________________
करनी चाहिये।
भारतीय जीवन और संस्कृति की | वैज्ञानिक अध्ययन सूक्ष्मेक्षिका के साथ किया भारतीय संस्कृति में वृक्षपूजा को बृहत्कथा 'वसुदेवहिण्डी' में वृक्षों के वर्णन- | है। 'गोम्मटसार' (आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धाअतिशय महत्त्व दिया गया है। लोक-जीवन क्रम में कथाकार आचार्य संघदासगणी ने न्तचक्रवर्ती : ईसा की 10वीं-शती) में में पीपल और बरगद तो विशिष्ट रूप से अपने सूक्ष्मतम प्राकृतिक और शास्त्र-गम्भीर वनस्पति पर विचार करते हुये आचार्य पूजित हैं। विवाह-संस्कार के अवसर पर अध्ययन का परिचय दिया है। 'वसुदेवहिण्डी' नेमिचन्द्र ने लिखा है कि वनस्पति के कई आम-महुआ ब्याहने की भी चिराचरित प्रथा में उपलब्ध वनों और वनस्पतियों की बहुवर्णी प्रकार होते हैं। जैसे, कुछ वनस्पतियाँ मिलती है। 'धात्रीनवमी' का नामकरण उस उद्भावनाएँ पर्यावरण-चेतना के अध्ययन की मूलबीजात्मक होती हैं, तो कुछ स्कन्धबीजातिथि को धात्रीवृक्ष (आँवला का पेड़) पूजने दृष्टि से अपना पार्यन्तिक महत्त्व रखती हैं। त्मक। इसी प्रकार, कुछ वनस्पतियाँ ‘बीजकी विशेष प्रथा को संकेतित करता है, तो 'वसुदेवहिण्डी' में संघदासगणी द्वारा उप- | सह' होती हैं, तो कुछ ‘सम्मूर्छिम'। जिन 'वटसावित्रीव्रत' (ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या) न्यस्त वृक्ष-वर्णनों में वृक्षों की पूजनीयता और वनस्पति-जीवों का मूल ही बीज होता है, वे के दिन भारतीय सधवा स्त्रियाँ बरगद को पति महत्ता का विन्यास तो हुआ ही है, पर्यावरण- | 'मूलबीज' कहे जाते हैं (जैसे : अदरख, का प्रतिनिधि मानकर उसकी पूजा करती हैं। चेतना भी समाहित हो गई है। कथाकार ने हल्दी आदि)। जिन वनस्पति-जीवों का वैदिक मतानुसार पीपल या अश्वत्थ तो पर्यावरण के महत्त्व की दृष्टि से उपयोगी वृक्षों अग्रभाग ही बीज होता है, अर्थात् टहनी की साक्षात् त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु या कृष्ण और में शाल, सहकार, तिलक, कुरबक, शल्लकी, कलम लगाने से वे उत्पन्न होते हैं, महेश) का ही प्रतिरूप है।
चम्पक, अशोक, कमल, कुमुद, कुन्द 'अग्रबीज' कहलाते हैं और पर्व (गाँठ या मूलतौ ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णुरूपिणे। (गन्धर्वदत्ता लम्भ), पुन्नाग, पनस, नालि- पोर) ही जिनके बीज होते हैं, 'पर्वबीज' हैं अग्रत: शिवरूपाय अश्वत्थाय नमो नमः।। केर, पारापत, भव्यगज, नमेरुक (वेगवती- (जैसे : ईख, बेंत आदि)। पुन: जो वनस्पति
यहाँ अश्वत्थ को प्रधान वृक्ष मानकर लम्भ), सप्तवर्ण, तिन्दूसक (बालचन्द्रा- जीव कन्द से उत्पन्न होते हैं, वे 'कन्दबीज' उपलक्षण रूप में अश्वत्थ का नाम लिया गया लम्भ), विल्व (प्रियंमुसुन्दरीलम्भ), अक्षोट माने जाते हैं (जैसे : आलू, ओल आदि)। है। सभी वृक्षों की स्थिति या महिमा अश्वत्थ (अखरोट), प्रियाल (चिरौंजी), कोल (बेर), इसी प्रकार जो वनस्पति-जीव स्कन्ध से जैसी ही है। (विशेष विवरण के लिये द्रष्टव्य तिन्दुक, इंगुद, कंसार-नीवार (केतुमती- | उत्पन्न होते हैं, वे 'स्कन्ध बीज' हैं (जैसे : "वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति" लम्भ) आदि का उल्लेख तो किया ही है, कटहल, धतूरा आदि) और फिर, जो म.