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________________ पुकार-पुकार श्रीफल अर्पित करवाये जाते हैं। श्रीफल से श्रेष्ठ और कोई | केवलिप्रणीत धर्म। मोक्षार्थी चारों की ही शरण में जाने की कामना करता पूजाद्रव्य नहीं है। पंचपरमेष्ठियों को तो हम इसे मोक्षफल की कामना | है : ‘चत्तारिसरणं पव्वज्जामि', अतः 'वन्दना' शब्द पंचपरमेष्ठियों से अर्पित करते हैं। अतः जल, चन्दन, आदि अन्य सभी द्रव्य श्रीफल | के प्रति विनय का सूचक है। से हीन हैं। जब सर्वश्रेष्ठ पूजाद्रव्य आर्यिका को अर्पित करने में कोई श्रीफल, पुष्प, चन्दन, अक्षत आदि द्रव्य पंच परमेष्ठियों को आगमविरोध नहीं होता, तो जलचन्दनादि अर्पित करने में आगम | भी अर्पित किये जाते हैं, दिक्पाल आदि देवों और लोक के सम्माननीय विरोध का प्रश्न ही नहीं उठता। और जब एक ही सर्वश्रेष्ठ द्रव्य अर्पित पुरुषों, अतिथियों एवं सम्बन्धियों को भी। सम्माननीय पुरुषों को कर देने से पूजा हो जाती है, तब शेष द्रव्य अर्पित करने या न करने | तिलक लगाया जाता है, माला पहनायी जाती है, श्रीफल अर्पित किया से क्या फर्क पड़ता है? फर्क पड़ता है सिर्फ वन्दना और गुणस्तवन | जाता है, शाल उढ़ाया जाता है, और आरती भी उतारी जाती है। पूर्वक या मोक्षप्राप्ति की कामना करते हुए पूजा द्रव्य समर्पित करने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर दिक्पालों, इन्द्रों, नवग्रहों, से, क्योंकि यह भक्तिरूप पूजा है और भक्तिपूजा के पात्र केवल | देवियों आदि का आह्वान कर उनके सत्कारार्थ इस प्रकार अष्टद्रव्य पंचपरमेष्ठी हैं। अर्पित किये जाते हैं - सम्मानपूजा और भक्तिपूजा में भेद ___'हे आदित्य आगच्छ, आदित्याय स्वाहा। ओं आदित्याय सम्मानपूजा और भक्तिपूजा में भेद है। सम्मानपूजा सम्मान | स्वगणपरिवृताय इदमयं पाद्यं गन्धं पुष्पं धूपं दीपं चरुं बलिं स्वस्तिकं की भावना से की जाती है और भक्तिपूजा गुणानुरागजनित आन्तरिक यज्ञभागं च यजामहे। प्रतिगृह्यता, प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतामिति स्वाहा।' श्रद्धाविशेषरूप भक्ति से। ('भक्तेर्गुणानुरागजनितान्तःश्रद्धाविशेष (प्रतिष्ठासारोद्धार पं. आशाधर जी 2/28) लक्षणायाः' र.क.श्रा.टीका 4/25)। अतः सम्मानपूजा में पूजाद्रव्य 'ओं ह्रीं श्रीप्रभृतिदेवताभ्यः इदं जलं गन्धमक्षतान् पुष्पाणि चरूं सामान्यरूप से (बिना वन्दनादि किये) ही समर्पित कर दिया जाता | दीपं धूपं फलं पुष्पाञ्जलिं च निर्वपामीति स्वाहा।' (वही 2/82) है, किन्तु भक्तिपूजा में गुणस्तवन एवं वन्दना (वन्दे, नमोऽस्तु आदि यह उनके सत्कार की विधि है जैसा कि पं. आशाधर जी ने शब्दों) के द्वारा भक्तिभाव प्रकट करते हुए अर्पित किया जाता है, कहा है - 'अथ दिक्पालान् द्वारपालान् यक्षांश्च संक्षेपेण सत्कुर्यात्॥' जैसा सोमदेव सूरि के कथन से ज्ञात होता है। वे उपासकाध्ययन | (वहीं 3/125) (श्लोक 697-698) में कहते हैं इसलिये इन द्रव्यों का समर्पण पूजा में वैशिष्ट्य उत्पन्न नहीं देवं जगत्त्रयीनेत्रं व्यन्तराद्याश्च देवताः। करता, अपितु इनके समर्पण के साथ जो वन्दना या सम्मान का भाव समं पूजाविधानेषु पश्यन्दूरं व्रजेदधः।। होता है उससे वैशिष्ट्य उत्पन्न होता है। नीतिज्ञों ने कहा है - ताः शासनाधिरक्षार्थं कल्पिताः परमागमे। मनः कृतं