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________________ आत्मघाती चेष्टा न युक्ता। यदि ता वन्दन्ते तदा मुनिभिर्नमोस्त्विति न वक्तव्यम्। कि आचारग्रन्थों में आर्यिका को उपचार (नाम मात्र) से महाव्रती, | तर्हि वक्तव्यम्? समाधिकर्मक्षयोस्त्विति। ये तु परस्परं मत्थएण श्रमणी, संयती और विरती तथा पुराणों में क्षुल्लक को 'गृहस्थमुनि' वंदामीति आर्याः प्रतिवदन्ति तेप्यसंयमिनो ज्ञातव्याः। दिगम्बराणां और 'मुनिकुमार' कहा गया है। इसका अनुसरण करते हुये कुछ | मते या नीतिः सा प्रमाणमिति मन्तव्यम्।" (मोक्षप्राभृत, गाथा 12) आधुनिक विद्वानों ने उन्हें उपचार से गुरु भी कह दिया है। स्याद्वादियों यहाँ श्रुतसागरसूरि ने स्पष्ट किया है कि आर्यिकाएँ मुनियों के को इसमें असंगति प्रतीत नहीं हो सकती। किन्तु इस उपचार के बहाने द्वारा वन्दनीय नहीं हैं, क्योंकि वे मुनियों के समान संयमी नहीं हैं। उक्त विद्वानों ने उनके लिये परमार्थ महाव्रतियों के तुल्य विनयोपचार श्वेताम्बरमत में आर्यिका जब मुनि को 'मत्थएण वंदामि' कहती है और नवधाभक्ति का औचित्य सिद्ध करने की चेष्टा की है। (देखिये | तब मुनि भी ऐसा ही कहते हैं। यह उनके यहाँ उचित है, क्योंकि दोनों पुस्तक - "क्या आर्यिका माताएँ पूज्य हैं?'') यह एक आत्मघाती | सवस्त्र होने से असंयमी हैं। किन्तु दिगम्बर मत में मुनि निम्रन्थ होने कदम है। इससे यह तर्क उठता है कि जब सग्रन्थव्रती निन्थव्रती | से संयमी होता है और आर्यिका सवस्त्र होने से संयमासंयमी। अत: के बराबर ही विनय का पात्र, वन्दनीय या पूजनीय है तो उनके चारित्र | मुनि का आर्यिका के 'नमोऽस्तु' के उत्तर में 'नमोऽस्तु' कहना अनुचित या संयम में क्या फर्क रहा? उनके संयम भी तुल्य सिद्ध होते हैं. | है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि 'वन्दामि' या 'वन्दे' शब्द मुनि के और जब सवस्त्र और निर्वस्त्र के संयम तल्य हैं. तब जैसे नग्न संयमी | साथ ही प्रयोज्य है, आर्यिका के साथ नहीं, चाहे वह किसी के भी साक्षात् मोक्षमार्गी है, वैसे ही सवस्त्र संयमी भी साक्षात् मोक्षमार्गी | द्वारा प्रयुक्त किया जाय। यदि श्रावक आर्यिका के प्रति मुनि के समान क्यों नहीं हो सकता? यह तर्क सवस्त्र को भी निर्ग्रन्थ की तरह मोक्ष | ही 'वन्दामि' या 'नमोऽस्तु' शब्द के द्वारा विनय प्रकट करते हैं, तो का पात्र सिद्ध कर देता है, जिससे श्वेताम्बर और यापनीय मतों का | | इससे सिद्ध होता है कि वे आर्यिका को मुनितुल्य संयमी मानते हैं, अनुमोदन होता है और दिगम्बर मत युक्तिहीनता की स्थिति में पहुँच | जो श्वेताम्बर मत का अनुसरण और दिगम्बर मत की अवहेलना है। जाता है। अतः इस चेष्टा का दृढ़ता से निषेध किया जाना चाहिये और | यह मिथ्यात्व का