कार्य की ओर दृष्टि फल है। हाथ जल जाते हैं। वैसा छूते हैं, तो हाथ काले रखना चाहिए। अपने कार्य को कर्त्तव्य दृष्टि गंगा नदी जैसे गंगोत्री से बहुत पतली हो जाते हैं। हम यह कहना चाहते हैं कि यदि से करना चाहिए। मैंने तो अपने कार्य को किया | सी धार के रूप में निकलती है, वह अपनी हम असंयमी से बचते, यानी (जनता की ओर है और करता जा रहा हूँ। मैं तो बहुत छोटा यात्रा प्रारंभ करती है। रास्ते में एक छोटी नदी इशारा) आप लोगों से बचते तो आप कहाँ था। गुरुमहाराज ने इतनी वृद्धा वस्था में मुझे मिली। उसने पूछा कहाँ जा रही हो? वह से आते? ये मंच पर बैठे इतने सारे महाराज जैसे अनगढ़ के लिये जो दिया, इस योग्य बताती है और साथ हो जाती हैं, ऐसी ही कहाँ से आते? इसलिये हमारा कहना बना दिया। इसमें मेरा कुछ भी नहीं है, सब दूसरी-तीसरी आदि नदियाँ और बहुत सारी असंयमी से एकदम बचना नहीं, लेकिन गुरु महाराज का आशीर्वाद था। उनकी आज्ञा नदियाँ मिलकर एक विशाल रूप में वह गंगा असंयमियों में रचनापचना नहीं है। जैसे का पालन करता जा रहा हूँ। नदी बन जाती है। वैसे ही हम भी कुछ नहीं कोयला जब जलता है तभी भोजन पकता है, आज आप लोग बाँधना चाहते हो और है भैया, इन सब लोगों ने मिलकर हमें बड़ा यदि वह जले न तो आपका भोजन कैसे वचन चाहते हो, लेकिन हमारे लिये गुरु | महाराज बना दिया है. इन लोगों ने हमारे साथ बनेगा? वैसे ही गृहस्थ जो होता है, वह महाराज ने कहा था - किसी को वचन नहीं चलना चाहा, हमने कहा - चलो, अच्छी बात गृहस्थी के बंधन में बँधा होता है, अपनी देना। यदि कोई आपके वचनों को सुनने की है, हमें तो कोई बाधा नहीं है। जैसे गंगा नदी संतान को संस्कारवान बनाता है, वह स्वयं इच्छा रखता है, तो प्रवचन दे देना। आप बड़ी हो गई, वैसे ही यह संघ बड़ा होता चला बंधन में रहकर संस्कार देता है। उसके संस्कार लोग कोने-कोने से आ जाते हैं और हमारी गया। आप लोगों ने बताया 29 वर्ष पूरे हो ऐसे होते हैं कि उसकी संतान फिर बंधन को बात को सुनकर चले जाते हैं। मैं भी सब की गये, यह 30वाँ वर्ष प्रारंभ हो गया। मुझे तो 12 दिसम्बर 2001 जिनभाषित Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || नई सहस्राब्दी और भारत डॉ. अशोक सहजानन्द पता नहीं चला कैसे यह समय निकल गया। वैसे भी हमारा तो अब रिटार्यमेंट का समय आ गया। कोई यदि सर्विस करता है, तो 3035 साल की सर्विस करके रिटायर हो जाता है। अब यह बात इन सबको (यानि संघ को) बता दो। हमें बताने की कोई आवश्यकता नहीं है। हम तो जैसा महाराज ने कहा था, वैसा कर रहे हैं। हम तो गुरु महाराज के द्वारा प्राप्त इस पथ पर उनके दिशा निर्देश के अनुसार चल रहे हैं। उन्होंने पथ पर चलने के लिये दिशा निर्देश के साथ संकेतों के कुछ साइनबोर्ड भी दिये हैं। उन्हीं साईनबोर्डो को अपने पास रखकर चल रहा हूँ। हमने सुना है कोई प्रतिभावान् विद्यार्थी है, वह यदि पेपर में कहीं एक जगह गलती कर देता है लेकिन अपना पेपर साफ सुथरा रखता है, अच्छी राईटिंग में लिखता है तो उस पर भी वहअपने नम्बर बढ़ा लेता है, वैसे ही मैंने भी श्री ज्ञानसागर जी महाराज का पेपर एकदम साफसुथरा रखा है, जैसा उन्होंने कहा वैसा ही किया और कर रहा हूँ और अपनी चर्या को एकदम साफ सुथरा बनाये रखा है। अब तो नम्बर पूरे मिलेंगे, मिलना चाहिए। जैसे प्रतिभावान विद्यार्थी को पेपर लिखते समय ज्ञात ही नहीं रहता है कि 3 घंटे कैसे निकल गये, वैसे मुझे भी ज्ञात नहीं है कि ये 29 वर्ष कैसे निकल गये? मुझे तो ये 29-30 वर्ष 3 घंटे जैसे लगे। मुझे तो ज्ञात आपने करा दिये, वैसे ही इन महाराज लोगों को भी बता देना कि 29 वर्ष हो गये और आप लोगों को भी ध्यान रखना है। हमने भगवान महावीर स्वामी के इस शासन काल में उन्हीं के बताये हुए मार्ग का अनुसरण किया है। यह सब गुरुदेव का आशीर्वाद एवं उनकी असीम कृपा का प्रतिफल है। इसमें मेरा कुछ भी नहीं है, क्योंकि यह पथ उन्हीं ने हमें दिया है। यह पथ भी उनका और पाथेय भी उनका और पथ पर चलने के लिये यह पद भी उनका, मैं तो बस चल रहा हूँ। उन्हीं श्री ज्ञानसागर जी का अनुसरण कर रहा हूँ। अन्त में उनको याद करता हुआ विराम लेता हूँ। तरणि ज्ञानसागर गुरु, तारो मुझे ऋषीश। करुणा कर करुणा करो, कर से दो आशीष।। प्रस्तुति- मुनि श्री अजित सागर एक अहम प्रश्न है कि नयी सदी और | लाभ चंद लोगों तक ही सीमित रहेगा। तीसरी सहस्राब्दी में भी क्या वे ही शक्तियाँ ज्योतिषियों की भविष्यवाणी है कि वर्चस्व बनाये रखेंगी, जो अब तक बनाये इक्कीसवीं सदी के शुरुआत में ही भारत हुए हैं। क्या असमानता, शोषण और एक महाशक्ति बन जायेगा। लेकिन अन्याय तथा धर्मान्धता एवं धर्म के कंधे महाशक्ति तो रूस भी था, चीन भी है और पर व्यक्तिगत या समूहगत हित के लिये अमरीका, फ्रांस और ब्रिटेन भी। लेकिन इन बंदूक रखने का सिलसिला नयी सदी में भी देशों में भी प्राय: जनता उन्हीं दुःख-दर्दो जारी रहेगा। आशंका यही है कि सब-कुछ में पीड़ित है, जिनसे कि अन्य देशों में। पूर्ववत् ही चलता रहेगा। खतरा तो यह भी हाँ मात्रा का फर्क जरूर है। भारत अवश्य है कि समूचे संसार में धर्म, संस्कृति, नीति महाशक्ति बने, पर किस कीमत पर? क्या आदि के नाम पर विघटनकारी तत्त्व और सामरिक श्रेष्ठता और विज्ञान-टेक्नालॉजी अधिक आक्रामक हो जाएँगे। की उन्नति ही किसी देश को शक्ति बीसवीं सदी में कई देशों की सम्पन्न बनाती है? हमारा विचार है, कतई भौगोलिक सीमाएँ बदलीं। कुछ पुराने देश नहीं। देश महान और महाशक्ति सम्पन्न टूटे, नये देश जन्मे, पर जिस आम जनता तब बनता है, जब उसकी जनता खुशहाल के हित के नाम पर यह हुआ, वह पहले होती है तथा अशिक्षा, बेरोजगारी, कुपोजैसी ही पीड़ित रही। बीसवीं सदी में संसार षण और धर्मांधता तथा व्यक्तिगत स्वार्थ ने दो-दो महान विश्व युद्धों के बाद अनेक के लिये राष्ट्रहित को बलि चढ़ा देने वाला छोटे-बड़े क्षेत्रीय युद्धों की विभीषिका झेली। नेतृत्व नहीं होता। आज भारत में ये सब लाखों लोग मारे गये, करोड़ों बेघर हुए, अपना वर्चस्व बनाये हुये हैं। भ्रष्टाचार उनकी त्रासदी से आज की समूची मानवता जीवन-शैली बन गया है। परंपरागत मुक्त नहीं हो पायी। विश्व के सभी महाद्वीपों नैतिक मूल्य दम तोड़ रहे हैं। में असंतोष, अराजकता और भिन्न-भिन्न इक्कीसवीं सदी में ये सब तिरोहित आदर्शों के नाम पर रक्तपात जारी है। एक हो जायेंगे। भारत को एक सामाजिक ओर इस्लामिक कट्टरवाद खतरनाक रूप आंदोलन चलाने वाला प्रखर नेता चाहिये। धारण कर रहा है, तो दूसरी ओर ईसाइयत ऐसा सामाजिक आंदोलन जो देश की के प्रचार-प्रसार के लिये हर सम्भव उपाय तमाम बुराइयों का उन्मूलन कर दे, ऐसा किये जा रहे हैं। अपने देश में भी कट्टरवाद नेता जिसकी आँखों पर व्यक्तिगत या पनप रहा है, न केवल धर्म के नाम पर, दलीय स्वार्थ की पट्टी न बँधी हो। जो सत्ता बल्कि जाति के नाम पर भी। को जनता की चेरी बना दे। इक्कीसवीं सदी मानवता के लिये सम्पादक - "आपकी समस्या हमारा | शुभ होगी या अशुभ, कहना कठिन है। यह समाधान" 239, दरीबा कलाँ, दिल्ली-110006 सत्य है कि विज्ञान और टेक्नालॉजी के क्षेत्र में बीसवीं सदी में अभूतपूर्व उन्नति हुई, विशेषकर उत्तरार्द्ध में। अंतरिक्ष यात्राएँ सम्पन्न हुई। इक्कीसवीं सदी में सूचना क्रांति के कारण छोटी हो गई दुनिया और भी छोटी हो जाएगी। लेकिन इस क्रांति का -दिसम्बर 2001 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण परम्परा के अद्वितीय श्रमण आचार्य श्री विद्यासागर मुनि श्री अजितसागर संसार परिभ्रमण के चक्र में फंसे हुए दान देकर दिगम्बर मुनि बनाया उस 26 __ आचार्य श्री के 30वें आचार्यपदासंसारी प्राणी की दशा का वर्णन करने जायँ | वर्षीय दिगम्बर मुनि को अपना 'आचार्यपद' तो उसका वर्णन करना असंभव है, और रोहण दिवस पर विशेष आलेख। प्रदान करके निरापद होकर आत्मस्थ होकर उसके दुःख के बारे में कुछ लिखना चाहें आचार्यपदारोहण तिथि मार्गशीर्ष कृष्ण सल्लेखना की साधना में लग गये। ऐसे महान तो इतने शब्द नहीं कि पूरा-पूरा लिखा जा द्वितीया, वि.सं. 2029 आचार्य, ज्ञानमूर्ति श्री ज्ञानसागर जी महाराज सके। अनादिकाल से संसार सागर में पड़ा थे, जो ज्ञान की अनुपम धरोहर, शान्तिमूर्ति हुआ संसारी प्राणी इन्द्रिय सुख और दुःख की लहरों के थपेड़ों को | एवं मान-सम्मान की भावना से कोसों दूर थे। ऐसे आचार्य श्री ज्ञान सह रहा है। संसार का मोह ही इसके संसार को बढ़ाने का कारण है। सागर जी महाराज ने अपने शिष्य मुनिश्री विद्यासागर जी महाराज इस संसारसागर से यदि कोई पार होना चाहता है, तो उसके लिये को मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया वि.सं. 2029, 22 नवम्बर 1972 हमारे आचार्यों ने कहा है कि जो रत्नत्रयरुपी नाव में बैठकर, समता | को नसीराबाद जिला अजमेर (राज.) में अपना चार्य पद का त्याग और संयम की पतवार को हाथ में लेकर नाव को खेता है, वह निश्चित | करके, अपने ही हाथों मुनि विद्यासागर जी को आचार्यत्व के सिंहासन रूप से एकदिन संसारसागर से पार हो जाता है। आज वर्तमान में | पर बिठाकर आचार्य पद से सुशोभित किया और स्वयं नीचे बैठकर इस भौतिकवादी युग में, जहाँ पर इन्द्रियों के विषयों का माया जाल | 'नमोऽस्तु' किया और निवेदन किया- हे आचार्यवर! आज से आप चारों तरफ फैला है, एक अप्रतिम महायोगी, जैन श्रमण परम्परा के | हमारे आचार्य हैं। हमारा यह शरीर जीर्ण हो गया है। मुझे सल्लेखना अद्वितीय श्रमण, ज्ञानध्यान की अनुपम कृति, जिनके अन्दर विद्या का व्रत प्रदान करके अपने निर्यापकत्व में हमारा समाधिमरण करायें। श्री सागर लहरा रहा है, ऐसे महान दिगम्बरजैनाचार्य श्री विद्यासागर जी ज्ञानसागर जी की भावना आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कुशल निर्यापक महाराज ने भी संकल्प लिया और रत्नत्रयरूपी नाव में स्वयं को सवार बनकर पूर्ण की थी। कर, समता और संयम की पतवार को हाथ में लेकर इस संसार सागर अब सोचनीय बात यह है कि एक 26 वर्षीय मुनि विद्यासागर से पार करने का सतत पुरुषार्थ कर रहे हैं। आचार्य भक्ति में कहा | जी में वह क्षमता श्री ज्ञानसागर जी ने अपनी दिव्य दृष्टि से देखी थी, इसलिये उन्होंने अपने 'आचार्य पद' का भार उन्हें सौंपा था। गुरुभक्ति संजमेण य, तरंति संसारसायरं घोरं। । योग्यता के आधार पर ही व्यक्ति को उच्च पदों पर आसीन किया छिण्णंति अटुकम्मं जम्मणमरणं ण पावेंति।। । जाता है, इसीलिये किसी शायर ने लिखा हैऐसे गुरु की भक्ति करने से शिष्य घोर संसारसागर से तर उस आदमी को सौंप दो, दुनिया का कारोबार। जाता है, आठ खर्मों का क्षय भी कर सकता है, और जन्म मरण जिस आदमी के दिल में, कोई आरजू न हो।। से छुटकारा भी पा जाता है। आचार्य परमेष्ठी का लक्षण कहा है- जो ऐसे व्यक्तित्व के धनी को अपने आचार्यत्व का भार सौंपा, स्वयं मोक्षमार्ग पर चलते हैं, और जो भव्य जीव मोक्षमार्ग पर चलना जो जन रंजन से दूर आत्मरंजन के लिये निर्जन स्थानों को अपना चाहते हैं, उन्हें चलाते हैं, ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं। आज हम पड़ाव बनाता है और अध्यात्म रस से भरपूर गाथासूत्रों को अपने देखते हैं कि बालयति संघ के निर्माता परम पूज्य आचार्य श्री विद्यसागर मानस के चिन्तन की स्वर लहरी बनाता है। यह बात अलग है कि जी महाराज ऐसे ही आचार्यत्व को अपने जीवन में धारण करके वर्तमान | आचार्य गुरुवर यदि जंगल में भी पहुंच जाएँ तो वहाँ का वातावरण में भौतिकता की ओर दौड़ने वाली युवा पीढ़ी को धर्म की ओर आकृष्ट मंगलमय हो जाता है। ये गुरुवर ख्याति, पूजा, लाभ से कोशों दूर कर रहे हैं। इस आधुनिक युग के परिवेश में धर्म की बात को इन । रहते हैं, और परनिन्दा और आत्मप्रशंसा की बात उनके मुख से कभी युवाओं के मन तक पहुँचाया और संयम एवं वैराग्य का पाठ इनको नहीं निकलती। इनकी चर्या में संयम और वैराग्य की बात हरपल पढ़ाया और उनके मन में संयम व वैराग्य का बीज बोया, इसी का दिखती है। ऐसे आचार्य गुरुवर का यह 30वाँ आचार्य पद दिवस परिणाम है कि वर्तमान में युवा दिगम्बर जैन मुनियों को आप देख | है, जो भव्य जीवों के लिये कल्याण का मार्ग दिखानेवाला है। आचार्यश्री का जीवन आचरण की कसौटी पर कसा हुआ जीवन अब आपका ध्यान उन क्षणों की ओर ले जाना चाहता हूँ, जिन है, जो स्वयं चलते हुए इस मार्ग पर चलने वालों के लिये सही दिशा क्षणों में एक वयोवृद्ध 81-82 वर्षीय आचार्य अपनी गुरुता को | बोध प्रदान करता है। उन्होंने अहिंसा, और करुणा को प्रत्येक मानस छोड़कर अपने ही शिष्य जिसे क, ख, ग, से पढ़ाया और संयम का | का विषय बनाया है। ऐसे आचार्यश्री के व्यक्तित्व को हम देखते हैं, 14 दिसम्बर 2001 जिनभाषित - Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो किसी शायर की ये पंक्तियाँ सार्थक नजर आती हैं- । भटके-अटके पथिकजनों को समीचीन मार्ग को दिखाया है। स्वयं अमल से जिन्दगी बनती है, जन्नत भी जहन्नुम भी। चलते हुए बहुत से साधकों के लिये अपनी वरदानी छाँव को प्रदान अभी भी गया क्या है, बदल दे जिन्दगी अपनी।। करके उनके मार्ग को प्रशस्त किया। ऐसे आचार्य परमेष्ठी के व्यक्तित्व हम अपनी जिन्दगी के मालिक स्वयं हैं। हम जैसा बनना चाहें, | को हम कलम से लिखने का प्रयास करें तो सूरज को दीप दिखाने वैसा बन सकते हैं। हम आज उन्नति करना चाहते हैं, पर कैसी उन्नति | जैसी बात होगी। ऐसे परम आराध्य गुरुवर ने मुझ जैसे अल्पज्ञ के चाहते हैं? धन-वैभव की उन्नति को अपनी उन्नति मान लेना सबसे लिये पनाह दी, और मेरे जीवन के अज्ञानरूपी तिमिर का हरण करके बड़ी भूल है। वस्तुतः उन्नति क्या है यह इन पंक्तियों में देखें- सही दिशा बोध प्रदान किया और संसार सागर से पार होने के लिये रूह की आजादी, रूहानी तरक्की में है। मुझे भी अपने जैसी रत्नत्रयरूपी नाव में बिठाकर समता और संयम दौलत की तरक्की हुई तो रूह भी खतरे में है। की पतवार प्रदान की। ऐसे अपने गुरुवर का उपकार इस जीवन में - आत्मा की आजादी सबसे बड़ी उन्नति है। आचार्य श्री का | क्या, अनेक भवों में भी नहीं चुका पाऊँगा। चरणों में शत-शत नमन। व्यक्तित्व ऐसा ही है, जिन्होंने मोह के सारे बंधनों को तोड़कर अपने | इन पंक्तियों के साथ विराम लेता हूँआपको निर्मोही बनाया है। आत्मा की आजादी को अपने जीवन का मेरे मालिक अपनी अदालत में इतनी तो जगह रखना। लक्ष्य बनाया, विषय वासनाओं से दूर रहकर मोक्ष के पथिक बनकर मैं रहूँ या न रहूँ, मेरे गुरुवर को सलामत रखना।। आचार्य श्री विद्यासागर का चातुर्मास अभूतपूर्व धर्मप्रभावना के साथ सम्पन्न जबलपुर। परम पूज्य आचार्य श्री 108 विद्यसागर जी महाराज | प्रवेश सत्रारंभ समारोह आचार्य श्री की मंगल देशना के साथ सम्पन्न के चातुर्मास के अवसर पर यहाँ सम्पूर्ण देश के कोने-कोने से तकरीबन | हुआ। 