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________________ समाधिमरण : जीवनसुधार की कुंजी स्व. पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया काय और कषायों को कृश करते हुए शांत भावों से शरीर के | सद्गति प्राप्त करने में वह समर्थ होती है, और जब सद्गति प्राप्त त्याग को समाधिमरण कहते हैं। सल्लेखना, सन्यासमरण, अन्त्य- हो जाती है तो पूर्वोपार्जित दुष्कर्म भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाते, विधि, पंडितमरण, अंतक्रिया, मृत्यु-महोत्सव, 'आर्याणां महाक्रतुः' | और अगर अन्त समय में परिणाम कलुषित हो जाते हैं तो दुर्गति आदि सब इसी के नाम हैं। समाधिमरण धारण करने वाले को साधक, । प्राप्त होती है, जिसमें पूर्वोपार्जित शुभ कर्मों को भोगने का अवसर क्षपक, प्रेयार्थी आदि कहते हैं। ही नहीं मिलता। इस तरह सारा काता पींदा कपास या गुड़ गोबर हो अनेकों अपराध करने पर भी अंत में मनुष्य क्षमा माँगने पर जाता है और दुर्गति की परम्परा बढ़ जाती है। इससे जाना जा सकता जैसे अपराधों से मुक्त हो जाता है, उसी तरह जीवन भर पापारंभ | है कि समाधिमरण की जीवन में कितनी महत्ता है। करनेवाला भी अगर अन्त समय में समाधि धारण कर लेता है तो तप्तस्य तपसश्चापि पालितस्य व्रतस्य च। अवश्य सुगति का पात्र होता है। 'अन्त भला सो सब भला' इस पठितस्य श्रुतस्यापि फलं मृत्युः समाधिना।। बात को जैन ही नहीं जैनेतर संप्रदायों में भी महत्त्व दिया गया है। (मृत्यु महोत्सव, 16) वैदिक पुराणों में अनेक ऐसे आख्यान आते हैं जिनमें अन्त समय (तपे हुए तप, पालन किए हुए व्रत और पढ़े हुए शास्त्रों का में नारायण का नाम लेने वाले पापी भी बैकुंठगामी हुए हैं। अजामील | फल समाधिमरण में ही है- बिना समाधिमरण के ये वृथा हैं।) ने सारी जिन्दगी पापकर्म में बिताई परन्तु अन्त समय में नारायण | यहाँ यह शंका नहीं करना चाहिए कि 'जब समाधिमरण से का नाम लेने से वह बैकुण्ठवासी हुआ। इसी बात को जैन कथाकारों | ही सब कुछ होता है तो क्यों जप-तप-चारित्र की आफत मोल ली ने भी दूसरे शब्दों में चित्रित किया है। जीवन्ध कुमार ने मरणासन्न जाय, मरण समय समाधि ग्रहण कर लेंगे।' परन्तु ऐसा विचारना ठीक कुत्ते को णमोकार मन्त्र दिया तथा तीर्थंकर पार्श्वप्रभु ने अग्नि में जलते | नहीं क्योंकि सारी जिन्दगी तप और चारित्र, काय तथा कषाय के कृश हुए दो सों को नमस्कार मंत्र सुनाया जिसके प्रभाव से ये तिर्यंच | करने का अभ्यास इसीलिए किया जाता है कि अन्त समय में भी जीव भी देवगति को प्राप्त हुए। महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद | परिणाम निर्मल रहे और समाधि ग्रहण करने में सहूलियत रहे। संभवतः अपना कार्य पूरा हुआ जानकर सहर्ष मृत्यु का स्वागत करने वाले इसीलिए कुन्दकुन्द आचार्य ने सल्लेखना को शिक्षाव्रत में स्थान देने भीष्म पितामह की 'इच्छा मृत्यु' (इच्छापूर्वक मरण) भी जैन की दूरदर्शिता की है। समाधिमरण और तपःचारित्र में परस्पर कार्यसल्लेखना से मिलती हुई है। कारणरूपता है। जब उपसर्ग और अकाल मृत्यु का अवसर आ सारी जिन्दगी जप - तप करने पर भी अगर मृत्यु के समय उपस्थित हो यथा - सिंहादि क्रूर जन्तुओं का अचानक आक्रमण, सोते समाधि धारण न की जावे तो सारा जप तप उसी तरह वृथा होता हुए घर में भयंकर अग्नि लग जाना, महावन में रास्ता भूल जाना, है जिस तरह विद्यार्थी पूरे वर्ष भर पाठ याद करे और परीक्षा के समय बीच समुद्र में तूफान से नाव डूबना, विषधर सर्प का काट खाना, उसे भूल जाये या शस्त्राभ्यासी योद्धा रण क्षेत्र में जाकर कायर बन आदि, तब पूर्वकृत चारित्र का अभ्यास ही काम आता है। सारी जिंदगी जाये या कोई दूर देशान्तर से धनोपार्जन करके लाये और उसे गाँव | चारित्र में बिताने वाला अगर अन्त समय में असावधान होकर अपने के समीप आकर लुटा बैठे। बिना समाधिमरण के चारित्रवान् जीवन | आत्मधर्म से विमुख हो जाये तो उसका दोष तपः चारित्र पर नहीं भी फलहीन वृक्षकी तरह निस्सार होता है। इसी को स्वामी समन्तभद्रने है, यह तो उसके पुरुषार्थ की हीनता और अभ्यास की कमी है या कितने सुन्दर शब्दों में कहा है - बुद्धि विकार है। इसे ही तो 'विनाशकाले विपरीत बुद्धिः' कहते हैं। अन्तक्रियाधिकरणं तपःफलं सकलदर्शिनः स्तुवते। समाधिमरण का इच्छुक मृत्यु से भयभीत नहीं होता। वह अच्छी तस्मात् यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम्। तरह समझता है कि मरण आत्मा का नाश नहीं है, मरण तो दूसरा (रत्नकरंडश्रावकाचार, 123) जन्म धारण करने को कहते हैं। वह मृत्यु को महोत्सव समझता है, अर्थ- समस्त मतावलम्बी तप का फल अन्तक्रिया समाधिमरण | इसे आत्मा का शरीर के साथ विवाह समझता है, शरीर का शरीर पर ही आधारित बताते हैं अतः पुरुषार्थ भर समाधिमरण के लिए | के साथ विवाह तो लौकिक है वह इसे अलौकिक विवाह समझता प्रयत्न करना चाहिए। भारतीय संस्कृति में जो अन्तक्रिया पर इतना | है और इस तरह मृत्यु का सहर्ष आलिंगन करता है। तेल हीन दीप महत्त्व दिया गया है उसमें वैज्ञानिक रहस्य है, इससे भारतीय महर्षियों और दग्ध रज्जु तथा वृक्ष के सूखे हुए पत्ते की तरह जीर्ण और शिथिल के आत्म-तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा जानी जाती है। मृत्यु के समय अगर शरीररूपी नौकर को जब वह अपने चारित्र साधन के लिये अयोग्य आत्मा कषायों से सचिक्कण (चीकनी) नहीं होती तो वह अनायास | समझता है तो उसे पेंशन देकर दूसरे योग्य नौकर (शरीर) का प्रबन्ध शरीर त्याग कर देती है और उसे मारणांतिक संक्लेश भी विशेष नहीं | करता है। इतनी उदात्त भूमिका पर स्थित साधक कभी कायर नही होता, उसका मानसिक संतुलन ठीक रहता है जिससे स्वेच्छानुसार | हो सकता, वह तो परम मरणशूर, आत्म विजयी, मृत्युंजयी है। 16 दिसम्बर 2001 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524258
Book TitleJinabhashita 2001 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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