लक्षण है। अत: दिगम्बरों को दिगम्बर मत के यह तथ्य प्रचारित किया जाना चाहिये कि दिगम्बर आम्नाय में सग्रन्थ | अनुसार ही प्रवृत्ति करनी चाहिये। आर्यिकादि निम्रन्थ मुनि के तुल्य पूजनीय नहीं हैं। निष्कर्ष यह कि आर्यिकाओं के उपचारमहाव्रती होते हुये भी आगम में कहा गया है कि मुनियों के द्वारा 'नमोऽस्त' किये | उनके साथ परमार्थ महाव्रतियों के समान विनयोपचार नहीं किया जा जाने पर उनसे बड़े मुनि एवं आचार्य भी 'नमोऽस्तु' शब्द बोलकर सकता, अपितु उत्कृष्ट श्रावकों के समान ही किया जा सकता है। प्रतिवन्दना करते हैं। यही वन्दना की स्वीकृति है (मूलाचार गाथा आर्यिकाएँ पूज्य हैं, किन्तु उनकी पूज्यता उपास्यवत् नहीं है, अपितु 612/भावार्थ-गणिनी ज्ञानमती जी)। किन्तु आर्यिकाओं के वन्दना उत्कृष्ट उपासकवत् है। दूसरे शब्दों में, आर्यिकाएँ आभ्यन्तर करने पर मुनि प्रतिवन्दना नहीं करते, अपितु 'समाधि के द्वारा कर्मक्षय | संयमासंयम एवं बाह्य द्रव्यसंयम के कारण पूज्य हैं, किन्तु मुनि हो' यह प्रत्युत्तर देते हैं, ताकि वे अल्पसंयमी के समकक्ष न हो जायँ'। आभ्यन्तर और बाह्य दोनों संयमों के धनी होते हैं, इस कारण वे जैसा कि श्रुतसागर सूरि ने कहा है परमपूज्य हैं। अतः दोनों के विनयोपचार एवं आहारदान सम्बन्धी "सज्जातिज्ञापनार्थ स्त्रीणां महाव्रतान्युपचर्यन्ते, न परमार्थत- | पूजाविधियों में अन्तर होना अनिवार्य है। स्तासां महाव्रतानि सन्ति, तेन मुनिजनस्य स्त्रियाश्च परस्परं वन्दानापि रतनचन्द्र जैन गीत कोई एक किसी दूरी को कोई एक किसी दूरी को अंतराल में होना है जहाँ जहाँ कुछ पाना है वहाँ-वहाँ कुछ खोना है। तन से मन की दुरी सबको मिली विरासत में और ले लिया कुछ साँसों ने हमें हिरासत में साथ-साथ चलते हैं लेकिन होते साथ नहीं यही विवशता साले हरदम देह-रियासत में अपने-अपने गलियारे का दर्द सभी को ढोना है।। अपने-अपने दुःख-सुख की है धूप-छाँव अब नीड़ों में जो हुए पराजित अंतर में, वे भटके बाहर भीड़ों में अशोक शर्मा अपनी पीड़ाएँ सहकर जो पीते औरों के आँसू यह मैंने तुमने देखा है वे सब शामिल हैं पीरों में जिनके जैसा होना है उनके जैसा बोना है। आँख हमारी नींद हमारी पर सपने बेगाने हैं जितने भी अफसाने हैं सब पर-पीड़ा अफसाने हैं जो दिन में अपने हो न सके बन आते सपने नींदों में इस मृग तृष्णा में प्यासे मन फिर और और अकुलाने हैं उजड़े रेत-घरौंदों में बस रेत ओढ़कर सोना है। अभ्युदय निवास, 36-वी, मैत्रीविहार, सुपेला, भिलाई (दुर्ग), छत्तीसगढ़ -दिसम्बर 2001 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524258
Book TitleJinabhashita 2001 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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