SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारण हैं। प्रवचनसार गाथा 254 में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ऐसा कह रहे हैं > एसा पसत्यभूदा समणाणं व पुणो धरत्वाण चरिया परेति भणिदा, ता एव परं लहदि सोक्खे।1254।। अर्थ- शुभोपयोग रूप प्रशस्तचर्या गृहस्थों की मुख्य और साधुओं की गौण कही गयी है। इसी शुभोपयोग के द्वारा गृहस्थ परम्परा से परम सुख को प्राप्त करता है। श्री धवल जी में कहते हैं (पु. 8/83)असंख्खेज्ज गुणाये सेजिए कम्म णिज्जरं हेदु वदं णाम । अर्थ- असंख्यात गुण श्रेणी निर्जरा होने के कारण निश्चय से व्रत. ही है। अणुव्रत और महाव्रतों को आचार्य उमास्वामीजी ने संयतासंयत एवं क्षायोपशमिक चारित्र क्षयोपशम भाव के अन्तर्गत लिया है। ( तत्वार्थ सूत्र 2/5) क्योंकि उपर्युक्त प्रमाण के अनुसार क्षायोपशमिक भाव मोक्ष के कारण होते है अतः अणुव्रत और महाव्रतों को कभी भी बंध का कारण नहीं कहा जा सकता है। संवर का वर्णन करते हुए आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः । अर्थ- गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र ये संवर के कारण हैं। - मोक्षमार्गप्रकाशक में पंडित टोडरमल जी लिखते हैं "देखो चतुर्थ गुणस्थान वाला शास्त्राभ्यास, आत्मचिन्तवन आदिक कार्य करे तहाँ भी निर्जरा नहीं, बंध भी घना ही है। अर पंचम गुणस्थान वाला विषय सेवन आदि कार्य करे, तहाँ भी बाके गुणश्रेणी निर्जरा हुआ करे बंध भी थोरा होवे । बहुरि पंचमगुणस्थान वाला उपवास आदि व प्रायश्चित आदि तप करे तिस काल भी बाके निर्जरा थोरी । अर छठागुणस्थानवाला आहार बिहार आदि क्रिया करे तिस काल बाके निर्जरा धनी वा बंध भी बाके कम होवे।" यहाँ विचारणीय यह है कि चतुर्थ गुणस्थानवाले के आत्मचिन्तवन करने पर भी निर्जरा नहीं कही है, बंध भी बहुत कहा है और पंचम गुणस्थानवर्ती के विषयसेवनादि कार्य करते हुए भी गुणश्रेणी निर्जरा कही है, बंध भी थोड़ा कहा है, जिसका कारण अणुव्रत अर्थात देशचारित्र के अलावा और क्या हो सकता है? अणुव्रत और महाव्रतों को आचार्यों ने देश चारित्र वा सकल चारित्र कहा है। जो क्रमशः गृहस्थ और मुनियों के होते हैं, और जिनका कारण अप्रत्याख्यानावरण कषाय और प्रत्याख्यानावरण कषाय का अनुदय होना है। ऐसे परम पूज्य चारित्र को बंध का कारण कैसे कहा जा सकता है। ऊपर मोक्षमार्गप्रकाशक का प्रमाण हमने लिया है। उससे भी इस प्रकार समझना चाहिए कि पंचम गुणस्थानवर्ती के जो देश चारित्र रूप परिणाम हुआ है, उससे तो संवर व निर्जरा है और उसी गृहस्थ के जो प्रत्याख्यानावरण आदि कषायों का उदय है, उनके कारण बंध भी है। इसी तरह महाव्रतों को जानना । इसी से सिद्ध होता है कि देशव्रती व महाव्रती को आसव, बंध, संवर, निर्जरा ये चारों होते हैं, ऐसा समझना चाहिए। यदि संक्षेप में कहा जाये तो इस प्रकार कह सकते हैं कि 'महाव्रत से बंध नहीं होता परन्तु महाव्रती को बंध होता है।' 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) Jain Education International इतिहास के नाम पर आस्था से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता भोपाल 5 दिसम्बर। राष्ट्रीय 'अनेकान्त' अकादमी ने एक प्रस्ताव पारित कर ऐसे लोगों की भर्त्सना की है जो इतिहास के नाम पर अपनी सीमित और एकपक्षीय दृष्टि से हजारों हजार वर्ष प्राचीन पुराणों, शास्त्रों और पुरातत्व की अनदेखी कर राजनैतिक स्वार्थ पूरे करना चाहते हैं। अकादमी के अध्यक्ष, साहित्यकार कैलाश मडवैया ने कहा कि इतिहास में जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी के अतिरिक्त पार्श्वनाथ और नेमिनाथ के अनेक उल्लेख उपलब्ध हैं। यदि किसी इतिहासकार की दृष्टि सीमित है तो इससे पुरातन प्रमाणों को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। आदिकाल से चले आ रहे जैन धर्मावलम्बियों की आस्था में तो किंचित् भी खिलवाड़ नहीं होना चाहिए। वेदों में 'केशी' नाम से तीर्थंकर ऋषभ देव का उल्लेख मिलता है। मोहनजोदड़ो की खुदाई में प्राप्त ॠषभदेव की प्रतिमा इसका स्पष्ट प्रमाण है। उड़ीसा में स्थित खारवेल के शिलालेख में महावीर स्वामी द्वारा स्वयं ऋषभनाथ की एतिहासिकता को मान्य किया गया है। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' में जैन धर्मावलम्बियों को इससे देश का मूल नागरिक कहा है। भारत के उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम तक फैले हजारों-हजार पुरातन जैन तीर्थों पर स्थित प्राचीन शिलालेख इस बात को प्रमाणित करते हैं कि महावीर स्वामी के पूर्व भी तेईस तीर्थंकर हुए हैं। अनेक प्रमाण प्रस्तुत करते हुए विद्वानों ने कथित इतिहास की आलोचना करते हुए महावीर के पूर्व तेईस तीर्थंकरों को महज कल्पना कहना पुरातत्त्व और वास्तविक इतिहास से आँखे मूँद लेना निरूपित किया। इस अवसर पर विद्वानों द्वारा केन्द्रीय शिक्षामंत्री और कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिज्ञों की भी प्रशंसा की गई, जिन्होंने गलत इतिहास को पढ़ाया जाना बंदकर इसे संशोधित करना स्वीकार किया है। कैलाश मड़वैया हरिवंशपुराण-परिशीलन राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठी सम्पन्न कोटा (राज.) यहाँ परम पूज्य मुनि पुंगव श्री सुधासागर जी महाराज, पूज्य क्षुल्लक श्री गम्भीरसागर जी महाराज एवं पूज्य क्षुल्लक श्री धैर्यसागर जी महाराज के सान्निध्य एवं प्राचार्य श्री जैन 'अरुणकुमार (ब्यावर) एवं पार्श्वज्योति के प्रधान सम्पादक डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' (बुरहानपुर) के संयोजकत्व में श्री दिगम्बर जैन प्रभावना समिति, श्री दि. जैन नासियां दादावाडी, कोटा द्वारा आयोजित 'आचार्य जिसनेन कृत हरिवंशपुराण परिशीलन' पर अहम राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठी दि. 1 से 3 नव. तक 33 विद्वानों की सहभागिता एवं सैकड़ों नर-नारियों की उपस्थिति में 8 सत्रों में सम्पन्न हुई। - दिसम्बर 2001 जिनभाषित 29 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.524258
Book TitleJinabhashita 2001 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy