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________________ स्तुति कविवर दौलतरामज सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्द-रस-लीन। शब्दार्थ : अविरुद्ध - विरोध से रहित, अनूप - अनुपम, कीन सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरि-रज-रहस-विहीन।।1।। - करने वाले, अछीन - क्षय से रहित। शब्दार्थ : सकल - सम्पूर्ण, ज्ञेय-जानने योग्य पदार्थ, ज्ञायक | अर्थ : हे भगवान् ! आप विरोध से रहित शुद्ध चैतन्य स्वरूप - जानने वाले, निजानन्द - अपनी आत्मा के आनन्द में, तदपि - हैं, अत्यन्त पावन परमात्म रूप हैं, अनुपम हैं, शुभ-अशुभ विभावों फिर भी, नित - हमेशा, अरि - शत्रु (मोहकर्म), रज- धूल (ज्ञानावरण, का अभाव करने वाले हैं, स्वाभाविक परिणति से सहित हैं और क्षय दर्शनावरण), रहस- अंतराय (छिपाना), विहीन- रहित। से रहित हैं। अर्थ : सम्पूर्ण पदार्थों के जानने वाले होने पर भी जो अपनी । अष्टादश दोष विमुक्त धीर, स्व चतुष्टयमय राजत गंभीर। आत्मा के आनन्द रूपी रस में लीन रहते हैं तथा जो ज्ञानावरण, | मुनि गणधरादि सेवत महंत, नव केवल-लब्धि-रमा धरंत।।6।। दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय इन चार घातिया कर्मों से रहित शब्दार्थ : अष्टादश - अठारह, विमुक्त - रहित, धीर - अटल, हैं वे जिनेन्द्र भगवान हमेशा जयवंत हों। राजत - सुशोभित, रमा - लक्ष्मी, धरन्त - धारण करते हैं। जय वीतराग विज्ञान-पूर, जय मोह-तिमिर को हरन सूर। अर्थ : हे भगवान्! आप अठारह दोषों से रहित हैं, अटल हैं, जय ज्ञान अनंतानंत धार, दृग-सुख-वीरज-मण्डित अपार।।2।। अपने स्वचतुष्टय से सुशोभित हैं, समुद्र के समान गम्भीर हैं। मुनि शब्दार्थ : पूर - पूर्ण, तिमिर - अन्धकार, हरन - नष्ट करने | और गणधर आदि भी आपकी सेवा करते हैं, आप केवलज्ञान आदि के लिये, सूर - सूर्य, दृग - दर्शन, वीरज - वीर्य, मण्डित - सुशोभित, | नव क्षायिक लब्धिरूपी लक्ष्मी को धारण किये हुये हैं। अपार - अनंत। अठारह दोष : क्षुधा, तृषा, बुढ़ापा, जन्म, मरण, भय, स्मय, अर्थ : जो रागद्वेष से रहित हैं, विशिष्ट ज्ञान से पूर्ण हैं, मोहरूपी | राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, अरति, निद्रा, विस्मय, खेद, रोग, स्वेद अन्धकार को नष्ट करने के लिये सूर्य के समान हैं, जो अनन्तानन्त पान है जो अनन्तानन्त | और शोक। ज्ञान को धारण किये हैं और अनंतदर्शन, अनंतसुख व अनंतवीर्य नव क्षायिक लब्धि - क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकज्ञान, से सुशोभित हैं। उन प्रभु की जय हो। क्षायिकदर्शन, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिकउपजय परम शांत मुद्रा समेत, भवि-जनको निज अनुभूति हेत। | भोग, क्षायिकवीर्य, और क्षायिकचारित्र। भवि-भागनवच जोगे वशाय तुम धुनि वै सुनि विभ्रम नशाय॥3॥ | तुम शासन सेय अमेय जीव, शिव गये जाहिं जैहैं सदीव। शब्दार्थ : परम - अत्यन्त, समेत - सहित, भवि - भव्य, | भव-सागर में दुख छार वारि, तारनको अवर न आप टारि।।7। जनको - जीवों को, अनुभूति - ज्ञान, हेत - कारण, भागन - भाग्य | शब्दार्थ : सेय - सेवा करके, अमेय - अनन्त, शिव - मोक्ष, से, वचजोगे - वचन योग के, वशाय - निमित्त से, धुनि - दिव्य | जाहिं - जा रहे हैं, जैहैं - जावेंगे, सदीव - हमेशा, छार - खारा, ध्वनि, वै - होती है, विभ्रम - मोह या मिथ्यात्व। वारि - पानी, अवर - दूसरा, टारि - छोड़कर। अर्थ : जो अत्यन्त शांत मुद्रा से सहित हैं, उनकी जय हो। अर्थ : हे भगवान्! आपके मोक्षमार्ग रूपी शासन की सेवा भव्य जीवों को अपनी आत्मा का ज्ञान कराने में कारण हैं। भव्य जीवों | करके अनन्तों जीव मोक्ष को प्राप्त हुये हैं, वर्तमान में जा रहे हैं और के भाग्य से और वचन योग के निमित्त से जिनकी दिव्य ध्वनि होती | हमेशा जावेंगे। संसार रूपी समुद्र में खारे पानी के समान दुख से है। जिसको सुनकर जीवों का मोह (मिथ्यात्व) नष्ट हो जाता है। | निकालने के लिये आपको छोड़कर कोई दूसरा नहीं है, अर्थात् आप तुम गुण चिंतत निज-पर-विवेक, प्रगटै विघटें आपद अनेका । ही भवसागर से पार उतार सकते हैं। तुम जग-भूषण दूषण-वियुक्त, सब महिमायुक्त विकल्प-मुक्त।।4। | यह लखि निज दुख-गद-हरण-काज, तुम ही निमित्त कारण इलाज। शब्दार्थ : विवेक - ज्ञान, प्रगटै - उत्पन्न होता है, विघटै - | जाने तातैं मैं शरण आय, उचरों निज दुख जो चिर लहाय।।8।। नष्ट होती हैं, आपद - आपत्तियाँ, भूषण - आभूषण, दूषण - दोष, | शब्दार्थ : लखि - देखकर, गद - रोग, हरणकाज - नष्ट करने वियुक्त - रहित, विकल्प - रागादिक परिणाम, मुक्त - रहित। |के लिये, जाने - जाना, तातै - इसलिये, उचरों - कहता हूँ, चिर अर्थ : आपके गुणों का चिन्तवन करने से स्व-पर का ज्ञान | - अनादिकाल से, लहाय - प्राप्त किये हैं। प्रकट होता है और अनेक प्रकार की आपत्तियाँ नष्ट होती हैं। आप संसार | अर्थ : इस प्रकार देखकर, कि अपने दुःख रूपी रोग को नष्ट के आभूषण स्वरूप हैं, दोषों से रहित हैं और सभी प्रकार की महिमा | करने के लिये आपका निमित्त ही इलाज स्वरूप है। अत: ऐसा जानकर से युक्त, रागादिक परिणामों से रहित हैं। मैं आपकी शरण में आया हूँ एवं जो मैंने अनादिकाल से दुःख प्राप्त अविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूप, परमात्म परम पावन अनूप। किये हैं, उनको कहता हूँ। शुभ अशुभ विभाव अभाव कीन, स्वाभाविक परिणतिमय अछीन।।5।। अर्थकर्ता - ब्र. महेश श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर, जयपुर। 32 दिसम्बर 2001 जिनभाषित Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524258
Book TitleJinabhashita 2001 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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