SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन संस्कृति में पर्यावरण-चेतना विद्यावाचस्पति डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव 'पर्यावरण' शब्द 'वाता मनुष्य की तरह जैविक चेतना रहने वरण' का ही पर्यायवाची है, वनस्पति के जीव होने के कारण ही जैनधर्म में के सिद्धान्त का समर्थन होता है। जिसका सामान्य अर्थ होता है- | सर्वप्रकार की कच्ची वनस्पति की अभक्ष्यता में पर्यावरण और फिर वृक्ष आदि का आस-पड़ोस की परिस्थिति अथवा | की विविध प्रदूषणों से प्ररक्षा और वनस्पतियों अथवा पेड़ सहारा पाकर बढ़नेवाली लता आदि आसपास का परिसर। पृथ्वी, | पौधों की अस्तित्वरक्षा का भाव निहित है। कहना न होगा को रूप की उपलब्धि होती है। इसी पर्वत, वायु, जगल, पड़-पाध | कि जैनशास्त्र या तदनुवर्ती जैनसंस्कृति में पर्यावरण के प्रकार, धूप देने से वनस्पति-जीव या वनस्पति, जीव-जन्तु, पशुमूलभूत वन और वनस्पति के सम्बन्ध में बहुत गम्भीरता को गन्ध की उपलब्धि होती है तथा पक्षी आदि से मिलकर ही पानी पटाने से ईख आदि वनस्पति पर्यावरण बना है। पर्यावरण का | से वैचारिक विवेचन किया गया है, जो अपने आप में एक को रस की उपलब्धि होती है और जीवन से अभिन्न सम्बन्ध है। | स्वतंत्र वनस्पतिशास्त्र की महिमा आयत्त करता है। प्ररोह, जड़ आदि काट देने से कहना तो यह चाहिए कि पर्या उत्पन्न सिकुड़न से वनस्पति की वरण ही जीवन है। स्पर्शोपलब्धि की सूचना मिलती है। पुनः रात्रि जैन संस्कृति मूलत: अहिंसावादी जैन चिन्तकों ने पर्यावरण की रक्षा की | में कमल आदि के पत्तों या दलों के सिमटने संस्कृति है। इसलिए जैनशास्त्र में जीव-हिंसा दृष्टि से वनस्पति को जीव मानकर उस पर | से उनकी नींद का संकेत प्राप्त होता है और का सर्वथा निषेध किया गया है। जैनशास्त्र में दयाभाव रखने का आदेश किया है। ईसवी प्रातः दलों के खुलने से उनके जागने की जीवों की जो योनियाँ निर्धारित हुई हैं, उनमें सन् की तीसरी-चौथी शती के महान् कथाकार स्थिति द्योतित होती है। और फिर, कविवनस्पति-योनि भी एक प्रमुख योनि है। आचार्य संघदासगणी ने अपनी बहुख्यात प्रसिद्धि के अनुसार, स्त्रियों के नूपुर-युक्त पैरों ज्ञातव्य है, वैदिक या ब्राह्मण-संस्कृति में चार प्राकृत-कथाकृति 'वसुदेवहिण्डी' के 'बन्धु के आघात से अशोक आदि पेड़ों के विकसित योनियाँ निर्धारित हैं-तिर्यग्योनि, मनुष्ययोनि, मती लम्भ' में लिखा है कि जैनधर्म का मूल होने की जानकारी मिलती है। और इसी प्रकार, पितृयोनि एवं देवयोनि। किन्तु, जैन संस्कृति जीवदया है। संसारी मनुष्य कन्द, मूल, फूल, असमय में फूल-फल के उद्गम से सप्तपर्ण पितृयोनि नहीं मानती। उसकी दृष्टि में चार फल और पत्ते के उपभोग द्वारा प्रायः वनस्पति की हर्षानुभूति का बोध होता है। योनियाँ इस प्रकार हैं - वनस्पतियोनि, वनस्पति-कायिक जीवों को कष्ट पहुँचाते हैं। आचार्य संघदासगणी सकल वनस्पति तिर्यग्योनि, मनुष्य योनि और देवयोनि। अपने आगम-प्रमाण