________________
ट्ठावणटुं उत्तिमग्गविसयभत्तिय-पयासणटुं च ण कीरदे।" (पुस्तक 9, | चूँकि अन्तर्बाह्य निर्ग्रन्थ शरीर ही पवित्र होता है अतः उसके ही चरणों सूत्र 4, पृष्ठ 41)
को छूकर आया हुआ उदक मस्तक पर धारण करने के योग्य है तथा अर्थ- महाव्रतों से रहित दो रत्नों (सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान) उसी को अष्टद्रव्य समर्पित करने से निर्ग्रन्थता के प्रति अनन्य भक्ति के धारक अवधिज्ञानी तथा अवधिज्ञान से रहित जीवों को भी नमस्कार प्रकट होती है और हम निर्ग्रन्थता के अनन्य उपासक या श्रमणोपासक क्यों नहीं किया जाता? अहंकार से बोझिल जीवों में चरणाचार का पद प्राप्त करते हैं। फलितार्थ यह कि आर्यिकादि सग्रन्थ होने से (सम्यग्चारित्र) की प्रवृत्ति कराने के लिये तथा प्रवृत्तिमार्ग-विषयक उपास्य नहीं हैं, अत: उनकी आहारदान सम्बन्धी पूजाविधि में भक्ति का प्रकाशन करने के लिये उन्हें नमस्कार नहीं किया जाता। | पादप्रक्षालन एवं वन्दनादिपूर्वक अष्टद्रव्यसमर्पण ये दो उपचार सम्भव
इस प्रकार पचांग या अष्टांगनमनपूर्वक 'नमोऽस्तु', 'वन्दे', | नहीं है। इसलिये उनकी पूजाविधि सप्तांगी है। वे सात अंग हैं : आदि शब्दों के उच्चारण द्वारा केवल परमपूज्यों (पंचपरमेष्ठियों) की प्रतिग्रहण (प्रदक्षिणारहित), उच्चासनदान, इच्छाकार तथा चतुर्विध ही पूजा का विधान जिनागम में किया गया है। आर्यिका, एलक और । | शुद्धि का निवेदन। इस तरह आर्यिका, एलक एवं क्षुल्लक सप्तविध क्षुल्लक सग्रन्थ लिंगी हैं, अतः उनकी पूजा (सम्मान) हाथ जोड़कर | पूजा के पात्र हैं। नवधा भक्ति के पात्र केवल निर्ग्रन्थ मुनि हैं। और मस्तक झुकाकर 'इच्छामि' शब्द के उच्चारण द्वारा ही की जानी कार्तिकेयानुप्रेक्षा (गाथा 360) में जो यह कहा गया है कि चाहिये। पद्मपुराण में इसके उदाहरण मिलते हैं
'उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्रों को नवदानविधिपूर्वक आहारदान जिनशासनदेवीव सा मनोहरभावना। करना चाहिये', इस कथन में 'यथायोग्य' (योग्यतानुसार) अर्थ गम्य दृष्ट्वा क्षुल्लकमुत्तीर्य सम्भ्रान्ता नवमालिकाम्।। है। क्योंकि ऐसा न हो तो संयतासंयत श्रावक (मध्यम पात्र) को उपगत्य समाधाय करवारिरुहद्वयम्। असंयत सम्यग्दृष्टि (जघन्यपात्र) का चरणोदक मस्तक पर रखना इच्छाकारादिना सम्यक् सम्पूज्य विधिकोविदा।। पड़ेगा, जो विनय की दृष्टि से असंगत है। यह विनय के अर्थ पर
(100/39-40) | ही पानी फेर देनेवाला है। 'श्रमण संघ संहिता' के निम्न श्लोक में यहाँ बतलाया गया है कि सीता ने हाथ जोड़कर 'इच्छामि' | 'यथायोग्य' शब्द का स्पष्टत: प्रयोग किया गया हैनिवेदन करते हुये क्षुल्लक सिद्धार्थ की पूजा की।
जघन्यमध्यमोत्कृष्टपात्राणां गुणशालिनाम्। जब सीता आर्यिका हो जाती हैं, तब लक्ष्मण केवल हाथ नवधा दीयते दानं यथायोग्यं सुभक्तितः।। जोड़कर प्रणाम करते हुए उनका अभिनन्दन करते हैं
रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भी स्पष्टरूप से कहा गया है कि नारायणोऽपि सौम्यात्मा प्रणम्य रचिताञ्जलिः। नवधाभक्ति पूर्वक दान आर्यों (मुनियों) को दिया जाना चाहिएअभ्यनन्दयदार्यां तां पद्मनाभमनुब्रुवन्।।
