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आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य
में प्रचलित पाश्चात्यीकरण की ओर समाज के झुकाव पर तीखा प्रहार किया है, वह स्तुल्य है। मंदिरों में फिल्मी संगीत के प्रवेश तथा विवाहों के धार्मिक स्वरूप को छोड़कर उसके वीभत्सीकरण का जो चित्रण किया है वह निश्चित ही झकझोरने वाला है समाज को संस्कृति की सुरक्षा के लिये ऐसे बेहूदे कार्यक्रमों का बहिष्कार करने की आदत हालनी होगी। आपके ऐसे लेखों के लिये हार्दिक बधाई।
सर्वप्रथम मैं आपको इस बात के लिये बधाई देना चाहता हूँ कि आपके द्वारा सम्पादित 'जिनभाषित (मासिक) का स्तर उच्चतम कोटि का है। जैन समाज द्वारा जो पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित की जा रही हैं, उनमें से अधिकांश अखिल भारतीय स्तर की नहीं है। 'जिनभाषित' एक अखिल भारतीय स्तर की पत्रिका है. इस पर जैन समाज को गर्व होना चाहिये।
इस पत्र का मूल उद्देश्य आपके द्वारा सितम्बर, 2001 के अंक में लिखे गये सम्पादकीय के लिये साधुवाद देने का है। आपने अपने सम्पादकीय (वैराग्य जगाने के अवसरों का मनोरंजनीकरण) में जो मुद्दे उठाये हैं वे जैन समाज के लिये गम्भीर चिन्तन के विषय हैं। भक्तिमार्गियों के प्रभाव में आकर हम सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र को शनैः शनैः भूलते जा रहे हैं। 'धर्म की प्रभावना' के नाम पर भौंडे व खर्चीले आयोजनों की आज भरमार है। छात्रावास एवं विद्यालय खोलने जैसे उपयोगी एवं स्थायी प्रभावना वाले विषयों की ओर हमारा ध्यान शायद ही जा पाता है।
मैं आशा करता हूँ कि आप इसी प्रकार के सामयिक एवं विचारोत्तेजक विषयों पर अपनी लेखनी चलाते रहेंगे बावजूद इसके कि कुछ लोग आपकी आलोचना करने के लिये तत्पर रहेंगे।
कन्हैयालाल जैन (सेवानिवृत्त आई.ए.एस.) ई-4/39, महावीर नगर, भोपाल (म.प्र.)
सितम्बर, 2001 का अंक मिला, पढ़कर बहुत अच्छा लगा! सम्पादकीय "वैराग्य जगाने के अवसरों का मनोरंजनीकरण" वर्तमान समय में फैलती एक बड़ी कुरीति पर करारा तमाचा है। मैं काफी समय से धर्मकार्यों में फिल्मी धुन व फिल्मी संगीत के बढ़ते प्रयोग से चिंतित था। हमारा जैनधर्म निवृत्तिप्रधान है, उसमें इस फूहड़ता का हम सभी को कठोर विरोध करना चाहिये। जहाँ कहीं भी विधान, पंचकल्याणक या अन्य धार्मिक कार्यक्रम हो, उनमें आनेवाली संगीत पार्टियों को स्पष्ट निर्देश दिये जायें कि फिल्मी धुनों का प्रयोग न करें। जिन आचार्य, मुनि या आर्थिका जी के सान्निध्य में ये कार्यक्रम हों, वे इसका निषेध करें, तो इस समस्या का समाधान सम्भव हो सकता है। 'जिनभाषित' आने वाले समय में श्रेष्ठ पत्रिका बनेगी। एक सुझाव है कि जैन धर्म पर आधारित शब्द-सागर वर्ग पहेली भी शुरू करें। आशा है मेरी बात को आप स्थान देंगे। भूपेन्द्र जैन तुलसी नगर, भोपाल (म.प्र.)
'जिनभाषित' पत्रिका के सितम्बर-अक्टूबर के अंक प्राप्त हुये। सम्पादकीय लेख 'वैराग्य जगाने के अवसरों का मनोरंजनीकरण' एवं 'विवाह एक धार्मिक अनुष्ठान' पढ़ने पर ऐसा लगा कि आपने वर्तमान
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दिसम्बर 2001 जिनभाषित
Jain Education International
आवरण पृष्ठ पर आचार्य भगवन्तों के चित्र के साथ जन्मतिथि व पुण्यतिथि का उल्लेख भी किया जाये, तो श्रेयस्कर होगा। माणिकचन्द जैन पाटनी
राष्ट्रीय महामंत्री दि. जैन महासमिति
ए/16, नेमीनगर (जैन कालोनी) इंदौर-452009 (म.प्र.)
'जिनभाषित' के मई 2001 से सितम्बर 2001 तक के सभी अंक अनवरत अधिगत हो रहे हैं। सर्वप्रथम आपने पत्रिका का नाम 'जिनभाषित' युक्तियुक्त, समीचीन और अभिनव रखा है। अब तक के ये चारों अंक मुद्रण, गैटप, कागज, विषय-वस्तु सभी दृष्टि से सामयिक और सुन्दर / आकर्षक बने हैं। ऐसे अतिशोभन प्रकाशन पर आप सभी साधुवाद के पात्र हैं। सभी अंकों के सम्पादकीय समीचीन और अपरिहार्य रूप से पठनीय हैं। सितम्बर अंक का सम्पादकीय तो जैन समाज में आ रही विसंगतियों की ओर समाज को जागृति, देता है। इसी अंक में 'जैन निबन्ध रत्नावली' से साभार गृहीत लेख प्रतिष्ठाचार्यों के लिये विचारणीय है। प्रत्येक अंक में आपका 'जिज्ञासासमाधान' 'जिनभाषित' के अनुकूल है। आर्थिका नवधाभवित विवादविषयक न होकर चर्चापरक ही बना रहे पं. मूलचंद जी लुहाड़िया का कथन युक्तियुक्त है। सभी अंकों में अन्य आलेख भी पठनीय हैं। प.पू. आचार्य विद्यासागर जी के प्रवचनांशों का प्रकाशन प्रारंभ में ही अपेक्षित है। "जिनभाषित" की अक्षर कला एवं मुखपृष्ठ पर अध्यात्म-महापुरुष का चित्र पत्रिका को द्विगुणित शोभा प्रदान करते
पुनः साधुवाद के साथ
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डॉ. प्रेमचन्द्र रांवका 22, श्री जी नगर दुर्गापुरा, (जयपुर) राज. -302018
'जिनभाषित' का अक्टूबर अंक प्राप्त हुआ आपके श्रेष्ठ सम्पादकत्व एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ के प्रकाशकत्व में प्रस्तुत यह पत्रिका समाज एवं अन्य प्रकाशनों के लिये उदाहरणस्वरूप है। निम्न विशेषताएँ मन को आकर्षित करने वाली है
1. कुरीतियों एवं समाज तथा धर्म को लज्जित करने वाली प्रवृत्तियों पर गम्भीरता एवं व्यंग्यात्मक पद्धति से प्रहार
2. आगमविरोधी एवं मुनिविरोधी प्रवृत्तियों से समाज को सावधान करने का प्रयास ।
3. सामयिक चर्चाओं का प्रकाशन ।
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