SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ डॉ. दरबारीलाल जी कोठिया की अन्तर्यात्रा डॉ. शीतलचन्द्र जैन [ 3 जनवरी 2002 समाधिमरण दिवस पर विशेष आलेख जैन न्याय-दर्शन के मूर्धन्य विद्वान्, । एवं सायं काल दो बार गुरुदेव के मुख से | परिणामों से किए गए निवेदन को सुनकर 3 राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित डॉ. दरबारी जब आगम/अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों को आप | जनवरी को प्रातः 8.45 पर आचार्य लाल जी कोठिया आचार्यप्रवर संतशिरोमणि सुनते तो सहज/बरबस ही आपके मुख से विद्यासागर जी महाराज ने पहले आठवीं तथा श्री विद्यासागर जी महाराज तथा 42 मुनिराजों 'वाह-वाह' निकल पड़ता। साथ ही यह भी बाद में नवमी परिग्रहत्याग प्रतिमा का संकल्प के सान्निध्य में आगमोक्त विधि से सल्ले- वे अक्सर कह उठते कि गुरुदेव! मुझसे देर आपको कराया। खना व्रत धारण कर 3 जनवरी 2000 को हो गई। कुछ और शीघ्र आता तो अधिक 3 जनवरी 2000, सोमवार, पौष समाधिमरण को प्राप्त हुए। 88 वर्षीय डॉ. | समय तक यह दुर्लभ अमृतपान करने का | कृष्ण द्वादशी वी.नि.सं. 2526, विक्रम कोठिया को आपके परिजन भाग्योदय तीर्थ, सुअवसर प्राप्त कर सकता। संवत् 2056 को आपने इस जीवन की सागर की एम्बुलेंस के द्वारा श्री दिगम्बर जैन आपके कुटुम्बी भाताद्वय श्री विभव- | अंतिम श्वाँस अपराह्न 3.50 पर ली। शाम रेवातट सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर (देवास) कुमार एवं श्री दुलीचंद कोठिया, बीना को सिद्धोदय तीर्थ परिसर में ही आपके नश्वर म.प्र. लेकर गए थे। हाथ-पैर तथा शरीर के (सागर) तथा ब्रह्म. कपिल जैन, खण्डवा के शरीर को विमान में बिठाकर तथा भाता अन्य भाग सूजने से शरीर कुछ अधिक द्वारा की गई अहर्निश वैयावृत्य से आपके विभवकुमार कोठिया के द्वारा अग्नि संस्कार शिथिल एवं मोटा हो गया था। स्ट्रेचर पर मानो सारे कष्ट ही विस्मृत हो गए। साथ ही क्रिया सम्पन्न हुई। रखकर जब आपको आचार्य श्री विद्यासागर आचार्यश्री जी का सान्निध्य पाकर आपके जीवन वृत्त जी महाराज के पास लाया गया, तब लगता परिणामों में विशुद्धता प्राप्त हुई, अतः आपने प्रतिष्ठाचार्य पितामह पं. मकुन्दीलाल था कि स्थिति अत्यंत गंभीर है। परन्तु गुरुवर अनेक बार मुनिराजों को देखकर आचार्यश्री जैन के द्वितीय पुत्र श्री हजारीलाल कोठिया की का सान्निध्य एवं आशीष पाकर कुछ ही घण्टों | जी से निवेदन किया कि मुझे भी इस श्रेणी धर्मपत्नी श्रीमती चिरोंजाबाई की पवित्र कुक्षि में आप पूर्ण चैतन्य हो गए। इतना ही नहीं, | में सम्मिलित कर लीजिए। शारीरिक स्थिति से तीर्थंकर पार्श्वनाथ स्वामी की समवशरण आपने फिर आचार्यश्री से संस्कृत में ही देखकर आचार्यश्री आपको आवश्यक निर्देश स्थली सिद्धक्षेत्र नैनागिरी (छतरपुर) म.