नवपुण्यैः प्रतिपत्तिः सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन।
पद्म पु.107/42 अपसूनारम्भाणामार्याणामिष्यते दानम्।। परमपूज्य और सामान्यपूज्य की पूजाविधियों में यह पहला प्रभाचन्द्र ने 'आर्याणां' का अर्थ 'मुनि' किया है- 'आर्याणां अन्तर है।
सद्दर्शनादिगुणोपेतमुनीनाम्।' नवधा भक्ति एवं सप्तधा पूजा
किसी भी ग्रन्थ में आर्यिका की नवधाभक्ति का उल्लेख नहीं वसुनन्दिश्रावकाचार में मुनि के लिये आहारदान की नौ विधियाँ | है और मुनि की नवधाभक्ति के विधान में आर्यिका की नवधाभक्ति (नवधाभक्ति) इस प्रकार बतलाई गई हैं : 1. प्रतिग्रहण (पड़गाहना) का विधान गर्भित मानने का कोई आधार नहीं है। यदि बिना आधार एवं प्रदक्षिणा करना, 2. उच्चस्थान पर बैठाना, 3. पादप्रक्षालन कर | के ही गर्भित मान लिया जाये, तो एलक, क्षुल्लक और असंयत पादोदक को मस्तक पर रखना, 4. अष्टद्रव्य से पूजा करना, 5. सम्यग्दृष्टि की भी नवधाभक्ति का विधान गर्भित माना जा सकता प्रणाम करना, 6. मनः शुद्धि, 7. वचनशुद्धि, 8. कायशुद्धि और | है। किन्तु इससे पूर्वोक्त दोष का प्रसंग आता है। अत: सिद्ध है कि 9. एषणाशुद्धि (आहारजलशुद्धि) की घोषणा करना।
जिनागम में आर्यिका की नवधाभक्ति मान्य नहीं की गई है। ___ इनमें प्रदक्षिणा, पादप्रक्षालन, पादोदकमस्तकारोहण और इस प्रकार आर्यिका माता पूजनीय तो हैं, लेकिन उनकी वन्दनादिपूर्वक अष्टद्रव्य-समर्पण, ये सम्मानरूप पूजा की विधियाँ | पूजाविधि मुनि के समकक्ष नहीं है, अपितु उससे कुछ अवरश्रेणी की नहीं, भक्तिरूप पूजा की विधियाँ हैं। ये उसी के साथ व्यवहृत हो | है। वह उपास्यकोटि की नहीं, बल्कि उत्कृष्ट-उपासक-कोटि की है। सकती हैं, जो हमारा उपास्य या आराध्य हो। हमारा उपास्य वही हो | आगमानुसार उनके प्रति विनय का प्रदर्शन हाथ जोड़कर मस्तक सकता है जिसके दर्शन, ध्यान और गुणस्तवन से मन में अन्तर्बाह्य | झुकाते हुये 'इच्छामि' शब्द के उच्चारण द्वारा किया जाना चाहिये निर्ग्रन्थता का दृश्य उपस्थित हो जाय, क्योंकि वही दृश्य हमारे भीतर | तथा आहारदान के समय उपर्युक्त सात उपचार ही पूजा में प्रयुक्त निम्रन्थता की जन्मभूमि बन सकता है। इस दृश्य की उपस्थिति | किये जाने चाहिये। हाँ, वन्दना, स्तुति और मोक्षकामना के बिना अर्घ निम्रन्थमुनियों और जिनबिम्बों के ही दर्शन, ध्यान एवं गुणस्तवन से | या अष्टद्रव्यों का समर्पण किया जाय, तो किया जा सकता है। संभव है, सग्रन्थों के नहीं। अत: निर्ग्रन्थ मुनि और अरहन्त ही हमारे | ‘परमपूज्य' विशेषण के प्रयोग में भी सावधानी बरतनी चाहिये। यह उपास्य हैं। फलस्वरूप प्रदक्षिणादि के योग्य वही हैं, क्योंकि निर्ग्रन्थ | केवल परमस्थान में स्थित पंचपरमेष्ठियों के लिये प्रयुक्त किया जा की प्रदक्षिणा करने से ही निर्ग्रन्थ रूप बार-बार दृष्टि में आता है। और | सकता है। 10 दिसम्बर 2001 जिनभाषित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org