से वनस्पतियों को जीव | में जीव की सिद्धि को प्रमाणित करते हुए ही कर्मों से जीवात्मा मनुष्य-योनि से च्युत मानकर उन पर श्रद्धा रखनी चाहिये। कहते हैं- जिस प्रकार एक से अधिक इन्द्रियों होकर वनस्पति-योनि में जाती है। मनुष्य विषयोपलब्धि के क्रम में जिस वाले जीव उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं तथा खाद वनस्पति भी जीव है, इसलिए उसे प्रकार अपनी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से शब्द, रूप, आदि उचित पोषण प्राप्त होने से स्निग्ध 'वनस्पतिकायिक जीव' कहते हैं। इसी से रस, गन्ध और स्पर्श का अनुभव करते हैं, कान्तिवाले बलसम्पन्न, नीरोग एवं आयुष्यउसका काटना-छाँटना आदि कार्य जैन उसी प्रकार वनस्पति-जीव भी जन्मान्तर वान् (दीर्घायु) होते हैं, पुनः खाद आदि के संस्कृति में वर्जित है। इस दृष्टि से जैन क्रियाओं की भावलब्धिवश अपनी स्पर्शेन्द्रिय अभाव व कुपोषण से कृश, क्षीण, दुर्बल और संस्कृति में पर्यावरण की चेतना सदा से रही से विषय का अनुभव करते हैं। वनस्पति रूग्ण होकर मर जाते हैं, उसी प्रकार केवल कायिक जीवों के लिये भी किसी लब्धि एक इन्द्रिय (स्पर्शेन्द्रिय) से युक्त वनस्पति'मूलाचार' (वट्टकेर : ईसा प्रथम विशेष से विषय की उपलब्धि की बात कही जीवों में उत्पत्ति और वृद्धि का धर्म दृष्टिगत शती) नामक आचार-प्रधान ग्रन्थ में लिखा जाती है। जैसे, मेघ का गर्जन सुनकर अंकुर होता है। इसी प्रकार वे वनस्पति-जीव मीठे है कि वनस्पति एकेन्द्रिय जीव है। इसकी नसें या प्ररोह आदि का उद्गम होता है, जिससे पानी से सिक्त होने पर बहुत फल देने वाले, नहीं दिखाई पड़तीं। यह हरितकाय है। इसे । वनस्पति-कायिक जीवों की शब्दोपलब्धि की चिकने पत्तों से सुशोभित, सघन और दीर्घायु जीव-स्वरूप जानकर इसकी कृन्तन-रूप सूचना मिलती है। आधुनिक वैज्ञानिकों की भी होते हैं। और फिर, तीते, कडुवे, कसैले तथा हिंसा नहीं करनी चाहिए। जैनाचार में यह मान्यता है कि रेडियो आदि की मधुर खट्टे-खाद जल से सींचने पर वनस्पति-जीवों हरितकाय पेड़-पौधों की टहनी को तोड़ना भी आवाज के सुनने से फसलों को संवर्द्धन प्राप्त के पत्ते मुरझा जाते हैं या पीले पड़ जाते हैं मना है। फलों में भी कच्चे फलों को तोड़ना होता है। इससे भी वनस्पति में शब्द की या रूखड़े और सिकुड़े हुये हो जाते हैं तथा मना है। जो फल पककर स्वयं गिरते हैं, वे उपलब्धि की शक्ति विद्यमान रहने की सूचना फलहीन होते और अन्त में मर जाते हैं। इस ही ग्राह्य हैं, क्योंकि वे अचित्त (अजीव) और मिलती है। साथ ही, इससे प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रकार के कारणों से उनमें जीव है, ऐसा अनवद्य होते हैं। जगदीशचन्द्र बसु के, वनस्पतियों में भी मानकर उनकी उचित रीति से सेवा और रक्षा दिसम्बर 2001 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524258
Book TitleJinabhashita 2001 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy