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________________ चार वृक्ष चैत्यवृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित है। जैनदर्शन के अन्तर्गत जीव-तत्त्व में जलकाय और वायुकाय की गणना से स्पष्ट है कि जैन चिन्तकों का ध्यान पर्यावरण के विशिष्ट तत्त्व वनस्पति के साथ ही जल और वायु की ओर भी था। वे पर्यावरण की विशुद्धि के लिये उसे जल प्रदूषण और वायु प्रदूषण से विमुक्त रखने के पक्षपाती थे। वायु प्रदूषण से ही ध्वनि प्रदूषण की भी अभिव्यंजना होती है। इस प्रकार, पर्यावरण की रक्षा और उसकी विशुद्धि की दृष्टि से जैन संस्कृति में वन और वनस्पति के महत्त्व की विशद चर्चा मिलती है। वनस्पति, पशु-पक्षी एवं मनुष्य एक ही चेतना के रूप-भेद हैं। यहाँ तक कि समष्ट्यात्मक चेतना के रूपभेद की धारणा के आधार पर संघदासगणी ने जैनदर्शन की मान्यता के परिप्रेक्ष्य में एकेन्द्रिय जीव के शरीर-रूप वनस्पति में जीवसिद्धि का साग्रह वर्णन किया है। अतएव वनस्पति के जीव होने के कारण ही जैनधर्म में सर्वप्रकार की कच्ची वनस्पति की अभक्ष्यता में पर्यावरण की विविध प्रदूषणों से प्ररक्षा और वनस्पतियों अथवा पेड़-पौधों की अस्तित्व रक्षा का भाव निहित है। कहना न होगा कि जैनशास्त्र या तदनुवर्ती जैन संस्कृति में पर्यावरण के मूलभूत वन और वनस्पति के संबंध में बहुत गम्भीरता से वैचारिक विवेचन किया गया है, जो अपने-आप में एक स्वतंत्र वनस्पतिशास्त्र की महिमा आयत्त करता है। इस सन्दर्भ में विशेष ज्ञातव्य के लिये 'गोम्मटसार' ( नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती), सर्वार्थसिद्धि' (पूज्यपाद), 'षटरवण्डागम' (पुष्पदन्त भूतबलि) की 'धवला टीका' (खीरसेन), 'राजवार्त्तिक' (अकलंकदेव), 'लाटी संहिता' (राजमल्ल) आदि ग्रन्थों का अनुशीलन अपेक्षित है। अहिंसावादी जैनधर्मी श्रमणों और श्रावकों का आचरण पर्यावरण-संरक्षा के अनुकूल है, जिसके उदात्त और विस्तृत वर्णन में समग्र जैनवाडमय प्रखर भाव से मुखरित है विशेषतया जैनसाहित्य और दर्शन में पर्यावरण चेतना के चित्रण में उपस्थापित वन और वनस्पति के बहुकाशीय आयामों का समुद्भावन हुआ है। Jain Education International पी. एन. सिन्हा कॉलोनी भिखनापहाड़ी, पटना- 800006 यहाँ कुछ नहीं है अपनी इच्छा से कुमार अनेकान्त जैन कहाँ चल रहे हैं हम यारो, दुनिया में अपनी इच्छा से । करने ही पड़ते हैं कितने कर्म, यहाँ रोज अनिच्छा से | कब चाहे थे हमने दुःख ग़म, किन्तु वे मिलते कदम कदम । सुख नहीं है अपने वश में, वह भी चलता है स्वेच्छा से | करने ही पड़ते हैं। थे जिसके हम अति दीवाने, वे ही थे हमसे निरे अनजाने । हम तिरस्कार भी सहते हैं, पर थकें न उनकी प्रतीक्षा से ॥ करने ही पड़ते हैं..... पूजा सदा उसे ही हमने जिसने धमकाया और सदा मारा। जो सहलाते पथ बतलाते वो मरे हमारी उपेक्षा से || करने ही पड़ते हैं..... भोगों में न तर्क किया हमने न बाधाओं से घबराये । क्यों आत्मानुभूति का मार्ग ही पीड़ित हमारी तर्क समीक्षा से ॥ करने ही पड़ते हैं..... संसार में जी भर घूम चुके, धोखे पर धोखा भी खाया। पर उमड़ा नहीं फिर भी वैराग्य, भागते फिरते हैं दीक्षा से || करने ही पड़ते हैं। For Private & Personal Use Only .... व्याख्याता, जैनदर्शन विभाग, दर्शन संकाय लाल बहादुर राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ कुतुब इन्सटीट्यूशनल एरिया, कटवारिया सराय नई दिल्ली- 16 - दिसम्बर 2001 जिनभाषित 23 www.jainelibrary.org
SR No.524258
Book TitleJinabhashita 2001 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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