प्र. में अधिकांश वार्तालाप कर जीवन के शेषांश देते तो आप उसे शब्दशः पालन करने में आषाढ़ कृष्णा द्वितीया, वि.सं. 1998 उन्हीं के चरणों में व्यतीत करने हेतु आग्रहपूर्ण तत्पर हो जाते। 2 जनवरी 2000 की शाम तदनुसार 11 जून 1911 को अद्वितीय निवेदन किया तथा सल्लेखनापूर्वक समाधि- को जब आपने स्वेच्छा से नियमित शक्कर प्रतिभा के धनी द्वितीय पुत्र दरबारीलाल ने मरण कराने हेतु भावभरा निवेदन भी किया। | तथा बादाम आदि के त्याग करने की भावना जन्म पाया था। आपके जन्म के 2-3 वर्ष पूर्व बुधवार 22 दिसम्बर 99 को प्रातः प्रदर्शित की तब आचार्यश्री ने पुनः पूछा ही आपके पिताश्री क्षेत्र पर स्थित बाबा यहाँ पहुँचे डॉ. कोठिया के बारे में आवश्यक पंडितजी! इनको ग्रहण करने का विकल्प है दौलतराम वर्णी जैन पाठशाला के सम्भवतः पूछताछ कर गुरुदेव ने गुरुवार को 5 दिनों या त्याग करने का? आकस्मिक प्रश्न सुनकर प्रथम अध्यापक नियुक्त हुए थे। 3 वर्ष की के लिए आहारप्रक्रिया में परिवर्तन हेतु निर्देश | पहले तो वे चौंक गए, फिर पुनः बोले नहीं, आपकी उम्र में आपके पिता के मित्र हडुआ दिया। अतः दाल, दलिया, लौकी, मुनक्का, इनका तो त्याग करना है। ये ही मुझे प्रिय थे। (सागर) निवासी मालगुजार पन्नालाल जी पानी, अनार रस, आँवला एवं नींबू रस तथा | अब आपके वचनामृत सुनकर ये भी नीरस बड़कुर अपने ग्राम में धार्मिक अध्यापन कार्य जल के अतिरिक्त शेष अन्य प्रकार के आहार लगने लगे हैं। अभी तक कुर्सी पर बिठाकर हेतु आपके पिताजी को साथ ले गए। वहीं पर का आपने त्याग कर दिया। 29 दिसम्बर 99 दर्शनार्थ लाये जाने वाले कोठिया जी को मानो आपका प्राथमिक अध्ययन अभी प्रारंभ ही को दलिया रूप अन्न का भी 3 दिन के लिये । संजीवनी वटी ही मिल गई, जो 3 जनवरी हुआ था कि दुर्दैव आड़े आ गया और मात्र आपने स्वेच्छा से त्याग कर दिया। इस को अपने ही कदमों से चलकर गुरुदेव के 6 वर्ष की उम्र में ही दरबारीलाल के सिर से प्रक्रिया से जहाँ शरीरगत मल-विकृति का दर्शनार्थ पहुँचे थे। बाद में आपने आचार्यश्री पिता की वरदानी छाया छिन गई। माता संशोधन हुआ, वहीं आपके शरीर की सूजन से पुनः निवेदन किया कि कम से कम ग्यारह चिरोंजाबाई ने वैधव्यजीवन के साथ बड़ी में कमी आयी, हाथ-पैर की शिथिलता कम प्रतिमाओं का पालन तो मैं कर ही लूँगा, अतः कठिनाई से आपका एवं छोटी बहिन का होकर स्वाश्रित संचालन में विकास हुआ और आप मेरी पात्रता को समझकर व्रत-संकल्प पालन-पोषण किया। आवाज भी अधिक स्पष्ट आने लगी। प्रातः प्रदान करें। आपकी तीव्र भावना एवं जाग्रत 18 दिसम्बर 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524258
Book TitleJinabhashita 2001 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy