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________________ शंका-समाधान पं. रतनलाल बैनाडा शंकाकार - ब्र. अरुण मथुरा ने यह सुना तब उसने उग्रसेन की बहुत मारपीट की, जिससे वह शंका - भगवान् पुष्पदन्त से लेकर भगवान् धर्मनाथ तक 7 | तीव्र वेदना सहकर मरा और व्याघ्र हुआ। जब भगवान् आदिनाथ का तीर्थों में धर्म की व्युच्छित्ति हुई थी। यहाँ धर्म की व्युच्छित्ति से क्या जीव राजा बज्रजंघ की पर्याय में था तब उसने चारणऋद्धिधारी मुनि तात्पर्य है? को आहार दिया था। तब यह व्याघ्र भी वहाँ दान की अनुमोदना कर समाधान - श्री तिलोय पण्णत्ति अ. 4/1291 में इस प्रकार रहा था। जिस कारण सातवें भव में उत्तर कुरु भोगभूमि में मनुष्य कहा है हुआ। वहाँ से छठे भव में ऐशान स्वर्ग में चित्रांगद नामक देव हुआ। हुंडावसप्पिणिस्स य, दोसेणं वेत्ति सोत्ति विच्छेदे। वहाँ से चयकर विभीषण राजा और प्रियदत्ता रानी का वरदत्त नामक पुत्र हुआ। वरदत्त एक बार विमलवाह जिनेन्द्र की वन्दना करने गये दिक्खाहि मुहाभावे, अत्यमिदो धम्य-वर-दीओ।।1291।। और विरक्त होकर दीक्षा धारण कर ली। समाधिमरण पूर्वक शरीर अर्थ- हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से, वक्ताओं और श्रोताओं छोड़कर अच्युत स्वर्ग में सामानिक जाति के देव हुए। वहाँ से चयकर का विच्छेद होने के कारण तथा दीक्षा के अभिमुख होने वालों के अभाव तीसरे भव में राजा वज्रसेन और रानी श्रीकान्ता के विजय नामक पुत्र में धर्म रूपी उत्तमदीपक अस्तमित हो गया था। हुए। दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण कर सर्वार्थसिद्धि में अहिमिन्द्र हुए। वहाँ श्री त्रिलोकसार गाथा - 814 की टीका में इस प्रकार कहा है 33 सागर तक स्वर्गसुख भोगकर भरतचक्रवर्ती के अनन्तवीर्य नामक वक्तृश्रोतृचरिष्णूनामभावात् सद्धर्मो नास्ति।।8141 पुत्र हुए। इन्होंने भगवान् ऋषभदेव के समवशरण में दिव्यध्वनि सुनकर अर्थ- वक्ता, श्रोता और धर्माचरण करने वालों का अभाव होने | दीक्षा प्राप्त की और इस अवसर्पिणी युग में सर्वप्रथम मोक्ष प्राप्त से सद्धर्म अर्थात् जैन धर्म का विच्छेद रहा है। किया। श्री सिद्धान्तसार दीपक 9/169-172 के अनुसार भी धर्म शंका - अणुव्रत-महाव्रत आदि क्षायोपशमिक भाव बंध के उच्छेदकाल में मुनि, श्रावक, वक्ता, श्रोता नहीं होते हैं। कारण है या नहीं? उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि जिस काल में वक्ता, श्रोता समाधान - वर्तमान में कुछ लोग दान, पूजा, व्रत आदि की तथा मुनि, श्रावक न हों, उस काल को धर्म व्युच्छित्ति काल कहते | क्रिया परिणतिरूप शुभोपयोग को औदयिक भाव मानकर बंध का हेतु, मानते हैं, जो वास्तव में आगम विरुद्ध है। क्योंकि अनेक आचार्यों शंका - श्रीकृष्ण को तीर्थंकर प्रकृति का बंध किस कारण हुआ? ने इनको क्षायोपशमिक भाव तथा निर्जरा का कारण मानते हुए परम्परा समाधान - श्री वसुनन्दीश्रावकाचार गाथा नं. 349 में इस से मोक्ष का कारण माना है। प्रकार कहा है - प्रवचनसार गाथा 157 की टीका में आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी वारवईए विज्जाविच्चं किच्चा असंजदेणावि। | कहते हैंतित्थयरणामपुण्णं समज्जियं वासुदेवेण।।349।। 'विशिष्टक्षयोपशमदशाविश्रान्तदर्शनचारित्रमोहनीयपुदगलानुवृति अर्थ- द्वारावती में व्रत, संयम से रहित असंयत भी वासुदेव | परत्वेन पारगृहातशोभनोपरागत्वात् परमभट्टारकमहादेवाधिदेवपरमेश्वराहेत् श्रीकृष्ण ने वैयावृत्य करके तीर्थंकर नामक पुण्यप्रकृति का उपार्जन | सिद्धसाधुश्रद्धाने समस्तभूतग्रामानुकम्पाचरणेच प्रवृत्त शुभोपयोगः।' किया। अर्थ- दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय के विशिष्ट क्षयोपशम श्री धर्मसंग्रह श्रावकाचार श्लोक नं. 106 में कहा है - से परम भट्टारक महादेवाधिदेव, अरहंत, सिद्ध और साधु की श्रद्धा द्वारावत्यां मुनीन्द्राय ददौ विष्णुः सदौषधम्। करने से एवं समस्त जीवों पर अनुकम्पा करने से शुभोपयोग होता है। (यहाँ जीवों पर अनुकम्पा करने से दया, दान, व्रत आदि परिणामों तत्पुण्यतीर्थकृन्नाम सद्गोत्रेण बबन्ध स:।106।। को लिया गया है) आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी ने शुभोपयोग को अर्थ- द्वारका नगरी में किसी मुनिराज के लिए विष्णु (श्रीकृष्ण) | क्षायोपशमिक भाव बताया है। और जैनागम में शुभोपयोग को संसार ने उत्तम औषध दान दिया था, उस दान के पुण्य से उन्होंने तीर्थकर का कारण न मानकर परम्परा से मोक्ष का कारण माना है। नाम कर्म का बन्ध किया। जैसा कि समयसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में कहते हैं - शंका - वर्तमान अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम मोक्षगामी अनन्तवीर्य महाराज के पूर्वभव बताइये? मोक्षं कुर्वन्ति मिश्रौपशमिकक्षायिकाः त्रिधः। समाधान - अनन्तवीर्य महाराज पूर्व के नौवें भव में हस्तिनापुर बंधमौदयिकभावो, निष्क्रियः पारिणामिकः।।378।। नगर में सागरदत्त वैश्य से उसकी धनवती नामक स्त्री से उग्रसेन नामक अर्थ-क्षयोपशम, उपशम एवं क्षायिक भाव मोक्ष के करने वाले पुत्र हुआ। वह स्वभाव से अत्यधिक क्रोधी था। एक दिन उसने राजा हैं, और औदयिक भाव बंध का कारण है, तथा पारिणामिक भाव के भण्डार की रक्षा करने वाले लोगों को डरा धमकाकर बलपूर्वक निष्क्रिय है। उपर्युक्त प्रमाण से यह भली प्रकार सिद्ध है कि दान, बहुत सा घी और चावल निकालकर वेश्याओं को दे दिया। जब राजा | व्रत, दया आदि शुभ भाव क्षायोपशमिक भाव हैं और मोक्ष के 28 दिसम्बर 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524258
Book TitleJinabhashita 2001 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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