5 लाख श्रद्धालुओं का आगमन दयोदय पशु संवर्धन एवं पर्यावरण जबलपुर के इतिहास में एक और घटना उल्लेखनीय रही। केन्द्र (गौशाला) तिलवाराघाट पर हुआ। वहीं कार्यक्रमों के आयोजन | आचार्य श्री के संघ का पिच्छिका परिवर्तन समारोह 30 सालों से की श्रृंखला ने धर्म एवं नैतिकता की प्रभावना को द्विगुणित कर दिया। | दीपावली के उपरान्त होता था परंतु जबलपुर में यह दीपावली के चातुर्मास स्थापना के साथ ही गौशाला विकासोन्मुख हो उठी। पूर्व हुआ। चातुर्मास के सबसे बड़े माने जाने वाले इस आयोजन की वहीं पर्युषण पर्व के दस दिवसी आयोजन में देश भर के मूर्धन्य विद्वानों | स्वीकृति रविवार को आचार्य श्री ने दी और मंगलवार को आयोजन का जमघट दयोदय तीर्थ पर उमड़ पड़ा। आचार्य शांतिसागर जी का हो गया। डॉ. हीरालाल जन्म शताब्दी समारोह के अवसर पर स्मारिका समाधि दिवस, रक्षाबंधन पर्व, पार्श्वनाथ भगवान का निर्वाण दिवस का विमोचन समारोह भी अत्यधिक गरिमापूर्ण रहा। (मुकुट सप्तमी) कार्यक्रमों के साथ ही करेली में आयोजित आचार्य श्री के सम्मुख उपस्थित होकर आशीर्वाद ग्रहण कर पंचकल्याणक की बचत राशि 11 लाख रुपये (जिसमें से 6 लाख गौरक्षा एवं मांस निर्यात को रोकने से संबंधित दिशा निर्देश प्राप्त पूर्व में एवं 5 लाख दयोदय परिसर में) श्री सम्मेद शिखर जी विकास करने वाले राजनेताओं में श्रीमती मेनका गाँधी (केन्द्रीय संस्कृति मंत्री), हेतु भेंटकर दान राशि के सदुपयोग का एक उदाहरण प्रस्तुत किया श्री सत्यनारायण जटिया (केन्द्रीय अधिकारिता मंत्री), राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक श्री के.एस. सुदर्शन जी, म.प्र. के गया। वनमंत्री श्री हरवंश ठाकुर, गृह राज्यमंत्री दीवान चंद्रभान सिंह, म.प्र. दीन-दुखियों की सेवा भावना से स्थापित भाग्योदय तीर्थ मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष श्री गुलाब गुप्ता, जबलपुर के प्रभारी (सागर) द्वारा दयोदय में चिकित्सा शिविर का आयोजन कर 200 मंत्री अजय सिंह राहुल, म.प्र. विधानसभा उपाध्यक्ष ईश्वरदास रोहाणी, मरीजों का परीक्षण कर 60 मरीजों की चिकित्सा की गई एवं आचार्य जबलपुर महापौर, सांसद महोदया, विधायकगण के साथ, पत्रकार, श्री के आशीर्वाद से सभी मरीज स्वस्थ होकर गये।। साहित्यकार, अधिकारी एवं प्रबुद्धजन व न्यायाधीश भी निरंतर सम्पूर्ण देश से आये डाक्टरों की एक राष्ट्रीय संगोष्ठी 'मेडिकल | उपस्थित रहे। भारत के सबसे बडे मार्बल निर्यातक श्री आर के पाटनी बेसिस आफ जैनिज्म' एक सारभूत आयोजन रहा। भारत वर्षीय | एवं आचार्य श्री के बचपन के बालसखाओं की उपस्थिति भी दिगम्बर जैन प्रशासकीय प्रशिक्षण संस्थान के नये प्रशिक्षणार्थियों का | उल्लेखनीय रही। -दिसम्बर 2001 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण : जीवनसुधार की कुंजी स्व. पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया काय और कषायों को कृश करते हुए शांत भावों से शरीर के | सद्गति प्राप्त करने में वह समर्थ होती है, और जब सद्गति प्राप्त त्याग को समाधिमरण कहते हैं। सल्लेखना, सन्यासमरण, अन्त्य- हो जाती है तो पूर्वोपार्जित दुष्कर्म भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाते, विधि, पंडितमरण, अंतक्रिया, मृत्यु-महोत्सव, 'आर्याणां महाक्रतुः' | और अगर अन्त समय में परिणाम कलुषित हो जाते हैं तो दुर्गति आदि सब इसी के नाम हैं। समाधिमरण धारण करने वाले को साधक, । प्राप्त होती है, जिसमें पूर्वोपार्जित शुभ कर्मों को भोगने का अवसर क्षपक, प्रेयार्थी आदि कहते हैं। ही नहीं मिलता। इस तरह सारा काता पींदा कपास या गुड़ गोबर हो अनेकों अपराध करने पर भी अंत में मनुष्य क्षमा माँगने पर जाता है और दुर्गति की परम्परा बढ़ जाती है। इससे जाना जा सकता जैसे अपराधों से मुक्त हो जाता है, उसी तरह जीवन भर पापारंभ | है कि समाधिमरण की जीवन में कितनी महत्ता है। करनेवाला भी अगर अन्त समय में समाधि धारण कर लेता है तो तप्तस्य तपसश्चापि पालितस्य व्रतस्य च। अवश्य सुगति का पात्र होता है। 'अन्त भला सो सब भला' इस पठितस्य श्रुतस्यापि फलं मृत्युः समाधिना।। बात को जैन ही नहीं जैनेतर संप्रदायों में भी महत्त्व दिया गया है। (मृत्यु महोत्सव, 16) वैदिक पुराणों में अनेक ऐसे आख्यान आते हैं जिनमें अन्त समय (तपे हुए तप, पालन किए हुए व्रत और पढ़े हुए शास्त्रों का में नारायण का नाम लेने वाले पापी भी बैकुंठगामी हुए हैं। अजामील | फल समाधिमरण में ही है- बिना समाधिमरण के ये वृथा हैं।) ने सारी जिन्दगी पापकर्म में बिताई परन्तु अन्त समय में नारायण | यहाँ यह शंका नहीं करना चाहिए कि 'जब समाधिमरण से का नाम लेने से वह बैकुण्ठवासी हुआ। इसी बात को जैन कथाकारों | ही सब कुछ होता है तो क्यों जप-तप-चारित्र की आफत मोल ली ने भी दूसरे शब्दों में चित्रित किया है। जीवन्ध कुमार ने मरणासन्न जाय, मरण समय समाधि ग्रहण कर लेंगे।' परन्तु ऐसा विचारना ठीक कुत्ते को णमोकार मन्त्र दिया तथा तीर्थंकर पार्श्वप्रभु ने अग्नि में जलते | नहीं क्योंकि सारी जिन्दगी तप और चारित्र, काय तथा कषाय के कृश हुए दो सों को नमस्कार मंत्र सुनाया जिसके प्रभाव से ये तिर्यंच | करने का अभ्यास इसीलिए किया जाता है कि अन्त समय में भी जीव भी देवगति को प्राप्त हुए। महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद | परिणाम निर्मल रहे और समाधि ग्रहण करने में सहूलियत रहे। संभवतः अपना कार्य पूरा हुआ जानकर सहर्ष मृत्यु का स्वागत करने वाले इसीलिए कुन्दकुन्द आचार्य ने सल्लेखना को शिक्षाव्रत में स्थान देने भीष्म पितामह की 'इच्छा मृत्यु' (इच्छापूर्वक मरण) भी जैन की दूरदर्शिता की है। समाधिमरण और तपःचारित्र में परस्पर कार्यसल्लेखना से मिलती हुई है। कारणरूपता है। जब उपसर्ग और अकाल मृत्यु का अवसर आ सारी जिन्दगी जप - तप करने पर भी अगर मृत्यु के समय उपस्थित हो यथा - सिंहादि क्रूर जन्तुओं का अचानक आक्रमण, सोते समाधि धारण न की जावे तो सारा जप तप उसी तरह वृथा होता हुए घर में भयंकर अग्नि लग जाना, महावन में रास्ता भूल जाना, है जिस तरह विद्यार्थी पूरे वर्ष भर पाठ याद करे और परीक्षा के समय बीच समुद्र में तूफान से नाव डूबना, विषधर सर्प का काट खाना, उसे भूल जाये या शस्त्राभ्यासी योद्धा रण क्षेत्र में जाकर कायर बन आदि, तब पूर्वकृत चारित्र का अभ्यास ही काम आता है। सारी जिंदगी जाये या कोई दूर देशान्तर से धनोपार्जन करके लाये और उसे गाँव | चारित्र में बिताने वाला अगर अन्त समय में असावधान होकर अपने के समीप आकर लुटा बैठे। बिना समाधिमरण के चारित्रवान् जीवन | आत्मधर्म से विमुख हो जाये तो उसका दोष तपः चारित्र पर नहीं भी फलहीन वृक्षकी तरह निस्सार होता है। इसी को स्वामी समन्तभद्रने है, यह तो उसके पुरुषार्थ की हीनता और अभ्यास की कमी है या कितने सुन्दर शब्दों में कहा है - बुद्धि विकार है। इसे ही तो 'विनाशकाले विपरीत बुद्धिः' कहते हैं। अन्तक्रियाधिकरणं तपःफलं सकलदर्शिनः स्तुवते। समाधिमरण का इच्छुक मृत्यु से भयभीत नहीं होता। वह अच्छी तस्मात् यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम्। तरह समझता है कि मरण आत्मा का नाश नहीं है, मरण तो दूसरा (रत्नकरंडश्रावकाचार, 123) जन्म धारण करने को कहते हैं। वह मृत्यु को महोत्सव समझता है, अर्थ- समस्त मतावलम्बी तप का फल अन्तक्रिया समाधिमरण | इसे आत्मा का शरीर के साथ विवाह समझता है, शरीर का शरीर पर ही आधारित बताते हैं अतः पुरुषार्थ भर समाधिमरण के लिए | के साथ विवाह तो लौकिक है वह इसे अलौकिक विवाह समझता प्रयत्न करना चाहिए। भारतीय संस्कृति में जो अन्तक्रिया पर इतना | है और इस तरह मृत्यु का सहर्ष आलिंगन करता है। तेल हीन दीप महत्त्व दिया गया है उसमें वैज्ञानिक रहस्य है, इससे भारतीय महर्षियों और दग्ध रज्जु तथा वृक्ष के सूखे हुए पत्ते की तरह जीर्ण और शिथिल के आत्म-तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा जानी जाती है। मृत्यु के समय अगर शरीररूपी नौकर को जब वह अपने चारित्र साधन के लिये अयोग्य आत्मा कषायों से सचिक्कण (चीकनी) नहीं होती तो वह अनायास | समझता है तो उसे पेंशन देकर दूसरे योग्य नौकर (शरीर) का प्रबन्ध शरीर त्याग कर देती है और उसे मारणांतिक संक्लेश भी विशेष नहीं | करता है। इतनी उदात्त भूमिका पर स्थित साधक कभी कायर नही होता, उसका मानसिक संतुलन ठीक रहता है जिससे स्वेच्छानुसार | हो सकता, वह तो परम मरणशूर, आत्म विजयी, मृत्युंजयी है। 16 दिसम्बर 2001 जिनभाषित Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मघात (विष खाकर, तालाब कुँए आदि में डूबकर, स्वयं बोधकथा फाँसी लगाकर या शस्रास्त्र से अपनी जीवनलीला समाप्त करना), सती प्रथा (मृत पति के साथ चिता में जल जाना), आमरण अनशन धर्मराज का वात्सल्य-भाव (अपनी किसी माँग की पूर्ति के लिये मरण पर्यन्त आहार त्याग करना), कौरव और पाण्डव दोनों एक ही कुटुम्ब में हुए थे। आदि समाधिमरण की कोटि में नहीं आ सकते। समाधिमरण और इनमें राज्यलोभ के कारण उनमें परस्पर में विरोध हो गया था। कौरवों आकाश-पाताल, काँच-हीरा, प्रकाश-अंधकार, दिन-रात, और 3,6 | ने पाण्डवों को इतना अधिक सताया कि उन्हें वन में भी शान्ति के अंक की तरह महान अन्तर है। ये कषायों की तीव्रता से, स्वार्थ से नहीं रहने दिया। कौरव सौ भाई थे पाण्डव थे पाँच भाई। की भावना से और कलुषित हृदय से किए जाते हैं जब कि समाधिमरण | दुर्योधन कौरवों में सबसे बड़ा था। एक बार उसे गन्धों शान्त परिणामों से विवेकपूर्वक बिना किसी वाञ्छा के किया जाता | ने बन्दी बना लिया। धृतराष्ट्र ने निवेदन किया धर्मराज युधियुष्टिर से उसे मुक्त कराने के लिए और धर्मराज ने कह दिया अपने दुक्खखओ कम्मखओ समाहिमरणं च बोहिलाओ य। छोटे भाई भीम से। मम होउ जगद्बान्धव तव जिणवर चरणसरणेण।। युधिष्ठिर से दुर्योधन को मुक्त कराने की बात सुनकर भीमराज क्रोध से भर उठे। बोले भइया! उस पापी को मुक्त जैन निबन्ध रत्नावली कराने की बात करते हो, जिसके कारण हमें वनवास की यातनाएँ (प्रथम भाग) से साभार सहना पड़ी। उस अन्यायी को मुक्त कराने की बात करते हो, जिसने भरी सभा में द्रौपदी को निर्वसन करने का दुस्साहस किया 1. गुणभद्ररचित उत्तरपुराण में भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा ‘णमोकार था? धर्मराज भइया! अगर आप किसी और को मुक्त करने की मन्त्र' सुनाये जाने का उल्लेख नहीं है। उसमें मात्र यह कहा गया है बात करते तो अनुचित नहीं होता किन्तु दुर्योधन को मुक्त कराने कि नाग और नागी उनके उपदेश से शमभाव को प्राप्त हुए और मरकर मैं नहीं जाऊँगा। धरणेन्द्र - पद्मावती हुए। यहाँ सुभौमकुमार पार्श्वनाथ का ही दूसरा धर्मराज युधिष्ठिर का हृदय करुणा से भर गया। करुणाभाव नाम है। (देखिए सर्ग 73, श्लोक 95-118 तथा पृष्ठ 703 पर आँखों से बहने लगा। अर्जुन मौन रूप से यह सब सुन भी रहे व्यक्ति वाचक शब्दकोष) थे और देख भी रहे थे। उन्होंने भइया युधिष्ठिर की आँखों को सम्पादक देखा और उनके हृदय के वात्सल्यभाव को समझा। वात्सल्य के आगे वे भूल गये दुर्योधन का वैर। उठा लिया अपना गाण्डीव और शीघ्र जा भिड़े गन्धर्वो से। घनघोर युद्ध कर गन्धर्वो को सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर जी में भव्य पराजित किया और दुर्योधन को गन्धर्वो से मुक्त करा लाये। धर्मराज ने समझाया - हम परस्पर में सौ कौरव और पाँच आर्यिकादीक्षा संपन्न पाण्डव हैं। परस्पर में लड़ भिड़ सकते हैं, किन्तु बाहरवालों के लिए हम सदा एक सौ पाँच भाई ही हैं। धर्मराज के वात्सल्य परम पूज्य आ. कल्प विवेक सागर जी महाराज द्वारा को देखकर और सुनकर भीमराज लज्जित होकर नतमस्तक हो दीक्षित परम पूज्य आचार्य विद्यासागर जी माहराज की संघस्था गये। आर्यिका 105 विज्ञानमति माता जी ने 18 नवम्बर 2001 साधर्मियों पर स्नेह रखना वात्सल्यभाव है। हमारे भीतर को पांच बालब्रह्मचारिणी बहनों को आर्यिकादीक्षा प्रदान की। युधिष्ठिर जैसी एकता और वात्सल्य की भावना होनी चाहिए। लैकिक और धार्मिक ज्ञान से सुशिक्षित बहनों के विचारों ने सजातीय की उन्नति हमारी ईर्षा का कारण न बने। मतभेद रहे वातावरण को वैराग्यमय बना दिया। आर्यिकाओं के नवीन तो भले रहे, पर मनभेद कभी न रहे। नामकरण को सुन अपार जनसमुदाय हर्ष से विभोर हो उठा। 'विद्याकथाकुंज' से साभार नवीन नाम इस प्रकार हैं - आर्यिका वृषभमति जी (ब्र. माधुरी, शाहपुर), आर्यिका आदित्यमति जी (ब्र. अर्चना रहली), आर्यिका पवित्रमति जी (ब्र. संध्या नागपुर), आर्यिका दयोदय पशु सेवा केन्द्र गोशाला गरिमामति जी (ब्र. सीमा कर्रापुर) आर्यिका संभवमति जी (ब्र. सेसई का उद्घाटन ज्योति रहली) बनी। भगवान महावीर स्वामी के 2600वें जन्म जयंती वर्ष इसी अवसर पर नव दीक्षित आर्यिका आदित्यमति जी में अहिंसा के पथ प्रदर्शक और देश के महान संत आचार्य श्री के गृहस्थ जीवन के माता-पिता को आर्यिका विज्ञानमति जी विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से मुनि श्री क्षमासागर जी, की पुरानी पिच्छिका प्राप्त हुई। कार्यक्रम का संचालन नरेन्द्र जी मुनि श्री भव्य सागर जी के सानिध्य में श्री विठ्ठलभाई पूर्व मंत्री एवं दीपक जी आष्टा ने किया। म.प्र. शासन के मुख्य आतिथ्य में दयोदय पशु सेवा केन्द्र शैलेन्द्र सिंघई कटंगी, जबलपुर गोशाला सेसई का उद्घाटन समारोह भव्यता से सम्पन्न हुआ। -दिसम्बर 2001 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. दरबारीलाल जी कोठिया की अन्तर्यात्रा डॉ. शीतलचन्द्र जैन [ 3 जनवरी 2002 समाधिमरण दिवस पर विशेष आलेख जैन न्याय-दर्शन के मूर्धन्य विद्वान्, । एवं सायं काल दो बार गुरुदेव के मुख से | परिणामों से किए गए निवेदन को सुनकर 3 राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित डॉ. दरबारी जब आगम/अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों को आप | जनवरी को प्रातः 8.45 पर आचार्य लाल जी कोठिया आचार्यप्रवर संतशिरोमणि सुनते तो सहज/बरबस ही आपके मुख से विद्यासागर जी महाराज ने पहले आठवीं तथा श्री विद्यासागर जी महाराज तथा 42 मुनिराजों 'वाह-वाह' निकल पड़ता। साथ ही यह भी बाद में नवमी परिग्रहत्याग प्रतिमा का संकल्प के सान्निध्य में आगमोक्त विधि से सल्ले- वे अक्सर कह उठते कि गुरुदेव! मुझसे देर आपको कराया। खना व्रत धारण कर 3 जनवरी 2000 को हो गई। कुछ और शीघ्र आता तो अधिक 3 जनवरी 2000, सोमवार, पौष समाधिमरण को प्राप्त हुए। 88 वर्षीय डॉ. | समय तक यह दुर्लभ अमृतपान करने का | कृष्ण द्वादशी वी.नि.सं. 2526, विक्रम कोठिया को आपके परिजन भाग्योदय तीर्थ, सुअवसर प्राप्त कर सकता। संवत् 2056 को आपने इस जीवन की सागर की एम्बुलेंस के द्वारा श्री दिगम्बर जैन आपके कुटुम्बी भाताद्वय श्री विभव- | अंतिम श्वाँस अपराह्न 3.50 पर ली। शाम रेवातट सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर (देवास) कुमार एवं श्री दुलीचंद कोठिया, बीना को सिद्धोदय तीर्थ परिसर में ही आपके नश्वर म.