म.पं. गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, पृ. 247) विशेष वनस्पतियों में कल्पवृक्ष, नन्दिवत्स, वनस्पति-जीव बीज से उत्पन्न होते हैं, वे
गीता में कृष्ण ने कहा भी है कि चित्ररस और रक्ताशोक (चैत्यवृक्ष) का भी 'बीजसह' हैं (जैसे : चावल, गेहूँ, अरहर 'अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्।' (10.26), अर्थात् वर्णन किया है।
आदि)। किन्तु इन सबसे भिन्न जो वनस्पतिवृक्षों में यदि कृष्ण की व्यापकता को माना कथाकार ने कमल के फूलों, कदलीवृक्ष जीव नियत बीज आदि की अपेक्षा के बिना जाये तो वह अश्वत्थ है। यहाँ तक कि और कुसुमित अशोक वृक्षों का तो बार-बार केवल मिट्टी और जल के सम्बन्ध से उत्पन्न अव्ययात्मा अश्वत्थ वृक्ष में ही समस्त संसार चित्रण किया है, किन्तु चैत्यवृक्ष के सन्दर्भ होते हैं, वे 'सम्मूर्छिम' कहलाते हैं (जैसे : के आवासित रहने की भारतीय मिथक चेतना में रक्ताशोक की अधिक चर्चा की है और इसे फफूंद, काई, सेंवार आदि)। या परिकल्पना का भी अपना मूल्य है। वट- कल्पवृक्ष के समान कहा है। अरहस्वामी नाम उपर्युक्त विवरण से वनस्पति-जीव वृक्ष की पूजा से सावित्री - सत्यवान् की के अट्ठारहवें तीर्थंकर ने जब महाभिनिष्क्रमण की व्यापकता की सूचना मिलती है। इसलिये, प्रसिद्ध पौराणिक आदर्शकथा के जुड़े रहने की किया था, तब उनकी शिबिका में कल्पवृक्ष पेड़ काटने की बात तो दूर, पत्ते और टहनी बात सर्वविदित है। सोमवारी अमावस्या को के फूल सजे थे और उन पर भौरे गुंजार कर तक तोड़ना भी पर्यावरण की प्ररक्षा की दृष्टि अश्वत्थ-प्रदक्षिणा की लोकप्रथा भी भारतीय रहे थे तथा उसके गुम्बद में विद्रुम, से अनुचित है, जीव-वध के समान क्रूर कार्य जीवन की धर्मनिष्ठ संस्कृति को सूचित करती चन्द्रकान्त, पद्मराग, अरविन्द, नीलमणि है। आज पत्तल और दतुवन के नाम पर है। बोधिवृक्ष के नीचे बुद्ध को ज्ञानलाभ होने और स्फटिक जड़े हुये थे। अरहस्वामी उस पर्यावरण के प्रमुख उपकरण वनस्पति का के कारण बौद्धों में अश्वत्थ की पूज्यातिशयता शिबिका पर सवार होकर सहस्राम्रवन पधारे नित्य ही महाविनाश हो रहा है। जैन चिन्तकों सर्वस्वीकृत है। सिन्धु घाटी-सभ्यता में । और वहाँ सहकारवृक्ष (आम्रवृक्ष) के नीचे ने इस ओर प्रारंभ से ही ध्यान दिया है। अश्वत्थ वृक्ष का महत्त्व वहाँ से प्राप्त अनेक आकर बैठे। उनके बैठते ही तत्क्षण आम्रवृक्ष इसीलिये उन्होंने पर्यावरण की शुद्धता के लिये अश्वत्थ-प्रदक्षिणा की लोकप्रथा भी भारतीये रहे थे तथा "उसके गुम्बद में विद्रुम, से अनुचितें है, जाव-विध के समान क्रूर कार्य
मानि- पासि | है। भारत और चना 11 गा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org