कृतं मन्ये न शरीरकृतं कृतम्। अतो यज्ञांशदानेन माननीयाः सुदृष्टिभिः।। येनैवालिङ्गिता कान्ता तेनैवालिङ्गिता सुता। अर्थ - 'तीनों लोकों के द्रष्टा जिनेन्द्र-देव और व्यन्तरादिक अर्थात् मन से किया गया कार्य ही वास्तविक कार्य होता है, देवताओं को जो पूजाविधानों में समानरूप से दखता है, वह नरक | शरीर से किया गया कार्य नहीं। क्योंकि पुरुष जिस शरीर से पत्नी में जाता है। परमागम में शासन की रक्षा के लिये उनकी कल्पना की का आलिंगन करता है उसी से पुत्री का भी करता है, किन्तु मनोभाव गई है। अतः सम्यग्दृष्टियों को चाहिए कि पूजा का अंश देकर उनका | भिन्न-भिन्न होने से आलिंगन का स्वरूप भी भिन्न-भिन्न हो जाता सम्मान करें।' है। एक रतिरूप होता है, दूसरा वात्सल्यरूप। 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यइस पर टिप्पणी करते हुए पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते | परोपणं हिंसा' इस सूत्र से भी मनोभाव की भिन्नता से क्रिया के स्वरूप हैं- उक्त कथन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। (उसमें) सम्यग्दृष्टियों से कहा | की भिन्नता का मनोविज्ञान ध्वनित होता है। गया है कि वे उनको (जिन शासन की रक्षा के लिये कल्पित देवताओं अतः जब वन्दना के भाव के साथ श्रीफल आदि अर्पित किये को) यज्ञांश (पूजाद्रव्य) देकर सम्मान करें, नमस्कार या स्तुति आदि जाते हैं तब उनका अर्पण भक्तिपूजा का रूप धारण करता है और के द्वारा नहीं। इसके अधिकारी तो जिनेन्द्र देव ही हैं।” (| जब सम्मानभाव के साथ अर्पित किये जाते हैं, तब सम्मानपूजा का उपासकाध्ययन, पृष्ठ 58) रूप ले लेता है। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने असंयतों के लिये किसी इससे यह बात स्पष्ट होती है कि किसी को सर्वाधिक | द्रव्य के समर्पण का निषेध नहीं किया, अपितु उनकी वन्दना का निषेध महिमामण्डित करने वाला विनयोपचार अर्घ या अष्टद्रव्यों का समर्पण किया है - 'असंजदं ण वन्दे' (दसणपाहुड, 26)। और उन्होंने जो नहीं है, अपितु वन्दना एवं स्तुति करना है। वन्दना का अर्थ है समर्पण यह कहा है कि संयमी ही वन्दनीय है, शेष सभी सग्रन्थलिंगी भाव अर्थात् किसी की आज्ञा को सर्वोच्च मान्यता देना। मोक्षमार्ग | 'इच्छाकार' के योग्य हैं (सुत्तपाहुड, 13), इसका भी यही रहस्य में पंचपरमेष्ठियों की ही आज्ञा को सर्वोच्च मान्यता दी जा सकती। है कि केवल 'वन्दना' और 'इच्छाकार' के विनयोपचारों से द्रव्यपूजा है, अतः वे ही वन्दनीय हैं। इस प्रकार वन्दना का भाव समर्पणभाव | के स्वरूप में फर्क पड़ता है। इच्छाकार ('इच्छामि' शब्द बोलने) का को द्योतित करता है। इसलिये 'वन्दना' का विनयोपचार सब के साथ | अर्थ है 'मुझे शुद्धात्म तत्त्व की उपलब्धि हो' ऐसी भावना करना नहीं किया जा सकता। समर्पण भाव के ही दूसरे नाम 'भक्ति' और | (सूत्रप्रामृत गाथा 15, पं. पन्नालाल साहित्यचार्य) अथवा 'मैं 'शरणागति' हैं, और शरण चार ही हैं - अरहंत, सिद्ध, साधु एवं | मोक्षभिलाषी हूँ' यह भाव निवोदित करना' (सागारधर्मामृत 7/49, 6 दिसम्बर 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524258
Book TitleJinabhashita 2001 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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