प्र. लेकर गए थे। हाथ-पैर तथा शरीर के (सागर) तथा ब्रह्म. कपिल जैन, खण्डवा के शरीर को विमान में बिठाकर तथा भाता अन्य भाग सूजने से शरीर कुछ अधिक द्वारा की गई अहर्निश वैयावृत्य से आपके विभवकुमार कोठिया के द्वारा अग्नि संस्कार शिथिल एवं मोटा हो गया था। स्ट्रेचर पर मानो सारे कष्ट ही विस्मृत हो गए। साथ ही क्रिया सम्पन्न हुई। रखकर जब आपको आचार्य श्री विद्यासागर आचार्यश्री जी का सान्निध्य पाकर आपके जीवन वृत्त जी महाराज के पास लाया गया, तब लगता परिणामों में विशुद्धता प्राप्त हुई, अतः आपने प्रतिष्ठाचार्य पितामह पं. मकुन्दीलाल था कि स्थिति अत्यंत गंभीर है। परन्तु गुरुवर अनेक बार मुनिराजों को देखकर आचार्यश्री जैन के द्वितीय पुत्र श्री हजारीलाल कोठिया की का सान्निध्य एवं आशीष पाकर कुछ ही घण्टों | जी से निवेदन किया कि मुझे भी इस श्रेणी धर्मपत्नी श्रीमती चिरोंजाबाई की पवित्र कुक्षि में आप पूर्ण चैतन्य हो गए। इतना ही नहीं, | में सम्मिलित कर लीजिए। शारीरिक स्थिति से तीर्थंकर पार्श्वनाथ स्वामी की समवशरण आपने फिर आचार्यश्री से संस्कृत में ही देखकर आचार्यश्री आपको आवश्यक निर्देश स्थली सिद्धक्षेत्र नैनागिरी (छतरपुर) म.प्र. में अधिकांश वार्तालाप कर जीवन के शेषांश देते तो आप उसे शब्दशः पालन करने में आषाढ़ कृष्णा द्वितीया, वि.सं. 1998 उन्हीं के चरणों में व्यतीत करने हेतु आग्रहपूर्ण तत्पर हो जाते। 2 जनवरी 2000 की शाम तदनुसार 11 जून 1911 को अद्वितीय निवेदन किया तथा सल्लेखनापूर्वक समाधि- को जब आपने स्वेच्छा से नियमित शक्कर प्रतिभा के धनी द्वितीय पुत्र दरबारीलाल ने मरण कराने हेतु भावभरा निवेदन भी किया। | तथा बादाम आदि के त्याग करने की भावना जन्म पाया था। आपके जन्म के 2-3 वर्ष पूर्व बुधवार 22 दिसम्बर 99 को प्रातः प्रदर्शित की तब आचार्यश्री ने पुनः पूछा ही आपके पिताश्री क्षेत्र पर स्थित बाबा यहाँ पहुँचे डॉ. कोठिया के बारे में आवश्यक पंडितजी! इनको ग्रहण करने का विकल्प है दौलतराम वर्णी जैन पाठशाला के सम्भवतः पूछताछ कर गुरुदेव ने गुरुवार को 5 दिनों या त्याग करने का? आकस्मिक प्रश्न सुनकर प्रथम अध्यापक नियुक्त हुए थे। 3 वर्ष की के लिए आहारप्रक्रिया में परिवर्तन हेतु निर्देश | पहले तो वे चौंक गए, फिर पुनः बोले नहीं, आपकी उम्र में आपके पिता के मित्र हडुआ दिया। अतः दाल, दलिया, लौकी, मुनक्का, इनका तो त्याग करना है। ये ही मुझे प्रिय थे। (सागर) निवासी मालगुजार पन्नालाल जी पानी, अनार रस, आँवला एवं नींबू रस तथा | अब आपके वचनामृत सुनकर ये भी नीरस बड़कुर अपने ग्राम में धार्मिक अध्यापन कार्य जल के अतिरिक्त शेष अन्य प्रकार के आहार लगने लगे हैं। अभी तक कुर्सी पर बिठाकर हेतु आपके पिताजी को साथ ले गए। वहीं पर का आपने त्याग कर दिया। 29 दिसम्बर 99 दर्शनार्थ लाये जाने वाले कोठिया जी को मानो आपका प्राथमिक अध्ययन अभी प्रारंभ ही को दलिया रूप अन्न का भी 3 दिन के लिये । संजीवनी वटी ही मिल गई, जो 3 जनवरी हुआ था कि दुर्दैव आड़े आ गया और मात्र आपने स्वेच्छा से त्याग कर दिया। इस को अपने ही कदमों से चलकर गुरुदेव के 6 वर्ष की उम्र में ही दरबारीलाल के सिर से प्रक्रिया से जहाँ शरीरगत मल-विकृति का दर्शनार्थ पहुँचे थे। बाद में आपने आचार्यश्री पिता की वरदानी छाया छिन गई। माता संशोधन हुआ, वहीं आपके शरीर की सूजन से पुनः निवेदन किया कि कम से कम ग्यारह चिरोंजाबाई ने वैधव्यजीवन के साथ बड़ी में कमी आयी, हाथ-पैर की शिथिलता कम प्रतिमाओं का पालन तो मैं कर ही लूँगा, अतः कठिनाई से आपका एवं छोटी बहिन का होकर स्वाश्रित संचालन में विकास हुआ और आप मेरी पात्रता को समझकर व्रत-संकल्प पालन-पोषण किया। आवाज भी अधिक स्पष्ट आने लगी। प्रातः प्रदान करें। आपकी तीव्र भावना एवं जाग्रत 18 दिसम्बर 2001 जिनभाषित - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्या-अध्ययन कैलाशचंद सिद्धांतशास्त्री की प्रेरणा से | से 77 तक मानद मंत्री रहे, अतः इस संस्था दरबारीलाल ने अपनी कुशल प्रज्ञा से बनारस आ गए और स्था. महा. में रहकर | को भी वृद्धिंगत करने एवं साहित्य प्रकाशन दादा तथा नाना के ग्राम सौरई में विद्याध्ययन न्यायाचार्य (चतुर्थ) परीक्षा में पास हुए। सन् | में आपका योगदान रहा। तभी यह संस्था कर चौथी कक्षा में अपने विद्यालय के साथ 1937 में वीर विद्यालय, पपौरा जी में 3 | आगे शोध संस्थान का रूप पा सकी। अन्य विद्यालयों में भी श्रेष्ठतापूर्वक प्रथम वर्ष तक धर्म प्राध्यापक रहकर फिर ऋषभ समाज-सेवा स्थान प्राप्त कया। 1925 में जार्ज पंचम के | ब्रह्मचर्याश्रम, मथुरा में दो वर्ष तक प्राचार्य पच्चीस सौवें भगवान महावीर निर्वाभारत आगमन काल में आपको पारितोषक पद का दायित्व वहन किया। सन् 1942 से णोत्सव वर्ष के अवसर पर दिगम्बर जैन रूप में जार्ज पंचम की मुद्रावाला मेडल 50 तक पं. जुगल किशोरजी मुख्तार के श्रमण परंपरा का इतिहास लेखन कार्य संपन्न प्रतियोगिता में प्राप्त हुआ। बाद में श्री महावीर साहचर्य में रहकर वीर सेवा मंदिर, सरसावा हो, इस भावना से शिवपुरी (म.प्र.) में सन् दिगम्बर जैन संस्कृत महा.. साढमल से | में जैन धर्म के ग्रन्थों के संशोधन संपादन 73 में नेमीचंद जैन गोंदवालों के द्वारा संपन्न प्रवेशिका, विशारद प्रथमखण्डरूप धार्मिक तथा लेखन कार्यों में दत्तचित्त रहे। वहाँ से कराए गए पंचकल्याणक प्रतिष्ठा अवसर पर तथा संस्कृत शिक्षा प्राप्त की। विशेष सेवानिवृत्त होकर दिल्ली में कुछ दिनों तक आपने भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् अध्ययन की भावना से तत्पश्चात् आपने जैन पुस्तक भण्डार खोलकर उसका संचालन परिषद के अध्यक्ष के रूप में संस्था के रजत शास. संस्कृत महा., काशी (संप्रति-सम्पू. किया किन्तु शीघ्र विद्यारसिक कोठिया जी की जयंती महोत्सव का आयोजन किया। अधिसंस्कृत विश्व.) से संस्कृतप्रथमा एवं बंगीय प्रेरणा से संस्थापित समंतभद्र संस्कृत महा., वेशन में लिए गए निर्णय के अनुरूप ग्रन्थ संस्कृत परीक्षा एसो., कलकत्ता की व्याकरण दिल्ली में प्राचार्य पद पर रहकर सात वर्षों आलेखन का दायित्व डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री परीक्षा में सफलता प्राप्त की। स्याद्वाद महा. तक संस्था का विकास किया। अध्यापन के ज्योतिषाचार्य को सौंपा गया। कालान्तर में वाराणसी में अध्ययन प्राप्त कर नव्यन्याय साथ विद्याध्ययन भी अनवरत जारी रहा, 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य मध्यमा परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। अतः शास्त्राचार्य (जैनदर्शन) का अंतिम परम्परा' के नाम से 4 खण्डों में वह ग्रन्थ ज्ञानाराधना की भावना से विद्याध्ययन की खण्ड तथा एम.ए. संस्कृत परीक्षा बनारस तत्कालीन उपराष्ट्रपति माननीय श्री बी.डी. इच्छा बलवती होती गई, अतः आपने हिन्दू विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण की। 3 वर्ष तक जत्ती के करकमलों से विमोचित हुआ। इसी प्राचीन न्यायशास्त्री, प्राचीन न्यायाचार्य प्रथ- दिगम्बर जैन कालेज, बड़ौत में संस्कृत अवसर पर रजत जयंती स्मारिका प्रकाशन मखण्ड, काशी हिन्दू विश्व, से, जैनदर्शन प्राध्यापक रहकर सन् 60 में बनारस हिन्दू का निर्णय तथा 'महावीर विद्या फण्ड' की शास्त्री, जैनदर्शनशास्त्राचार्य (दो खण्ड) विश्व में प्राच्यविद्या धर्म-विज्ञान-संकायगत स्थापना कर जैन विद्वान् या उनकी संतान को बं सं, एसो. कलकत्ता की जैन न्याय (प्रथम) जैन दर्शन-न्याय के प्राध्यापक पद पर शिक्षा कार्य में सहायतार्थ कोष की स्थापना एवं मध्यमा, न्यायतीर्थपरीक्षा भी उत्तीर्ण की। नियुक्त हुए। इसी विश्वविद्यालय में ही सन् की गई। माणिकचंद दिग. जैन परीक्षालय बम्बई से | 70 से 74 सेवानिवृत्ति काल तक जैन-बौद्ध विशारद (द्वितीय एवं तृतीय खण्ड) तथा दर्शन के रीडर पद पर रहकर अध्यापन कार्य साधु-संगतिसिद्धांतशास्त्री परीक्षा के धर्म-न्याय-साहित्य करते रहे। इसी बीच जैन साहित्य के मूर्धन्य समाज सेवा, प्रवचन, अध्यापन कार्य रूप तीनों खण्ड उत्तीर्ण किए। मनीषी पं. जुगल किशोर मुख्तार ने आपकी के अतिरिक्त अवसर प्राप्त होने पर साधुप्रतिभा का मूल्यांकन कर अपने साहित्य कार्य संगति अवश्य करते थे सन् 80 में गृहस्थाश्रम प्रवेश हेतु मुनि श्री समंतभद्र महाराज के सान्निध्य श्रवणबेलगोला में चातुर्मास के दौरान लगभग युवावय में छिंदवाड़ा (म.प्र.) निवासी में कुम्भोज-बाहुबली में अपना उत्तराधिकारी 150 पिच्छिकाधारियों के साथ ऐलाचार्य श्री छोटे साहब श्री खुशालचंद पटोरिया की नियुक्त किया। एवं दिल्ली जाकर एक विद्यानंद महाराज के सान्निध्य में द्रव्य-संग्रह सुपुत्री चमेलीदेवी के साथ दाम्पत्य जीवन समारोह आयोजित कर डॉ. कोठिया को एवं न्यायदीपिका ग्रंथों का वाचन करने का सन् 1936 में प्रारंभ हुआ। आपने भी अपना 'धर्मपुत्र' घोषित किया। अवसर प्राप्त किया। आचार्य श्री विद्यासागर विद्यालयीन शिक्षा के अतिरिक्त विशारद, साहित्यरत्न, प्रभाकर परीक्षा उत्तीर्ण की थी। जी महाराज के ससंघ सान्निध्य में पं. फूलचंद साहित्य सेवा जी सिद्धांतशास्त्री, पं. कैलाशचंदजी सन् 1985 में चमेलीदेवी का अवसान हो वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट की वाराणसी में सिद्धांतशास्त्री, पं. जगमोहनलालजी सिद्धांत जाने पर पं. दरबारी लाल कोठिया के जीवन स्थापना कर सन् 60 से आप मानद मंत्री के शास्त्री, पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य, पं. में विरक्ति के बीज गहरे होते गए। रूप में साहित्यलेखन-प्रकाशन कार्य में जवाहरलालजी सिद्धांत शास्त्री, पं. बालचंदजी अध्यापन कार्य संलग्न रहे। अतः आपके मार्गदर्शन में उक्त सिद्धांत शास्त्री के साथ षट्खण्डागम एवं संस्थान से शताधिक ग्रन्थ प्रकाशित एवं सन् 1939 में सर्वप्रथम भा.दि. जैन कषायपाहुड के वाचना शिविरों में भी आपने पुनर्मुद्रित भी हुए। संप्रति, आप अध्यक्ष पद संघ अंबाला में तत्त्वोपदेशक के रूप में भाग लिया तथा सागर खुरई, ललितपुर पर रहकर जिनवाणी की सेवा में तत्पर थे। आपने कार्य प्रारंभ किया। बाद में पं. आदि में वाचन करने का सौभाग्य भी प्राप्त श्री गणेश वर्णी ग्रंथ माला काशी के सन् 64 - दिसम्बर 2001 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-सृजन पत्रिकाओं में आपके द्वारा लिखित 200 से | प्रदान करने की घोषणा कर आपको सम्मानित समय-समय पर जैन धर्म-दर्शन के अधिक आलेख भी आपकी प्रतिभा का | किया । डॉ, कोठिया ने प्राप्त सम्मान राशि विभिन्न पक्षों पर आपने अपनी मेधा का परिचय सहज ही दिला देते हैं। 'नैनागिरी से निर्धन, व्युत्पन्न प्रतिभावान छात्रों को उपयोग कर संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी में गंगा तट तक' आपकी अप्रकाशित आत्म- | छात्रवृत्ति देने हेतु प्रदान कर दी। ग्रन्थों का आलेखन किया। संस्कृत रचनाओं कथा भी उपलब्ध है। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी आदि में जैन में प्रमुख है- (1) जैन दर्शने प्रमाण चिन्तनम्, सम्मान साहित्य सृजन, न्याय-दर्शन के सर्वांगीण (2) जैनप्रमाण मीमांसायाः स्वरूपम्, (3) जैन समाज के विभिन्न समायोजनों में | विकास में अप्रतिम योगदान को दृष्टिगत जैन दर्शने करुणायाः स्वरूपम् (4) श्रुतपं- आपकी प्रखर मेधा का सम्मान न्यायालंकार, रखकर जैन समाज के द्वारा सन्'82 में 'डॉ. चमी, (5) जम्बूजिनाष्टकम्, (6) आत्मा न्यायरत्नाकर, न्यायवाचस्पति आदि अलं दरबारीलाल कोठिया अभिनन्दन ग्रन्थ' प्रकाअस्ति न वा, (7) द्रव्यसंग्रहसंस्कृत टीका, कारणों से संपन्न हुआ। आपकी कृति 'प्रमाण शित कर आपको भव्य समारोह में समर्पित (8) न्यायदीपिकायाः प्रकाशाख्यं टिप्पणम् परीक्षा' को उत्तर प्रदेश शासन द्वारा एक हजार किया गया। आपकी रचनाधर्मिता के विविध तथा (9) न्यायदीपिकायाः प्रश्नोत्तरावलिः। रुपये का 'प्रादेशिक सम्मान' प्राप्त हुआ। वीर आयामों को दृष्टिगत करके बरकतउल्लाह प्राकृत भाषा में आपके द्वारा 'जिनणियायनिर्वाण भारती, नई दिल्ली ने सन् 55 में विश्वविद्यालय भोपाल (म.प्र.) के प्राकृत एवं विज्जाविगासो' (अप्रकाशित) न्याय विष2500 रुपये के पुरस्कार के साथ 'न्याया तुलनात्मक भाषा विभाग के अन्तर्गत विगत यक शोधपरक प्रबंध लिया गया है। इसके लंकार' उपाधि से विभूषित किया। भारतीय वर्ष सन् 99 में प्रो. डॉ. भागचन्द जैन अतिरिक्त प्राकृत भाषागत 'वृहद् द्रव्यसंग्रह' ज्ञानपीठ, नई दिल्ली की स्वर्ण जयंती अवसर 'भागेन्दु' सचिव म.प्र. संस्कृत अकादमी, ग्रंथ का संपादन एवं भाषा लेखन तथा पर राष्ट्र के सर्वश्रेष्ठ विद्वान' के रूप में भोपाल के कुशल निर्देशन में श्री महेश प्रसाद 'नियमसागर' ग्रन्थ की 53 वी गाथा की 11000 रुपये के पुरस्कार एवं वाग्देवता जैन, संस्कृत विभाग, हमीदिया महा., विस्तृत व्याख्या भी लिखी है। राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रतिभा, शाल-श्रीफल से सम्मानित हुए। भोपाल ने 'डॉ. दरबारी लाल कोठिया की में आपने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की म.प्र. के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह की संस्कृत एवं प्राकृत रचनाओं का अनुशीलन' पीएच.डी. हेतु सन् 69 में जैन तर्कशास्त्र में अध्यक्षता में जैन समाज गुना द्वारा 'जैन विषय पर 200 पृष्ठीय शोध प्रबंध लिखकर अनुमान विचार नामक शोध प्रबंध लिखा। पुराण कोष' के संपादन कार्य हेतु 5000 पीएचडी उपाधि प्राप्त की। वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट से प्रकाशित उक्त शोध रुपये की सम्मान राशि प्राप्त हुई। इसी कोश आचार्य श्री समन्नभद्र जी महाराज से प्रबंध के अतिरिक्त आपकी 'जैन तत्त्वज्ञान संपादन कार्य पर दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र श्री वर्षों पूर्व आपने शोलापुर (महा.) के निकट मीमांसा' कृति में विभिन्न मौलिक निबंध महावीर जी के द्वारा आपको 11000 रुपये वर्ती स्थान पर द्वितीय प्रतिमा के व्रतग्रहण संकलित हैं। 'जैन दर्शन और न्यायः उद्भव की सम्मान निधि प्रदान कर आपके श्रम कार्य कर संयमित जीवन जीना प्रारंभ किया था। और विकास' 'जैन-दर्शन और न्यायः एक की सराहना की गई। गणेश प्रसाद वर्णी जन्म आचार्य श्री विद्यासागर जी माहाराज से परिशीलन,' 'महावीर का जीवन संदेश' जयंती के अवसर पर स्याद्वाद जैन महा., समय-समय पर दर्शन-वंदन लाभ के तथा 'जैन न्याय की भूमिका' नामक कृतियाँ । वाराणसी द्वारा 'वर्णी पुरस्कार से आप अतिरिक्त समाधिमरण हेतु शरीर एवं भी आपकी सफल लेखनी से पाठकों को सम्मानित हुए तो आचार्य श्री विद्यानंद जी काषायिक परिणामों को कृश/क्षीण करने हेतु उपलब्ध हो सकी। महाराज के सान्निध्य में दिल्ली में 'आचार्य मार्ग निर्देशन प्राप्त करते रहते थे। डॉ. सन् 44 से 93 तक अनवरत दरबारीलाल कोठिया को जहाँ अपने चाचा पं. कुंदकुंद पुरस्कार' (चतुर्थ) गांधी नाथारंग जी चिन्तन-मनन के द्वारा आपके कुशल संपादन दिगम्बर जैन मंगल प्रति. सोलापुर द्वारा 51 वंशीधर जी व्याकरणाचार्य का समागम प्राप्त में 'अध्यात्मकमलमार्तण्ड', 'न्यायदीपिका', हजार रुपये से सम्मानित हुए तथा संस्थान हुआ वहीं दूसरे परिजन पं. बालचंदजी 'आप्त परीक्षा', श्रीपुरपार्श्वनाथ-स्तोत्र', ने 'न्यायसिंधु' के अलंकरण से आपको सिद्धान्तशास्त्री का नैकट्य भी धार्मिक, 'शासन-चतुस्त्रिंशिका', 'स्याद्वाद-सिद्धि'. विभूषित किया। श्री गोम्मटेश्वर विद्यापीठ साहित्यिक कार्य हेतु सम्बल प्रदान करता 'प्राकृत पद्यानुक्रम', 'प्रमाणप्रमेयकलिका', प्रशस्ति तथा अ.