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________________ इसमें कहीं भी धन की वन्दना नहीं है, किन्तु आज समाज में | के घण्टों की ध्वनियाँ शून्य में चीत्कार करने के साथ ही अस्तित्ववान गुणों की अनदेखी कर पद, पैसा और पावर (शक्ति) को बढ़ावा दिया | हैं। अब मंदिर जाना, पूजा करना, मुनियों की वैयावृत्ति करना सब जा रहा है। निस्सन्देह इस स्थिति ने सामाजिक समन्वय को नष्ट किया | ढोंग कहे जाने लगे हैं, जबकि मंदिर व्यक्ति की दशा एवं दिशा बदलने है। इस उपेक्षित वर्ग की समाज में कोई आस्था नहीं रही। कहाँ हरसुख- में समर्थ कहे जाते हैं। मन्दिरों की भूमिका में आया यह बदलाव राय जैसे निस्पृह दानी, जो मंदिर निर्माण में आम आदमी की भागीदारी सामाजिक समन्वय को क्षति पहुँचाने में स्वाभाविक रूप से कारण एवं भावना सुनिश्चित करना चाहते हैं और कहाँ आज के मन्दिर- बना है। निर्माता जो फर्श से लेकर शिखर तक अपना ही अपना नाम चाहते भौतिकवाद में बढ़ता विश्वास हैं। अर्थ की प्रभुता के अनर्थ ने आम और खास के बीच जो दूरी पाश्चात्य प्रभाव के कारण हमारे भौतिक सोच में बेतहाशा वृद्धि बढ़ायी है उससे समन्वय का मार्ग अवरुद्ध हुआ है। हुई है, जिसमें हर वस्तु और हर व्यक्ति उपभोग्य बन गया है। मन्दिरों की भूमिका में बदलाव मानवीयता का पक्ष दकियानूसी और चहुँओर संचय करने, यहाँ तक मन्दिर समाज के प्राण हैं जहाँ से सहयोग की प्राणवायु प्राप्त कि हिंसक प्रतिस्पर्धा की प्रवृत्ति बढ़ रही है। 'मेरा पेट हाऊ, मैं न कर समाज गतिशील होता है। मन्दिर में पहुँचकर आमजन सामाजिक जानूँ काऊ' के पक्षधर जन अपने घरों को उन चीजों से पाटते जा बनते हैं, वे एक पंक्ति में बैठते हैं, उनके आसन समान होते हैं, रहे हैं जो आवश्यक की श्रेणी में न आकर विलासिता की श्रेणी में आती सभी धार्मिक कृत्य करते हैं, धर्मलाभ लेते हैं और स्वयं को समाज हैं। बढ़ते भौतिकवाद ने आदमी की क्षमताओं पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया का अभिन्न अंग मानते हैं। पूर्व में समाज व्यवस्था के तीन अनिवार्य | है। यहाँ तक कि अब शुद्धता भी रेडीमेड हो गयी है। एक ओर धनवर्षा अंग थे- (1) मन्दिर (2) औषधालय और (3) विद्यालय। एक ओर | हो रही है तो दूसरी ओर ‘चन्द्रबली' सब्जी नहीं खा सकने की स्थिति इनसे समाज बल प्राप्त करता है, द्वितीय दान के प्रमुख क्षेत्रों के प्रति के कारण आत्महत्या कर रहा है। एक सौ रुपये की शर्त जीतने के समाज अपना दायित्व समझता था, किन्तु जबसे व्यापारिक वर्ग का | लिए एक अभागा मौत का साधन जानते हुए भी एक किलो नमक प्रबन्धक वर्ग में समायोजन हुआ है, ये तीनों क्षेत्र व्यापारिक दृष्टि को घोल कर पी लेता है और मर जाता है। वहीं दूसरी ओर हमने से देखे जाने लगे और लाभ-हानि के गणित में लाभ की सही परिभाषा मंदिरों की सादगी छीनकर परिणामों की सादगी पर डाका डाला है न करने, उसे अर्थ मात्र से तौलने के कारण पाठशालायें, औषधालय अतः हमारे धर्मायतन और सामाजिक सम्बन्ध भी भौतिकवाद की बन्द किये गये। आज भी जहाँ पाठशालायें संचालित हैं वहाँ गुरुजनों चपेट में आ गये हैं। जहाँ एक ओर मन्दिरों के पुजारी, मैनेजर, मुनीम का वेतन 120 रुपये प्रतिमाह से 500 रुपये के बीच ही है। अब कम वेतन पाकर रोते हैं, वहीं समाज के चन्द कर्णधार अपनी बचे मंदिर, उन्हें भी व्यावसायिक काम्प्लेक्स में बदलने में कोई कोर सुविधाओं के लिए हीटर, कूलर, गीजर एवं अन्य डीलक्स सुविधाएँ कसर नहीं छोड़ी गयी। अब वहाँ धर्म का वातावरण कम, धन का जुटा रहे हैं। तीर्थस्थान पिकनिक स्पॉट, हनीमून, मौजमस्ती, अय्याशी एवं रिसोर्ट संस्कृति के अंग बन रहे हैं। सामाजिक सम्बन्धों का आधार वातावरण अधिक बलवान है। मन्दिरों के अग्रभाग में दुकानें और भौतिक सम्पन्नता बन गयी है, जिसने सम्बन्धों को भावनात्मक पश्चभाग में बारातें ठहराने की व्यवस्था, स्थान-स्थान पर दानपेटियाँ, धरातल से हटाकर भौतिकता की जड़ता में जड़ दिया है और हमारे दान दाताओं की पट्टावलियाँ, पंखे से लेकर थाली तक नाम ही नाम समाज की समन्वयवादिता को वर्गविशेष से सम्बद्ध कर दिया है ने धर्मकार्य को पुरुषार्थ नहीं रहने दिया है। जिसमें 'आप' हैं किन्तु 'हम' गायब हैं। मुझे यह लिखते हुए अत्यंत दुख हो रहा है कि एक स्थान की टी.वी., सिनेमा एवं संचार साधनों का प्रभाव धर्मशाला में एक विशाल आर्यिका संघ विराजमान था और वही समय विवाहों का था। उसके अध्यक्ष निरन्तर इस प्रयास एवं कयास में रहते व्यक्ति को व्यक्ति से अलग करना साम्राज्यवादी शक्तियों कि कब आर्यिका संघ जाये। वे निरन्तर कहते कि धर्मशाला की आय | की गहरी चाल होती है। टी.वी. संस्कृति ने इसी व्यक्तिवादी सोच का नुकसान हो रहा है। आखिर मैं इसलिए तो अध्यक्ष नहीं बना कि | को विकसित किया है। 18 से 24 घंटे तक टी.वी. के विभिन्न चैनल्स धर्मशाला की आय कम करूँ? वे दिखाने के लिए तीनों टाइम माताजी पर प्रसारित भावनात्मक, उत्तेजक, रोमांटिक गीत-संगीत एवं हिंसा की वन्दना करते, प्रवचन सुनते और मन ही मन कहते-मेरी धर्मशाला प्रधान धारावाहिकों ने व्यक्ति को व्यक्ति से काटकर रख दिया है। कब खाली होगी? जब धर्मी जनों के प्रति समाज के नेतृत्व का यह दिनभर टी.वी. के सामने बैठे दर्शक व्यक्तिवादी धारा में इस कदर सोच होगा तो समाज के प्रति वे कितने उत्तरदायी होंगे और कितना बह जाते हैं कि सामाजिक परिवेश उन्हें रुचिकर प्रतीत नहीं होता। समन्वय कर सकेंगे? पहले मंदिरों में एकत्रित जनसमुदाय से सिनेमा के थोथे डायलॉग्स सम्बन्धों की प्रगाढ़ता एवं भावनात्मकता सामाजिक संगठन को बल मिलता था, सार्वजनिक उत्सवों/समारोहों/ को तार-तार कर व्यक्तिसुख को सर्वोपरि बनाते हैं। संचार के बढ़ते मेलों में आदर्श स्थितियाँ बनती थीं आज खेमेबाजी को बढ़ावा मिलता साधन यथा-टेलीफोन, फैक्स, सेल्यूलर फोन, पेजर, इंटरनेट के है, कषायों की उद्भावना होती है, मनमुटाव बैर का रूप धारण करता माध्यम बातचीत को अर्थ (कैश) में भुनाते हैं तथा जितनी अधिक है, पद प्राप्ति के लिये चुनाव होते हैं, 'अहिंसा परमोधर्मः' के स्वर बात उतने अधिक दाम, जितनी कम बातें उतने कम दाम की 'हिंसा परमोधर्मः' में बदल जाते हैं और हम 'सब चलता है' कहकर मानसिकता को पुष्ट कर संवादहीनता की स्थिति निर्मित करते हैं। पल्ला झाड़ लेते हैं। इन कारणों की भयावहता से युवावर्ग एवं सरल फलतः प्रत्यक्ष साक्षात्कार का अभाव एवं संवादहीनता के परिणाम परिणामी श्रावक जैनमंदिरों से विमुख होने लगे हैं। परिणामतः मन्दिरों स्वरूप सामाजिक समन्वय का अभाव बढ़ा है। -दिसम्बर 2001 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524258
Book TitleJinabhashita 2001 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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