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यही बात सिद्ध होती है
"अथाभव्या जिनालिङ्गेन कियद्दूरं गच्छन्तीत्याशंकायामाह - जा उवरिमगेवेज्जं उववादो अभवियाण उक्कस्सो । उक्कट्ठेण तवेण दु णियमा णिग्गंथलिंगेण ।। " (मूलाचार, गाथा 1177) यहाँ जिनलिंग को निर्ग्रन्थलिंग का ही वाचक बतलाया गया है। इस प्रकार क्षुल्लक, एलक और आर्यिका के लिंग जैनलिंग (जिनानुयायियों के लिंग) तो हैं, किन्तु जिनलिंग नहीं। वे गृहलिंग ही हैं। इन भिन्नताओं से सिद्ध है कि मुनि का पद उच्च है और आर्यिकादि का निम्न।
आर्यिकादि पूज्य मुनि परमपूज्य
फिर भी क्षुल्लक, एलक और आर्यिका के लिंग मोक्षमार्ग में दीक्षित लोगों के लिंग है और प्रथम दो ग्यारह प्रतिमाधारी हैं तथा आर्यिकाएँ उससे भी ऊपर उपचारमहाव्रतधारी हैं। इसलिये वे सामान्य श्रावकों से बहुत उच्च हैं। आर्यिका को तो उपचारमहाव्रतधारी होने से उपचारत: श्रमणी, संगती और विरती भी कहा गया है। इससे यह सूचित किया गया है कि वे मुनितुल्य तो नहीं, पर मुनिकल्प (अंशत: मुनि सदृश) हैं । उपचारमहाव्रत यद्यपि बाह्य महाव्रत हैं तथापि उनकी साधना बहुत कठोर है। एक साड़ी धारण करने के कारण यद्यपि मुनिवत शीतोष्णदंशमशकादि परीषहों के सहन का कठोर तप आर्यिका को नहीं करना पड़ता तथा स्त्रीशरीर एवं सवस्त्रता के कारण अहिंसा महाव्रत का भी पालन मुनिवत् नहीं होता, तथापि सत्य, अस्तेय और ब्रह्मचर्य महाव्रतों का पालन मुनितुल्य ही होता है। अतः आर्यिका की श्रमणी संज्ञा द्रव्यसंयम की अपेक्षा सार्थक है।
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यद्यपि यह द्रव्यसंयम (उपचार महाव्रत ) मोक्ष का साक्षात् मार्ग नहीं है और न स्त्रीशरीर से मोक्ष की साक्षात् साधना के योग्य षष्ठगुणस्थान प्राप्त किया जा सकता है, तथापि स्त्री को बाह्य महाव्रतों की दीक्षा देने का एक महत्त्वपूर्ण प्रयोजन है वह है उसे स्त्रीशक्ति के अनुसार उच्चतम त्याग और तप की प्रेरणा देना और यह ज्ञापित करना कि स्त्री भी त्याग और तप की बहुत ऊँचाई तक पहुँच सकती है और यह उच्च त्याग तप निरर्थक नहीं है। यद्यपि इससे कर्मों का संवर और निर्जरा मुनि के बराबर नहीं होती, तथापि सम्यग्दर्शन सहित होने से ऐसे उत्कृष्ट पुण्य का बन्ध होता है, जिससे वह खीलिंग का छेदकर सोलहवें स्वर्ग का देव बन जाती है, साथ ही अगले भव में मुनिव्रत धारण करने योग्य पुरुषशरीर एवं उत्तमसंहननादि सामग्री उपलब्ध कर लेती है। इस प्रकार उपचारमहाव्रत परम्परया मोक्षसाधक होने से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । इस महत्त्वपूर्ण साधना के कारण आर्यिका लिंग पूज्य है, आदर-सम्मान के योग्य है। इसी प्रकार क्षुल्लक- एलक भी यद्यपि अणुव्रतधारी हैं, तथापि उनकी ग्यारह प्रतिमा रूप साधना कुछ अंश में मुनिसदृश ही होती है। क्षुल्लक शब्द क्षुद्र अर्थात् 'छोटा' अर्थ का वाचक है, जो उसके लघुमुनित्व को द्योतित करने के लिये प्रयुक्त किया गया है। इसलिये पद्मपुराण में क्षुल्लक नारद को गृहस्थमुनि कहा गया है और लवण और अंकुश द्वारा उनकी पूजा किये जाने का वर्णन है
दिसम्बर 2001 जिनभाषित
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दर्शनेऽवस्थितौ वीरौ प्राप ताभ्यांच पूजितः । आसनादिप्रदानेन गृहस्थमुनिवेषभृत् ॥102/3 यहाँ 'गृहस्थ' शब्द क्षुल्लक के सवस्त्र गृहिलिंग का सूचक है और 'मुनि' शब्द अंशत: मुनिसदृश (मुनितुल्य नहीं) त्याग तप तथा ब्रह्मचर्यादि व्रतों के पालन का सूचक है। 'एलक' शब्द भी 'अचेलक' (अल्पचेलक) शब्द का प्राकृतरूप है और इससे भी अंशत: मुनिसदृश चर्या द्योतित होती है । सोमदेवसूरि ने भी इसी दृष्टि से यशस्तिलकचम्पू में अभयमति क्षुल्लिका के लिये 'मुनिकुमारिका' (श्लोक 175 का गद्य) शब्द का उपचारत: प्रयोग किया है। इससे क्षुल्लक और एलक की भी पूज्यता प्रकट होती है।
फिर भी क्षुल्लक, एलक और आर्यिका तीनों के लिंग समन्य होने से गृहिलिंग हैं। निर्मन्थलिंग से रहित होने के कारण उनमें गुरु बनने की योग्यता नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि जो हिंसा रहित क्रियाओं को ही धर्म, अठारह दोषरहित आत्मा को ही देव तथा निर्मन्य उपदेष्टा को ही गुरु मानता है वही सम्यग्दृष्टि है
हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे । णिग्गंथे पावयणे सहहणं होड़ सम्मतं ।। (मोक्षप्राभृत, 90)
इससे स्पष्ट होता है कि सग्रन्थ को गुरु माननेवाला मिध्यादृष्टि
है।
कुन्दकुन्द ने यह भी कहा है कि जिनबिम्बस्वरूप आचार्य, उपाध्याय और साधु ही कर्मक्षय की कारणभूत दीक्षा शिक्षा देने के अधिकारी हैं, क्योंकि वे संयम से शुद्ध, और वीतराग होते हैं - जिणविम्बं णाणमयं संजममुद्धं सुवीयरायं च जं देह दिक्खसिक्खा कम्मक्खयकारणे सुद्धा । (बोधपाइड 16) आगे वे कहते हैं कि जिसके पास जो होता है, वही तो वह दूसरों को दे सकता है। जो वस्तु मनुष्य के पास नहीं है, वह दूसरों को कैसे दी जा सकती है? जिसके पास धन होता है वह दूसरों को धन दे सकता है, जिसके पास काम (इन्द्रिय सुख की सामग्री) होता है वह काम दे सकता है, जिसके पास धर्म होता है वह धर्म दे सकता है, जिसके पास ज्ञान होता है वह ज्ञान दे सकता है तथा जिसके पास प्रव्रज्या (‘पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता, बोधपाहुड, 25 ) होती है, वह प्रव्रज्या दे सकता है
सो देवो जो अत्थं धम्मं कामं सुदेइ णाणं च । सो देइ जस्स अस्थि दु अत्थो धम्मो य पव्वज्जा ।।
(बोधपाहुड, 24 ) टीकाकार श्रुतसागर सूरि इसे स्पष्ट करते हुये लिखते हैं- "स ददाति यस्य पुरुषस्य यद् वस्तु वर्तते असत्कथं दातुं समर्थः ? यस्याऽर्थो वर्तते सोऽर्थं ददाति यस्य धर्मो वर्तते स धर्मं ददाति यस्य प्रव्रज्या दीक्षा वर्तते स केवलज्ञानहेतुभूतां प्रव्रज्यां ददाति । "
इस प्रकार जो क्षुल्लक, एलक और आर्यिका स्वयं निर्ग्रन्थता रूप प्रव्रज्या से युक्त नहीं हैं, वे दूसरों को यह प्रव्रज्या कैसे दो सकते हैं ? अतः उनमें गुरु बनने की योग्यता नहीं है। फलस्वरूप मोक्षार्थी के लिये वे उपास्य या शरणभूत नहीं हैं। शिक्षा प्रव्रज्या से युक्त मुनि
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