भा. पुरस्कार श्रवण बेल 'समाधिमरणोत्साह दीपक', 'द्रव्यसंग्रह,' गोला (कर्ता.) के संस्थान से तथा जैन क्लब इस प्रकार डॉ., दरबारीलाल कोठिया 'प्रमाण परीक्षा', 'पत्र परीक्षा', 'देवागम- परिसंघ, सतना द्वारा 'जगदीश राय जैन ने अपने जीवन के अंतिम तेरह दिनों में स्तोत्र' 'युक्त्यानुशासन', 'अष्टसहस्री' तथा प्रतिभा सम्मान' से भी आप अलंकृत हुए। आचार्य प्रवर संतशिरोमणी श्री विद्यासागर जी 'जैन पुराण कोश' संपादित होकर विभिन्न महाराज के सान्निध्य में परिणामों की भारत के राष्ट्रपति महामहिम श्री प्रकाशनों से प्रकाशित होकर अध्येताओं के के.आर. नारायणन ने आपकी विद्वत्ता, विशुद्धतापूर्वक समाधिमरण करके जीवन को लिए पर्याप्त शोधबिन्दु एवं चिन्तन के सार्थक किया। वाङ्मयीन अवदान तथा संस्कृत साहित्य आयाम उपलब्ध करा रहे है। प्राचार्य सेवा को लक्ष्य कर 15 अगस्त 97 को 'श्रेष्ठ इनके अतिरिक्त विभिन्न अभिनन्दन | संस्कत विदान' हेत 20 हजार रुपये प्रतिवर्ष दि.जैन आचार्य, संस्कृत महाविद्यालय, मनिहारों का रास्ता, जयपुर (राज.) ग्रन्थ, स्मृति-ग्रन्थ तथा शोधपरक पत्र- | 20 दिसम्बर 2001 जिनभाषित रहा। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति में पर्यावरण-चेतना विद्यावाचस्पति डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव 'पर्यावरण' शब्द 'वाता मनुष्य की तरह जैविक चेतना रहने वरण' का ही पर्यायवाची है, वनस्पति के जीव होने के कारण ही जैनधर्म में के सिद्धान्त का समर्थन होता है। जिसका सामान्य अर्थ होता है- | सर्वप्रकार की कच्ची वनस्पति की अभक्ष्यता में पर्यावरण और फिर वृक्ष आदि का आस-पड़ोस की परिस्थिति अथवा | की विविध प्रदूषणों से प्ररक्षा और वनस्पतियों अथवा पेड़ सहारा पाकर बढ़नेवाली लता आदि आसपास का परिसर। पृथ्वी, | पौधों की अस्तित्वरक्षा का भाव निहित है। कहना न होगा को रूप की उपलब्धि होती है। इसी पर्वत, वायु, जगल, पड़-पाध | कि जैनशास्त्र या तदनुवर्ती जैनसंस्कृति में पर्यावरण के प्रकार, धूप देने से वनस्पति-जीव या वनस्पति, जीव-जन्तु, पशुमूलभूत वन और वनस्पति के सम्बन्ध में बहुत गम्भीरता को गन्ध की उपलब्धि होती है तथा पक्षी आदि से मिलकर ही पानी पटाने से ईख आदि वनस्पति पर्यावरण बना है। पर्यावरण का | से वैचारिक विवेचन किया गया है, जो अपने आप में एक को रस की उपलब्धि होती है और जीवन से अभिन्न सम्बन्ध है। | स्वतंत्र वनस्पतिशास्त्र की महिमा आयत्त करता है। प्ररोह, जड़ आदि काट देने से कहना तो यह चाहिए कि पर्या उत्पन्न सिकुड़न से वनस्पति की वरण ही जीवन है। स्पर्शोपलब्धि की सूचना मिलती है। पुनः रात्रि जैन संस्कृति मूलत: अहिंसावादी जैन चिन्तकों ने पर्यावरण की रक्षा की | में कमल आदि के पत्तों या दलों के सिमटने संस्कृति है। इसलिए जैनशास्त्र में जीव-हिंसा दृष्टि से वनस्पति को जीव मानकर उस पर | से उनकी नींद का संकेत प्राप्त होता है और का सर्वथा निषेध किया गया है। जैनशास्त्र में दयाभाव रखने का आदेश किया है। ईसवी प्रातः दलों के खुलने से उनके जागने की जीवों की जो योनियाँ निर्धारित हुई हैं, उनमें सन् की तीसरी-चौथी शती के महान् कथाकार स्थिति द्योतित होती है। और फिर, कविवनस्पति-योनि भी एक प्रमुख योनि है। आचार्य संघदासगणी ने अपनी बहुख्यात प्रसिद्धि के अनुसार, स्त्रियों के नूपुर-युक्त पैरों ज्ञातव्य है, वैदिक या ब्राह्मण-संस्कृति में चार प्राकृत-कथाकृति 'वसुदेवहिण्डी' के 'बन्धु के आघात से अशोक आदि पेड़ों के विकसित योनियाँ निर्धारित हैं-तिर्यग्योनि, मनुष्ययोनि, मती लम्भ' में लिखा है कि जैनधर्म का मूल होने की जानकारी मिलती है। और इसी प्रकार, पितृयोनि एवं देवयोनि। किन्तु, जैन संस्कृति जीवदया है। संसारी मनुष्य कन्द, मूल, फूल, असमय में फूल-फल के उद्गम से सप्तपर्ण पितृयोनि नहीं मानती। उसकी दृष्टि में चार फल और पत्ते के उपभोग द्वारा प्रायः वनस्पति की हर्षानुभूति का बोध होता है। योनियाँ इस प्रकार हैं - वनस्पतियोनि, वनस्पति-कायिक जीवों को कष्ट पहुँचाते हैं। आचार्य संघदासगणी सकल वनस्पति तिर्यग्योनि, मनुष्य योनि और देवयोनि। अपने आगम-प्रमाण से वनस्पतियों को जीव | में जीव की सिद्धि को प्रमाणित करते हुए ही कर्मों से जीवात्मा मनुष्य-योनि से च्युत मानकर उन पर श्रद्धा रखनी चाहिये। कहते हैं- जिस प्रकार एक से अधिक इन्द्रियों होकर वनस्पति-योनि में जाती है। मनुष्य विषयोपलब्धि के क्रम में जिस वाले जीव उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं तथा खाद वनस्पति भी जीव है, इसलिए उसे प्रकार अपनी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से शब्द, रूप, आदि उचित पोषण प्राप्त होने से स्निग्ध 'वनस्पतिकायिक जीव' कहते हैं। इसी से रस, गन्ध और स्पर्श का अनुभव करते हैं, कान्तिवाले बलसम्पन्न, नीरोग एवं आयुष्यउसका काटना-छाँटना आदि कार्य जैन उसी प्रकार वनस्पति-जीव भी जन्मान्तर वान् (दीर्घायु) होते हैं, पुनः खाद आदि के संस्कृति में वर्जित है। इस दृष्टि से जैन क्रियाओं की भावलब्धिवश अपनी स्पर्शेन्द्रिय अभाव व कुपोषण से कृश, क्षीण, दुर्बल और संस्कृति में पर्यावरण की चेतना सदा से रही से विषय का अनुभव करते हैं। वनस्पति रूग्ण होकर मर जाते हैं, उसी प्रकार केवल कायिक जीवों के लिये भी किसी लब्धि एक इन्द्रिय (स्पर्शेन्द्रिय) से युक्त वनस्पति'मूलाचार' (वट्टकेर : ईसा प्रथम विशेष से विषय की उपलब्धि की बात कही जीवों में उत्पत्ति और वृद्धि का धर्म दृष्टिगत शती) नामक आचार-प्रधान ग्रन्थ में लिखा जाती है। जैसे, मेघ का गर्जन सुनकर अंकुर होता है। इसी प्रकार वे वनस्पति-जीव मीठे है कि वनस्पति एकेन्द्रिय जीव है। इसकी नसें या प्ररोह आदि का उद्गम होता है, जिससे पानी से सिक्त होने पर बहुत फल देने वाले, नहीं दिखाई पड़तीं। यह हरितकाय है। इसे । वनस्पति-कायिक जीवों की शब्दोपलब्धि की चिकने पत्तों से सुशोभित, सघन और दीर्घायु जीव-स्वरूप जानकर इसकी कृन्तन-रूप सूचना मिलती है। आधुनिक वैज्ञानिकों की भी होते हैं। और फिर, तीते, कडुवे, कसैले तथा हिंसा नहीं करनी चाहिए। जैनाचार में यह मान्यता है कि रेडियो आदि की मधुर खट्टे-खाद जल से सींचने पर वनस्पति-जीवों हरितकाय पेड़-पौधों की टहनी को तोड़ना भी आवाज के सुनने से फसलों को संवर्द्धन प्राप्त के पत्ते मुरझा जाते हैं या पीले पड़ जाते हैं मना है। फलों में भी कच्चे फलों को तोड़ना होता है। इससे भी वनस्पति में शब्द की या रूखड़े और सिकुड़े हुये हो जाते हैं तथा मना है। जो फल पककर स्वयं गिरते हैं, वे उपलब्धि की शक्ति विद्यमान रहने की सूचना फलहीन होते और अन्त में मर जाते हैं। इस ही ग्राह्य हैं, क्योंकि वे अचित्त (अजीव) और मिलती है। साथ ही, इससे प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रकार के कारणों से उनमें जीव है, ऐसा अनवद्य होते हैं। जगदीशचन्द्र बसु के, वनस्पतियों में भी मानकर उनकी उचित रीति से सेवा और रक्षा दिसम्बर 2001 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनी चाहिये। भारतीय जीवन और संस्कृति की | वैज्ञानिक अध्ययन सूक्ष्मेक्षिका के साथ किया भारतीय संस्कृति में वृक्षपूजा को बृहत्कथा 'वसुदेवहिण्डी' में वृक्षों के वर्णन- | है। 'गोम्मटसार' (आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धाअतिशय महत्त्व दिया गया है। लोक-जीवन क्रम में कथाकार आचार्य संघदासगणी ने न्तचक्रवर्ती : ईसा की 10वीं-शती) में में पीपल और बरगद तो विशिष्ट रूप से अपने सूक्ष्मतम प्राकृतिक और शास्त्र-गम्भीर वनस्पति पर विचार करते हुये आचार्य पूजित हैं। विवाह-संस्कार के अवसर पर अध्ययन का परिचय दिया है। 'वसुदेवहिण्डी' नेमिचन्द्र ने लिखा है कि वनस्पति के कई आम-महुआ ब्याहने की भी चिराचरित प्रथा में उपलब्ध वनों और वनस्पतियों की बहुवर्णी प्रकार होते हैं। जैसे, कुछ वनस्पतियाँ मिलती है। 'धात्रीनवमी' का नामकरण उस उद्भावनाएँ पर्यावरण-चेतना के अध्ययन की मूलबीजात्मक होती हैं, तो कुछ स्कन्धबीजातिथि को धात्रीवृक्ष (आँवला का पेड़) पूजने दृष्टि से अपना पार्यन्तिक महत्त्व रखती हैं। त्मक। इसी प्रकार, कुछ वनस्पतियाँ ‘बीजकी विशेष प्रथा को संकेतित करता है, तो 'वसुदेवहिण्डी' में संघदासगणी द्वारा उप- | सह' होती हैं, तो कुछ ‘सम्मूर्छिम'। जिन 'वटसावित्रीव्रत' (ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या) न्यस्त वृक्ष-वर्णनों में वृक्षों की पूजनीयता और वनस्पति-जीवों का मूल ही बीज होता है, वे के दिन भारतीय सधवा स्त्रियाँ बरगद को पति महत्ता का विन्यास तो हुआ ही है, पर्यावरण- | 'मूलबीज' कहे जाते हैं (जैसे : अदरख, का प्रतिनिधि मानकर उसकी पूजा करती हैं। चेतना भी समाहित हो गई है। कथाकार ने हल्दी आदि)। जिन वनस्पति-जीवों का वैदिक मतानुसार पीपल या अश्वत्थ तो पर्यावरण के महत्त्व की दृष्टि से उपयोगी वृक्षों अग्रभाग ही बीज होता है, अर्थात् टहनी की साक्षात् त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु या कृष्ण और में शाल, सहकार, तिलक, कुरबक, शल्लकी, कलम लगाने से वे उत्पन्न होते हैं, महेश) का ही प्रतिरूप है। चम्पक, अशोक, कमल, कुमुद, कुन्द 'अग्रबीज' कहलाते हैं और पर्व (गाँठ या मूलतौ ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णुरूपिणे। (गन्धर्वदत्ता लम्भ), पुन्नाग, पनस, नालि- पोर) ही जिनके बीज होते हैं, 'पर्वबीज' हैं अग्रत: शिवरूपाय अश्वत्थाय नमो नमः।। केर, पारापत, भव्यगज, नमेरुक (वेगवती- (जैसे : ईख, बेंत आदि)। पुन: जो वनस्पति यहाँ अश्वत्थ को प्रधान वृक्ष मानकर लम्भ), सप्तवर्ण, तिन्दूसक (बालचन्द्रा- जीव कन्द से उत्पन्न होते हैं, वे 'कन्दबीज' उपलक्षण रूप में अश्वत्थ का नाम लिया गया लम्भ), विल्व (प्रियंमुसुन्दरीलम्भ), अक्षोट माने जाते हैं (जैसे : आलू, ओल आदि)। है। सभी वृक्षों की स्थिति या महिमा अश्वत्थ (अखरोट), प्रियाल (चिरौंजी), कोल (बेर), इसी प्रकार जो वनस्पति-जीव स्कन्ध से जैसी ही है। (विशेष विवरण के लिये द्रष्टव्य तिन्दुक, इंगुद, कंसार-नीवार (केतुमती- | उत्पन्न होते हैं, वे 'स्कन्ध बीज' हैं (जैसे : "वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति" लम्भ) आदि का उल्लेख तो किया ही है, कटहल, धतूरा आदि) और फिर, जो म.म.पं. गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, पृ. 247) विशेष वनस्पतियों में कल्पवृक्ष, नन्दिवत्स, वनस्पति-जीव बीज से उत्पन्न होते हैं, वे गीता में कृष्ण ने कहा भी है कि चित्ररस और रक्ताशोक (चैत्यवृक्ष) का भी 'बीजसह' हैं (जैसे : चावल, गेहूँ, अरहर 'अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्।' (10.26), अर्थात् वर्णन किया है। आदि)। किन्तु इन सबसे भिन्न जो वनस्पतिवृक्षों में यदि कृष्ण की व्यापकता को माना कथाकार ने कमल के फूलों, कदलीवृक्ष जीव नियत बीज आदि की अपेक्षा के बिना जाये तो वह अश्वत्थ है। यहाँ तक कि और कुसुमित अशोक वृक्षों का तो बार-बार केवल मिट्टी और जल के सम्बन्ध से उत्पन्न अव्ययात्मा अश्वत्थ वृक्ष में ही समस्त संसार चित्रण किया है, किन्तु चैत्यवृक्ष के सन्दर्भ होते हैं, वे 'सम्मूर्छिम' कहलाते हैं (जैसे : के आवासित रहने की भारतीय मिथक चेतना में रक्ताशोक की अधिक चर्चा की है और इसे फफूंद, काई, सेंवार आदि)। या परिकल्पना का भी अपना मूल्य है। वट- कल्पवृक्ष के समान कहा है। अरहस्वामी नाम उपर्युक्त विवरण से वनस्पति-जीव वृक्ष की पूजा से सावित्री - सत्यवान् की के अट्ठारहवें तीर्थंकर ने जब महाभिनिष्क्रमण की व्यापकता की सूचना मिलती है। इसलिये, प्रसिद्ध पौराणिक आदर्शकथा के जुड़े रहने की किया था, तब उनकी शिबिका में कल्पवृक्ष पेड़ काटने की बात तो दूर, पत्ते और टहनी बात सर्वविदित है। सोमवारी अमावस्या को के फूल सजे थे और उन पर भौरे गुंजार कर तक तोड़ना भी पर्यावरण की प्ररक्षा की दृष्टि अश्वत्थ-प्रदक्षिणा की लोकप्रथा भी भारतीय रहे थे तथा उसके गुम्बद में विद्रुम, से अनुचित है, जीव-वध के समान क्रूर कार्य जीवन की धर्मनिष्ठ संस्कृति को सूचित करती चन्द्रकान्त, पद्मराग, अरविन्द, नीलमणि है। आज पत्तल और दतुवन के नाम पर है। बोधिवृक्ष के नीचे बुद्ध को ज्ञानलाभ होने और स्फटिक जड़े हुये थे। अरहस्वामी उस पर्यावरण के प्रमुख उपकरण वनस्पति का के कारण बौद्धों में अश्वत्थ की पूज्यातिशयता शिबिका पर सवार होकर सहस्राम्रवन पधारे नित्य ही महाविनाश हो रहा है। जैन चिन्तकों सर्वस्वीकृत है। सिन्धु घाटी-सभ्यता में । और वहाँ सहकारवृक्ष (आम्रवृक्ष) के नीचे ने इस ओर प्रारंभ से ही ध्यान दिया है। अश्वत्थ वृक्ष का महत्त्व वहाँ से प्राप्त अनेक आकर बैठे। उनके बैठते ही तत्क्षण आम्रवृक्ष इसीलिये उन्होंने पर्यावरण की शुद्धता के लिये अश्वत्थ-प्रदक्षिणा की लोकप्रथा भी भारतीये रहे थे तथा "उसके गुम्बद में विद्रुम, से अनुचितें है, जाव-विध के समान क्रूर कार्य मानि- पासि | है। भारत और चना 11 गा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार वृक्ष चैत्यवृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित है। जैनदर्शन के अन्तर्गत जीव-तत्त्व में जलकाय और वायुकाय की गणना से स्पष्ट है कि जैन चिन्तकों का ध्यान पर्यावरण के विशिष्ट तत्त्व वनस्पति के साथ ही जल और वायु की ओर भी था। वे पर्यावरण की विशुद्धि के लिये उसे जल प्रदूषण और वायु प्रदूषण से विमुक्त रखने के पक्षपाती थे। वायु प्रदूषण से ही ध्वनि प्रदूषण की भी अभिव्यंजना होती है। इस प्रकार, पर्यावरण की रक्षा और उसकी विशुद्धि की दृष्टि से जैन संस्कृति में वन और वनस्पति के महत्त्व की विशद चर्चा मिलती है। वनस्पति, पशु-पक्षी एवं मनुष्य एक ही चेतना के रूप-भेद हैं। यहाँ तक कि समष्ट्यात्मक चेतना के रूपभेद की धारणा के आधार पर संघदासगणी ने जैनदर्शन की मान्यता के परिप्रेक्ष्य में एकेन्द्रिय जीव के शरीर-रूप वनस्पति में जीवसिद्धि का साग्रह वर्णन किया है। अतएव वनस्पति के जीव होने के कारण ही जैनधर्म में सर्वप्रकार की कच्ची वनस्पति की अभक्ष्यता में पर्यावरण की विविध प्रदूषणों से प्ररक्षा और वनस्पतियों अथवा पेड़-पौधों की अस्तित्व रक्षा का भाव निहित है। कहना न होगा कि जैनशास्त्र या तदनुवर्ती जैन संस्कृति में पर्यावरण के मूलभूत वन और वनस्पति के संबंध में बहुत गम्भीरता से वैचारिक विवेचन किया गया है, जो अपने-आप में एक स्वतंत्र वनस्पतिशास्त्र की महिमा आयत्त करता है। इस सन्दर्भ में विशेष ज्ञातव्य के लिये 'गोम्मटसार' ( नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती), सर्वार्थसिद्धि' (पूज्यपाद), 'षटरवण्डागम' (पुष्पदन्त भूतबलि) की 'धवला टीका' (खीरसेन), 'राजवार्त्तिक' (अकलंकदेव), 'लाटी संहिता' (राजमल्ल) आदि ग्रन्थों का अनुशीलन अपेक्षित है। अहिंसावादी जैनधर्मी श्रमणों और श्रावकों का आचरण पर्यावरण-संरक्षा के अनुकूल है, जिसके उदात्त और विस्तृत वर्णन में समग्र जैनवाडमय प्रखर भाव से मुखरित है विशेषतया जैनसाहित्य और दर्शन में पर्यावरण चेतना के चित्रण में उपस्थापित वन और वनस्पति के बहुकाशीय आयामों का समुद्भावन हुआ है। पी. एन. सिन्हा कॉलोनी भिखनापहाड़ी, पटना- 800006 यहाँ कुछ नहीं है अपनी इच्छा से कुमार अनेकान्त जैन कहाँ चल रहे हैं हम यारो, दुनिया में अपनी इच्छा से । करने ही पड़ते हैं कितने कर्म, यहाँ रोज अनिच्छा से | कब चाहे थे हमने दुःख ग़म, किन्तु वे मिलते कदम कदम । सुख नहीं है अपने वश में, वह भी चलता है स्वेच्छा से | करने ही पड़ते हैं। थे जिसके हम अति दीवाने, वे ही थे हमसे निरे अनजाने । हम तिरस्कार भी सहते हैं, पर थकें न उनकी प्रतीक्षा से ॥ करने ही पड़ते हैं..... पूजा सदा उसे ही हमने जिसने धमकाया और सदा मारा। जो सहलाते पथ बतलाते वो मरे हमारी उपेक्षा से || करने ही पड़ते हैं..... भोगों में न तर्क किया हमने न बाधाओं से घबराये । क्यों आत्मानुभूति का मार्ग ही पीड़ित हमारी तर्क समीक्षा से ॥ करने ही पड़ते हैं..... संसार में जी भर घूम चुके, धोखे पर धोखा भी खाया। पर उमड़ा नहीं फिर भी वैराग्य, भागते फिरते हैं दीक्षा से || करने ही पड़ते हैं। .... व्याख्याता, जैनदर्शन विभाग, दर्शन संकाय लाल बहादुर राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ कुतुब इन्सटीट्यूशनल एरिया, कटवारिया सराय नई दिल्ली- 16 - दिसम्बर 2001 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान सामाजिक असमन्वय के कारण और उनका निराकरण डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' मनुष्य एक सामाजिक प्राणी वर्णव्यवस्था का जातीयकरण । जहाँ समाज और समाजवाद दोनों अपनी निष्ठा/ है, जिसका अस्तित्व समाज पर ही भगवान ऋषभदेव द्वारा वर्ण निर्भर करता है। मनुष्य के समाज प्रतिष्ठा खो रहे हों और सामाजिक परिस्थितियाँ क्षण व्यवस्था की कर्मानुसार संरचना बनने की प्रथम शर्त है सहयोग, प्रतिक्षण बदल रही हों, वहाँ समन्वय की अत्यंत करके क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्ण की जिसे समन्वय, सौहार्द और सह | आवश्यकता है। किन्तु जैसा समन्वय होना चाहिए वैसा | स्थापना हुई थी जिसमें संशोधन कर अस्तित्व की भावना पूर्णता प्रदान देखने में नहीं आ रहा है। इसके कारण क्या हैं और उनका महाराज भरत ने ब्राह्मण वर्ण की सृष्टि करते हैं। जिस प्रकार एक जैसे पेड़ों निराकरण क्या है, इसका सूक्ष्म और गहन अन्वेषण | की, किन्तु यह कर्मानुसार ही थी। का समूह जंगल नहीं कहलाता, विद्वान लेखक और 'जिनभाषित' के सहयोगी सम्पा- I 'उत्तराध्ययन सूत्र' के अनुसार - बल्कि उसमें छोटे-बड़े, कृश एवं कम्मुणा बम्हणो होई, कम्मुणा दक डॉ. 'भारती' ने किया है। स्थूल सभी जातियों, वर्गों एवं वर्णों होई खत्तियो। वाले पेड़-पौधे सम्मिलित होते हैं, कम्मुणा वेस्सयो होई, कम्मुणा होई सूद्दयो।। उसी प्रकार एक जैसे, एक रंग वाले, एक ही लम्बाई - चौड़ाई एवं अर्थात् कर्म से व्यक्ति ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता प्रवत्ति वाले मनुष्यों का नाम समाज नहीं, बल्कि जहाँ सम्पूर्ण | है. कर्म से वैश्य होता है और कर्म से शुद्र होता है। विभिन्नता के होते हुए भी परस्पर समन्वय, सहयोग एवं सह अस्तित्व जब तक यह व्यवस्था चलती रही सामाजिक समन्वय भी की भावना के साथ मनुष्य रहते हैं, उसे समाज कहते हैं। ऐसा ही चलता रहा, किन्तु जब वर्ण-व्यवस्था का आधार कर्म न होकर जन्म समाज गतिमय एवं प्रगतिशील कहलाता है। कहते हैं कि एक ही हो गया तो जातिवाद का विकास हुआ। हर एक जाति दूसरी जाति परिवार और रक्त समूह के लोग भी भिन्न-भिन्न प्रकृति और आदतों को छोटा-बड़ा मानने लगी। नृतत्त्वशास्त्रियों का मत है कि भारत में या तासीर वाले होते हैं। डोडे में से निकला रस, जो अफीम कहलाता | अनेक जातियाँ हैं और उनकी विशेषता यह है कि उनमें से हर जाति है, इतना घातक और मादक होता है कि सेवन करने वालों को नाकारा दूसरे को निम्न समझती है। कालान्तर में जातीय श्रेष्ठता ने सामाजिक सुस्त बनाता है और मौत भी ला सकता है और डोडे में से निकली समन्वय को क्षति पहुँचायी और दस्सा, बीसा, परवार, गोलापूर्व, खसखस (पोस्तादाना) मस्तिष्क के लिये लाभदायक होती है। इसी खण्डेलवाल, बघेरवाल, जैसवाल, हूमड़, पद्मावती पोरवाल आदि प्रकार समाज में भी विभिन्न वर्ण, वर्ग एवं विचारधारा के लोग होते उपजातियों को बल मिला और फिर पिण्डशुद्धि के नाम पर जो जातियों हैं, किन्तु उनमें समन्वय हो तो वे एकरूप दिखाई देते हैं। बीसवीं का ध्रुवीकरण हुआ उसने समाज में कटुता को वृद्धिंगत किया तथा सदी में सामाजिक संरचना में अनेकानेक परिवर्तन आये हैं। एक ओर एक-दूसरे को निम्न समझने की भावना पनपी और एक संकुल वाला समाज व्यक्तिगत आकांक्षाओं की पूर्ति में असफल रहा है, वहीं स्वयं समाज अनेक हिस्सों में बँट गया। की प्रधानता को बनाये रखने में अक्षम साबित हुआ है। धनाश्रयता आर्थिक पक्ष पर बल ने समाज को पंगु बना दिया है, जिसे एक या कुछ व्यक्ति अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये उपयोग करते हैं, दूसरी ओर व्यक्तिवाद के किसी भी स्वस्थ समाज के लिए धनसम्पन्नता बुरी नहीं मानी व्यामोह ने समाज और सामाजिकता को नकार दिया है। समाज का जाती, किन्तु जब यही धन नीति और नियन्ता का आधार बनकर लघु रूप संयुक्त परिवार टूटे हैं, टूट रहे हैं, यहाँ तक कि नितान्त 'सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रमयन्ते' की शैली अख्तियार कर ले तो व्यक्तिवाद ने 'हम दो-हमारे दो' के साथ 'हम दो-हमारे दो' के भी समन्वय कैसे रह सकेगा? आज सभी पंचकल्याणक, गजरथ दो यानी माता-पिता को निरीह और अकेला बना दिया है। ऐसे में महोत्सवों, महामस्तकाभिषेकों आदि में धन - सम्पन्न लोग ही उच्च समाज और सामाजिकता को बचा पाना असंभव हुआ है। आज की पद एवं सम्मान प्राप्त करते हैं, वहीं जिनके पास धनसम्पन्नता नहीं प्रवृत्ति पर आचार्य श्री विद्यासागर जी ने 'मूकमाटी' में लिखा है है, वे हीन भावना से ग्रस्त हो मात्र दर्शक बन जाते हैं फलतः अमीर 'मैं पहले और गरीब वर्ग बन गये हैं। अब खोटा कर्म करने वाला और खोटे तरीकों से धनोपार्जन करने वाला श्रावक-शिरोमणि, भगवान के मातासमाज बाद में।' पिता, चक्रवर्ती, इन्द्र बन सकता है, वहीं प्रतिदिन भगवान की पूजाआज समाज अपनी निष्ठा/प्रतिष्ठा खो रहा है और सामाजिक | अर्चना करने वाला पुजारी हीन दृष्टि से देखा जाता है। अतः सामाजिक परिस्थितियाँ क्षण-प्रतिक्षण बदल रही हैं। अतः आज वहाँ समन्वय | समन्वय में कमी आयो है। 'तत्त्वार्थसूत्र' में कहा गया है - की अत्यंत आवश्यकता है, किन्तु जैसा समन्वय होना चाहिए वैसा मोक्षमार्गस्य नेत्तारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम्। देखने में नहीं आ रहा है, इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं ज्ञातारं विश्व तत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये।। 24 दिसम्बर 2001 जिनभाषित की प्रधान को पं उपयोग कित और Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें कहीं भी धन की वन्दना नहीं है, किन्तु आज समाज में | के घण्टों की ध्वनियाँ शून्य में चीत्कार करने के साथ ही अस्तित्ववान गुणों की अनदेखी कर पद, पैसा और पावर (शक्ति) को बढ़ावा दिया | हैं। अब मंदिर जाना, पूजा करना, मुनियों की वैयावृत्ति करना सब जा रहा है। निस्सन्देह इस स्थिति ने सामाजिक समन्वय को नष्ट किया | ढोंग कहे जाने लगे हैं, जबकि मंदिर व्यक्ति की दशा एवं दिशा बदलने है। इस उपेक्षित वर्ग की समाज में कोई आस्था नहीं रही। कहाँ हरसुख- में समर्थ कहे जाते हैं। मन्दिरों की भूमिका में आया यह बदलाव राय जैसे निस्पृह दानी, जो मंदिर निर्माण में आम आदमी की भागीदारी सामाजिक समन्वय को क्षति पहुँचाने में स्वाभाविक रूप से कारण एवं भावना सुनिश्चित करना चाहते हैं और कहाँ आज के मन्दिर- बना है। निर्माता जो फर्श से लेकर शिखर तक अपना ही अपना नाम चाहते भौतिकवाद में बढ़ता विश्वास हैं। अर्थ की प्रभुता के अनर्थ ने आम और खास के बीच जो दूरी पाश्चात्य प्रभाव के कारण हमारे भौतिक सोच में बेतहाशा वृद्धि बढ़ायी है उससे समन्वय का मार्ग अवरुद्ध हुआ है। हुई है, जिसमें हर वस्तु और हर व्यक्ति उपभोग्य बन गया है। मन्दिरों की भूमिका में बदलाव मानवीयता का पक्ष दकियानूसी और चहुँओर संचय करने, यहाँ तक मन्दिर समाज के प्राण हैं जहाँ से सहयोग की प्राणवायु प्राप्त कि हिंसक प्रतिस्पर्धा की प्रवृत्ति बढ़ रही है। 'मेरा पेट हाऊ, मैं न कर समाज गतिशील होता है। मन्दिर में पहुँचकर आमजन सामाजिक जानूँ काऊ' के पक्षधर जन अपने घरों को उन चीजों से पाटते जा बनते हैं, वे एक पंक्ति में बैठते हैं, उनके आसन समान होते हैं, रहे हैं जो आवश्यक की श्रेणी में न आकर विलासिता की श्रेणी में आती सभी धार्मिक कृत्य करते हैं, धर्मलाभ लेते हैं और स्वयं को समाज हैं। बढ़ते भौतिकवाद ने आदमी की क्षमताओं पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया का अभिन्न अंग मानते हैं। पूर्व में समाज व्यवस्था के तीन अनिवार्य | है। यहाँ तक कि अब शुद्धता भी रेडीमेड हो गयी है। एक ओर धनवर्षा अंग थे- (1) मन्दिर (2) औषधालय और (3) विद्यालय। एक ओर | हो रही है तो दूसरी ओर ‘चन्द्रबली' सब्जी नहीं खा सकने की स्थिति इनसे समाज बल प्राप्त करता है, द्वितीय दान के प्रमुख क्षेत्रों के प्रति के कारण आत्महत्या कर रहा है। एक सौ रुपये की शर्त जीतने के समाज अपना दायित्व समझता था, किन्तु जबसे व्यापारिक वर्ग का | लिए एक अभागा मौत का साधन जानते हुए भी एक किलो नमक प्रबन्धक वर्ग में समायोजन हुआ है, ये तीनों क्षेत्र व्यापारिक दृष्टि को घोल कर पी लेता है और मर जाता है। वहीं दूसरी ओर हमने से देखे जाने लगे और लाभ-हानि के गणित में लाभ की सही परिभाषा मंदिरों की सादगी छीनकर परिणामों की सादगी पर डाका डाला है न करने, उसे अर्थ मात्र से तौलने के कारण पाठशालायें, औषधालय अतः हमारे धर्मायतन और सामाजिक सम्बन्ध भी भौतिकवाद की बन्द किये गये। आज भी जहाँ पाठशालायें संचालित हैं वहाँ गुरुजनों चपेट में आ गये हैं। जहाँ एक ओर मन्दिरों के पुजारी, मैनेजर, मुनीम का वेतन 120 रुपये प्रतिमाह से 500 रुपये के बीच ही है। अब कम वेतन पाकर रोते हैं, वहीं समाज के चन्द कर्णधार अपनी बचे मंदिर, उन्हें भी व्यावसायिक काम्प्लेक्स में बदलने में कोई कोर सुविधाओं के लिए हीटर, कूलर, गीजर एवं अन्य डीलक्स सुविधाएँ कसर नहीं छोड़ी गयी। अब वहाँ धर्म का वातावरण कम, धन का जुटा रहे हैं। तीर्थस्थान पिकनिक स्पॉट, हनीमून, मौजमस्ती, अय्याशी एवं रिसोर्ट संस्कृति के अंग बन रहे हैं। सामाजिक सम्बन्धों का आधार वातावरण अधिक बलवान है। मन्दिरों के अग्रभाग में दुकानें और भौतिक सम्पन्नता बन गयी है, जिसने सम्बन्धों को भावनात्मक पश्चभाग में बारातें ठहराने की व्यवस्था, स्थान-स्थान पर दानपेटियाँ, धरातल से हटाकर भौतिकता की जड़ता में जड़ दिया है और हमारे दान दाताओं की पट्टावलियाँ, पंखे से लेकर थाली तक नाम ही नाम समाज की समन्वयवादिता को वर्गविशेष से सम्बद्ध कर दिया है ने धर्मकार्य को पुरुषार्थ नहीं रहने दिया है। जिसमें 'आप' हैं किन्तु 'हम' गायब हैं। मुझे यह लिखते हुए अत्यंत दुख हो रहा है कि एक स्थान की टी.वी., सिनेमा एवं संचार साधनों का प्रभाव धर्मशाला में एक विशाल आर्यिका संघ विराजमान था और वही समय विवाहों का था। उसके अध्यक्ष निरन्तर इस प्रयास एवं कयास में रहते व्यक्ति को व्यक्ति से अलग करना साम्राज्यवादी शक्तियों कि कब आर्यिका संघ जाये। वे निरन्तर कहते कि धर्मशाला की आय | की गहरी चाल होती है। टी.वी. संस्कृति ने इसी व्यक्तिवादी सोच का नुकसान हो रहा है। आखिर मैं इसलिए तो अध्यक्ष नहीं बना कि | को विकसित किया है। 18 से 24 घंटे तक टी.वी. के विभिन्न चैनल्स धर्मशाला की आय कम करूँ? वे दिखाने के लिए तीनों टाइम माताजी पर प्रसारित भावनात्मक, उत्तेजक, रोमांटिक गीत-संगीत एवं हिंसा की वन्दना करते, प्रवचन सुनते और मन ही मन कहते-मेरी धर्मशाला प्रधान धारावाहिकों ने व्यक्ति को व्यक्ति से काटकर रख दिया है। कब खाली होगी? जब धर्मी जनों के प्रति समाज के नेतृत्व का यह दिनभर टी.वी. के सामने बैठे दर्शक व्यक्तिवादी धारा में इस कदर सोच होगा तो समाज के प्रति वे कितने उत्तरदायी होंगे और कितना बह जाते हैं कि सामाजिक परिवेश उन्हें रुचिकर प्रतीत नहीं होता। समन्वय कर सकेंगे? पहले मंदिरों में एकत्रित जनसमुदाय से सिनेमा के थोथे डायलॉग्स सम्बन्धों की प्रगाढ़ता एवं भावनात्मकता सामाजिक संगठन को बल मिलता था, सार्वजनिक उत्सवों/समारोहों/ को तार-तार कर व्यक्तिसुख को सर्वोपरि बनाते हैं। संचार के बढ़ते मेलों में आदर्श स्थितियाँ बनती थीं आज खेमेबाजी को बढ़ावा मिलता साधन यथा-टेलीफोन, फैक्स, सेल्यूलर फोन, पेजर, इंटरनेट के है, कषायों की उद्भावना होती है, मनमुटाव बैर का रूप धारण करता माध्यम बातचीत को अर्थ (कैश) में भुनाते हैं तथा जितनी अधिक है, पद प्राप्ति के लिये चुनाव होते हैं, 'अहिंसा परमोधर्मः' के स्वर बात उतने अधिक दाम, जितनी कम बातें उतने कम दाम की 'हिंसा परमोधर्मः' में बदल जाते हैं और हम 'सब चलता है' कहकर मानसिकता को पुष्ट कर संवादहीनता की स्थिति निर्मित करते हैं। पल्ला झाड़ लेते हैं। इन कारणों की भयावहता से युवावर्ग एवं सरल फलतः प्रत्यक्ष साक्षात्कार का अभाव एवं संवादहीनता के परिणाम परिणामी श्रावक जैनमंदिरों से विमुख होने लगे हैं। परिणामतः मन्दिरों स्वरूप सामाजिक समन्वय का अभाव बढ़ा है। -दिसम्बर 2001 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज संस्था की दायित्व हीनता में कार्य करते थे। आज से बीस वर्ष पूर्व तक सामाजिक पाठशालाओं व्यक्ति के समग्र विकास का दायित्व समाज पर होता है लेकिन | का प्रचलन रहा, जिसके कारण सामाजिक प्रतिबद्धता, धार्मिक ज्ञान जब वही समाज कानून, धर्म, जाति, धन, परम्परा, अकर्मण्यता एवं एवं समन्वय की धारा निरन्तर चलती रही। आज पाठशालाओं के स्वार्थ के आगे विवश हो जाये, तो समाज के प्रति आम जन की अभाव के कारण संस्कारों की कमी आयी है और प्रारंभिक समन्वय, निष्ठा खण्डित होती है। आज समाज में अशिक्षा व्याप्त है, शिक्षित सहयोग और अपनत्व की घुट्टी अब प्रारंभ में नहीं मिलती जो दीर्घ बेरोजगार हैं, विद्यालयों की कमी है, ग्रामीणों के पास मूलभूत जीवन में समन्वय का आधार बनती है। सुविधाओं का अभाव है, दहेज प्रथा, बाल विवाह जैसी कुरीतियों दूषित खानपान के कारण अनेक लड़कियाँ या तो बेमेल विवाह के अभिशाप को जीवन सम्पूर्ण देश आज खानपान की दृषितता के बढ़ते प्रभाव से भर भोगती हैं या सास, ससुर, ननद आदि की मानसिक एवं शारीरिक आक्रान्त है। परम्परागत रसोई घरों की पहचान अब साधुओं के चौकों प्रताड़ना को सहती हैं। पुरावैभव के प्रतीक मन्दिरों/तीर्थों की के अवसर पर ही दिखाई देती है। चप्पल संस्कृति का रसोई घर में जर्जरावस्था, अनैतिकता का बोलबाला तथा धन सम्पन्नों की प्रवेश, रेडीमेड अमर्यादित भोज्य पदार्थों का घर में आना, स्वाद की स्वार्थान्धता के आगे विवश, बलात्कृत जन जब निराकरण हेतु लोलुपता और आहारदान के प्रति घटती आस्था इन सबने सामाजिक समाजाभिमुख होता है और समाज की उपेक्षा एवं दायित्वहीनता की समन्वय को खण्डित किया है। आज हमारे सामाजिक समन्वय का स्थिति पाता है, तो वह समाज को ही नकारने लगता है। यह स्थिति भोज्य आधार चाय है जिसमें दूध कम पानी ज्यादा है अतः ठोस ठीक वैसी है जैसे कि - आधार के बिना समन्वय का विराट आधार कैसे तैयार किया जा सकता ___ मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता। हम घर में भटके हैं अपने कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे। जैन शिक्षा का दुर्बल आर्थिक पक्ष पंच कल्याणक, गजरथों की बदलती भूमिकाएँ पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव, उत्सव कम रह गये हैं वर्तमान युग धन का युग है। एक कथन है कि जिनके हाथों जबकि अधिक हो रहे हैं। पूर्व में कहीं सुनते थे कि पंचकल्याणक है में अर्थशास्त्र (धन की महत्ता) की पुस्तक होती है वे धर्मशास्त्र नहीं तो लोग खान-पान का सामान एवं बिस्तर बाँधकर बड़े उत्साह से समझते। एक ओर बिडम्बना है कि जैन शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था चले आते थे, किन्तु आज जबकि इनका व्यक्तिवादी रूप पूरी तरह नहीं है, दूसरी ओर जिन्होंने जैन शिक्षा प्राप्त की है वे उसके आधार पर भरणपोषण नहीं कर सकते। जो समाज अपने ही व्यक्ति को अपने समाज में बदला है, क्योंकि अब ये महोत्सव सम्पूर्ण समाज के पैसों ही धर्म का विशेष ज्ञान प्राप्त होने पर रोजगार नहीं दे सकता, वह से होते हैं, समाज निष्ठा एवं जागृति को उपस्थित नहीं करते। ये व्यक्ति भी उस समाज के साथ उस सीमा तक तालमेल नहीं रख आयोजन धार्मिक कम तमाशाई आधिक हो गये हैं। परिणामतः पाता, जितना कि होना चाहिए। आज जैनदर्शन में स्वर्णपदक प्राप्त पंचकल्याणक को लोग पंचों के कल्याणक, गजरथ को मानरथ से आचार्य-उपाधिधारी व्यक्ति भी नौकरी के लिए समाज से कोई सहयोग अभिहित करने लगे हैं। इनसे धर्म दूर हुआ है। राजनेताओं के भाषण, प्राप्त नहीं करता तथा इन्हीं उपाधियों के सहारे वह अन्य शासकीय श्रृंगारिक उत्तेजक कवि सम्मेलन, अशुचिता का सर्वत्र योग, मूर्तियों सेवाओं में भी नहीं जा सकता। ये स्थितियाँ व्यक्ति को समाज से में बढ़ोत्तरी एवं पंचदिवसीय सामाजिक धन का लाखों करोड़ों में सम्बद्ध नहीं रहने देती। समाज जैन विद्वानों की जो उपेक्षा करता है, अपव्यय, धनप्राप्ति हेतु बोलियों, लाटरियों का प्रयोग, पक्षपात, उसे देखकर कई शिक्षित जन दर्द के साथ कहते हैं कि 'यह तो अच्छा आदि ने इन आयोजनों के प्रति आम समाज की निष्ठा एवं समन्वय है कि हमें समाज की गुलामी नहीं करनी पड़ रही है। जहाँ अपने ही को तोड़ा है। मेरा विश्वास है कि यदि एक वर्ष के लिये पंचकल्याणक समाज का कर्णधार गुलाम की स्थिति में हो, वहाँ सामाजिक प्रतिबद्धता गजरथ महोत्सव बन्द कर दिये जायें तो समाज में सौ डिग्री कालेज कैसे सुनिश्चित की जा सकती है? संचालित किये जा सकते हैं, हजारों असहायों को रोजागार के साधन नारियों में धार्मिक शिक्षा का अभाव प्रदान किये जा सकते हैं। इससे जो विराट समन्वय का मार्ग बनेगा, वह गजरथ फेरी की पग डण्डियों से अधिक मजबूत होगा। किसी भी समाज का आधारभूत ढाँचा महिलाओं पर निर्भर रहता स्वाध्याय एवं समय का अभाव है, किन्तु हमारे समाज की महिलाओं में धार्मिक शिक्षा का अभाव है। एक ओर धार्मिक शिक्षा का अभाव दूसरी ओर धर्म के प्रति परम स्वाध्याय की प्रवृत्ति की समाप्ति के कारण सामाजिक दायित्व श्रद्धाभाव उनमें है, किन्तु मैंने स्वयं ऐसा अनुभव किया है कि उन्हें एवं धर्म को समझने का मार्ग लगभग बन्द हो गया है। जिन पुराणों धार्मिक अशिक्षा के कारण कई बार कपटपूर्ण व्यवहार का सामना करना के आख्यानों से व्यक्ति प्रभावित होकर सामाजिक बनता था उनसे पड़ता है। धार्मिक अनुष्ठान, सिद्धि, तंत्र-मंत्र, आशीर्वाद के लालच अब परिचय ही नहीं होता। यही कारण है कि अब हिंसा, अहिंसा के में वे वह सब करने पर विवश हो जाती हैं, जिसे धार्मिक ठगी या बीच की विभाजक रेखा टूटी है। बढ़ती व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा एवं शोषण कह सकते हैं। आज अनेक संघों के संचालकों में मात्र युवा | बढ़ती आर्थिक माँगों के कारण समयाभाव की परिस्थितियाँ सर्वत्र हैं महिलाओं का होना एक नहीं अनेक प्रश्नों को जन्म देता है, जिससे जिससे व्यक्ति का सामाजिक जुड़ाव कम हुआ है। अब समन्वय की समन्वय का मार्ग दूषित ही होता है। मात्र लिफापाई संस्कृति चल रही है, जिसमें क्या भेजा और किसने पाठशालाओं का अभाव भेजा मात्र सूची तक ही सीमित हो गये हैं, समन्वय की आत्मीयता प्राचीन समय में गुरुकुल सामाजिक, सांस्कृतिक केन्द्र के रूप | इसमें कहाँ ? 26 दिसम्बर 2001 जिनभाषित - Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक असमन्वय के धार्मिक कारण बल दिया जाए। धर्म किसी भी समाज के नियंत्रण का अचूक माध्यम होता है, [4. साधु एवं श्रावक स्वयं अपने शिथिलाचार को समाप्त करने किन्तु धार्मिक क्षेत्र में बढ़ते विवादों ने धर्म के साथ समाज को भी | हेतु सजग हो। विवादित बनाया है। पूजा पद्धतियों में अन्तर, तेरापंथ, बीसपंथ, साढ़े 15. धार्मिक क्षेत्र में आगम की मान्यताओं का ध्यान रखा जाए। सोलह पंथ, शुद्धाम्नाय, निश्चय-व्यवहार, निमित्त उपादान, क्रमबद्ध | 6. समाज में धार्मिक-नैतिक एवं लौकिक शिक्षा के लिए समाज पर्याय, मूर्तिपूजा, तारणपंथ, कहानपंथ, सोनगढ़ी, जयपुरी-देवगढ़ी, द्वारा शिक्षालय स्थापित किये जायें। पीठाधीश परम्परा के रूप में साधुओं का असंयमित व्यवहार, | 7. समाज के उद्योगपति, प्रबन्धक अपने संस्थानों में समाज के आर्यिकाओं के चरण चिन्हों की नवीन सर्जना, प्रथमाचार्य-विवाद, ही व्यक्तियों की प्राथमिक अनिवार्यता के साथ नियुक्तियाँ करें। ब्रह्मचारिणियों की पूज्यता-वन्दना, बढ़ते मंदिर, घटते पुजारी आदि 8. सामाजिक विवादों को निपटाने हेतु स्थानीय स्तर पर धार्मिक विवादों ने समाज के अनेक वर्ग बना दिये हैं। अब तो दिगम्बर 'सामाजिक विवाद निवारण प्रकोष्ठ' बने। साधुओं के नाम पर भी खेमेबाजी है। साधुओं में असंयम को तर्क सामाजिक प्रतिबद्धता के विकास हेतु पूजन शिविर, श्रावक संगत बताया और माना जाने लगा है जिससे समाज में समन्वय शिविर एवं सहयोग शिविर आयोजित किये जायें। कम विद्वेष और अलगाव तथा किंकर्तव्यमूढ़ता की स्थिति निर्मित हुई 10. समाज में निर्धनवर्ग की पहचानकर उनके विकास/उत्थान की एकान्तवादी सोच के विकसित होने से मनमानापन समाज एवं दसवर्षीय योजनाएं संचालित की जायें। व्यक्ति के स्तर पर बढ़ा है परिणामस्वरूप माँ-बाप, भाई-भाई एक 11. साधुओं की भूमिका समाजोन्मुखी एवं दीर्घकालिक हो। दूसरे के वैचारिक दुश्मन बन गये हैं, जिनके कारण घर एवं समाज 12. दान का रूप प्रचलित हो उसे बोली का रूप न दिया जाय। का वातावरण कलुषित हुआ है। न लोग निश्चय को समझ रहे हैं न 13. मन्दिरों के सामानों पर दानदाताओं के नाम अंकित नहीं किये व्यवहार को बल्कि निश्चय नय के नाम पर व्यवहार एवं निश्चय दोनों जायें। को गड़बड़ा दिया है। वास्तव में एकान्तवाद एक विष की तरह है | 14. सामाजिक सहयोगात्मक गतिविधियों में बढ़ोत्तरी हो। जिससे व्यक्ति करे भले ही नहीं, किन्तु फोड़े फुन्सियों की उत्पत्ति | 15. धार्मिक विवादों को निबटाने के लिये शीघ्र पहल की जाये। और बहते मवाद की दुर्गन्ध सहने से बच नहीं सकता। 16. एकान्तवादी विचारधारा के स्थान पर अनेकान्तवादी विचारधारा निराकरण के उपाय को प्रोत्साहित कर दूसरों के विचारों का आदर किया जाए। इस सामाजिक असमन्वय के निराकरण हेत निम्न उपाय | 17. समाज में नियमित स्वाध्याय एवं वैचारिक संवाद के आयोजन अपेक्षित हैं किये जायें, ताकि वैचारिक मानस उच्चता को प्राप्त हो। 1. समाज को घटकों में बाँटकर देखने के स्थान पर विराट समाज | 18. समाज में साधु, विद्वान और श्रावकों की भूमिका बनी रहे। एक के रूप में देखा जाए। दूसरे को काटने की प्रवृत्ति न हो, ताकि इन तीनों के महत् 2. समाज में असहायों, अशिक्षितों के उद्धार हेतु सामाजिक मंच योगदान से सामाजिक समन्वय की धारा अविरल बहती रहे। एवं आर्थिक कोष बनें। एल-65, न्यू इंदिरा नगर-ए, 3. समाज में धन की श्रेष्ठता के स्थान पर गुणात्मक श्रेष्ठता पर बुरहानपुर, म.प्र. डॉ. रमेशचन्द्र जैन की कृतियों का विमोचन दादावाड़ी- कोटा (राज.) में दि. 2 नव. को परमपूज्य मुनि श्री सुधासागर जी, क्षु. श्री गम्भीर सागर जी एवं क्षु. श्री धैर्यसागर जी के सान्निध्य में भगवान महावीर स्वामी के 2600 वें जन्म कल्याणक वर्ष एवं विद्वत्परिषद् की स्वर्ण जयंती के उपलक्ष्य में प्रकाशित अनेकान्त मनीषी डॉ. रमेशचन्द्र जैन डी.लिट. (बिजनौर), अध्यक्ष - अ.भा. दि. जैन विद्वत् परिषद् द्वारा लिखित 'जैनपर्व' एवं 'उद्बोधन' कृतियों का विमोचन श्री मनीष कुमार जैन, आशिष मेडिकल स्टोर्स, लाड़पुरा, कोटा ने किया। उन्होंने 11000/- रुपये प्रदान कर 'जैनपर्व' कृति भेंट स्वरूप समाज में साधुसंतों को प्रदान करने की घोषणा की। पू. मुनि श्री ने लेखक एवं विमोचन कर्ता को धर्मवृद्धि हेतु आशीर्वाद प्रदान किया। 'परमसुधासागर' का प्रकाशन दादाबाड़ी- कोटा (राज.)। धर्म दिवाकर पं. लाल चन्द्र जैन 'राकेश' (गंजबासौदा) द्वारा विरचित मुनि पुंगव श्री सुधासागर जी महाराज के जीवन चरित पर आधारित कृति संगोष्ठी में विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत की गयी, जिसे प्रा. अरुण कुमार जैन (निदेशक आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र, ब्यावर) ने प्रकाशन हेतु स्वीकार किया। कोटा समाज के विशेष आग्रह पर यह कृति श्री ऋषभ मोहिवाल, मनीष मोहिवाल, राजु मोहिवाल, अमित मोहिवाल एवं परिवार कोटा (राज.) द्वारा प्रकाशित की जायेगी। डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन, एल-65, न्यू इंदिरा नगर, बुरहानपुर (म.प्र.) -दिसम्बर 2001 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-समाधान पं. रतनलाल बैनाडा शंकाकार - ब्र. अरुण मथुरा ने यह सुना तब उसने उग्रसेन की बहुत मारपीट की, जिससे वह शंका - भगवान् पुष्पदन्त से लेकर भगवान् धर्मनाथ तक 7 | तीव्र वेदना सहकर मरा और व्याघ्र हुआ। जब भगवान् आदिनाथ का तीर्थों में धर्म की व्युच्छित्ति हुई थी। यहाँ धर्म की व्युच्छित्ति से क्या जीव राजा बज्रजंघ की पर्याय में था तब उसने चारणऋद्धिधारी मुनि तात्पर्य है? को आहार दिया था। तब यह व्याघ्र भी वहाँ दान की अनुमोदना कर समाधान - श्री तिलोय पण्णत्ति अ. 4/1291 में इस प्रकार रहा था। जिस कारण सातवें भव में उत्तर कुरु भोगभूमि में मनुष्य कहा है हुआ। वहाँ से छठे भव में ऐशान स्वर्ग में चित्रांगद नामक देव हुआ। हुंडावसप्पिणिस्स य, दोसेणं वेत्ति सोत्ति विच्छेदे। वहाँ से चयकर विभीषण राजा और प्रियदत्ता रानी का वरदत्त नामक पुत्र हुआ। वरदत्त एक बार विमलवाह जिनेन्द्र की वन्दना करने गये दिक्खाहि मुहाभावे, अत्यमिदो धम्य-वर-दीओ।।1291।। और विरक्त होकर दीक्षा धारण कर ली। समाधिमरण पूर्वक शरीर अर्थ- हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से, वक्ताओं और श्रोताओं छोड़कर अच्युत स्वर्ग में सामानिक जाति के देव हुए। वहाँ से चयकर का विच्छेद होने के कारण तथा दीक्षा के अभिमुख होने वालों के अभाव तीसरे भव में राजा वज्रसेन और रानी श्रीकान्ता के विजय नामक पुत्र में धर्म रूपी उत्तमदीपक अस्तमित हो गया था। हुए। दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण कर सर्वार्थसिद्धि में अहिमिन्द्र हुए। वहाँ श्री त्रिलोकसार गाथा - 814 की टीका में इस प्रकार कहा है 33 सागर तक स्वर्गसुख भोगकर भरतचक्रवर्ती के अनन्तवीर्य नामक वक्तृश्रोतृचरिष्णूनामभावात् सद्धर्मो नास्ति।।8141 पुत्र हुए। इन्होंने भगवान् ऋषभदेव के समवशरण में दिव्यध्वनि सुनकर अर्थ- वक्ता, श्रोता और धर्माचरण करने वालों का अभाव होने | दीक्षा प्राप्त की और इस अवसर्पिणी युग में सर्वप्रथम मोक्ष प्राप्त से सद्धर्म अर्थात् जैन धर्म का विच्छेद रहा है। किया। श्री सिद्धान्तसार दीपक 9/169-172 के अनुसार भी धर्म शंका - अणुव्रत-महाव्रत आदि क्षायोपशमिक भाव बंध के उच्छेदकाल में मुनि, श्रावक, वक्ता, श्रोता नहीं होते हैं। कारण है या नहीं? उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि जिस काल में वक्ता, श्रोता समाधान - वर्तमान में कुछ लोग दान, पूजा, व्रत आदि की तथा मुनि, श्रावक न हों, उस काल को धर्म व्युच्छित्ति काल कहते | क्रिया परिणतिरूप शुभोपयोग को औदयिक भाव मानकर बंध का हेतु, मानते हैं, जो वास्तव में आगम विरुद्ध है। क्योंकि अनेक आचार्यों शंका - श्रीकृष्ण को तीर्थंकर प्रकृति का बंध किस कारण हुआ? ने इनको क्षायोपशमिक भाव तथा निर्जरा का कारण मानते हुए परम्परा समाधान - श्री वसुनन्दीश्रावकाचार गाथा नं. 349 में इस से मोक्ष का कारण माना है। प्रकार कहा है - प्रवचनसार गाथा 157 की टीका में आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी वारवईए विज्जाविच्चं किच्चा असंजदेणावि। | कहते हैंतित्थयरणामपुण्णं समज्जियं वासुदेवेण।।349।। 'विशिष्टक्षयोपशमदशाविश्रान्तदर्शनचारित्रमोहनीयपुदगलानुवृति अर्थ- द्वारावती में व्रत, संयम से रहित असंयत भी वासुदेव | परत्वेन पारगृहातशोभनोपरागत्वात् परमभट्टारकमहादेवाधिदेवपरमेश्वराहेत् श्रीकृष्ण ने वैयावृत्य करके तीर्थंकर नामक पुण्यप्रकृति का उपार्जन | सिद्धसाधुश्रद्धाने समस्तभूतग्रामानुकम्पाचरणेच प्रवृत्त शुभोपयोगः।' किया। अर्थ- दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय के विशिष्ट क्षयोपशम श्री धर्मसंग्रह श्रावकाचार श्लोक नं. 106 में कहा है - से परम भट्टारक महादेवाधिदेव, अरहंत, सिद्ध और साधु की श्रद्धा द्वारावत्यां मुनीन्द्राय ददौ विष्णुः सदौषधम्। करने से एवं समस्त जीवों पर अनुकम्पा करने से शुभोपयोग होता है। (यहाँ जीवों पर अनुकम्पा करने से दया, दान, व्रत आदि परिणामों तत्पुण्यतीर्थकृन्नाम सद्गोत्रेण बबन्ध स:।106।। को लिया गया है) आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी ने शुभोपयोग को अर्थ- द्वारका नगरी में किसी मुनिराज के लिए विष्णु (श्रीकृष्ण) | क्षायोपशमिक भाव बताया है। और जैनागम में शुभोपयोग को संसार ने उत्तम औषध दान दिया था, उस दान के पुण्य से उन्होंने तीर्थकर का कारण न मानकर परम्परा से मोक्ष का कारण माना है। नाम कर्म का बन्ध किया। जैसा कि समयसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में कहते हैं - शंका - वर्तमान अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम मोक्षगामी अनन्तवीर्य महाराज के पूर्वभव बताइये? मोक्षं कुर्वन्ति मिश्रौपशमिकक्षायिकाः त्रिधः। समाधान - अनन्तवीर्य महाराज पूर्व के नौवें भव में हस्तिनापुर बंधमौदयिकभावो, निष्क्रियः पारिणामिकः।।378।। नगर में सागरदत्त वैश्य से उसकी धनवती नामक स्त्री से उग्रसेन नामक अर्थ-क्षयोपशम, उपशम एवं क्षायिक भाव मोक्ष के करने वाले पुत्र हुआ। वह स्वभाव से अत्यधिक क्रोधी था। एक दिन उसने राजा हैं, और औदयिक भाव बंध का कारण है, तथा पारिणामिक भाव के भण्डार की रक्षा करने वाले लोगों को डरा धमकाकर बलपूर्वक निष्क्रिय है। उपर्युक्त प्रमाण से यह भली प्रकार सिद्ध है कि दान, बहुत सा घी और चावल निकालकर वेश्याओं को दे दिया। जब राजा | व्रत, दया आदि शुभ भाव क्षायोपशमिक भाव हैं और मोक्ष के 28 दिसम्बर 2001 जिनभाषित - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण हैं। प्रवचनसार गाथा 254 में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ऐसा कह रहे हैं > एसा पसत्यभूदा समणाणं व पुणो धरत्वाण चरिया परेति भणिदा, ता एव परं लहदि सोक्खे।1254।। अर्थ- शुभोपयोग रूप प्रशस्तचर्या गृहस्थों की मुख्य और साधुओं की गौण कही गयी है। इसी शुभोपयोग के द्वारा गृहस्थ परम्परा से परम सुख को प्राप्त करता है। श्री धवल जी में कहते हैं (पु. 8/83)असंख्खेज्ज गुणाये सेजिए कम्म णिज्जरं हेदु वदं णाम । अर्थ- असंख्यात गुण श्रेणी निर्जरा होने के कारण निश्चय से व्रत. ही है। अणुव्रत और महाव्रतों को आचार्य उमास्वामीजी ने संयतासंयत एवं क्षायोपशमिक चारित्र क्षयोपशम भाव के अन्तर्गत लिया है। ( तत्वार्थ सूत्र 2/5) क्योंकि उपर्युक्त प्रमाण के अनुसार क्षायोपशमिक भाव मोक्ष के कारण होते है अतः अणुव्रत और महाव्रतों को कभी भी बंध का कारण नहीं कहा जा सकता है। संवर का वर्णन करते हुए आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः । अर्थ- गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र ये संवर के कारण हैं। - मोक्षमार्गप्रकाशक में पंडित टोडरमल जी लिखते हैं "देखो चतुर्थ गुणस्थान वाला शास्त्राभ्यास, आत्मचिन्तवन आदिक कार्य करे तहाँ भी निर्जरा नहीं, बंध भी घना ही है। अर पंचम गुणस्थान वाला विषय सेवन आदि कार्य करे, तहाँ भी बाके गुणश्रेणी निर्जरा हुआ करे बंध भी थोरा होवे । बहुरि पंचमगुणस्थान वाला उपवास आदि व प्रायश्चित आदि तप करे तिस काल भी बाके निर्जरा थोरी । अर छठागुणस्थानवाला आहार बिहार आदि क्रिया करे तिस काल बाके निर्जरा धनी वा बंध भी बाके कम होवे।" यहाँ विचारणीय यह है कि चतुर्थ गुणस्थानवाले के आत्मचिन्तवन करने पर भी निर्जरा नहीं कही है, बंध भी बहुत कहा है और पंचम गुणस्थानवर्ती के विषयसेवनादि कार्य करते हुए भी गुणश्रेणी निर्जरा कही है, बंध भी थोड़ा कहा है, जिसका कारण अणुव्रत अर्थात देशचारित्र के अलावा और क्या हो सकता है? अणुव्रत और महाव्रतों को आचार्यों ने देश चारित्र वा सकल चारित्र कहा है। जो क्रमशः गृहस्थ और मुनियों के होते हैं, और जिनका कारण अप्रत्याख्यानावरण कषाय और प्रत्याख्यानावरण कषाय का अनुदय होना है। ऐसे परम पूज्य चारित्र को बंध का कारण कैसे कहा जा सकता है। ऊपर मोक्षमार्गप्रकाशक का प्रमाण हमने लिया है। उससे भी इस प्रकार समझना चाहिए कि पंचम गुणस्थानवर्ती के जो देश चारित्र रूप परिणाम हुआ है, उससे तो संवर व निर्जरा है और उसी गृहस्थ के जो प्रत्याख्यानावरण आदि कषायों का उदय है, उनके कारण बंध भी है। इसी तरह महाव्रतों को जानना । इसी से सिद्ध होता है कि देशव्रती व महाव्रती को आसव, बंध, संवर, निर्जरा ये चारों होते हैं, ऐसा समझना चाहिए। यदि संक्षेप में कहा जाये तो इस प्रकार कह सकते हैं कि 'महाव्रत से बंध नहीं होता परन्तु महाव्रती को बंध होता है।' 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) इतिहास के नाम पर आस्था से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता भोपाल 5 दिसम्बर। राष्ट्रीय 'अनेकान्त' अकादमी ने एक प्रस्ताव पारित कर ऐसे लोगों की भर्त्सना की है जो इतिहास के नाम पर अपनी सीमित और एकपक्षीय दृष्टि से हजारों हजार वर्ष प्राचीन पुराणों, शास्त्रों और पुरातत्व की अनदेखी कर राजनैतिक स्वार्थ पूरे करना चाहते हैं। अकादमी के अध्यक्ष, साहित्यकार कैलाश मडवैया ने कहा कि इतिहास में जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी के अतिरिक्त पार्श्वनाथ और नेमिनाथ के अनेक उल्लेख उपलब्ध हैं। यदि किसी इतिहासकार की दृष्टि सीमित है तो इससे पुरातन प्रमाणों को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। आदिकाल से चले आ रहे जैन धर्मावलम्बियों की आस्था में तो किंचित् भी खिलवाड़ नहीं होना चाहिए। वेदों में 'केशी' नाम से तीर्थंकर ऋषभ देव का उल्लेख मिलता है। मोहनजोदड़ो की खुदाई में प्राप्त ॠषभदेव की प्रतिमा इसका स्पष्ट प्रमाण है। उड़ीसा में स्थित खारवेल के शिलालेख में महावीर स्वामी द्वारा स्वयं ऋषभनाथ की एतिहासिकता को मान्य किया गया है। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' में जैन धर्मावलम्बियों को इससे देश का मूल नागरिक कहा है। भारत के उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम तक फैले हजारों-हजार पुरातन जैन तीर्थों पर स्थित प्राचीन शिलालेख इस बात को प्रमाणित करते हैं कि महावीर स्वामी के पूर्व भी तेईस तीर्थंकर हुए हैं। अनेक प्रमाण प्रस्तुत करते हुए विद्वानों ने कथित इतिहास की आलोचना करते हुए महावीर के पूर्व तेईस तीर्थंकरों को महज कल्पना कहना पुरातत्त्व और वास्तविक इतिहास से आँखे मूँद लेना निरूपित किया। इस अवसर पर विद्वानों द्वारा केन्द्रीय शिक्षामंत्री और कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिज्ञों की भी प्रशंसा की गई, जिन्होंने गलत इतिहास को पढ़ाया जाना बंदकर इसे संशोधित करना स्वीकार किया है। कैलाश मड़वैया हरिवंशपुराण-परिशीलन राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठी सम्पन्न कोटा (राज.) यहाँ परम पूज्य मुनि पुंगव श्री सुधासागर जी महाराज, पूज्य क्षुल्लक श्री गम्भीरसागर जी महाराज एवं पूज्य क्षुल्लक श्री धैर्यसागर जी महाराज के सान्निध्य एवं प्राचार्य श्री जैन 'अरुणकुमार (ब्यावर) एवं पार्श्वज्योति के प्रधान सम्पादक डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' (बुरहानपुर) के संयोजकत्व में श्री दिगम्बर जैन प्रभावना समिति, श्री दि. जैन नासियां दादावाडी, कोटा द्वारा आयोजित 'आचार्य जिसनेन कृत हरिवंशपुराण परिशीलन' पर अहम राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठी दि. 1 से 3 नव. तक 33 विद्वानों की सहभागिता एवं सैकड़ों नर-नारियों की उपस्थिति में 8 सत्रों में सम्पन्न हुई। - दिसम्बर 2001 जिनभाषित 29 . Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यंग्य कार-कथा शिखरचन्द्र जैन जुलाई का महीना कष्टों को भोगने के लिए वे लोग जो नौकरी में होते हैं, मूलत: दो श्रेणियों में विभक्त विभिन्न लोगों को विभिन्न तत्पर नजर आते हैं। अफ कारणों से प्रिय होता है। पाये जाते हैं। पहली श्रेणी में कर्मचारी होते हैं और दूसरी में अफसर। सर बनने की ललक को ज्यादातर लोगों को जहाँ । कर्मचारी उन्हें कहते हैं, जो बहसंख्यक होते हैं, जिन्हें हडताल करने| व्यक्त करने देत का भी जून के महीन में गर्म तवे पर का वैधानिक अधिकार मिला होता है और जो अफसरों को, प्रबन्धन | - 'सौ से नब्बे कर दे पर बूंद की माफिक बरसे पानी को तथा सरकार को सार्वजनिक रूप से गरयाने की स्वतंत्रता हासिल | के कारण उत्पन्न उमस भरी किये होते हैं। इसके विपरीत अफसर उन्हें कहते हैं, जो अल्पसंख्यक तनख्वाह भले सौ रुपये से गर्मी से राहत दिलाती जुलाई होते हैं, जिन्हें अपने मातहतों के कारनामों के लिए उत्तरदायी माना जाता नब्बे कर दी जाय पर की अनवरत वर्षा सुखदायी पदनाम 'दरोगा' रख दिया है और जो एक ओर से जनता तथा कर्मचारियों द्वारा सामूहिक रूप प्रतीत होती है, वहीं कुछ जाए, चाहे वह पुलिस का से गरयाये जाने वा दूसरी तरफ से प्रबन्धन एवं सरकार द्वारा धमकाए लोग सूखे के समय रोजी दरोगा हो, सफाई का दरोगा रोटी की तलाश में परदेश जाने के काम आते हैं। या फिर नमक का दरोगा। की ओर पलायन कर गए __ अफसरी और चार अपने प्रियजनों की, इस माह, कमाई के साथ पहियों वाले वाहन का साथ, प्राचीन काल से वापसी की उम्मीद से प्रसन्न होते पाए जाते अफसर। कर्मचारी उन्हें कहते हैं जो बहुसं ही, चोली-दामन का रहा है। जब ये वाहन नहीं हैं। मई के महीने में खत्म हो चुके सूखा राहत ख्यक होते हैं, जिन्हें हड़ताल करने का होते थे तब चौपाया घोड़ा इस कमी को पूरा कार्यों से निराश कई लोग, जहाँ जुलाई में वैधानिक अधिकार मिला हुआ होता है और करता था। इस समय एक अफसर का कुशल होती भरपूर बरसात से बाढ़राहत कार्यों के जो अफसरों को, प्रबंधन को तथा सरकार को घुड़सवार होना अनिवार्य था। कहते हैं कि शर्तियाँ शुरु होने की आशा में पुलकित सार्वजनिक रूप से गरयाने की स्वतंत्रता बुनियादी सेवा नियमों में आज भी इस बात दिखाई देते हैं, वहीं कतिपय महिलाएँ जुलाई हासिल किए हुए होते हैं। इसके विपरीत का उल्लेख मिलता है कि तहसीलदार बनने में सावन के संयोग से आने वाले रक्षा बंधन अफसर उन्हें कहते हैं जो अल्प संख्यक होते के लिये घुड़सवारी का प्रेक्टिकल-टेस्ट पास पर्व पर मैके जाकर वहाँ पड़ चुके झूलों का हैं, जिन्हें अपने मातहतों के कारनामों के लिए करना जरूरी होगा। उन दिनों अफसर उसे ही आनंद उठा सकने की कल्पना से गदगद नजर उत्तरदायी माना जाता है और जो एक ओर माना जाता था जिसके घर में घुड़साल हो और आती हैं। इसके अलावा अन्य कई फुटकर से जनता तथा कर्मचारियों द्वारा सामूहिक रूप जिसमें कम से कम एक घोड़ा बँधा हो। कारणों से भी लोग जुलाई माह को प्रेम करते से गरयाये जाने या दूसरी तरफ से प्रबंधन कालान्तर में जीप और कार के आविर्भाव से पाए जाते हैं। मसलन, मेरे पड़ौसी, उस वर्ष एवं सरकार द्वारा धमकाए जाने के काम आते अफसरों की पहचान और भी सहज हो गई। जुलाई की प्रतीक्षा अत्यंत उत्सुकता के साथ हैं। इस विवेचना से यह सिद्ध होता है कि जिसके घर जीप खड़ी हो, वह अफसर। कर रहे थे। कारण कि उस वर्ष पड़ौसी की अफसरी करना सहज कार्य नहीं है। निश्चित ही जिसके घर कार खड़ी हो वह और भी बड़ा पदोन्नति निश्चित थी, जो कि कम्पनी की यह एक जीवट का कार्य है, जो केवल वही अफसर। सरकारी उद्योगों में कम्पनी की ओर नियमानुसार जुलाई माह में होना तय थी। इस कर पाते हैं, जिन्हें 'आ बैल मुझे मार' को से गाड़ी देने के बजाय अफसरों को निजी चरितार्थ करने में विश्वास होता है। पदोन्नति से मेरे पड़ौसी न केवल कर्मचारी | गाड़ी रखने हेतु भत्ता देने की प्रथा प्रारंभ कर से अफसर में तब्दील हो जाने वाले थे, बल्कि हर्ष का विषय है कि हमारे देश में सिर्फ दी गयी और इस तरह इन उद्योगों में भी कार रखने पर कम्पनी से वाहन-भत्ता पाने की साहसी व्यक्ति ही बसते हैं। अतः हर व्यक्ति अफसरों की पहचान बनाए रखी गई। पात्रता भी प्राप्त करने वाले थे। जाहिर है कि जीवट का कार्य करने पर उतारू रहता है। आसन्न पदोन्नति से प्रफुल्लित पड़ौसी जो परिवर्तन होने जा रहा था उसकी लालसा संभवतः इसीलिए, सारी विषमताओं के ने जब कार खरीदने हेतु पड़ताल प्रारंभ की, हर नौकरी पेशा के मन में स्वाभाविक रूप बावजूद हर आदमी अफसर बनने को तो दूसरे ही दिन दूधवाले से लेकर आटोसे हुआ करती है। अफसरी ठसक और चार लालायित पाया जाता है, बहुत कुछ उन डीलर तक पड़ौसी के पीछे पड़ गए। पहियों वाले वाहन के होने का सुख भला कौन महिलाओं की तरह जो गर्भधारण एवं प्रसव _ 'कैसी कार लेना चाहते हैं साब?' दूध नहीं चाहेगा? की पीड़ादायक प्रक्रिया तथा रिस्क के बावजूद वाले ने पूछा - 'कहें तो अभी खड़ी करवा वे लोग जो नौकरी में होते हैं, मूलतः माँ बनने के लिये लालयित रहती हैं या फिर दूँ दो-चार कारें घर के सामने। चुन दो श्रेणियों में विभक्त पाए जाते हैं। पहली उन संसारी प्राणियों की तरह जो केवल एक लीजिएगा।' श्रेणी में कर्मचारी होते हैं और दूसरी में बूंद शहद के स्वाद के लिए संसार के भीषण 'मुझे कार खरीदना है, गाय नहीं।' 30 दिसम्बर 2001 जिनभाषित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़ौसी ने कहा! अतः सर्वोत्तम तो यही होगा कि परिग्रह से | पायेंगे?' 'अब ऐसा ज्यादा कुछ फरक भी नहीं | परे रहा जाए।' 'इन्हें तो मैं समझा लूँगा।' पड़ौसी ने है दोनों में।' दूध वाला बोला- 'गाय दूध के 'सो तो आप ठीक कहते हैं।' पड़ौसी कहा- 'लेकिन उन्हें कैसे समझाऊँगा जिनके वास्ते खरीदते हैं तो कार अलाऊँस के वास्ते। ने कहा - 'पर मैं जो हूँ सो अभी भी गृहस्थाश्रम बीच मैं काम करता हूँ, जिनके मध्य मैं उठता बल्कि अलाऊँस की खातिर तो कार का में हूँ। साथ में एक अदद पत्नी वा तीन बच्चे बैठता हूँ, जिनके लिये समाज में आपकी चलती हालत में होना भी दरकार नहीं है।' हैं, जिनकी बहुत सारी हसरतें बहुत दिनों से स्थिति के आकलन के लिए आपके सदगुणों पड़ौसी ने इस कथन को मस्तिष्क के मेरी पदोन्नति से हिलगी हुई हैं। बेटियों ने से ज्यादा ऊपरी तामझाम महत्त्वपूर्ण होता है। एक कोने में रख लिया। बोले कुछ नहीं। सहेलियों से अपने पापा की कार में पिकनिक अफसरी करना है तो मातहतों के लिए अफसर आटो-डीलर भी उनसे तत्काल मिला और उन ले जाने का वादा कर रखा है। बटे की योजना का रूप धारण करना भी तो जरूरी होता है। सारी स्कीमों का विस्तृत विवरण दिया, अपनी कार को ड्राइव करते हुए, दिन में कई | होता है न आदरणीय?' जिनके अंतर्गत न्यूनतम ब्याज और अधि- बार अपने दोस्तों के घर के सामने से सरपट कतम किश्तों में नई कार मुहैया कराई जा निकल जाने की बनी हुई है। पत्नी की मैंने आदरणीय बने रहने हेतु वार्तालाप सकती थी। इनके अलावा अन्य कई लोगों ने | चिरपोषित अभिलाषा है कि वह अपनी कार को यहीं विराम देना उपयुक्त समझा। इसके अपनी पुरानी कार बेचने के उद्देश्य से पड़ौसी | में बैठ कर दूर अपने गाँव जाये, जहाँ गाँव बाद जो हुआ वह लगभग तय था। पड़ौसी से सम्पर्क साधा। इस तरह, कुछ ही समय वाले उसे देखकर चकित रह जायें। कहें कि ने कार खरीदी। यही कोई दस-बारह वर्ष में चारों ओर से घिर जाने पर पड़ौसी पूर्णतः देखो फलाँ की बिटिया का भाग्य! जिसे नाक पुरानी। घर तक खुद चला कर लाए। पुत्र ने विवृत्त पाए गए। उन्हें लगा मानों लोग कार | पौंछने का शऊर नहीं था, आज अपनी कार भी कार पर हाथ साफ किया। एक दो बार के लिए ग्राहक नहीं, बल्कि बिटिया के लिए | में फर्राटे भर रही है।' सरपट दौड़ायी भी। बेटियाँ भी नजदीक के वर तलाश रहे हों। तब तो पड़ौसी आपको नई कार फिकनिक-स्पॉट तक हो आई। पर होता यों और इसी दौरान पड़ौसी का प्रमोशन खरीदना चाहिए।' मैंने इस सलाह को निरापद था कि कभी कार का एक पुर्जा टूटता, तो आर्डर आ गया। वह अफसर बन गए, साथ मानते हए कहा - 'अगर गाँव-खेड़े तक जाना कभी दूसरा। गेरेज में कार रिपेयर करातेही वाहन भत्ते के पात्र भी। है, तो फिर कार के चलने की गारंटी होना कराते पड़ौसी को इतना ज्ञान हो गया कि वह __मैं बधाई देने पहुंचा तो उन्हें उतना चाहिए वरना फर्ज करो कि गाँव में जाते ही खुद कार ठीक करने लगे। मैं बहुधा उन्हें प्रसन्न नहीं पाया, जितनी की अपेक्षा थी। पुरानी कार बिगड़ जाये और उसे बैलों से बोनेट खोले कार के अंदर झाँकते पाता। 'क्या बात है पड़ौसी?' मैंने मुस्कराते खिंचवा कर शहर की गेरेज तक लाना पड़े अथवा कार के नीचे घुस कर कुछ टाइट करते हुए पूछा - 'मिठाई में शक्कर कुछ कम नजर तो फिर कितनी भद्द उड़ेगी?' देखता। पड़ौसी डयूटी से लौटते और कार आ रही है।' _ पड़ौसी गंभीर हो गए। मैंने भी में भिड़ जाते। पहले पेंट-कमीज पहन कर 'सो तो सही है मान्यवर, पर नई कार खरीदने की हैसियत भी तो बन पड़ना चाहिए रिपेयर करते थे। बाद में लुंगी-बनियान में आ मुस्कराहट समेट ली। न? आप तो जैन साब, जानते ही हैं कि गए। उन्हें बुरा न लगे इसलिये मैं कार की 'अब आपसे क्या छिपाना जैन साब,' बड़की राजधानी के एक होस्टल में रहकर चर्चा उनसे कभी नहीं करता। केवल कनखियों पड़ौसी ने किंचित् विचलित होते हुए कहा'मैं कार खरीदने को लेकर बड़ी द्विविधा में से उनके चेहरे पर बढ़ती पीड़ा और बनियान कालेज में पढ़ रही है। छुटकी पी.एम.टी.की हूँ। नयी लूँ या पुरानी? चलनेवाली लूँ या गैर तैयारी में तमाम ट्यूशनों में जा रही है और में बढ़ते छिद्रों को निहारता रहता। रिपेयर के बेटा इंजीनियर बनने की कोशिश में अभी से बाद जब व कार की ट्रायल लेने निकलते तो चलनेवाली। लूँ भी अथवा न लूँ? कुछ समझ नहीं आ रहा। आप ही सलाह दें कि मैं क्या कोचिंग ले रहा है। ऐसे में घर में कभी नमक फटी बनियान पहने हुए होते, जैसे सब कुछ कम पड़ जाता है, तो कभी तेल। और फिर पूर्व आभासित था। करूं?' अब गंभीर होने की बारी मेरी थी। नई कार के लोन की किश्त! बाप रे! जितना कहते हैं कि प्राचीन काल में जब किसी महापुरुषों ने पड़ौसी से प्रेम करने की हिदायत अलाऊँस मिलेगा उससे दुगने से भी ज्यादा। से बदला लेना होता था, तो उसे हाथी उपहार तो दी है, लेकिन सलाह के संदर्भ में वे मौन अब यह भी तो अच्छा नहीं लगेगा कि फटे में दे दिया जाता था अथवा जब किसी की रहे हैं। व्यक्तिगतरूप से मैं सलाह देने को कपड़े पहिन कर नई कार चलाई जावे।' मति मारी जाती थी तो वह घर के सामने हाथी बड़ा रिस्की मानता हूँ। गलत पड़ जाये तो _ 'तब तो पड़ौसी आपको कार कतई बँधवा लेता था। इससे समाज में उसकी अगले से जिंदगी भर को ठन जाती है। नहीं खरीदना चाहिए,' मैंने कहा - 'घर के प्रतिष्ठा तो अवश्य बढ़ जाती थी, पर घर इसलिए तनिक दार्शनिकता ओढ़ते हुए मैंने सदस्यों को कुछ समय के लिए कार का मोह खोखला होने लगता था। लगा कि जैसे कहा - 'परिग्रह तो पड़ौसी हर हाल में दुख त्याग देना उचित होगा। लोभ का संवरण पड़ौसी कुछ वैसी ही स्थिति में पड़ गए हों। का कारण माना गया है। जिस वस्तु में हम करना श्रेयस्कर होगा। वैसे भी गुरुजनों ने लोभ को पाप का जनक निरूपित किया है। कषायों सुख की आशा करते हैं, वस्तुतः उसमें सुख 7/56-ए, मोतीलाल नेहरू नगर होता नहीं है। सुख का छलावा मात्रा होता है। को वश में करने का उपदेश दिया है। तो क्या (पश्चिम) भिलाई (दुर्ग) छत्तीसगढ़, आप परिजनों को इतना भी नहीं समझा पिन-490020 -दिसम्बर 2001 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुति कविवर दौलतरामज सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्द-रस-लीन। शब्दार्थ : अविरुद्ध - विरोध से रहित, अनूप - अनुपम, कीन सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरि-रज-रहस-विहीन।।1।। - करने वाले, अछीन - क्षय से रहित। शब्दार्थ : सकल - सम्पूर्ण, ज्ञेय-जानने योग्य पदार्थ, ज्ञायक | अर्थ : हे भगवान् ! आप विरोध से रहित शुद्ध चैतन्य स्वरूप - जानने वाले, निजानन्द - अपनी आत्मा के आनन्द में, तदपि - हैं, अत्यन्त पावन परमात्म रूप हैं, अनुपम हैं, शुभ-अशुभ विभावों फिर भी, नित - हमेशा, अरि - शत्रु (मोहकर्म), रज- धूल (ज्ञानावरण, का अभाव करने वाले हैं, स्वाभाविक परिणति से सहित हैं और क्षय दर्शनावरण), रहस- अंतराय (छिपाना), विहीन- रहित। से रहित हैं। अर्थ : सम्पूर्ण पदार्थों के जानने वाले होने पर भी जो अपनी । अष्टादश दोष विमुक्त धीर, स्व चतुष्टयमय राजत गंभीर। आत्मा के आनन्द रूपी रस में लीन रहते हैं तथा जो ज्ञानावरण, | मुनि गणधरादि सेवत महंत, नव केवल-लब्धि-रमा धरंत।।6।। दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय इन चार घातिया कर्मों से रहित शब्दार्थ : अष्टादश - अठारह, विमुक्त - रहित, धीर - अटल, हैं वे जिनेन्द्र भगवान हमेशा जयवंत हों। राजत - सुशोभित, रमा - लक्ष्मी, धरन्त - धारण करते हैं। जय वीतराग विज्ञान-पूर, जय मोह-तिमिर को हरन सूर। अर्थ : हे भगवान्! आप अठारह दोषों से रहित हैं, अटल हैं, जय ज्ञान अनंतानंत धार, दृग-सुख-वीरज-मण्डित अपार।।2।। अपने स्वचतुष्टय से सुशोभित हैं, समुद्र के समान गम्भीर हैं। मुनि शब्दार्थ : पूर - पूर्ण, तिमिर - अन्धकार, हरन - नष्ट करने | और गणधर आदि भी आपकी सेवा करते हैं, आप केवलज्ञान आदि के लिये, सूर - सूर्य, दृग - दर्शन, वीरज - वीर्य, मण्डित - सुशोभित, | नव क्षायिक लब्धिरूपी लक्ष्मी को धारण किये हुये हैं। अपार - अनंत। अठारह दोष : क्षुधा, तृषा, बुढ़ापा, जन्म, मरण, भय, स्मय, अर्थ : जो रागद्वेष से रहित हैं, विशिष्ट ज्ञान से पूर्ण हैं, मोहरूपी | राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, अरति, निद्रा, विस्मय, खेद, रोग, स्वेद अन्धकार को नष्ट करने के लिये सूर्य के समान हैं, जो अनन्तानन्त पान है जो अनन्तानन्त | और शोक। ज्ञान को धारण किये हैं और अनंतदर्शन, अनंतसुख व अनंतवीर्य नव क्षायिक लब्धि - क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकज्ञान, से सुशोभित हैं। उन प्रभु की जय हो। क्षायिकदर्शन, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिकउपजय परम शांत मुद्रा समेत, भवि-जनको निज अनुभूति हेत। | भोग, क्षायिकवीर्य, और क्षायिकचारित्र। भवि-भागनवच जोगे वशाय तुम धुनि वै सुनि विभ्रम नशाय॥3॥ | तुम शासन सेय अमेय जीव, शिव गये जाहिं जैहैं सदीव। शब्दार्थ : परम - अत्यन्त, समेत - सहित, भवि - भव्य, | भव-सागर में दुख छार वारि, तारनको अवर न आप टारि।।7। जनको - जीवों को, अनुभूति - ज्ञान, हेत - कारण, भागन - भाग्य | शब्दार्थ : सेय - सेवा करके, अमेय - अनन्त, शिव - मोक्ष, से, वचजोगे - वचन योग के, वशाय - निमित्त से, धुनि - दिव्य | जाहिं - जा रहे हैं, जैहैं - जावेंगे, सदीव - हमेशा, छार - खारा, ध्वनि, वै - होती है, विभ्रम - मोह या मिथ्यात्व। वारि - पानी, अवर - दूसरा, टारि - छोड़कर। अर्थ : जो अत्यन्त शांत मुद्रा से सहित हैं, उनकी जय हो। अर्थ : हे भगवान्! आपके मोक्षमार्ग रूपी शासन की सेवा भव्य जीवों को अपनी आत्मा का ज्ञान कराने में कारण हैं। भव्य जीवों | करके अनन्तों जीव मोक्ष को प्राप्त हुये हैं, वर्तमान में जा रहे हैं और के भाग्य से और वचन योग के निमित्त से जिनकी दिव्य ध्वनि होती | हमेशा जावेंगे। संसार रूपी समुद्र में खारे पानी के समान दुख से है। जिसको सुनकर जीवों का मोह (मिथ्यात्व) नष्ट हो जाता है। | निकालने के लिये आपको छोड़कर कोई दूसरा नहीं है, अर्थात् आप तुम गुण चिंतत निज-पर-विवेक, प्रगटै विघटें आपद अनेका । ही भवसागर से पार उतार सकते हैं। तुम जग-भूषण दूषण-वियुक्त, सब महिमायुक्त विकल्प-मुक्त।।4। | यह लखि निज दुख-गद-हरण-काज, तुम ही निमित्त कारण इलाज। शब्दार्थ : विवेक - ज्ञान, प्रगटै - उत्पन्न होता है, विघटै - | जाने तातैं मैं शरण आय, उचरों निज दुख जो चिर लहाय।।8।। नष्ट होती हैं, आपद - आपत्तियाँ, भूषण - आभूषण, दूषण - दोष, | शब्दार्थ : लखि - देखकर, गद - रोग, हरणकाज - नष्ट करने वियुक्त - रहित, विकल्प - रागादिक परिणाम, मुक्त - रहित। |के लिये, जाने - जाना, तातै - इसलिये, उचरों - कहता हूँ, चिर अर्थ : आपके गुणों का चिन्तवन करने से स्व-पर का ज्ञान | - अनादिकाल से, लहाय - प्राप्त किये हैं। प्रकट होता है और अनेक प्रकार की आपत्तियाँ नष्ट होती हैं। आप संसार | अर्थ : इस प्रकार देखकर, कि अपने दुःख रूपी रोग को नष्ट के आभूषण स्वरूप हैं, दोषों से रहित हैं और सभी प्रकार की महिमा | करने के लिये आपका निमित्त ही इलाज स्वरूप है। अत: ऐसा जानकर से युक्त, रागादिक परिणामों से रहित हैं। मैं आपकी शरण में आया हूँ एवं जो मैंने अनादिकाल से दुःख प्राप्त अविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूप, परमात्म परम पावन अनूप। किये हैं, उनको कहता हूँ। शुभ अशुभ विभाव अभाव कीन, स्वाभाविक परिणतिमय अछीन।।5।। अर्थकर्ता - ब्र. महेश श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर, जयपुर। 32 दिसम्बर 2001 जिनभाषित Jain Education Interational Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का झण्डा भी डण्डा बन जाता है आचार्य श्री विद्यासागर नमोऽस्तु मुखौटे दया का कथन निरा है और दया का वतन निरा है एक में जीवन है एक में जीवन का अभिनय। अब तो.... अस्त्रों शस्त्रों वस्त्रों और कृपाणों पर भी . 'दया धर्म का मूल है' लिखा मिलता है। किन्तु, कृपाण कृपालु नहीं है वे स्वयं कहते हैं हम हैं कृपाण हम में कृपा न! कहाँ तक कहें अब! धर्म का झण्डा भी डण्डा बन जाता है शास्त्र शस्त्र बन जाता है अवसर पाकर और प्रभु स्तुति में तत्पर सुरीली बाँसुरी भी बाँस बन पीट सकती है प्रभु-पथ पर चलने वालों को। समय की बलिहारी है! 'मूकमाटी' महाकाव्य से साभार प्रो. (डॉ.) सरोज कुमार लाभ-शुभ के गणित में चिपकाए रहा मुखौटे। आती रही चमड़ी धीरे-धीरे उन पर जिस्म में उतर गए मुखौटे! अब मुक्त होने की कोशिश में खिंचती है चमड़ी रिसता है लहू! धोता हूँ शरीर चमचमाते हैं मुखौटे! मुखौटों में भर गई जिन्दगी जिन्दगी में भर गए मुखौटे अब न चेहरे खरे न मुखौटे खोटे! 'मनोरम'37, पत्रकार कालोनी, इंदौर-45001, म.प्र. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग्योदय तीर्थ प्राकृतिक चिकित्सालय करीला, खुरई रोड, सागर- 470002 (म.प्र.), फोन- 07582-24671, 21271 प्रकृति, समय और धैर्य ये तीन बड़े डॉक्टर हैं, जो नीरोग करते हैं। लक्ष्य : यह पवित्र प्राचीन योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान | मालिश 30 रुपये द्वारा समस्त पीड़ित मानवता के शारीरिक एवं आत्मिक स्वास्थ्य सुख फुलटब बाथ मालिश के साथ 60 रुपये तथा शांति प्राप्ति को समर्पित विश्व का एक अद्वितीय केन्द्र है। इस केन्द्र में आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किये 12 बहिनों एवं भाई द्वारा सूर्य स्नान 60 रुपये शुद्ध छने जल से उपचार एवं मर्यादित समय सीमा में तैयार किया फुल टब बाथ 30 रुपये गया आहार देकर तन मन तथा चेतना के रुपान्तरण द्वारा जीवन में एनिमा (कैथेटर शुल्क शामिल) 15 रुपये बदलाव लाया जाता है। गर्म पाद स्नान 30 रुपये संकल्प : शाकाहार एवं स्वास्थ्य चेतना का जागरण घर-घर हो। सभी स्वस्थ एवं सुखी हों। तन के माध्यम से धर्म की साधना कटि स्नान 30 रुपये सभी कर सकें। आधि, व्याधि और उपाधि से दूर हो सकें। यहाँ पंच योग + ध्यान + षट्कर्म एवं व्यायाम (एक माह का)250 नये तत्वों से बने शरीर में आई विकृति (रोग) को पुनः प्रकृति की ओर लौटा कर मिट्टी, पानी, धूप, हवा, सूक्ष्म व्यायाम, ध्यान, वैज्ञानिक जनरल वार्ड + उपाचार + आहार का शुल्क 100.00 मालिश, आहार, उपवास, रसाहार, फलाहार एवं ईश्वर प्रार्थना आदि प्रतिदिन होगा। कमरा अलग से लेने पर 40/- रुपये प्रतिदिन इल साधनों से जटिल एवं कठिन पुराने रोगों से पीड़ित, जीवन से निराश, होगा। मरीज के साथ सहयोगी रहने पर सहयोगी का भोजन ( 100 दवाइयाँ खा-खाकर ऊबे हुए रोगियों का सफलता से उपचार किया | रुपये प्रति व्यक्ति) एवं रहने का 25/- रुपये दिन का चार्ज लग। जाता है। लगेगा। यह शुल्क परिवर्तनीय है। रोगों का उपाचार : जो कब्ज, मोटापा, ब्लड प्रेशर, दिल विशेष आकर्षण : प्राकृतिक चिकित्सा से अतिशीघ्र ल. के रोग, दमा, गठिया, जोड़ों तथा रीढ़ के दर्द, अर्थराइटिस, बवासीर, / होता है। इसकी वैज्ञानिक परख के लिये पैथोलॉजी लैब की ल त गैस की बीमारी, कोलाइटिस, मधुमेह, अल्सर, सिर दर्द, माईग्रेन, है। जहाँ पर खून, पेशाब, ई.सी.जी., एक्स रे, सोनोग्राफी क ज. अनिद्रा, सर्दी-जुकाम, एलर्जी, महिलाओं की माहवारी संबंधी तथा / सुविधा है। साथ ही भव्य मंदिर है। जहाँ आप देवदर्शन, पुस अन्य पुरानी बीमारी से ग्रस्त हैं, दवाइयाँ खाते-खाते तंग आ चुके सकते हैं। हैं, समझ बैठे हैं कि रोग दम लेकर ही जायेगा तो निराश न हों, 1. उपचार साधन एवं सुविधा : जल सा शीघ्र हमसे संपर्क करें। (हाइड्रोथेरेपी), कटिस्नान, रीढ़ स्नान, फुल टब स्नान, गीली दूतो चिकित्सीय सेवा : संस्था में प्राकृतिक चिकित्सा एवं लपेट, पट्टियाँ, पूरी चादर लपेट, गर्म पाद स्नान, मेह. शाकाहार व अहिंसा के लिये समर्पित शिक्षा प्राप्त अनुभवी, कुशल 2. भाप स्नान : स्टीम बाथ, सोना बाथ व्यवाया एवं अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ व्रती बहिनें एवं भाई डॉक्टर्स एवं उपचारकों की पृथक्-पृथक् सेवाभावी टीम कार्यरत हैं। आधुनिकतम 3. सूर्य किरण : (क्रोमोथेरेपी) चिकित्सा, धूप रस। साधनों से सुसज्जित पुरुष एवं महिला उपचार विभाग की व्यवस्था 4. मिट्टी स्नान : मिट्टी की पट्टियाँ, मिट्टी लेप, सर्वांग मिट्टी. अलग-अलग की गई है। गर्म पुल्टिस, टब बाथ। आवास एवं शुल्क व्यवस्था 5. मालिश : सर्वांग मालिश, जोड़ों, स्नायु, माँसपेरियो की / मसाज-क्रियाएँ, मसल स्टीमुलेटर, ब्राइब्रेटर प्रयोग। परामर्श शुल्क 50 रुपये (एक वर्ष के लिये) 6. यांत्रिक व्यायाम : वाकर, साइकिलि., गेविग। प्रवेशित शुल्क प्रतिदिन का 100 रुपये टिविस्टर, एक्सरसाइजर, पुलर ट्रेक्शन, फिजियो थेरेपी व्यायाम। अप्रवेशित शुल्क एक समय का आहार के साथ 60 रुपये 7. एक्युप्रेशर एवं रिफलेक्सोथेरेपी। दोनों समय का उपचार जिसमें आहार शामिल नहीं है 70 रुपये 8. प्राकृतिक रूप से संतुलित, नियंत्रित, शोधक र "वक स्टीम बाथ मालिश के साथ 70 रुपये काढ़े, रस, सूप एवं रसाहार। स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित।