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स्वास्तिक
बनें अर्हम्
ॐ अर्हम्, सुगुरु शरणं, विघ्न-हरणं, मिटे मरणं,
सहज हो मन, जगे चेतन, करें दर्शन, स्वयं के हम ।
बनें अर्हम्, बनें अर्हम्, बनें अर्हम्, बनें अर्हम् ॥
女
आँचलस
अलका सांखला
नन्द्याक
HAN P
वर्धमानक भद्रासन
दर्पण
कलश
मीन मुगल
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अर्पण
प्रकाशक एवं संपर्क सूत्र दीपचन्द सांखला 401, ऑर्नेट पैलेस, आम्रकुंज के पास, घोड़दौड़ रोड, सूरत-395001 (गुजरात) फोन : 0261-2650859 मो. : 9601259474 कॉपीराइट (C) अलका सांखला- मेहता मो.94274 91613
पू. मातुश्री स्व. सुवादेवी सांरवला
प्रथम संस्करण : मार्च 2010 प्रतियां : 1,000 मूल्य : 75/- (US $6) टाइप सेटिंग : बुरहानी ग्राफिक्स, सूरत मो. 9825918190
सुख-दुःख में सम रहे आप
वाद विवादों से सदा दूर रहे आप
मुखपृष्ठ संकल्पना - अलका सांखला डिजाइन - मुर्तजा खंभातवाला
दते रहे स्नेह सबको आप वीतराग पर संपूर्ण श्रद्धा से जीये आप मासा संथारे से जीवन सफल हुआ आपका कोख से पैदा दो बेटियों को दीक्षित किया आपने
मुद्रक : श्री शुभम् एन्टरप्राइज, नवसारी मो. 9909108694
बनें अर्हम' करके, परिवार सदैव ऋणी आपका...
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मैंने शुद्ध सामायिक करते हुए
देखा है
हमारे दोनों परिवार पर माँसा का सदैव आशीर्वाद रहा। बेटी कंचनदेवी (बाँए) तथा बहू अलका सांखला (दाँए) को संथारे के समय आशीर्वाद देते माँसा सुबादेवी।
गया था। कब खाना, और कितना खाना निश्चित था। समय-समय पर त्याग करते रहना उनका स्वभाव ही बन गया था।
शांत और सरल जीवन उनकी प्रकृति बन गई थी। हालांकि हम समय-समय पर उनका ध्यान रखते थे, फिर भी वह किसी से कुछ मांगते नहीं थे। उन्हें किसी से कुछ अपेक्षा रखना अच्छा नहीं लगता था। व्यवहार में भी पूर्ण समता थी। किसी को एक भी ऊँचा नीचा शब्द कहना मानो उनकी जीवन की पोथी में था ही नहीं। मैं जब भी पूछती “आपके लिए क्या बनाना है, आपको क्या अच्छा लगता है तो एक ही वाक्य कहते - "जो अच्छा लगे वो बनाओ, मुझे हर चीज अच्छी लगती है।'' "क्या करें ? कैसे करें ?" पूछने से एक ही उत्तर मिलता – “जो अच्छा लगे वो करो'' उनकी भाषा में "जच जियां करो।" "मने कोई ठा न ठिकाणो।" क्या सरलता और मृदुता थी उनके जीवन में। धार्मिक संस्कार तो उनके रग-रग में बसे हुए थे। किस चीज से कर्म बंधता है और किससे कर्मों का बन्धन हल्का होता है ? समझाते रहते थे।
मेरा पिहर (मायका) महाराष्ट्र में है। मेरा भोजन बनाने का तरीका और राजस्थानी भोजन बनाने के तरीकों में काफी अंतर है।सब कहते थे, 'इनका भोजन अलग है, परंतु मेरे सासुजी कहते थे, अच्छा भोजन है क्योंकि मैं न तो महाराष्ट्रियन पद्धति का भोजन बनाती और न ही राजस्थानी। मेरा सात्विक और योगिक भोजन था इसलिए उन्हें अच्छा लगता था। किसी की सेवा लेना उन्हें अच्छा नहीं लगता था। यहाँ तक कि कभी पैर दबाने को कहते तो भी वो मना कर देते थे। ऐसे समतामय व्यक्तित्व को पूर्ण तन्मयता, एकाग्रता और मनोभाव से सामायिक करते देखती तो मन में आता-शुद्ध सामायिकतो इसे कहते है।
सबसे महत्त्वपूर्ण रहा उनका "संथारा" यानी आजीवन अन्नजल का त्याग। उनका अन्तिम ध्येय था-संथारा। जिसकी भावना वो हमेशा भाते रहते थे। उनकी सासूजी का संथारा, उनकी माँ और नानीसा का संथारा न जाने क्या छाप छोड़ गए थे उन पर।हमेशा एक ही रट रहती थी “क्या मेरा भी एक दिन ऐसा आयेगा?'' हमें हमेशा यही शिक्षा देते थे - "मुझे संथारे बिना मत जाने देना" "मुझे मेरा जीवन सफल करना है।"
जब भी साध्वी श्री कनकश्रीजी (संसार पक्षीय पुत्री) की सेवा दर्शन करने जाते तो अक्सर पूछा करते थे - मुझे संथारा कब आयेगा? साध्वीश्री हमेशा फरमाते कि जब आपकी इच्छा होगी तभी आ जायेगा। जितना उनका जीवन सरल, अध्यात्ममय और
शादी के बाद ही मेरा तेरापंथ धर्म संघ में प्रवेश हुआ। बचपन से लेकर आज तक मैंने सामायिक करने वालों को देखा है। कई ऐसे भी व्यक्तियों को देखा है, जिनकी न तो सामायिक शुद्ध होती है और न ही जीवन में समता दिखाई देती है। ससुराल में मैंने अपनी सासूजी जिन्हें हम 'माँसा' कहते थे, उन्हें सामायिक करते देखा। जिसमें शुद्धता तो थी ही साथ ही साथ उनके व्यवहार में सरलता, सहजता और ऋजुता का भी दर्शन होता था।
क्या समतामय जीवन था उनका! उनकी आयु की (लगभग ८० वर्ष) कई महिलाओं को मैंने देखा, जिनके जीवन और व्यवहार में धार्मिकता बहुत ही कम दिखाई देती थी। माँसा के जीवन से मैंने बहुत कुछ पाया और उनकी वात्सल्यमयी प्रेरणा से मैंने आध्यात्मिक जीवन जीना शुरु किया।
उनकी जीवन चर्या बहुत ही व्यवस्थित और समतामय थी। जल्दी उठकर सामायिक करना, दिन भर थोकड़े चितारना और समतामय जीवन जीना जैसे उनका लक्ष्य बन
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संधारे के १२ वें दिन, बैकुंटी (पालखी, पास बेटे मातुश्री सुवादेवी
समतामय था, उनका संथारा उससे ही बढ़कर, सहज और चढ़ते परिणामों का था। जिसकी किसी ने कल्पना तक न की थी। मोह-ममता का त्याग कर अपने जन परिजन से क्षमा याचना कर हँसते-हँसते संथारे को स्वीकार किया। वो दमा से ग्रस्त रहते थे, उन्हें समय पर चाय लेने से ही आराम मिलता था। उनका बेटा (दीपचन्द) कभी कभी विनोद में कहता था कि 'आपको चाय के बिना तकलीफ रहती है, चाय के बिना आप नहीं रह सकते इसलिए संथारे की कल्पना अभी आपको नहीं करनी चाहिए। संथारे की भावना प्रबल हो तो पहले आपको चाय छोड़नी पड़ेगी, जो आपके लिए काफी कठिन होगी।"
सचमुच ही भावना प्रबल हो गई और एक उपवास पचक लिया। उस दिन उनका बेटा (दीपचन्दजी, मेरे पति) भी नवसारी शहर में नहीं था। उपवास की सूचना मिलते ही वे वापिस आ गए। दूसरे दिन पारणे की तैयारी की, तो सासुजी बोले - "मेरी बेला करने की भावना है और वो भी इतनी सहजता से।" तीसरे दिन कहने लगे मेरी संथारा करने की भावना प्रबल हो गई है और मैंने संथारे का संकल्प कर लिया है। बेटे ने समझाया और कहा कि, पहले आपकी डाक्टरी जाँच करवा लेते हैं, उसके बाद आगे बढ़ेंगे। उन्होंने तुरंत कहा – “मैं स्वस्थ हूँ।डाक्टर के कुछ भी कहने से मैं अपना निर्णय नहीं बदलूँगी।हाँ ! तुम चाहो तो पू. गुरुदेव एवं साध्वी श्री कनकश्रीजी को उनके आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु संवाद भेज सकते हो, लेकिन मैं संकल्पबद्ध हूँ, मेरा मनोबल दृढ़ है और मैंने तो मन ही मन पचक लिया है।"
साध्वीश्री कनकश्री के पास संवाद लेकर गए जो मुम्बई में बिराज रहे थे। उन्होंने प्रेरणा पाथेय देते हुए कहा, "यदि उनकी प्रबल इच्छा है तो, तुम परिजनों को तो उनके भावों को और प्रबल बनाना चाहिए, बजाय कि मोह-ममता में फंसकर अपने आप को कमजोर बनाओ।' गुरुदेव का मार्गदर्शन पाने के बाद उन्हें विधिवत् संथारा समाज के वरिष्ठ श्रावकों की उपस्थिति में पचकाया गया।
चेहरा शान्त, मन प्रसन्न, मोह-माया से विरक्त देखकर मैं तो अवाक् थी। जीवन में ऐसी पहली घटना देखी, जो मेरी स्मृतिपटल पर अब भी चित्रित है। माँसा के समतामय जीवन, श्रद्धानिष्ठ एवं गुरु के प्रति समर्पित भावना को शब्द बद्ध करना आसान नहीं है।
एक उदाहरण बताना चाहूँगी। संथारे के १२ वें दिन, अपनी तैयार की गई बैकुंठी के
बारे में उन्होंने पूछा। बाद में उसके पास बैठकर नमस्कार महामंत्र का जाप किया। गुरुदेव के प्रति अपनी समर्पण की अभिव्यक्ति सहजता और शालीनता से प्रकट की। उनका संथारे का प्रत्येक दिन चढ़ते भावों का था। ___ मैं अपने आप को भाग्यशालिनी मानने लगी, ऐसे परिवार में आकर, ऐसे धर्म संघ का मार्गदर्शन पाकर। उनका संथारा देखकर महसूस होने लगा, "जीवन जीने की कला है तो मृत्यु एक महाकला है, जिसे सिर्फ भाग्यवान ही प्राप्त कर सकते है।'' हँसते हँसते अपने नश्वर शरीर और परिजनो का परित्याग कर आत्मकल्याण के लिए गतिमान हो गए। ___ मैं ऐसी महान आत्मा को पुस्तक समर्पित करती हूँ। उस गरिमामयी आत्मा के लिए कामना करती हूँ कि उनकी आत्मा गति प्रगति करते हुए मोक्ष प्राप्त करे। उनका पूरा परिवार अपने आप को गौरवान्वित अनुभव करता है। संपूर्ण परिवार उनका सदा ऋणी रहेगा।
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संथारे के समय आए हुए संदेश'
अर्हम्
अनशन मौत को आमन्त्रण है। सामान्यतः लोग मौत के नाम से घबराते हैं। नवसारी गुजरात में दीपचंद की माँ व साध्वी कनकश्री, जो अभी मुम्बई में स्वास्थ्य लाभ एवं संघीय कार्य कर रही है, की संसार पक्षीय माँ ने आजीवन संथारे का संकल्प किया है। संथारा अभय की साधना है। संथारा अनाशक्त जीवन का उदाहरण है। संथारा आत्मबल का प्रकटीकरण है। शर्त एक ही है कि भावना उत्तरोत्तर बढ़ती रहे, परिणाम चढ़ते रहे और मोह ममता क्षीण होती रहे। आध्यात्मिक भजन, जप, चौबीसी, आराधना, तेरापंथ प्रबोध आदि का श्रवण करें और समाधि-मृत्यु के अभियान को सफल बनाएं। भाई दीपचंद के लिए मातृऋण से उऋण होने का अवसर है। हिम्मत के साथ माताजी की साहसिक यात्रा में सहयोग करना है।
जैन विश्व भारती,
गणाधिपति तुलसी
दिनांक 8-2-1996
अर्हम्
नवसारी से संवाद मिला कि भाई दीपचंद की माताजी सुवटी देवी ने संथारा स्वीकार किया है। यह उनकी आध्यात्मिक सूझबूझ और मजबूत मानसिकता का परिचायक है। जैन धर्म में जीने की तरह मरने की भी कला प्रतिपादित है। इस कला का महत्त्व वे ही समझते हैं जो आत्मानन्द पाना चाहते हैं। श्राविका सुवटी देवी धार्मिक और तत्व को समझने वाली है। उनकी आत्म
चेतना सतत ऊर्द्धवमुखी बनती जाए यही मंगल कामना ।
लाडनूं (ऋषभ द्वार) fatas 9-2-1996
महाश्रमणी कनकप्रभा
शरीर पर आत्मा का विजय
दीपचन्द की पू. माताजी ने सोलह दिन का संधारा यानी आजीवन अनशनव्रत सानंद सम्पन्न कर समाधि मरण प्राप्त किया। जैसी कि उनकी भावना थी, अंतिम समय में पूर्ण सचेत अवस्था में उन्होंने चौविहार संथारा भी स्वीकार किया। समाधि मरण, यह जीवन साधना की शिखर यात्रा है। उन्होंने हँसते-हँसते इस शिखर पर आरोहण किया। स्वयं धन्य बन गई। परिवार पर गौरवमय स्वर्ण कलश चढ़ा दिया। सुना है, उनके इस अनशन से नवसारी में जैन धर्म और तेरापंथ की जबरदस्त प्रभावना हुई है। ८२ वर्ष की उम्र जरा-जर्जरित और व्याधिग्रस्त शरीर । तन की क्षीण शक्ति पर मन की शक्ति प्रबल विस्मयकारी समता और कष्ट सहिष्णुता यह सब गुरुकृपा और आंतरिक शक्तियों के जागरण से ही संभव है। पुण्यात्माएं ही इस प्रकार का आध्यात्मिक पराक्रम कर सकती हैं।
लगता है उनकी आंतरिक शक्तियां प्रखरता से जागृत हो चुकी थी। इसलिए देह में रहते हुए भी देहासक्ति से ऊपर उठकर वे विदेह की साधना में लीन हो गई। उन्हें श्रद्धा, सत्कर्म, त्याग- ग-वैराग और तत्वबोध की अलौकिक ज्योति प्राप्त थी। उसी के सहारे उन्होंने अपने कल्याण का रास्ता प्रशस्त कर लिया। शरीर पर आत्मा विजय की पताका फहरा दी। केन्द्र से प्राप्ति अमृत संदेशों से उन्होंने अध्यात्म ऊर्जा प्राप्त की। परिवारजनों की सेवा और सहयोग उनकी चित्त समाधि में निमित्त बने नवसारी और सूरत का धर्मानुरागी समाज उनकी इस अध्यात्म यात्रा की सफलता में बराबर सहभागी बना रहा । बम्बई के श्रावक-श्राविकाएं भी जुड़ी रहीं, यह साधर्मिक बंधुता और संघीय चेतना का प्रतीक है।
संथारे पूर्वक समाधि मरण प्राप्त करना, मृत्यु नहीं महोत्सव है। माटी की काया पर वज्र-संकल्प का दस्तावेज है। इसलिए उनके पीछे शोक संताप का तो सवाल ही नहीं है, बल्कि संस्कार- शंचिता का आदर्श प्रस्तुत करना है। यथाशीघ्र परम पूज्य गुरुदेव तथा आचार्य प्रवर के दर्शन कर, . केन्द्र से नई शक्ति, नयी प्रेरणा प्राप्त करें।
दिवंगत आत्मा के चैतन्य-विकास की मंगल कामनाएं
अणुव्रत सभागार, मुंबई
दि. 21 फरवरी 1996
साध्वी कनक श्री
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माँसा के बारे में... मैं भाग्यवान हूँ जो ऐसी पुण्यात्मा की बेटी बनने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। हमारे धर्मनिष्ठ और श्रद्धानिष्ठ परिवार में हमारी माताजी तो एक अत्यंत श्रमशील, गृहकुशल और कलाप्रेमी थी।
उनके बारे में शब्दों में कुछ लिखना मेरे लिए बहुत मुश्किल है।माताजी की साधू साध्वियों की सेवा, दान देने की उदार भावना मुझे हमेशा याद आती है। सबको स्नेह देने तथा सबको जोड़कर रखने की कला उनमें अटूट थी। ___ माताजी सदैव स्वाध्याय करती थी। उन्हें कितने थोकडे, प्रतिक्रमण, झीनी चर्चा, तेराद्वार और बहुत कुछ कण्ठस्थ था। सहज, शांत स्वभाव और जीवन में सहजता थी। उनमें वैराग्य की भावना हमने हमेशा देखी थी। हमारे परिवार की आर्थिक परिस्थिति साधारण थी। उन्होंने कलात्मक, संस्कारक्षम और संयममय जीवन जिया और हमारे पर भी ऐसे संस्कार स्थापित किए।
शारीरिक कमजोरी के बावजूद भी उनका मनोबल बहुत दृढ़ था, तपस्या भी करती थी। त्याग, पचखाण तो हमेशा करती रहती थी। सामायिक बिना कभी मंजन भी नहीं करती थी और सचित का त्याग रखती थी।
उनके संस्कार, वैराग्य और त्याग की भावना के फलस्वरूप ही उन्होंने दो बेटियों को धर्मसंघ में दीक्षित किया। मेरे और दीपचंद (मेरा भाई) पर अच्छे धार्मिक संस्कार स्थापित किए। उनका जीवन ही हमारे लिए संदेश था। उनके संथारा ने तो मन पर ऐसी छाप छोड़ी जो कभी भूली नहीं जाएगी।
मेरी भाभीजी सामायिक पर पुस्तक लिख रही है और यही कारण है कि माताजी की यादें उजागर हो रही है। हम सब सामायिक की पुस्तक के लिए शुभकामनाएं प्रेषित करते हैं।
शुभकामनाएं अध्यात्म का प्रथम सोपान है 'सामायिक' । जैन दर्शन में आत्मा को केंद्र में रखकर उसकी निर्मलता को प्रमुखता दी गई। आगमों में कहा भी गया है 'आत्मशुद्धि का साधन धर्म है। आत्मशुद्धि के लिये किये गये उपायों में सर्वश्रेष्ठ है 'सामायिक' । 'सामायिक' आत्मा का पर्यायवाची है। आगमों में सामायिक को संवर, संयम, भाव, जीव आदि कई नामों से उपमित किया है।
श्रीमती अलकाजी सांखला आध्यात्म प्रिय एवं प्रबुद्ध महिला हैं। गुरुदेव तुलसी के प्रति आपकी अनन्य श्रद्धा एवं भक्ति तथा आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के प्रति आपका अनन्य समर्पण आपको एक विशिष्ट कार्यकर्ता की छबि दे रहा है। आप अणुव्रत जीवन विज्ञान एवं महिला मंडल के कार्यों से सघनता से जुड़ी है। विदेश में बसे सधार्मिक बन्धुओं से आपका विशेष संपर्क रहता है तथा कई बार आपका उनसे मिलना होता है। उनकी धार्मिक वृत्ति को देखते हुए आपने सामायिक की गहन जानकारी के साथ अभिनव सामायिक का जो संकलन किया है वह प्रशंसनीय है। आपने इस पुस्तक में गहरी आगमिक जानकारी पाठकों को देने का प्रयास किया है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी एवं युवाचार्यश्री महाश्रमणजी के सामायिक से संबंधित सुंदर-सुंदर उवाच भी आपने इसमें संकलित किये हैं, आप साधूवाद के पात्र हैं। __ मैं अखिल भारतीय तेरापंथ महिला मंडल की तरफ से यह शुभकामना करती हूँ कि आपकी यह पुस्तक सामायिक प्रेमियों के लिये बहुत उपयोगी साबित होगी। कम अध्ययन में बहुत सारी जानकारी इस पुस्तक से प्राप्त कर सकेंगे। आपकी यह पुस्तक सभी के लिये आत्मशुद्धि का साधन बने। उनकी चेतना को परिष्कृत करती रहे तथा आपका भी आध्यात्मिक विकास बढ़ता रहे। अंत में आपकी यह पुस्तक गुरुदेव तुलसी के भावों का मूर्तरुप साकार हो
"धर्म है समता विषमता पाप का आधार है जैन शासन के निरुपण का यही बस सार है।"
शुभकामना के साथ
नवसारी। दि. 19-03-2010
- कंचन देवी बैद
सूरत दि. 19-03-2010
- कनक बरमेचा अखिल भारतीय महिला मंडल अध्यक्ष
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पुस्तक लिखने की प्रेरणा
युवाचार्य श्री महाश्रमणजी के सानिध्य में उपासक श्रेणी में अध्ययन कर मुझे उपासक बनने का मौका मिला, यह मेरा परम सौभाग्य है। संयोगवश मुझे अमेरिका के सिनसिनाटी शहर के जैन सेंटर में मुझे पर्युषण करवाने का अवसर मिला। अनेक भाईबहनों ने मुझे सामायिक के बारे में पूछा। उनके पास कई प्रेरणा स्त्रोत साहित्य तो है लेकिन ४८मिनट के कालान्तर दरम्यान में क्या-क्या करना चाहिए? इसकी कुछ विशेष जानकारी नहीं थी। उस समय से मुझे ऐसा अहसास होने लगा कि मुझे जैनधर्म का गहराई से अध्ययन करना चाहिए।
"जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय" एक अनुपम उपहार है। गुरुदेव श्री तुलसी एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञजी की दूरदृष्टि का फल है, जो हमारे जैसे अध्ययन करने वालों के लिए एक वरदान है। जीवन विज्ञान और प्रेक्षाध्यान में एम.ए, करने के बाद मैने फिर जैन विद्या में एम.ए. किया।जैन धर्म का धीरे-धीरे और व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त होने लगा। तभी मैंने निश्चित किया कि “सामायिक पर अभ्यास करूंगी।"
आचार्य श्री महाप्रज्ञजी द्वारा लिखित एक-एक पुस्तक ज्ञान का भंडार है। एक-एक शब्द ज्ञान से ओतप्रोत है। “आध्यात्म का प्रथम सोपान - सामायिक' पुस्तक में सामायिक के विषय में बहुत ही सहज भाषा में जानकारी दी गई है। गुरुदेव श्री तुलसी द्वारा अभिनव सामायिक एक प्रायोगिक रुप है। रोज सामायिक के अनेक प्रयोग करने के बाद मुझे सामायिक और प्रिय लगने लगी।
मैंने ४८ मिनट की सामायिक काल का एक सम्पूर्ण कार्यक्रम बनाया। अमेरिका में रहने वाले सामायिक साधकों की रुचि को मद्देनजर रखते हुए और उन्हें प्रेक्षाध्यान की
जानकारी देने के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, इस ४८ मिनट के कालान्तर का एक व्यवस्थित कार्यक्रम प्रस्तुत करने की मेरी इच्छा हुई। यह मेरा स्वयं का अभ्यास और प्रयोग है।सामायिक की विस्तृत जानकारी के लिए मैंने अनेक पुस्तकें पढ़ी।
हाल ही में प्रकाशित 'युवादृष्टि का 'सामायिक - समता की साधना' अंक, जिसमें आचार्यप्रवर, युवाचार्यश्री, साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभाजी, साधू-साध्वियों और समणियों एवं अनेक श्रावकों के लेख हैं, उनको मैंने पढ़ा। काफी लम्बे अभ्यास के बाद मैंने "बनें अहम्' के माध्यम से आपके सामने एक संकलन प्रस्तुत करने की कोशिश की है। कुछ सामग्री मैंने जिन पुस्तकों से ली है उनके नाम इस प्रकार है - एसो पंच णम्मोकारो - आचार्यश्री महाप्रज्ञजी, ज्ञानकिरण, नमस्कार महामंत्र साधना के आलोक में - साध्वी राजीमतीजी, नमस्कार महामंत्र की प्रभावक कथाएं - मुनि किशनलालजी, णमोकार महामंत्र - स्व. श्री गणेशमलजी दुगड़, अमृत कलश और ऐसी अनेक साधू-साध्वियों की विविध पुस्तकें पढ़ी। जैसे "बनें अर्हम्” पुस्तक के नीचे जो भी श्लोक लिखे हैं सभी युवाचार्यश्री महाश्रमणजी की “शिक्षा सुधा" पुस्तक से लिए हैं। बहुत ही सुंदर, अर्थपूर्ण और ज्ञान से ओतप्रोत श्लोक आप पढ़ेंगे तो, संस्कृत में इतनी सरलता से इतना ज्ञान प्राप्त कर निश्चित ही नतमस्तक हो जाएंगे। ___ मैं जब जैन धर्म में एम.ए. कर रही थी, तभी मैंने बहुत नोट्स निकाले थे, मैं हमेशा लेक्चर देने जाती हूँ, तब भी मैं नोट्स निकालती हूँ। उस समय मैंने पुस्तक के नाम, लेखक और पुस्तक के पृष्ठ लिखे नहीं। पुस्तक लिखते समय मुझे यह बात सीखने को मिली कि, जब भी मैं नोट्स लिलूँगी तो लेखक, पुस्तक का नाम, पृष्ठ संख्या, पढ़ने की दिनांक सब कुछ जरूर लिखूगी। इसी कारण इस पुस्तक में ज्ञात-अज्ञात जिनकी भी पुस्तकों से मैंने संकलन किया है उन सभी की तहे दिल से क्षमा माँगती हूँ और धन्यवाद देती हूँ।
इस पुस्तक लिखने की प्रेरणा से पुस्तक तैयार होने तक अनेक व्यक्तियों ने मार्गदर्शन और मदद की। अखिल भारतीय तेरापंथ महिला मंडल अध्यक्षा कनक बरमेचा, सदस्या पूनम और मधु हमेशा साथ देते हैं। शांताजी पुगलिया जब से मिली, तभी से आज तक हमेशा प्रेरणा देती है। बचूबेन झवेरी, भारतीबेन सभी ने पुस्तक लिखने के लिए मुझे प्रोत्साहित किया।
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सामायिक की गहराई में
उतरना चाहिए
पुस्तक में कलात्मक चित्र अच्छे लगते हैं। अहमदनगर का आनंदधाम मन में बसा हुआ है। उसका फोटो चाहिए था। अहमदनगर के मित्र भूषण देशमुख को फोन करते ही उन्होंने 'नगर दर्शन' से उस चित्र को लेने के लिए सहर्ष सम्मति दे दी। विलास गीते हो या सुधीर मेहता, हर काम के लिए तत्पर रहते है। कोलकाता में मनोज हो या अंजू हमेशा मदद के लिए तत्पर रहते हैं। इन सबको धन्यवाद।
मेरी हिन्दी शुद्ध नहीं है। पुस्तक लिखने की जितनी मेहनत होती है उससे अधिक काम मेरे पति दीपचंदजी को करना पड़ता है। मेरे संसारपक्षीय ननद साध्वी कनकश्रीजी प्रबुद्ध
और गजब की लेखिका है। हमेशा मुझे मार्गदर्शन करते हैं। ऐसे न जाने कितने व्यक्ति हैं, जिनके नामों का उल्लेख करना मुश्किल है, सबको मैं तहेदिल से धन्यवाद देती हूँ।
सूरत में सबसे कठिन कार्य हिन्दी टाइपिंग और पुस्तक सेटिंग होता है। मुझे सौभाग्यवश मुर्तजा खंभातवाला जैसा कम्प्यूटर में प्रवीण और माहिर व्यक्ति मिला, प्रूफ रीडिंग का कठिन कार्य श्री सुरेशजी पाण्डेय ने बहुत ही कम समय में बहुत ही अच्छा कर दिया। केतनभाई प्रिन्टर जो हमारे फेमिली फ्रेन्ड है उन्होंने नवसारी से आकर पुस्तक के प्रिन्टिंग और बाइन्डिंग तक का पूरा कार्य आसानी से और समय पर पूरा करके दिया।
ममतामयी साध्वी प्रमुखाश्रीजी, साध्वी कनकश्रीजी की हमेशा मुझ पर कृपादृष्टि रही है।सभी साधू-साध्वियां हमेशा मार्गदर्शन देते रहे है। स्थानकवासी सभी साधु-साध्वियों का स्नेह ही मुझे गति-प्रगति के लिए प्रेरणा देता रहा है। सबको मैं धन्यवाद देती हूँ। ___ मैंने जो भी ज्ञान पाया है उसका अधिकांश भाग परमपूज्य आचार्य श्री महाप्रज्ञजी की पुस्तकों के माध्यम से पाया है। जिन्हे मैं बार-बार पढ़ती रहती हूँ। सब कुछ गुरु द्वारा पाया है और गुरु को ही समर्पित है। मैं भाग्यवान हूँ-मिले ऐसे गुरु महान – अथांग है जिनका ज्ञान।
मैंने शादी होने तक कभी सामायिक नहीं की थी। इसका कारण यही था, सही अर्थ बताने वाला कोई मिला नहीं था। मैं कभी भी, क्रिया कांड पर विश्वास नहीं करती और केवल करने के लिए कुछ भी नहीं कर सकती। तेरापंथ में आने के बाद जैसे-जैसे सही गुरु, सही ज्ञान और वैज्ञानिक पद्धति से आध्यात्म को जानने की दृष्टि मिली, सच कहती हूँ मैं गद्गदू हो जाती थी। कभी मन से टीस उठती, यह सब पहले क्यों नहीं मिला?
जैसे सामायिक शुरु की, पहले पहले केवल पुस्तकें पढ़ती थी। गुरुदेव तुलसी की अभिनव सामयिक के प्रयोग करने लगी और धीरे-धीरे सामायिक क्या है? यह समझ में आने लगा। आचार्यश्री के एक-एक शब्द के पीछे क्या रहस्य छिपा है ? इसका सही अर्थ क्या है ? यह जानने का प्रयत्न करती थी। कभी असमंजस में पड़ जाती, कभी उलझ जाती परंतु विश्वास था गुरुवर का एक-एक शब्द अनमोल है। ज्ञान का खजाना है, इसे समझना है।
इस प्रकार हमें शुद्ध सामायिक करनी है तो पहले हमें जैन धर्म को जानकर, सामायिक को समझकर प्रयोग करना चाहिए। इसमें नमस्कार मंत्र का जाप करते हैं, उसे भी समझकर, श्रद्धा से विधिवत् जाप करेंगे तो अधिक लाभ होगा। प्रेक्षाध्यानप्राणायाम के प्रयोग करने से सामायिक का बहुत लाभ मिलता है तथा सामायिक के उद्देश्य सफल होने में सहजता होती है। तत्वज्ञान का भी जैनधर्म में बहुत महत्त्व है।
आचार्य श्री महाप्रज्ञजी की पुस्तकें पढ़ने से एक-एक शब्द से अपार ज्ञान प्राप्त होता है। मैंने जो कुछ सामाविक की इस पुस्तक में लिखा है, संपूर्ण गुरुदेव की पुस्तकों में से संकलित है। उनके एक-एक वाक्य का इतना गहरा अर्थ है, जैसे आचार्य श्री सामायिक के बारे में कहते हैं- “सामायिक स्वयं ध्यान है।" "अध्यात्म का प्रथम सोपान - सामायिक महाप्रज्ञजी का पहला ही वाक्य है - "सामायिक की निष्पत्ति है ध्यान और
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ध्यान की निष्पत्ति है सामायिक ।" यह मेरे समझ में नहीं आया था। सोचती थी सामायिक स्वयं ध्यान कैसे हो सकता है ? सामायिक में अनेक प्रयोगों के साथ प्रेक्षाध्यान का प्रयोग भी करती थी। इनका समन्वय इतना गहरा कैसा है ? यह चिंतन करती थी ।
जब मैंने प्रेक्षाध्यान, जीवनविज्ञान और योग में एम.ए. किया और एम. ए. के विद्यार्थियों को ध्यान पढ़ाती हूँ और प्रेक्षाध्यान करवाती हूँ तब समझ में आया कि ध्यान की प्रक्रिया और उद्देश्य वही है जो सामायिक के, अर्थात सामायिक में 'चित्तशुद्धि' करनी है । वह तो 'ध्यान' से होगी। 'ऊर्जा का उर्द्धवगमन' करना है वह तो 'अंतर्यात्रा' से करना होगा। प्रेक्षाध्यान का प्रथम सोपान 'कायोत्सर्ग सामायिक में उसका महत्त्व है। सामायिक में स्वयं को जानना है, अपने आपको पहचानना है और प्रेक्षाध्यान की शुरुआत उसी से करते हैं।
आत्मा के द्वारा आत्मा को देखना, स्वयं ही स्वयं को देखना, अपने आप को देखना ही ध्यान है। ध्यान करते-करते जब हम चिंतन करते हैं तो यही भावना भाते हैं "स्वयं का सत्य स्वयं खोजें, सब के साथ मैत्री का भाव रखें।" कितना सही फरमाते हैं आचार्यश्री "ध्यान और सामायिक के बीच भेद रेखा खींचना बहुत कठिन है।' 'सत्य की खोज' सामायिक और ध्यान दोनों की आत्मा है।
बातें छोटी भी हो परंतु उसे समझकर करनी चाहिए। जैसे- 'नमो-नमो' दो शब्द है। इसमें क्या अन्तर है ? प्राकृत में 'न' का 'ण' विकल्प है। दोनों के रूप मिलते हैं। शास्त्रीय दृष्टि से दोनों के उच्चारण की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया होती है। 'ण' मुर्धन्य वर्ण है, उसके उच्चारण से जो घर्षण होता है वह मस्तिष्कीय प्राणविद्युत का संचार होता है। वह 'न' उच्चारण से नहीं होता।
इस प्रकार मुझे पता चला सचमुच ध्यान के बिना सामायिक अर्थात् शरीर बिना आत्मा । 'न' और 'ण' में क्या अंतर है। इसलिए गुरुदेव तुलसी ने जो अभिनव सामायिक के प्रयोग प्रस्तुत किये हैं, वे सामायिक के अध्यात्मिक तत्वों को उजागर करते हैं। सामायिक पर जो साहित्य है, उसे पढ़कर और प्रयोग करके हम सामायिक की गहराई में उतरने का प्रयत्न कर सकते हैं। पढ़ेगा वही आगे बढ़ेगा। इसलिए घर बैठे पत्र द्वारा जैन विद्या में बी. ए., एम.ए. का अध्ययन करें। ऋते ज्ञानात् न मुक्तिः ज्ञान के बिना दुःखमुक्ति नहीं नाणं पयासयरं ज्ञान ही प्रकाश देता है।
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जैन धर्म
'जैन धर्म में विश्व धर्म बनने की क्षमता है।' काका कालेलकर ने कितनी सत्य बात कहीं थी। जैन धर्म में जन धर्म बनने की क्षमता है। सबसे महत्त्वपूर्ण जैन धर्म जाति, रंग के आधार पर मनुष्य को विभक्त नहीं करता. यह मानवतावादी धर्म है। 'एक्का मणुस्स जाई' मनुष्य जाति एक है, इस सिद्धांत में जैन धर्म का विश्वास है। जैन धर्म ने सार्वभौम सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है। अनेकान्तवादी यह धर्म समन्वयवादी है। विश्वमैत्री और विश्वशांति के लिए अहिंसा और अपरिग्रह जैसे सिद्धान्त का विकास किया। इसमें स्वस्थ परिवार, समाज के निर्माण की क्षमता है। यह धर्म व्यापक, उदार और वैज्ञानिक दर्शन देने वाला है। सापेक्षता, समन्वय, सअस्तित्व के मौलिक सिद्धान्तों के कारण एक साथ सभी बातें जैन धर्म में मिलती हैं। अनेकान्त तो जैन दर्शन की मौलिक देन है। 'पुरुषार्थ प्रधान है जैन धर्म।' खानपान शुद्धि के साथ व्यसन मुक्त जीवन और इसके लिए 'संयम' सबसे महत्त्वपूर्ण है। आचारांग सूत्र में स्थान-स्थान पर 'पुरिसा परक्कमेज्जा' यानि, 'पुरुष! पराक्रम कर' यह प्रेरणा दी गई है।
दर्शन के अनेक पक्ष होते हैं, जैसे तत्त्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा, प्रमाण मीमांसा, आचार मीमांसा आदि। जैन चिंतन में आचार का स्थान सर्वोपरि है। आचार में दर्शन की सार्थकता है। ज्ञान का सार आचार है। दर्शन की निष्पत्ति आचार है।
जैन अंगों में 'सूत्रकतांग' दूसरा अंग है। यह आचारशास्त्र का प्रतिपादित ग्रंथ है। उसके प्रारंभ के वाक्य को पढ़ा और मैं सोचने लगी, 'अरे यह तो वही है, जो मैं चाहती थी।' 'बुज्झेज' इसका अर्थ 'जानो' यदि जानेंगे नहीं तो आचार कैसे करोगे ? धर्म व्यवहार में तब आयेगा जब उसे जानेंगे, समझेंगे। पुण्य क्या और पाप क्या ? यही मालूम नहीं। हिंसा कब होती है और अहिंसा किसे कहते हैं ? यह गहराई से नहीं जानेंगे तो उसका पालन कैसे होगा ? दृष्टि बदलेगी, तभी सृष्टि बदलेगी। इसलिए 'बुज्झेज' 'जानो' ।
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यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण सूत्र है, इसे जीवन में उतारो।इसे समझने के लिए दश वैकल्पिक सूत्र (४-१०) में विस्तृत व्याख्या उपलब्ध हैं। इसका अध्ययन ही आचार शास्त्र है।
सूत्रकृतांग का दूसरा शब्द 'तिउद्देजा'। यानी 'तोड़ो' यह महत्त्वपूर्ण है। ज्ञान लो, जानो और फिर तोड़ो, वैसा आचरण करो। केवल जानना अपूर्ण है, इसलिए आचरण का समन्वय सूत्र बुज्झेज + तिउट्टेजा।जैन दर्शन ने सापेक्ष दृष्टिकोण का विकास किया है। भेद और अभेद जानने वाला दृष्टिकोण, अनेकांत सर्वग्राही दृष्टिकोण। जहां कोई आग्रह नहीं, विग्रह नहीं, इसलिए वास्तविकता का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ज्ञान होता है।
जिस व्यक्ति को केवल आत्मा का अनुभव हो चुका है, उस व्यक्ति द्वारा कथित जैन धर्म, परोक्ष ज्ञान के द्वारा कहा हुआ नहीं है। उस व्यक्ति द्वारा कहा गया है जिसने समग्र सत्य का साक्षात्कार किया है।
जैन धर्म में बहुत गहराई और सजगता से चितंन किया गया है। जैन आचार्यों का मानना था कि जो साधक मुनि बनने का मनोबल न रखता हो, वह गृहस्थ में रहते हुए ऐसे माध्यम मार्ग का अनुसरण करें, जिससे वह जिनेन्द्र देव द्वारा प्ररुपित श्रावक धर्म को अंगीकार करता है। सभी प्रकार की हिंसा छोड़ने पर पारिवारिक दायित्वों का निर्वद्ध नहीं हो सकता। इसलिए श्रावक के लिए अलग आचार संहिता और साधू के लिए अलग आचार संहिता दी है। जैन चिंतन में आचार मीमांसा इतनी व्यापक है कि उसमें जहां एक ओर व्यक्ति प्रधान मोक्ष धर्म समाहित होता है, वहीं दूसरी ओर समष्टि प्रधान समाज धर्म भी समाहित हो जाता है। जैन धर्म अखंड है। वह यदि व्यक्ति के लिए हितकर है तो समाज के लिए कल्याणकारी होगा ही।
जैन आचार मीमांसा की विशेषता यह है कि वह व्यवहारिक है। इसलिए उसमें क्रमिक विकास की बात बताई है। जैसे क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष आदि का परित्याग करें। इनको पूर्ण छोड़ना सभी के लिए संभव नहीं है। इसलिए श्रावक के लिए अणुव्रतों का मार्ग बताया गया है, जिसके द्वारा श्रावक स्थूल पापों से बच सकता है।
'जैन धर्म' आत्मशुद्धि एवं आध्यात्मिक विकास का धर्म है। जैन धर्म सदा व्यापक रहा है, वह सब के लिए खुला है। संक्षेप में कहा जाय तो जैन धर्म के वैशिष्टय है, विचार में अनेकान्त, व्यवहार में साहिष्णुता और आचार में अहिंसा, संयम और तप।
मंगल कामना 'अर्ह' अर्हत् का बीज मंत्र है। जिसकी सम्पूर्ण आंतरिक क्षमताएं जागृत हो जाती है और जिसमें दूसरों की अर्हता जगाने की सामर्थ्य हैं, वह होता है अर्हत्। अर्ह' अर्हतों का प्रतीक ह। आनंद केन्द्र पर 'अहं' का ध्यान करने से स्थायी आनंद का स्त्रोत प्रवाहित
होने लगता है। अहं' के ध्यान या जप से अस्तित्त्व का बोध एवं इष्ट का स्मरण होता है। सहज आनन्द का अनुभव होता है। मानसिक तनाव दूर होता है। मनोकायिक रोगों का शमन होता है। संकल्प विकल्प समाप्त होते हैं। प्रेक्षा पुरस्कर्ता आचार्यश्री महाप्रज्ञ कहते हैं - 'अर्ह' के वलय से ऐसा रक्षा कवच निर्मित होता है जो प्रयोक्ता को बाहरी दुष्प्रभावों से बचाता है।
जीवन विज्ञान प्रशिक्षिका श्रीमती अलका सांखला ने बनें अहम्' शीर्षक से एक लघु पुस्तिका लिख कर साधकों, उपासकों के लिए 'अहं' बनने की प्रक्रिया प्रस्तुत की है। यह लेखिका का स्तुत्य प्रयास है। अलका जी एक प्रबुद्ध महिला है। प्रखर वक्ता है, कवयित्री है, लेखिका है, योग प्रशिक्षिका है। वह अध्यात्म के रहस्यों को समझने की दिशा में सतत प्रयत्नशील रहती है। जो भी नये तथ्य उपलब्ध होते हैं, जिनको उदार हृदय से बांटने में भी वे अतिरिक्त आनंद और आत्मतोष का अनुभव करती है। __ प्रस्तुत पुस्तक में उन्होंने सामायिक साधना और मंत्राराधना को 'अहं' बनने का उत्तम उपाय बताया है और उसकी सहज, सरल, व्यवस्थित विधि भी प्रस्तुत की है। 'बनें अहम्' कृति को लेखिका ने अपनी माँ सा (सासू माँ) श्रीमती सुवा बाई सांखला को समर्पित की है, जिनके जीवन से अलका जी को जीवंत धर्म की झलक प्राप्त हुई, जो तत्त्वज्ञा श्राविका थी, देव, गुरू और धर्म के प्रति अनुराग जिनकी अस्थि मज्जा अनुरंजित थी, जिन्होंने अपने पुत्र-पुत्रियों को आध्यात्मिक संस्कारों के सांचे में ढाला, जिनके सात्विक विवेकपूरित व्यवहारों ने अलका जैसी पढ़ी-लिखी बहू को तेरापंथ धर्मसंघ के साथ जोड़ा। अंतिम समय में १७ दिन की संलेखना व अनशन की आराधना कर जिन्होंने जैन शासन की विशेष प्रभावना की उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का इससे उत्तम उपक्रम और क्या हो सकता है। प्रबुद्धचेता दीपचन्द सांखला का श्रम सहकार भी इस कृति में मुखर है। प्रस्तुत कृति देश-विदेश में रहने वाले धर्मानुरागी शिक्षित वर्ग के लिए भी उपयोगी बन सकेगी, ऐसा विश्वास है। २१ मार्च २०१०
साध्वी कनकश्री कोलकाता (उत्तर हावड़ा)
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अनुक्रम
म सामायिक ॥
मंत्र............
- सामायिक.
...१-१४ सामायिक, सामायिक उद्भव, अर्थ, अर्हता, सामायिक के ३२ दोष, सामायिक का फल
...१५-२० मंत्र, अर्थ, निष्पत्तियां,
मंत्र का प्रभाव और प्रयोग नमस्कार महामंत्र,
...२१-३२ नमस्कार मंत्र, स्वरूप, जाप कब करना, जाप प्रकार और विधियां,
नमस्कार महामंत्र की विशेषताएं - चतुर्विंशतिस्तव.
...३३-३४ - मंगलभावना.
.३५-३६ . प्रेक्षाध्यान
.३७-४२ कार्योत्सर्ग, अन्तर्यात्रा,
श्वाँसप्रेक्षा, ज्योतिकेन्द्र . वंदना - संवर. - अभिनव सामायिक... - आधुनिक सामायिक.... .......................५०-६१ .स्वाध्याय
.६२-६९ - धार्मिक परीक्षाबोर्ड अहमदनगर....................७०-७१ - तेरापंथ धर्मसंघ.....................................७२-७४
सामायिक जैनों की आध्यात्मिक क्रियाओं का एक अंग है। जिसकी आराधना आवश्यक माना जाता है। सामायिक की साधना बहुत पवित्र साधना है। भगवान महावीर को यदि पूछा जाए कि, जैन धर्म की साधना क्या है ? तो इसका एक शब्द में उत्तर होगा, सामायिक।सामायिक समता की साधना है। 'समया धम्म मुदाहरे मुणी' समता जीवन की सहज स्थिति है।
गुरुदेव तुलसी ने सहज भाषा में समझाया है- “सामायिक में व्यक्ति एक मुहूर्त के लिए साधू सा बन जाता है।सामायिक साधू बनने का प्रयास है।सामायिक का मतलब है एक मुहूर्त के लिए पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग और समता की साधना। सांसारिक परिग्रह आदि झंझटों से मुक्त रहना।
आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने सही फरमाया है, जो करते है, पता ही नहीं क्या कर रहे हैं, तो स्थिति उस तोते सी होगी, जो सीखा था और रोज कहता था - "अफीम खाना मना है" उसका अर्थ नहीं जानता था, इसलिए अफीम के डोडे पर चोंच मारता हुआ कहता ही रहता है – “अफीम खाना मना है। ऐसे तोते की रटन जैसी सामायिक नहीं होनी चाहिए।
युवाचार्य महाश्रमणजी कहते हैं – “सामायिक में श्रावक राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति से विरत रहने की साधना, समता की साधना करता है। 'समता' यानि अपने आप में रहने का अभ्यास, बाह्य विषयों से विरति और स्व में रहने का अभ्यास ही सामायिक है। सामायिक में साधना का प्रयोग करना, स्वाध्याय करना, आत्मनिरीक्षण, आत्मपरीक्षण करना।'' इस प्रकार सामायिक की साधना शान्ति और मानसिक संतुलन की साधना है, कषाय मुक्ति की साधना है।
प्रतिदिन हजारों लोग सामायिक करते भी हैं। क्या सामायिक को विस्तार से जानना, समझना और फिर करना उपयुक्त नहीं होगा? सामायिक करने वाले हजारों है. उनके जीवन में सामायिक का अपेक्षित प्रभाव, परिणाम दिखता नहीं है। अधिकांश लोग सामायिक करते हैं, पर ध्यान नहीं देते, क्या कर रहे हैं?
नि अमा
।
जितरागं जिलोखं, केवलयुग्मसंयुतम्। व शिवसंपन्न, तारजान नमाम्यहम्॥
बन अहान, केकालदर्शन और नया शक्ति से सम्मान है।
म उस शुजा आरमा को नमस्कार कसता जिसने साग-द्वेष को जीत लिया है
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आवश्यक छह है१) सामायिक, २) चतुर्विशतिस्तव, ३) वंदना, ४) प्रतिक्रमण, ५) कायोत्सर्ग. ६) प्रत्याख्यान आवश्यक के छह भेद हैं, उनमें प्रथम आवश्यक 'सामायिक' का विशेष महत्त्व है।
आचार्य भद्रबाहु ने जितना विस्तार सामायिक का किया है, उतना अन्य भावरूपकों का नहीं किया। श्रावक के १२ व्रतों में सामायिक नवें व्रत के रुप में प्रसिद्ध है। चार शिक्षाव्रतों में प्रथम स्थान सामायिक को प्राप्त है।
सामायिक केवल मुंह बांधकर या ४८ मिनट एक जगह बैठना नहीं है। सामायिक में दो बातें आवश्यक है,
(१) बाधक तत्वों का वर्जन, (२) साधक तत्वों का प्रयोग।
अभिनव सामायिक के प्रयोग में गुरुदेव यही फरमाते हैं - "लोग एक बात करते हैं, दूसरी छोड़ते हैं, इसलिए परिणाम नहीं आता।" धर्म हो या सामायिक, प्रभावहीन बन रही है, क्योंकि हम कोरा सिद्धांत जानते हैं, तर्क करते हैं, प्रयोग और अनुभव दोनों छूट जाते हैं। इसलिए प्रयोग करो, तभी अनुभव आएगा। सामायिक में स्थिर और एकाग्र होकर नियमित अभ्यास करें। देखते-देखते जीवन प्रकाशमय बनेगा। हर समस्या का समाधान मिलेगा।
इसलिए आगम के इस वाक्य को हमेशा याद रखें। "इयाणिं णो जमहं पुब्बमकासी पमाएणं" - यानी 'अब तक मैंने प्रमादवश जो किया, उसे पुनः नहीं करूँगा' यह हमारे विकास का सूत्र बने।
हम जानने की कोशिश करते हैं, सामायिक क्या है? क्यों करनी, कब करनी, कैसे करनी है, इसके फायदे क्या हैं? शुद्ध सामायिक कैसे होती है ? सामायिक के दोष कितने ? कौन से? सामायिक कब शुरु हुई, किसने की ? चिंतन करें, क्या मैं सही तरीके से सामायिक कर रहा हूँ?
जैन साधना का प्रायोगिक, आध्यात्मिक अनुष्ठान है - "आवश्यक"। इसका नाम आवश्यक इसलिए पड़ा है क्योंकि श्रमणों एवं श्रावकों के लिए यह आवश्यक करणीय है। आवश्यक का एक नाम 'प्रतिक्रमण' जो अधिक प्रसिद्ध है।
जो क्रोधादि कषायों को दूर कर, ज्ञानादि गणों से आत्मा को भावित करता है, वह आवश्यक है। आवश्यक में जो शाश्वत आध्यात्मिक तत्व निबद्ध है, वे प्रवाह रुप से अनादि हैं। आवश्यक के कर्ता एवं रचना काल के बारे में इतिहास में कोई सामग्री नहीं मिलती।
सामायिक का मोल नहीं है सामाधिक का लोल नहीं है बाल श्रेणीक को सम्झाई
प्रभु महावीर ने।
सामायिक
न अहम
अहेन्नेव परो देवो, वीतरागत्वसंयुतः। तापमोचनं नास्ति, जिनमविलः सुखण्टा ।
बने अहम
तीतराना तु पाठमदेव है। नाम से कोई प्रयोजन नहीं,
जिनेश्वर की शक्ति सुख देने वाली है।
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सामायिक का उदभव वैशाख शुक्ला एकादशी को पूर्वाह्न काल, महासेन उद्यान में भगवान ने प्रथम बार सामायिक का निरुपण किया। कर्ता के बारे में जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण कहते हैं कि, व्यवहारिक दृष्टि से सामायिक का प्रतिपादन तीर्थंकर और गणधरों ने किया। निश्चयनय दृष्टि से सामायिक का अनुष्ठान करने वाला ही सामायिक का कर्ता है। LD सामायिक का अर्थ
सामायिक का सीधा अर्थ है समता की प्राप्ति। शास्त्रकारों ने सामायिक की अनेक परिभाषाएं की हैं। सामायिक की व्युत्पत्ति करते हुए आचार्य मलयगिरी कहते हैं कि - सम अर्थात् एकत्व रुप से आत्मा का आय – लाभ समान हैं। समाय का भाव ही सामायिक है। प्राचीन गाथा में सामायिक किसे कहते हैं, इसका उत्तर दिया है
॥ जो समो सासु तसेसु थावरेसु या॥
॥ तस्स सामाइयं हवड़, इड़ केवलिभासियं। ॥ सामायिक उसके होती है, जो सब प्राणियों के प्रति सम होता है। जिसके मन में किसी भी प्राणी के प्रति कोई विषमता नहीं होती, वह समभाव की साधना में बढ़ता चलता है। इस प्रकार सामायिक का स्वरुप समता है।
समता के अर्थ में जो सामायिक शब्द का प्रयोग हुआ है, यह भाव सामायिक का संकेत है, व्याकरण की दृष्टि से प्रत्येक शब्द का भाव समता रस में परिपूर्ण होता है।
सम-आय-इक, इन तीन शब्दों का संयोग सामायिक। सम-राग-द्वेष प्रवृत्ति का अभाव। आय-ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप आत्मगुणों की उपलब्धि है। इक-जो भाव वाचक प्रत्येय है। अर्थात् जिसमें समता का लाभ होता है उसका नाम है सामायिक।
आचार्य वट्टकेर के अनुसार, जीवन-मरण, लाभ-हानि, संयोग-वियोग-मित्रशत्रु, सुख-दुःख आदि में राग-द्वेष न करके इनमें समभाव रखना सामायिक है।
धर्मस्यं शरणं वाहां, सर्वदा सुखदं वरम्। बन अहम
खाता, पिता, माता, आता, समृदिदायकः।।
समता का महत्त्व हर धर्म में उगित हुआ है। गीता में समत्व को योग कहा है। योग शास्त्र में हरिभद्र स्पष्ट कहते हैं कि “न किसम्बने विना ध्यानम्" साम्य योग विना साधना क्षेत्र में चरणण्यास नहीं किया जा सकता।
चूर्णिकार जिनदासगणि कहते हैं- "जैसे आकाश सभी द्रव्यों का आधार है, वैसे ही सामायिक सब गुणों की आधार भूमि है।" जिनभद्रगणी क्षमा श्रमण इसके महात्म्य को प्रकट करते हुए कहते हैं कि, षटावश्यक में सामायिक प्रथम आवश्यक है।चतुर्विंशतिस्तव आदि में इन्हीं गुणों का समावेश हुआ है। उन्होंने सामायिकको चौदह पूर्वो का सार माना है।
समता का अर्थ है, मन की स्थिरता, रागद्वेष का शमन और सुख-दुःख में निश्चलता। विषम भावों से स्वयं को हटाकर स्व रुप में रमण करना, समता है। इस प्रकार सामायिक की साधना पवित्रता की साधना, बंधनमुक्ति की पवित्रतम आराधना है। उर्द्धवरोहण का सोपान है। भगवान महावीर ने आचारांग सूत्र में कहा - 'समया धम्ममुदाहरे मुणी' समता सबसे बड़ा धर्म है। अन्तर्मुखी चेतना निर्माण करती है, समायिक।
गौतम स्वामी ने भगवान से पूछा, 'सामायिक का अर्थ क्या है ?' महावीर ने कहा 'आया खलु सामाइए' आत्मा सामायिक है। इसका तात्पर्य यह है, आत्मा में रमण करना। अपने अस्तित्व में रहना।
चिन्तनीय बिन्दु यह है कि षटावश्यक में वर्णित सामायिक और श्रावक के नित्यक्रम में की जानेवाली सामायिक में अंतर है या नहीं? इस बारे में आचार्यों ने विशेष स्पष्टीकरण नहीं किया। संभव यही लगता है कि षटावश्यक में वर्णित सामायिक का प्रायोगिक रुप यह सामायिक है। आचार्य कुंदकुंद की प्रसिद्ध रचना 'समयसार' में भी समताभाव को ही प्रधानता दी है। जैन धर्म को अगर समता की साधना, सामायिक की साधना से पृथक कर दिया जाए तो धर्म क्रिया-शून्य हो जाएगा।सारी क्रियाओं के केन्द्र में समता की साधना है।
आवश्यक सूत्र में सावध योग के त्याग और निखद्य योग के स्वीकार को सामायिक कहा है। भगवती सूत्र के अनुसार आत्मा ही सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का अर्थ है। ने अश शर्म जाण देने वाला, पिला, माता, भाला, समृद्धि देने वाला, सर्कता सुख देने
- J वारना और श्रेष्ठ है। इसरिता धर्म की शरण स्वीकार करनी चाहिए।
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सामायिक करने की अर्हता
इसका वर्णन करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं, जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में जागरुक है, जो त्रस और स्थावर प्राणियों के प्रति समभाव रखता है उसके सामायिक होता है।
जिनभद्रगणि के अनुसार प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, संविग्न, पापभीरु, अशठ, क्षान्त, दान्त, गुप्त, स्थिर व्रती, जिनेन्द्रिय ऋजु, मध्यस्थ, समित और साधु संगति में इन गुणों से सम्पन्न व्यक्ति सामायिक ग्रहण करने योग्य होता है।
पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक सामायिक का अधिकारी होता है। व्यवहारिक दृष्टि से जो व्यक्ति समता का उपासक है, समता का विकास करना चाहता है, समता की साधना पर विश्वास रखता है, वह सामायिक का अधिकारी है।
सामायिक के प्रकार
स्थानांग सूत्र में सामायिक के दो प्रकार निर्दिष्ट है
अगारसमाइएचेव, अणगार सामइए चेव ।
(१) गृहस्थ की सामायिक
१२) साधु की सामायिक
साधु जीवनभर सावध योग का प्रत्याख्यान करता है।
बारह व्रतधारी श्रावक नौंवें सामायिक व्रत की आराधना करता है। उसका एक मुहूर्त अर्थात् २ घड़ी या ४८ मिनट सामायिक का काल निर्धारित है। ४८ मिनट समता की विशेष साधना, सब प्रकार की सावध (पापकारी) प्रवृत्तियों का दो करण तीन योग से त्याग करना।
१४८ मिनट कालावधि का किसी आगम में स्पष्ट संकेत नहीं। प्राचीन आचार्यों द्वारा सम्मत परंपरा है।
काल प्रतिबद्ध यानी काल से बँधी सामायिक है। करना, कराना और अनुमोदन - यह तीन करण हैं। मन वचन और काया की प्रवृत्ति यह तीन योग हैं। बनें अर्हम्
धर्मेण मनसः शान्तिः, धर्म परममंगलम् । भवसिन्धौ निमज्जन्ति, धर्महीना जना मुधा ॥
श्रावक की सामायिक दो करण तीन योग से होती है। इसमें 'अनुमोदन खुला रहता
है। प्रश्न यह है, ये सब ४८ मिनट ही क्यों ? इसका उत्तर यह भी हो सकता है, छदमस्थ अवस्था में प्राणी लगातार ४८ मिनट से अधिक समय तक शुभ योग में नहीं रह सकता। इसलिए शायद इसलिए सामायिक की कालावधि ४८ मिनट निर्धारित है। सामायिक के तीन प्रकार
(1) सम्यकत्व सामायिक
2) श्रुत सामायिक
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तत्त्वश्रद्धा
जीव आदि का परिज्ञान
(श्रुत सामायिक के तीन भेद हैं)
> श्रुत सामायिक,
> अर्थ सामायिक,
> तदुभय सामायिक
3) चारित्र सामायिक
+ सामायिक में क्या करना चाहिए ?
सामायिक अनुष्ठान के लिए बाह्य और आन्तरिक तैयारी आवश्यक है।
बाह्य तैयारी : इसमें सर्व प्रथम सामायिक का स्थान- यह भी महत्त्वपूर्ण है। जैसे स्थान चंचलता बढ़ाने वाला न हो, जहां टीवी, रेडिओ चलता है, ऐसी जगह न हो। टेलिफोन, दरवाजे और खिड़की के पास न बैठें। जिससे आने-जाने वाले व्यक्ति, आवाज, वाहन और अन्य घटनाओं का प्रभाव हो, ऐसी जगह न हो स्थान एकान्त, प्रसन्न, शांत हो। सबसे महत्त्वपूर्ण घर में उपासना कक्ष हो तो बहुत ही अच्छा, अन्यथा एक जगह निश्चित करके, उसी जगह हमेशा सामायिक करना चाहिए। स्थान का अपना प्रभाव होता है। निषेधात्मक भाव आने वाले प्रतिकूल स्थान होते हैं और ऐसे विधायक भाव आनेवाले स्थान भी होते है। इसलिए पहले जगह का अवलोकन करके जगह निश्चित करें। पूंजनी से स्थान साफ कर, आसन बिछाकर सामायिक करें। आपका मुख पूर्वाभिमुख या उत्तर दिशाभिमुख हो । अथवा गुरुदेव बिराजमान हैं तो उनके सम्मुख, किसी भी दिशा में मुख किया जा सकता है।
बनें अर्हम्
सावद्ययोगों विरती
धर्म पर मंगल है। धर्म से मानसिक शांति मिलती है। धर्महीन मनुष्य यं भवसागर में डूबते हैं।
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भगवान महावीर ने स्थानांग सूत्र में इन्ही दो दिशाओं का महत्त्व बताया है। पूर्व दिशा उदय मार्ग और तेजस्विता का प्रतीक है। उत्तर दिशा उच्चता एवं दृढ़ता का प्रतीक है। ध्रुव दिशा इसी का नाम है। यथा संभव सामायिक में किसी एक ही आसन में बैठना चाहिए। उस समय वेशभूषा सादगी प्रधान हो। आवश्यक उपकरण जैसे आसन, सफेद चद्दर मुखवस्त्रिका, माला, धार्मिक पुस्तकें, पूंजनी वर्ग इत्यादि अपने पास की सचित वस्तएं दूर रखना आवश्यक है। एक मुहुर्त के लिए साधु जीवन स्वीकार करना है तो बाह्य और अंतर की तैयारी जरुरी है। बाह्य तैयारी होने के बाद सामायिक में जरूरी हैं२) अर्थ समझ कर क्रियाएं करें,
१) उच्चारण शुद्धि,
३) शरीर तनावमुक्त रखना,
४) एकाग्रता
सामायिक में अन्तरंग विधि में मुख्यतः हमें ३२ दोषों से बचना चाहिए। तभी सामायिक निरतिचार हो सकेगी।
सामायिक यानी अपने घर आना। घर के बाहर मतलब विषमता, अंदर मतलब समता । सामायिक पाठ के उच्चारण में 'सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' यानी सावद्य योग का प्रत्याख्यान किया जाता है। सावद्य= स+ अवध का अर्थ है सहित, अवद्य का अर्थ है पाप, योग का अर्थ है प्रवृत्ति यानी पाप सहित (असत्) प्रवृत्ति को सावद्य योग कहा जाता है।
सर्वप्रथम एक आसन का चुनाव करें। जिसमें हम सुखपूर्वक, स्थिरता से अधिक समय बैठ सकते हैं, ऐसा आसन हो। पद्मासन, वज्रासन, सुखासन हे भगवन! मैं सामायिक कर रहा हूँ। इस प्रकार अनुज्ञा के बाद सामायिक पाठ का उच्चारण करके संकल्प ग्रहण करें। सामायिक पाठ का उच्चारण शुद्ध हो अर्थबोध हो और फिर सामायिक शुरू करें। मनोविज्ञान में दो प्रकार के भावों का उल्लेख है।
सावद्य योग अर्थात् पापकारी प्रवृत्तियां निरवद्ययोग अर्थात् पापरहित अध्यात्म प्रवृत्तियां मन, वचन और शरीर की सारी प्रवृत्तियां दो प्रकार की होती है। सावद्य और निरवद्य। ये दोनों अवद्य शब्द से बने हैं। अवद्य का मतलब पाप, जो प्रवृत्ति पाप सहित है वह सावध और जो पाप रहित वह निवद्य है। मन, वचन और शरीर की पन्द्रह प्रकार की प्रवृत्तियां हैं। उनमें कुछ सावध, कुछ निरवद्य है। सामायिक में सावध प्रवृत्ति का
बने अर्ह
भावशुद्धिः परो धर्मस्तयाचारः विशुद्धयति । शुद्धाचार पुनश्चित्ते, कुरुते भावशोधनम् ॥
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प्रत्याख्यान होता है। नकारात्म भावों की यह १८ अठारह प्रकार की प्रवृत्तियां है। सामायिक की साधना में सभी नकारात्मक प्रवृत्तियों से दूर रहना होना है। अठारह पापों को चार भागों में विभाजित किया गया है।
चार वर्गों में अठारह पाप समाहित हो जाते हैं। (१) वर्ग (२) वर्ग (३) वर्ग प्राणातिपात पाप क्रोध पाप मृषावाद पाप अदत्तादान पाप
कलह पाप
मान पाप
मैथुन पाप परिग्रह पाप
माया पाप लोभ पाप
अभ्याख्यान पाप
पैशुन्य पाप पर परिवार पाप रति - अरति पाप
9.
२.
(४) वर्ग
मायामृषा पाप मिथ्यादर्शनशल्य पाप
राग पाप
द्वेष पाप
सामायिक के 32 दोष
सामायिक में आसन, मौन, ध्यान, स्वाध्याय आदि धार्मिक कार्य विशेष किए जाते हैं। यथा संभव किसी एक ही आसन में बैठना चाहिए। सामायिक में ३२ बातें वर्जित हैं। उनका वर्णन यहां प्रस्तुत हैं
मन के दस दोष
अविवेक- सामायिक करते समय किसी प्रकार का विवेक न रखना।
यश कीर्ति यश प्राप्त होगा, आदर बढ़ेगा, लोग धर्मात्मा कहेंगे, मेरी प्रशंसा करेंगे भावना से सामायिक करना।
३. लाभार्थ धन आदि के लाभ की इच्छा से सामायिक करना ।
४.
गर्व- मैं बहुत सामायिक करने वाला हूँ, मेरे बराबर कौन सामायिक कर सकता है या मैं बड़ा कुलीन हूँ, आदि गर्व करना ।
भय ऊँचे घराने का होकर भी यदि सामायिक न करूँ तो लोग क्या कहेंगे अथवा
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किसी अपराध के कारण मिलने वाले राजदण्ड से एवं देनदारी आदि से बचने के लिए सामायिक ले बैठना ।
बनें अर्हम्
भावशुद्धि उत्कृष्ट धर्म है। उसके द्वारा आचरण शुद्ध होता है। शुद्ध आचारचित के भावों का शोधन करता है।
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६. निदान - सामायिक का कोई भौतिक फल चाहना, जैसे अमुक पदार्थ या
सांसारिक सुख के लिए सामायिक का फल बेच डालना। संशय - सामायिक करते करते इतने दिन हो गये फिर भी कुछ भी नहीं मिला
इत्यादि सामायिक के फल के संबंध में संशय करना। ८. रोष-सामायिक में क्रोध, मान, माया, लोभ करना। लड़-झगड़ कर या रुठकर
सामायिक करना। ९. अविनय-सामायिक के प्रति आदर भाव न रखना। १०. अबहुमान-बिना श्रद्धा अनादरपूर्वक या दबाव से सामायिक करना।
वचन के दस दोष : कुवचन - सामायिक में कुत्सित, गंदे वचन बोलना सहसाकार - बिना विचारे सहसा हानिकारक वचन बोलना।
स्वच्छन्द -काम-वृद्धि करने वाले गंदे गीत गाना, गंदी बातें करना। ४. संक्षेप-सामायिक के पाठ को संक्षेप में बोलना। ५. कलह-कलह पैदा करने वाले वचन बोलना। ६. विकथा- बिना किसी अच्छे उद्देश्य के मनोरंजन की दृष्टि से स्त्री कथा, भक्तकथा,
राजकथा, देशकथा आदि करना। ७. हास्य-सामायिक में हंसी-मजाक करना।
अशुद्ध-सामायिक का पाठ जल्दी-जल्दी एवं अशुद्ध बोलना। ९. निरपेक्ष - सामायिक में सिद्धांत की उपेक्षा करके वचन बोलना अथवा बिना
किसी सावधानी के वचन बोलना। १०. मुन्मन-सामायिक के पाठ का स्पष्ट उच्चारण न करना।
काया के बारह दोष १. कुआसन - सामायिक में पैर चढ़ाकर अभिमान से बैठना। २. चलासन -स्थिर आसन से न बैठकर बार-बार आसन बदलना। ३. चल दृष्टि-दृष्टि स्थिर न रखकर, बार बार इधर उधर देखना।
४. सावद्य क्रिया - शरीर से स्वयं सावध कार्य (पाप युक्त क्रिया) करना या दूसरों
को करने के लिए संकेत करना। घर की रखवाली करना। ५. आलम्बन-विशेष कारण के बिना दीवार आदि का सहारा लेना।
आकुञ्चन प्रसारण - बिना किसी विशेष प्रयोजन के हाथ पैरों को सिकोड़ना
और फैलाना। ७. आलस्य-सामायिक में बैठे हुए आलस्य करना, अंगड़ाई लेना। ८. मोड़न-हाथ पैर की अंगुलियां चटकाना, कटका निकालना।
मल - शरीर का मैल उतारना। १०. विमासन-शोक ग्रस्त की तरह बैठना या बिना पूंजे शरीर खुजलाना या रात्रि में
इधर-उधर आना-जाना। ११. निंद्रा-झपकी लेना एवं नींद लेना। १२. वैयावृत्त्य - निष्कारण आराम के लिए दूसरों से सेवा लेना। स्वाध्याय करते हुए
इधर उधर घूमना या हिलना डुलना अथवा शीत आदि के कारण कांपना। आचार्य महाप्रज्ञ कितने सहजता से समझाते हैं - हम विचार करें
सामायिक करने वाला क्या छोड़ता है? पाप, आश्रव - प्राणतिपात आदि। "आश्रव" जैन तत्वदर्शन का पारिभाषिक शब्द है। आश्रव यानी कर्म परमाणुओं के आने का रस्ता। पांच आश्रव है मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमोद, कषाय और योग। क्रोध, मान, माया, लोभ और राग द्वेष छोड़ने की बात समझ में आयेगी तो क्रोध को उपशांत करने की, अहंकार शांत करने की साधना करना। माया और लोभ मिटाने की सुन्दर साधना का नाम है सामायिक। सामायिक के लिए भावक्रिया का अभ्यास आवश्यक है। इसमें वहीं सफल हो सकता है जो प्रतिक्रिया से मुक्त होने का अभ्यास करता है, उसके लिए हमें तटस्थ रहना चाहिए। सामायिक शब्द का प्राचीन अर्थो में एक अर्थ है, समय में जीना। सामायिक में भविष्य की कल्पना और भूतकाल की स्मृतियों से मुक्त होकर वर्तमान में जीना। सामायिक साधना में एक बात का आवश्यक ध्यान रखना चाहिए। प्रयोग, आत्मपरिक्षण और निरीक्षण यह सब सामायिक में महत्त्वपूर्ण है।
बनें अहम्
समता नाता अक्तिः, सर्वेः सार्क सुमिाता। स एव पुरुषः श्रेष्ठः, श्रेष्ठो यो हि स्तभातालः ।।
सही पुरुष पोष्ट है, जो स्वभाव से श्रेष्ठ है अर्थात् जिसमें समता, मनाता, अति तथा सबके साथ मिला है।
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LD सामायिक का फल क्या है? उत्तराध्यययन में शिष्य न जिज्ञासा की "समाइएणं भंते! जीवे किं जणयह?" भंते! सामायिक से जीव को क्या मिलता है? "सामाइएणं सावजजोगविरइ जणयह।" सामायिक से सावध योग की विरति होती है।
सामायिक एक सुदृढ़ आलम्बन है, जिससे हम काफी बुराइयों से बच सकते हैं। सामायिक में राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति से विरति की साधना से समता की साधना होती है। १) सामायिक में समता की साधना और शुद्धता का अनुभव। २) तनाव मुक्ति होती है, चित्त शांत होता है। ३) एकाग्रता बढ़ती है, इससे जीवन अधिक सुव्यवस्थित और क्रियाशील होता है।
सावध योग से निवृत्त होने से कर्म रुकते हैं। शुभ भावों के ध्यान से पापों की निर्जरा होती है तथा पुण्य का बन्ध होता है। पुण्य बन्ध सामायिक का उद्देश्य नहीं, परन्तु निर्जरा के साथ प्राप्त होने वाला
अनुवांशिक फल है। ६) सामायिक में कर्मों का बन्ध रुकता है, उसके साथ सुखी व स्वस्थ जीवन का मंत्र
भी प्राप्त होता है। ७) सामायिक की साधना बाह्य मुक्ति की है, इससे मानसिक संतुलन सधता है। ८) सामायिक उर्द्धवारोहण का सोपान है।सामायिक के द्वारा ऊर्जा का संचार होता है। ९) पवित्रता की साधना है सामायिक।जिसमें बंधनमुक्ति की आराधना है। १०) स्व को जानने पहचानने की साधना है सामायिक। ११) संतुलित व्यक्तित्व का विकास सामायिक में होता है। १२) सामायिक अन्तर्मुखी चेतना का निर्माण करती है। १३) सामायिक मानसिक प्रसन्नता का अपूर्व साधन है।
अनेक समस्याओं का समाधान - सामायिक आज की अनेक समस्याएं असंतुलन के कारण पैदा होती है।
सामायिक से संतुलित जीवन जीने की कला आती है, अनेक समस्या का समाधान मिलता है। हर समस्या रूपी ताले की समाधान रूपी चाबी है सामायिक।
सामायिक केवल क्रियाकांड नहीं। गुरुदेव तुलसी के अभिनव उपक्रम देकर नये प्रयोग द्वारा सामायिक का सही और सच्चा रुप हमें अवगत कराया है। घर-घर में, समाज में हम देखते हैं, हर जगह कलह, दोषारोपण, चुगली निन्दा और मिथ्या दृष्टिकोण से, सारी समस्याएं पैदा होती है जिससे मानसिक और सामुदायिक अशांति पैदा होती है। इन विघ्नों का निवारण है-सामायिक की सही अर्थ से साधना। हिंसा, असत्य और संग्रह प्रवृत्ति ने आज सारा समाज अक्रांत है, भ्रथचार और आतंकवाद इसी से बढ़ रहा है। इनसे मुक्त होने का राजमार्ग है सामायिक।
सुख-दुःख क्या है ? आचार्य महाप्रज्ञ ने इसका मर्म कितनी सुंदरता से व्यक्त किया है। वे कहते हैं, ''हम आज के वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में देखें या महावीर के दर्शन के परिपेक्ष्य में देखें, हमें यह ज्ञात होगा कि, हमारा सारा जीवन प्रकम्पनों का जीवन है। बाह्य जगत में प्रकम्पन है, वाइब्रेशन्स और भीतरी जगत में भी प्रकम्पनों का जीवन।प्रकम्पन ही वास्तव में सुख-दुःख पैदा करते हैं।
हमारी हर प्रवृत्ति प्रक्रम्पन की प्रवृत्ति है। सुख कब होता है? केवल वस्तु से सुखदुःख नहीं होता है। वस्तु और प्रकम्पन का योग होता है, तभी सुख-दुःख का अनुभव होता है। प्रकम्पन पैदा हुआ और अनुभव हुआ।" __सामायिक का अर्थ है प्रकम्पनों को समाप्त करना। प्रकम्पनों को बन्द करना, उत्पन्न न होने देना, यह है समभाव। इसे 'संवर' भी कहा जा सकता है। निर्जरा प्रकम्पन है, दूसरी क्रिया संवर प्रकम्पनों को बंद करना। सामायिक संवर की प्रक्रिया है। मन में समभाव आयेगा, प्रकम्पन बन्द हो जाते हैं। जिसने समता को साध लिया, वह अल्प साधनों का जीवन जीते हुए भी प्रसन्न और आनंद से जीता है।
समलायाः प्रतिष्ठायां, सुखमायाति सर्वतः। तस्मात् सुखस्य सम्पाप्त्य, साम्यं सेव्यं सदा नरेः ।।।
बने अशा
समता प्रतिरिवत होने पर सब ओर से सुख्ख आता है। इसलिए सुरळ-पाति के लिए मनुष्यों को सदा समता का सेवन कळता चाहिए।
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आचार्य महाप्रज्ञ “अध्यात्म का प्रथम सोपान सामायिक' में लिखते हैं - खतरनाक होता है चुगलखोर यानि पैशुन्य। हम व्यवहार में देखते हैं हजारों लोग सामायिक नियमित करते हैं। उसमें से कितने अर्थ समझकर प्रयोग करते-करते अपने आपको बदलने का प्रयत्न करते है ? सामायिक बिना चाय तक नहीं पीने वाले, सामायिक बिना एक दिन भी खाली नहीं जाने देने वाले, कितनी आराम से चुगली करते हैं, दूसरों की निंदा करते हैं। मेरे मन में हमेशा आता है - सामायिक के समय केवल वे सावद्य प्रवृत्ति का त्याग करते हैं
और बाकी समय अपने को निंदा, चुगली, राग-द्वेष के लिए फ्री (खुला) रखते हैं। चुगलखोर मधुरभाषी होता है, इतनी ढंग से चुगली करता है, सामनेवाले को वह अपना हित चिन्तक ही लगता है। यदि आत्मदर्शन, स्वदर्शन का अभ्यास बढ़ जाता है तो यह परदर्शन बात गौण हो जायेगी। बाधक तत्व अपने आप समाप्त हो जायेंगे।
दिन-ब-दिन अपनी क्षमता का विकास करना चाहिए। हमारी उपयोगिता बढ़े, क्षमता बढ़े- हम प्रगति के इस सूत्र को समझें और साथ में अपनी सीमा भी समझें।
आदतों को बदलना, स्वभाव बदलना सामायिक अभ्यास से सहज शक्य है। सामायिक का सार यही है -चंचलता को रोकना और समभाव में रहना।
त्रिगुप्ति की साधना भी सामायिक में करना जरुरी है। मन, वचन और काया ये तीनों वश में हो जाते हैं तो मंगल बन जाते हैं। व्यवहार हो, चाहे परमार्थ तीन गुप्तियों के बिना कोई भी वश में नहीं होता।
जब तक मनुष्य के मन में राग-द्वेष की तरंगें मचलती हैं, क्रोध, ईर्ष्या और अभिमान से भरा रहता है, तब तक न मंत्र काम करता है और न तप।
- आचार्य तुलसी
ॐ अ-सि-आ-उ-सा-नमः
बने अहम
रागद्वेषप्रभावेण, जायते दुःरिवतं मनः। तस्य चारुसमाधानं, समतपरिशीलनम् ।।
बने अशा
राग-पोष के प्रभाव से मन दु:खी जलता है। इसलिए दुःख को मिटाने का गवण समाधान है- समता का परिशीलन।
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编
मंत्र
मंत्र विद्या भारत की प्राचीन, पवित्र संपत्ति है। इसमें सबसे पहले हम मंत्र के बारे में जानेंगे। क्योंकि, सामायिक में मंत्र, नमस्कार महामंत्र का बहुत महत्त्व है। मंत्रों का व्यवस्थित ज्ञान, अर्थ जानकर अगर विधिवत तरीके से जाप किया तो अनेक फायदे होते हैं। अब तक हम जान चुके हैं, सामायिक क्या है? कैसे करनी है ? अब हमें सामायिक में जो प्रयोग करना है उसकी जानकारी लेते हैं। इसमें सबसे पहले मंत्र आते हैं। सभी धर्म संप्रदायों में मंत्र परम्परा रही है। अक्षरों के संयोजन विशेष का नाम 'मंत्र' है। शब्द शास्त्र के अनुसार 'मंत्रि गुप्त भाषणे' से 'मंत्र' शब्द बना है। जिसका अर्थ है, 'गुप्त भाषण और रहस्य की साधना' शब्द शास्त्र के अनुसार 'मंत्र' शब्द 'मनू' धातु में त्र प्रत्यय लगाने से बना है। 'मन्य ते ज्ञायते आत्मा देशोऽनेन इति मंत्रः' अर्थात् जिसके द्वारा आत्मा का ज्ञान किया जाए, वह मंत्र है।
मंत्र शब्द मंतृ धातु से बना है। इसका अर्थ है गुप्त बोलना । गुप्त अनुभव करना । सब देशों में मंत्र विद्या किसी ना किसी रुप में है। भारत, चीन में विशेषज्ञ हैं। मंत्र एक ऐसा सुक्ष्म किन्तु महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, जिसके द्वारा स्थूल पर नियंत्रण, विराट को स्फूर्तिमान रखने का और पिण्ड में ब्रह्माण्ड को देखने की दृष्टि है। मंत्र एक शक्ति है, पूरा विज्ञान है और मंत्र उर्जा है।
मंत्र का शाब्दिक अर्थ
'मननात् त्रायते इति मंत्र' जिसका मनन करने से व्यक्ति को त्राण मिलता है। समस्या का समाधान होता है उसे मंत्र कहते हैं। मंत्र ध्वनि के विशिष्ट शब्द होते है। ये ध्वनि विज्ञान पर आधारित होते हैं। बार-बार मनन करना मंत्र ।
शास्त्रीय मंत्रों का आयोजन अपने आप में अर्थ रखता है। कोई मंत्र हो, यदि उसका अर्थ स्पष्ट नहीं है तो वह शास्त्रीय मंत्र नहीं है। बीज मंत्र का भी अपना अर्थ होता है। मंत्र योग मुख्यतः शक्ति विकास पर आधारित कार्य करता है जीवन में उत्कर्ष के लिए भी मंत्र का उपयोग होता है। मंत्रशक्ति से रोगमुक्ति, धनलाभ, ऊंचा अधिकार प्राप्त होता है।
बनें अर्ह
कदाचिच्जीवने कष्टं, सौख्यं चापि कदाचन । तत्र समत्वमालंव्यं येन शुद्धिः परा भवेत् ॥
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मंत्र अक्षरों की प्रभावक रचना विशेष का नाम है। इससे स्पष्ट और लयबद्ध उच्चारण
में जपकर्ता में चारों और कुछ विशिष्ट प्रकार की ध्वनि तरंगे उत्पन्न होने लगती है। शुद्ध और स्पष्ट उच्चारण से मनोग्रन्थियों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। अर्थात् चेतन मन के स्तर खुलने लगते हैं।
मंत्र परम कल्याणकारी होता है और चिन्तन-मनन से निश्चित ही दुःखों से रक्षा होती है। मंत्र एक प्रतिरोधात्मक शक्ति है, मंत्र एक कवच है। मंत्र एक प्रकार की चिकित्सा है। मनन का दूसरा अर्थ पुनः पुनः चिन्तन और उच्चारण है। जिसके पाठ से इष्ट की सिद्धि होती है, उसे भी मंत्र कहा गया है।
मंत्र सर्वप्रथम त्रायाविक प्रणाली को प्रभावित करते हैं, फिर क्रमशः मस्तिष्क के ज्ञानकोष्ठ और मानव चेतना के सुक्ष्म भाग को झनझनाता है। भारतीय ऋषियों ने अपनी साधना द्वारा जिन यथार्थताओं का अनुभव किया, उनका संकलन मंत्र के रुप में किया गया है। विचारों की भूमिका मस्तिष्क तक है, जहाँ से विचार स्मृति चिन्तन और कल्पनाओं की पाँखों पर फैलते हैं। मंत्र विचार से सुक्ष्म होता है। वह चेतना के तल पर प्रस्फुटित होता है। मंत्र विकल्प से निर्विकल्प तक पहुँचने की प्रक्रिया है ।
जैसे औषध के द्वारा रासायनिक परिवर्तन होता है वैसे ही मंत्र के द्वारा रासायनिक परिवर्तन होता है। एक अक्षर का उच्चारण करते हैं, एक प्रकार का रासायन निर्मित होता है जैसे 'र' के उच्चारण से तपमान बढ़ता है, 'ह' के उच्चारण से तपमान घटता है। प्रत्येक वर्ण का अपना प्रभाव है।
वायु के कंपन होते हैं। यह कंपन कुछ क्षणों में वायु मण्डल में अन्य तत्व के माध्यम से ब्रह्मांड की परिक्रमा करके अपने अनुकूल तरंगों के साथ मिलकर एक पुंज बनाती है। यह पुंज बहुत ही शक्तिशाली होती है।
मंत्र आराधना की निष्पत्तियां
मंत्र आराधना की अनेक निष्पत्तियां हैं। वे आन्तरिक और बाह्य भी हैं। मानसिक और शारीरिक भी हैं। पहली निष्पत्ति है मन की प्रसन्नता, चित्त की शुद्धि स्मृति का विकास होता है, आत्मविश्वास बढ़ता है। सारी निष्पात्तियां धीरे-धीरे सामने आती है। इसलिए शीघ्रता न करें। उतावलापन साधना का विघ्न है। साधना मंत्र जाप में, धैर्य अपेक्षित है।
बनें अर्हम्
जीवन में कभी कष्ट आता है तो कभी सुख उस स्थिति में समता का सहारा लेना चाहिए जिससे परम शुद्धि हो जाए।
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मुद्रा
On वितराग मुद्रा : बायीं हथेली नीचे और दायीं हथेली ऊपर
रखकर, दोनों हाथलियों को नाभी के नीचे स्थापित करें।
ज्ञानमुद्रा : दोनों हाथों को घुटने पर टिकाना है। अंगूठे और तर्जनी के Airce अग्रभाग को मिलाएं शेष तीन अंगुलियां सीधी रहे। ध्यानमुद्रा : आँखों को बिना दबाए, कोमलता से बंद करें।
ध्वनि : महाप्राण ध्वनि, अर्हम्, ॐ का उच्चारण दीर्घ, मध्यम एवं मानसिक रुप से करें।
मंत्राक्षरों का प्रभाव मंत्र शक्ति के बारे में प्रायः हम यह सुनते और पढ़ते हैं कि अमुक मंत्र के प्रभाव से बेड़ियाँ टूट पड़ी, ताले खुल गये, असाध्य रोग मिट गये। कुछ समय पूर्व तक सूक्ष्म-ध्वनि तरंगों का कर्तृत्व धार्मिक धरातल तक ही सीमित था किन्तु आज वह सूक्ष्म ध्वनि (मन और प्राणों की ध्वनि) वैज्ञानिक तत्व बन गयी है।
आज अनेक शोध संस्थान, यंत्रों के द्वारा इस परीक्षण में लगे हैं कि किस शब्द ध्वनि का किस अवयव पर कितने समय के बाद क्या असर होता है। वर्तमान चल रहे चिकित्सा क्षेत्र में कुछ प्रयोगो ने यह सिद्ध कर दिया है कि अत्यंत गंभीर एवं असाध्य रोग 'मंत्र दीक्षा' के द्वारा मिटाए जा सकते हैं।
धर्म के क्षेत्र में आने वाला साधना करने वाला हर व्यक्ति जाप करता है। सनातनी गायत्री मंत्र, मुसलमान - अल्ला, बौद्ध - ओम और जैन 'नमस्कार मंत्र' प्रत्येक धर्म परंपरा का अपना मंत्र है। मंत्रशास्त्र पर सेंकड़ों ग्रंथ हैं। बीजाक्षर संबंधित हजारों मंत्र हैं।
अच्छे शब्दों का प्रभाव अच्छा और बुरे शब्दों का प्रभाव बुरा होता है। शब्द योजना में गड़बड़ होती है तो अनर्थ होता है इसलिए कहा गया है
|| अमंत्रमक्षरं नास्ति, नास्ति मूल मनौषधम् ॥
अयोग्यः पुरूषो नास्ति, योजक स्तत्र दूर्लभः ऐसा कोई अक्षर नहीं है जो मंत्र न हो, ऐसा कोई मूल नहीं है, जो औषधि न हो। ऐसा कोई मनुष्य नहीं है, जो योग्य न हो। प्रत्येक आदमी में योग्यता होती है। उपयोग करने वाला दूर्लभ है।कुछ शब्द को अत्यंत प्रभावी जैसे 'ओम' सभी धर्मों में उसे मान्यता देते हैं।
D मंत्र प्रयोग मंत्र उपयोग की पूर्व तैयारी ध्यानासन:
जिस आसन में आप लम्बे समय तक सुविधापूर्वक TAA स्थिरता से बैठ सकें, उस ध्यानासन का चुनाव
करें। जैसे पद्मासन, सुखासन अथवा वज्रासन बने अहम
मनः प्रसझतामेति, सिद्धा चेत् समता भवेत। विना सगत्तसिद्भया त. मनोविषादगरनुते।।
कायोत्सर्ग : शरीर को स्थिर-शिथिल एवं तनावमुक्त करें। मेरुदण्ड और गर्दन को सीधा रखें, अकड़न न हो।मांसपेशियों को ढीला छोड़ें, शरीर की पकड़ को छोड़ें।
कायगुप्ति का अभ्यास करें। प्रतिमा की भाँति शरीर को स्थिर रखें। हलन चलन न करें। पूरी स्थिरता। चित्त को क्रमशः पैर से सिर तक प्रत्येक भाग पर ले जाएं।पूरे भाग में चित्त की यात्रा करें।
शिथिलता का सुझाव दें और शिथिलता का अनुभव करें। प्रत्येक माँसपेशिय और स्नायु शिथिल हो जाएं। पूरे शरीर की शिथिलता के साथ गहरी एकाग्रता एवं पूरी जागरुकता। पूरे मंत्र जप के काल तक कायोत्सर्ग की मुद्रा बनी रहे, शरीर अधिक से अधिक निश्चित रखने का अभ्यास करें। मंत्रजाप :
अब विशेष मंत्र का जाप विशेष चैतन्य केन्द्र पर चित्त को टिकाकर १० मिनट तक उच्च, मध्यम एवं मानसिक उच्चारण के साथ करें। साथ दी गई अनुप्रेक्षा की भावना करें। समय : कम से कम दस मिनट तक सुबह अथवा शाम उक्त विधि से दिए गए मंत्रों का जाप करें।
बर्ने अध्य RTI
क्ष समता का साध लिया जाए तो मन प्रसस्ता को प्राप्त हो जाता है।
समता की सिद्धि के बिना मन में विधान अयन होता है।
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अरहताणं सो सिद्धाण
णमो अरहता
मो आयरिया
गमा
TRAile
मो लोग
‘मंत्र एक समाधान' में आचार्य महाप्रज्ञ जी कहते हैं... मंत्र उच्चारण से मंत्र की ध्वनि के प्रकम्पन साधक के स्थूल शरीर को प्रभावित करते हैं। मुख्यतः मेरुदण्ड और मस्तिष्कीय न्यूरोन्स।
जैसे कंपन बढ़ेगे... सूक्ष्म शरीर प्रभावित होगा। मंत्र रोगमुक्ति, आदतों में परिवर्तन और आन्तरिक विकास।जीवन द्वन्द्वात्मक है। समस्या ही समस्या है। समस्या और तनाव मुक्ति के लिए मंत्र होते हैं।
'मंत्र' के बारे में गुरुदेव तुलसी कहते थे...
मन को उर्द्धवमुखी वृत्तियों की ओर ले जाने वाली शक्ति है मंत्र। जीवन निर्माण के अनेक माध्यमों में एक छोटा किन्तु सशक्त माध्यम मंत्र है। मंत्र न कोई जादू, न चमत्कार, न अंधविश्वास, पूरा विज्ञान है। भीतर की अनंत शक्ति का विकास। पवित्रता का अमोध साधन, शांति का संचार-मन।
CHY लाल
नमस्कार के पाँच पद, अक्षर हैं पैंतीस । ग्यारह लघु चौबीस गुरु, दीर्घ पनर, हृस बीस ।।
अहिंसा सुखदा लोके, हिंता तु दुःखकारणम् । न हम्माधिरित्याज्या, दया सेव्या सुखेप्सुमित
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लोक में अहिंसा सुसादायी है। हिंसा दुःसा का कारण है। इसलिए सुरा चाहने वाले प्राणियों |RTICIको हिंसा का परियाग कन्कता जारिया और दया-अहिंसा का आवरण करना चाहिया।
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॥ नमस्कार महामंत्र है आवश्यक नियुक्ति में एक महत्त्वपूर्ण सूचना मिलती है। नियुक्तिकार में लिखा है - पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार कर सामायिक करना चाहिए। पंचनमस्कार सामायिक का एक अंग है। इस निष्कर्ष से यही लगता है कि नमस्कार महामंत्र उतना ही पुराना है जितना सामायिक सूत्र।
जैन परम्परा का महामंत्र माना जाता है। जैन शासन में आज तक अनेक सम्प्रदाय बने, शाखा प्रशाखाएँ निकली। उत्तर कालीन जैन साहित्य में घोर पक्षापक्षी की झलक आयी, हर साम्प्रदाय का अपना कुछ अलग हैं परन्तु नमस्कार महामंत्र की निर्विकल्प आस्था पर कोई असर नहीं आया।
इसके अर्थ व भाव से यह किसी भी धर्म या संप्रदाय का अपना महामंत्र माना जा सकता है। नमस्कार महामंत्र के शब्दों का संगठन अत्यंत प्रभावशाली है। नमस्कार महामंत्र जैसे सर्व-शक्ति-सम्पन्न मंत्र, धरातल पर विरल है। यह एक श्रेष्ठ मंत्रों में एक है। परम उपकारी यह मंत्र सब पापों का नाश करनेवाला है। सब मंगलों में प्रथम मंगल है।
नवकार मंत्र जिनशासन का सार है। चौदह पूर्व से इसका समुद्धार हुआ है। जिसके मन में नवकार है, उनका कभी अनिष्ट नहीं हो सकता। नमस्कार महामंत्र केवल जैन परम्परा को मानने वालों के लिए ही श्रेयस्कर हो, ऐसा नहीं है। यह सभी के लिए समान रुप में लाभप्रद है। मंत्र जैन अजैन नहीं होता। 'मंत्र' मंत्र होता है। उसके सामर्थ्य का उपयोग कोई भी करना चाहे, तो उसे निश्चित सफलता मिलती है। जाति, लिंग, भाषा आदि उसमें बाधक नहीं बनते।नमस्कार महामंत्र सद्धर्म और सद्कर्म का सार है।
नमस्कार महामंत्र सब मंत्रों का स्त्रोत है और इसमें समस्त ऋद्धियां निहित है। नमस्कार महामंत्र अपराजित मंत्र है। इसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। यह अनुपम है, जगत प्रसिद्ध है और जगत वंदनीय है। नमस्कार महामंत्र दुःख को हरण करता है, सुख की प्राप्ति करता है।
मंत्र अपने आप में रहस्य होता है, किन्तु नवकार महामंत्र तो परम रहस्य है, बल्कि रहस्यों का रहस्य है। नमस्कार महामंत्र परममंत्र, परम रहस्य, परम से भी परम तत्व है, परमज्ञान, परमज्ञेय है शुद्ध ध्यान है, शुद्ध ध्येय है।
ऐसो परमो मंतो परम, रहस्सं परं परं तत्तं ।
नाणं परमं नयं, सुद्ध, झाणं परं झोयं । मंगल भावनाओं तथा शुभ संकल्पों से युक्त शब्दों के सतत उच्चारण तथा चिंतन से नयी शक्ति का निर्माण होकर यह मंत्र बन जाता है। नमस्कार महामंत्र आचार में बहुत छोटा है, परन्तु उपलब्धियों तथा संभावनाओं का खजाना है। मौलिकता यह है कि मंत्र चाहे जो हो, वह जीवन से जुड़ना चाहिए। जब तक मंत्र जीवन से जीवन की अवस्थाओं से नहीं जुड़ता तब तक वह जीवन्त मंत्र नहीं बनता।
नमस्कार महामंत्र का स्वरुप मूल पदों का या यह महामंत्र, पैंतीस अक्षरों का बना है। चार महिमा के पदों के साथ नवपद और अड़सठ अक्षर हो जाते हैं। इनकी नौ सम्पदाएं हैं। नमस्कार महामंत्र के पहला पद -७, दूसरा पद - ५, तीसरा पद - ७, चौथे पद -७, पांचवे पद के - ९ सब मिलाकर ३५ अर्थात् पांच पद परमेष्ठि है।
नमस्कार के पाँच पद, अक्षर हैं पैंतीस । ग्यारह लघु चौबीस गुरु, दीर्घ पनर, हस बीस ॥ बारह आठ छत्तीस पच्चीसा, साधू सत्ताइस गुणवाला ।
एक सौ ने आठ गुणां री, आ गातो गुण माला ।। इस तरह कुल १०८ मनकों की माला का जप किया जाता है। १०८ गुण पाँच पदों की वंदना में अलग अलग बताये गये हैं।
ऐसो पंच णमुकारो, सच पावपणासणो,
मंगलाणं च सव्वेसिं, पळमं हवड़ मंगलं ॥ यह नमस्कार महामंत्र सब पापों का नाश करने वाला और सब मंगलों में प्रथम मंगल है।
बनें अहम्
अहिंसा परमो धर्मो, रागद्वेषशमात्मकः। जाजता मुद्धता मैत्री तुपिटरतस्य विभूतयः ।।
बर्ने अर्थ
आहसा पाया है। सह उपशम स्वरूप वाला है। जुला, महता, मैत्री और तुष्टि हिंसा धर्म की विभूतियां है।।
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णमोक्कार मंत्र को महामंत्र कहने का कारण यही है कि इसमें पंच परमेष्ठी को नमस्कार किया है, परमेष्ठी किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं, जिनकी साधना सिद्धि तक पहुंच चुकी है अथवा साधना पथ पर आरुढ़ हैं वे परमेष्ठी हैं। यहाँ व्यक्ति विशेष नहीं व्यक्ति के गुणों की पूजा है। इस मंत्र द्वारा आध्यात्मिक विकास होता है। आत्मजागरण का यह मंत्र है। भौतिक कामना पूर्ति के लिए अनेक मंत्र है, परंतु कामना पूर्ति के बदले कामना समाप्त करने वाला यह मंत्र है, इसलिए यह महामंत्र है। सब मंगलों में मंगल और सब पापों का नाश करने वाला है।
दशवैकालिक में सूत्र है - 'धम्मो मंगल मुक्किट्ठ' धर्म सर्वोत्कृष्ट मंगल है। धर्म यानी आत्मा में रहना। आत्मा से बाहर, अमंगल है। णमोकार मंत्र आत्मा के निकट रहने का मंत्र है। इसलिए यह मंत्र सब मंगलों में प्रधान मंत्र है।
दैनिक चर्या के साथ महामंत्र का जाप कब करना है?
श्रावक चर्या के बारे में आज तक अनेक ग्रंथ लिखे गये हैं। उन सभी ग्रंथों में श्रावक का प्रत्येक दैनिक क्रम इस महामंत्र से प्रारंभ हो। १) शय्या त्याग करके तुरंत महामंत्र का उच्चारण करें। २) स्नानादि आवश्यक क्रिया के बाद एकान्त में पूर्ण मालाजाप। ३) स्वाध्याय, अध्ययन शुरु करने से पूर्व महामंत्र का स्मरण। ४) सामायिक पाठ बोलने से पूर्व और पश्चात् महामंत्र का जाप।
कोई पूजा, धार्मिक विधि, नया काम शुरु करने से पहले जाप। नाश्ता-खाने के पहले महामंत्र का उच्चारण करना न भूलना।
रात को शय्या पर जाते ही महामंत्र का स्मरण कर नींद ले। ८) यात्रा, घर के बाहर जाने से पहले मंत्र का स्मरण करें। ९) जन्म, मृत्यु, विवाह सभी संस्कारों के आरम्भ और समापन में न.म. जाप करें। १०) भय, चिंता, संकट, कलह, संयम के समय मंत्र जाप करें। ११) नये घर में प्रवेश, दुकान का मुहुर्त सविधि महामंत्र जाप। १२) हर त्यौहार के दिन, प्रतिक्रमण के पूर्व परीक्षा के समय जाप। १३) अपना आत्मविश्वास बनाये रखने के लिए नित्य जाप।
सत्यमेव गुरुोके, सत्यमेव परं तपः । बन अहम्
सत्यमेव पिता लोके, माता सत्यं सरखा पुनः ।
जप के प्रकार और विधि सबसे पहले दृढ़ संकल्प चाहिए, नियमित अभ्यास चाहिए। मंत्र जाप के समय एकाग्रता चाहिए।मंत्र आराधना क्षेत्र में, भावना और वातावरण का प्रभाव होता है, रंगों का प्रभाव होता है।
नमस्कार महामंत्र अध्यात्म मंत्र है। उसके जप एवं ध्यान के लिए किसी विशेष समय एवं व्यवस्था की आवश्यकता नहीं। यह मंत्र सर्वकाल, सर्व क्षेत्र में ध्यातव्य और जपनीय है। जप और ध्यान में मन, वचन और काया की एकाग्रता से होता है। प्रातःकाल शांत, प्रसन्न होता है, तब इसका जप, सरल और सहजता से होता है। मंत्र जाप के समय शुद्धाशुद्धि का अपना महत्त्व है। भाव शुद्धि, विशुद्ध भाव से परिणाम मिलते हैं। निर्मल भाव अवस्था ही कर्मों को क्षीणकार चेतना को निर्मल बनाती है।
नमस्कार महामंत्र की अर्हता
नमस्कार महामंत्र की अर्हता अचिंतनीय है, जिसकी सामान्य व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकता। नमस्कार महामंत्र के कारण लाखों लोगों ने अपने जीवन को पवित्र एवं समतामय बनाया है।
अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽथवा।
ध्यायन पंच नमस्कार सर्वपापैः प्रमुच्यते। पवित्र अथवा अपवित्र, सुख अथवा दुःख किसी भी स्थिति में नवकार मंत्र का जाप करने वाला मुक्त हो जाता है।
महामंत्र की साधना-कैसे करे?
मंत्र शास्त्र में साधना की अनेक प्रणालियों का उल्लेख मिलता है। मन, वचन, काया की स्थिरता और एकाग्रता सबसे महत्त्वपूर्ण है। जप में स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मतम ध्वनि के अलग-अलग स्तर बनते हैं। इसे ही वैखरी, मध्यमा और पश्यन्ती कहते है।
साधारण लोग बोलते है, वह स्थूल ध्वनि, जो मुख्यतः शरीर और कर्णेन्द्रिय को प्रभावित करती है। इस ध्वनि से मंद स्वर में बोली जाती व सूक्ष्म ध्वनि जो मन को प्रभावित करती है। पश्यन्ति अत्यंत सूक्ष्म ध्वनि, वाणी का मन के साथ योग, यह ध्वनि
बने अर्हम
लोक में सत्य ही गुरु है. सत्य ही परम तप है,
साथ ही मिला है, मारता है और जिम है।
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नमस्कार महामंत्र की आराधना पाँच पदों के आदि अक्षर-अ. सि. आ. उ.सा से निष्नन्न पंचाक्षरी मंत्र ‘असिआउस' के रुप में भी की जाती है। यह पंचाक्षरी मंत्र बहुत प्रभावशाली है।
जैन परंपरा में 'ओम्' पंच परमेष्ठी के पांच वर्षों से निष्पन्न होता है। अरहन्त अशरीर, आचार्य, उपाध्याय और मुनि - इन पांच परमेष्ठियों के आदि अक्षरों का योग करने पर 'ओम्' बनता है
अ+अ+आ+उ+म= ओम्।।
आभामण्डल एवं चेतना पर आये आवरणों को प्रकंपित करती है।
स्थूल ध्वनि जिसे वैखरी कहते हैं, यह चंचल साधक के लिए आवश्यक है। मन में विकल्प उठते हैं, तभी यह जाप करने से साधक स्वस्थ एवं शान्त होता है। धीरे-धीरे सुक्ष्म और सूक्ष्मतर अभ्यास कर सकते हैं।स्थूल ध्वनि मुख्यतः शरीर और कर्णेन्द्रिय को प्रभावित करती है। सूक्ष्म ध्वनि मन को प्रभावित करती है। सूक्ष्मतम ध्वनि आभामण्डल एवं चेतना पर आये आवरणों को प्रभावित करती है।
विमुच्य निंदा चरमे त्रियामा - यामार्धभागे शुचिमानसेन ।
दुष्कर्मरक्षो दमनैकदक्षो ध्येयस्त्रिधा श्रीपरमेष्ठिमंत्र ।। चतुर व्यक्ति रात्रि के अन्तिम प्रहर के अर्द्ध भाग शेष रहते निद्रा का त्याग कर दुष्कर्म रुपी राक्षस को दमन कर मन, वचन, काया से परमेष्ठि का जप एवं ध्यान करे।नमस्कार महामंत्र में किसी व्यक्ति विशेष की आराधना नहीं, यह आत्मा के निकट जाने का मंत्र है।
मंत्र साधक के लिए आवश्यक है कि वह मानसिक स्थिरता के लिए श्वास याने स्वर की गति, आकृति, स्पर्श और उसके रंगों को समझें।
महामंत्र के उच्चारण की अनेक विधियाँ हैं जैसे शरीर के अवयव पर मंत्रजप करते हैं, रंगों के साथ जप करते हैं, श्वाँस के साथ लयबद्ध मंत्र साधना होती है, पंचतत्वों में अपना विज्ञान भी है। चैतन्य केन्द्रों पर भी जाप किया जाता है। इस प्रकार मंत्र की आराधना में जैसे क्षेत्र भावना और वातावरण का प्रभाव होता है, वैसे ही रंगों का भी प्रभाव होता है।
2 महामंत्र आराधना के विविध प्रकार
नमस्कार महामंत्र की आराधना अनेक रुपों में की जाती है। उसके पाँच पद और पैंतीस अक्षर हैं। इसकी आराधना बीजाक्षरों के साथ की जाती है, बिना बीजाक्षरों से केवल मंत्राक्षरों के साथ भी की जाती है।
'ऐसो पंच णमोकारो' इस चुलिका के पद के साथ की जाती है और इस चुलिका पद के बिना भी की जाती है। नमस्कार महामंत्र का संक्षिप्त रुप ॐ में भी की जाती है, जिसमें पांचों पद सम्मिलित है।
पूरा नमस्कार महामंत्र ओंकार में गर्भित है। एक जैन व्यक्ति 'ओंकार' का जप करते समय प्राणशक्ति से लाभान्वित होता ही है और साथ-साथ पंच परमेष्ठी से अपनी तन्मयता का अनुभव करता है, अपने शरीर के कण कण में परमेष्ठी पंचक की समस्याओं का अनुभव करता है।
जैन आचार्यो ने 'ओम्' की निष्पत्ति का एक दूसरा रुप भी प्रस्तुत किया है। अज्ञान, उ-दर्शन और म-चारित्र का प्रतीक है। इन तीनों वर्गों से निष्पन्न (अ+उ+म) ओंकार त्रिरत्न का प्रतीक है। ओंकार की उपासना करने वाला मोक्ष मार्ग की उपासना करता है, ज्ञान, दर्शन और चारित्र - तीनों की उपासना करता है। यह भावनात्मक संबंध है। इस प्रकार 'ओम्' समूची वर्णमाला और भाविक अक्षरों में एक मूर्धन्य अक्षर बन गया। शब्द उच्चारण का एक बहुत बड़ा विज्ञान है। मंत्र शास्त्र ने उस पर बहुत प्रकाश डाला है। 'ओंकार' के उच्चारण से जमे हुए मल धुल जाते हैं।
इस महामंत्र की आराधना 'अहं' के रुप में भी की जाती है। रंगों के साथ महामंत्र का जाप किया जाता है।
नमस्कार महामंत्र के आधार पर कितने मंगल मंत्र विकसित हुए हैं। नमस्कार महामंत्र से जुड़ा एक मंत्र है 'अर्हम्' । एक मंत्र है अ.सि.आ.उ.सा. । नमस्कार से बना एक मंत्र है 'ओम' । इस प्रकार नमस्कार मंत्र से जुड़े हुए पचासों मंत्र है, जो विघ्नों का निवारण करते हैं, ग्रहों के प्रभाव से बचते हैं।
-
सत्येन वर्धले शक्तिः, ज्ञानं सत्येन प्राप्यते। सत्येन तावयसिद्धिः स्यात् सत्येनात्मा विशन्दयति ।।
बने अहया
सत्य से शक्ति बढ़ती है। सत्य से ज्ञान प्राप्त होता है। सत्य से सजविधिोती है। सत्य से भारमा शुद्ध होती है।
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१. श्वाँस के साथ जाप किया जाता है
श्वाँस और मन का गहरा सम्बन्ध है। सत्य की खोज नियमों की खोज यह व्यक्ति की जिज्ञासा है, प्रकृति है। श्वाँस का सम्बन्ध प्राण से है, प्राण का सम्बन्ध शुद्ध प्राण से है। श्वाँस एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण माध्यम है। श्वाँस एक ऐसा सेतु है जिसके द्वारा नाड़ी संस्थान मन, प्राणशक्ति तक पहुँच सकते हैं। श्वाँस को छोटा न समझें, यह इतना महत्त्वपूर्ण है, इसलिए किसी ने कहा भी है, श्वास को देखा तो जीना सीखा।
श्वाँस केन्द्र बिंदु है, नींव का पत्थर है, श्वाँस सबकुछ है। 'मन' को हम पकड़ नहीं पाते, स्वभाव को बदलना चाहते हैं, नहीं बदल पाते। श्वास को पकड़ो, आलंबन बनाओ देखों चंचलता मिटाने का रास्ता मिल जायेगा। समता साधने में, सामायिक की आराधना में 'स्वर' श्वाँस ही महत्त्पूर्ण है। संतुलन साधने में, शांतिपूर्ण जीवन जीने में, अध्यात्म में, विकास करने में, स्वभाव बदलने में, जगत का स्वरुप समझने में, ममता और अहंकार का विसर्जन करने में श्वाँस का उपयोग करना जानेंगे तो सहजता आयेगी ।
श्वास-प्रश्वास की क्रिया समझना जरुरी है। 'प्राणायाम' को समझना जरुरी है। प्राणायाम का नियमित अभ्यास करना और श्वाँस पर भी ध्यान देना चाहिए। 'नमस्कार' महामंत्र का जाप श्वास-प्रश्वास की गति के साथ करने से एकाग्रता अच्छी होती है। श्वाँस के साथ महामंत्र जाप मन में जपें
णमो अरहंताणं
णमो सिद्धाणं
णमो आयरियाणं
णमो उवज्झायाणं
णमो लोए सव्वसाहूणं
-
श्वाँस लेते समय श्वाँस छोड़ते समय
श्वाँस लेते समय
श्वाँस छोड़ते समय
श्वाँस लेते समय
श्वाँस छोड़ते समय
इस विधि से नमस्कार महामंत्र करने से मन शांत होता है, एकाग्रता भी अच्छी होती है। माला भी इसी प्रकार मन में श्वाँस के जाप साथ फेरने से पूरी माला में ३२४ श्वाँस - प्रश्वास का परावर्तन होता है। योगशास्त्रीय गणना के अनुसार एक व्यक्ति एक दिन में इक्कीस हजार, छह सौ श्वास-प्रश्वास लेता है।
बने अर्हम्
यदि प्रतीतिराव्या, सत्य निष्ठो भवेत् तदा । विना सत्येन लोकेरिगन्, विश्वासो नहि संभवेत् ॥
२८
नमस्कार महामंत्र चैतन्य - केन्द्रों पर
चैतन्य - केन्द्रों पर भी नवकार मंत्र का जाप करते हैं। रक्षा कवच के रूप में संपूर्ण शरीर की रक्षा के लिए नवकार मंत्र का जाप नवपदध्यान अष्ट दल कमल में किया जाता है। नौ ग्रह हमारे शरीर में है, इसके साथ भी जाप करते हैं। नवकार मंत्र का जाप रंग और स्थान
स्थान
रंग श्वेत
-
केन्द्र
- मस्तक
णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं
- भृकुटि
- लाल
- ज्ञान केन्द्र - दर्शन केन्द्र णमो आयरियाण - कण्ठ -पीला - विशुद्ध केन्द्र णमो उवज्झायाणं - हृदय हरा -आनन्द केन्द्र - नाभि णमो लोए सव्व साहूणं - नीला - शक्ति केन्द्र नमस्कार मंत्र के साथ रंगों का समायोजन है। हमारा शरीर भी पौदगलिक है। पुदगल के चार लक्षण है- वर्ण, गंध, रस और स्पर्श । वर्ण (रंग) से हमारे शरीर का बहुत निकट का संबंध है। जैसे नीला रंग कम होता है तो क्रोध अधिक आता है, लाल रंग की कमी होती है तो आलस्य, जड़ता पनपती है। इसी आधार पर हम नमस्कार महामंत्र की साधना कैसे कर रहे है, यह समझना जरूरी है। लेश्या ध्यान यही कहता है जैसा भाव वैसा रंग जैसा रंग बनेगा वैसा भाग्य बन जाता है।
" णमो अरिहन्ताणं"
" णमो सिद्धाणं"
" णमो आयरियाणं
" णमो उवज्झायाणं"
" णमो लोए सव्वसाहूणं" कषायों को शांत करता है।
बनें अर्हम्
"
=
ज्ञान केन्द्र पर श्वेत रंग का ध्यान करने से हमारी आंतरिक शक्तियों का जागरण होता है।
दर्शन केन्द्र पर लाल वर्ण का ध्यान करने से आंतरिक दृष्टि जागृत होती हैं।
विशुद्धि केन्द्र पर पीले रंग का ध्यान करने से मन सक्रिय बनता है।
आनन्द केन्द्र पर हरे रंग का ध्यान करने से विषापहार होता है, हरा रंग ठंडा होता है।
1
शान्ति केन्द्र पर नीले रंग का ध्यान शांति प्रदान करता है।
यदि विश्वास प्राप्त करना है तो सत्यनिष्ठ बनो। इस लोक में सत्य के बिना विश्वास संभव नहीं है।
२९
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ग्रह और नमस्कार मंत्र का भी सम्बन्ध है:
प्रत्येक वार के अनुसार भाव, वातावरण, स्थान शुद्धि चित्त समाधि और शक्ति जागरण के लिए मंत्र जप
अष्टदल वाले कमल की हृदय में कल्पना करें: प्रथम पद णमो अरहंताणं' को कर्णिका में स्थापित करें। तत् पश्चात् चार पदों को चार दिशावर्ती दलों पर स्थापित करें तथा 'एसो पंच....' - इन चार पदों का चार विदिशाओं वाले दलों पर स्थापित करें।
रविवारः
णमो मिला
पदम हवई)
मंगल /
एमो पंच णमुक्कारा
सोमवार :
मो लोए सबसाहण
(णमो अरहताणं
रियाण णमो आय
मंगलवारः
IMIDINA
बुधवारः
(२१ बार प्रत्येक मंत्र बोलना) ऊँ ह्रीं णमो सिद्धाणं ऊँ ह्रीं श्रीं अर्ह श्री पद्मप्रभवे नमः मम सूर्य ग्रह शांति
कुरु कुरु स्वाहा। ऊँ ह्रीं णमो अरहताणं ऊँ ह्रीं श्रीं अहं श्री चन्द्रप्रभवे नमः मम चन्द्र ग्रह शांति
कुरु कुरु स्वाहा। ऊँ ह्रीं णमो सिद्धार्ण ऊँ ह्रीं श्रीं अर्ह श्री वासुपूज्य स्वामिने नमः मम मंगल ग्रह शांति
कुरु कुरु स्वाहा। ऊँ ह्रीं णमो उवज्झायाणं ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह श्री शांतिनाथाय नमः मम बुध ग्रह शांति
कुरु कुरु स्वाहा। ऊँ ह्रीं णमो आयरियाणं ऊँ ह्रीं श्रीं अहँ श्री ऋषभनाथाय नमः मम गुरु ग्रह शांति
कुरु कुरु स्वाहा। ऊँ ह्रीं णमो अरहंताणं ऊँ ह्रीं श्रीं अहं श्री सुविधिनाधाय नमः मम शुक्र ग्रह शांति
कुरु कुरु स्वाहा। ऊँ ह्रीं णमो लोए सव्व साहूणं ऊँ ह्रीं श्रीं अहँ श्री मुनिसुव्रत स्वामिने नमः मम शनि ग्रह शांति
कुरु कुरु स्वाहा।
चसलाम
णमो उवमायाणं
naink -blh
गुरुवारः
शुक्रवार:
इस प्रकार नवकार मंत्र की अनेक विधियाँ दी है। अंगुली पर माला फेरने तथा रक्षा कवच के रुप में शरीर के प्रत्येक अवयव पर पदों का न्यास करने से शरीर की रक्षा होती है।ग्रह शांति होती है।
नमस्कार महामंत्र की एक-एक अक्षरों में इतना सामर्थ्य है कि जन्म-मृत्यु के क्लेशों से जीव मुक्त कर नवजीवन प्रदान करता है।
जं एस नमुक्कारो जम्मजरामरणदारुणसरुवे
संसारारण्णाम्मी न मंदपुण्णाण संपउई। जन्म-जरा-भय भयंकर स्वरुप वाले इस संसार में नवकार से ही पार हुआ जा सकता है। कोई भाग्यशाली को ही नमस्कार महामंत्र उपलब्ध हो सकता है। इसलिए इसका स्वरुप अर्थ समझना जरुरी है।
शनिवार :
बने अहम
प्रियं सदैव वक्तव्यं, नाप्रियभाषणं वरम् । सत्ययक्ता पिया भाषा, लोककल्याणकारिणी।।
बने अहम
-
सत प्रिय बोलना साहिए । अप्रिय बोलना अच्छा नहीं है।
सत्ययुक्त प्रिय भाषा लोणावण्याणकारी होती है।।
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म चतुर्विंशति-स्तव ॥
सिद स्मरण
वंदेमु विमला
आबच्चेसु अहिले पचासखस
> नमस्कार मंत्र की मौलिक विशेषताएँ
१. नमस्कार मंत्र में कसी व्यक्ति विशेष को नमस्कार नहीं करके वितराग तथा त्यागी आत्माओं को नमस्कार किया है।
२. इस मंत्र की कोई एक अधिष्ठता देव नहीं है, यह मंत्र सभी शक्तियों के ऊपर है। बिना किसी प्रयास से जाना जा सकता है।
३. इस मंत्र में १४ पूर्वो का सार माना गया है। ४. यह मंत्र अनादि मंत्र है।
सामान्यतः दो प्रकार के मंत्र होते हैं1) जिनकी रचना बीजाक्षरों के द्वारा हुई है।
2) जो उच्चारण में कठिन और गूढ़ अर्थवाले होते हैं। नमस्कार महामंत्र न बीजाक्षरों से निर्मित है और न गूढ अर्थवाला है। प्राकृत भाषा का है तथापि सरल, सुबोध और सहज शुद्ध उच्चारण कर सकते हैं।
नमस्कार महामंत्र के बारे में जितना लिखा जाए उतना कम है। एक श्लोक बहुत ही सुंदर है, जिससे हम नमस्कार महामंत्र का महात्म्य समझ सकते हैं।
किं एस महारयणं किंवा चिंतामणि तु नवकारो।
किं कप्पधुमसरिसो न हुनहु तओ णि अहिययुरो॥ क्या नमस्कार महामंत्र महारत्न है? क्या ये चिंतामणी रत्न तुल्य है? क्या कल्पद्रुम सादृश्य है ? नहीं-नहीं। यह तो उन सबसे भी अधिक अर्थात उत्कृष्ट है। क्योंकि रत्न, चिंतामणि, कल्पवृक्ष तो एक जन्म में ही काम आते हैं. जबकि नमस्कार महामंत्र तो जन्म जन्म तक काम आता है।
सिदा सिदिमम दिसत
लोगरस पाठ: सामायिक में अनेक अलग-अलग प्रयोग किये जाते है। प्रत्येक व्यक्ति सामायिक में अलग-अलग स्वाध्याय करते हैं। हर एक का अपना स्वाध्याय और अपना तरीका होता है। फिर भी सामायिक में नमस्कार महामंत्र, मंगलपाठ और लोगस्स पाठ जैसी कुछ बातें सभी करते ही हैं। अभी तक हमने मंत्र, प्रेक्षाध्यान, अठारह सावध प्रवृत्तीया देखी। अब हम 'चतुर्विंशति-स्तव' यानी 'लोगस्स पाठ' के बारे में थोड़ी जानकारी लेते हैं।
बने अहम
भोगेन सहयोगः स्याद, गृहस्थस्यापि जीवने । केवलेन त भोगेन, गार्हस्थ्यं दुखितं भवेत्॥
बन अहमोग से गाय का जीवन दुखमय बन जाता है।
अशा गृहस्थ जीवन में भोजन के साथ योग की साधना भी होनी चाहिए।
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___卐 मंगल भावना ॥
सात गाथाओं से लोगस्स का पाठ बना है जिसमें चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। यह सप्तपदी मंत्र है, सात गाथाओं का एक महामंत्र।
प्रथम पद्य में तीर्थंकरों की स्तुति का संकल्प, अगले चार पदों में या तीर्थंकरों के नाम स्मरण पूर्वक स्तुति, छठे पद्य में आरोग्य, बोधि, समाधि की मांग और अंतिम पद में तीर्थंकर चंद्रमा से अधिक निर्मल, सूर्य से अधिक तेजस्वी तथा सागर से अधिक गंभीर होते हैं। अतः इन तीनों की उपलब्धि सहज है, ऐसा उल्लेख है। इस प्रकार यह आवश्यक में भी सबसे छोटा परंतु अत्यंत महत्त्वपूर्ण आवश्यक है।
यह भक्ति है। प्रश्न है, भक्ति का स्तुति करने से क्या लाभ होता है ? इससे मन की निर्मलता, भाव की विशुद्धि होती है।
उत्तराध्ययन सूत्र में पूछा गया 'भगवन! चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करने से जीव को क्या प्राप्त करता है?'
भगवान ने उत्तर दिया - 'दसणं विसोहिंजणयई' दर्शन की विशुद्धि को प्राप्त करता है। तीर्थंकरों की स्तुति या ध्यान करने से मोहनीय कर्म शांत होते हैं। लोगस्स का सूत्र अर्हता का सूत्र है। समर्पण का सूत्र है। जैन दर्श अनेकान्तवादी है। ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग सबको समान मानता है। भक्ति भी करनी है, क्यों ? महावीर का एक सूत्र बहुत सुंदर है। ननत्थ थेनिजस्टूठयारा-केवल निर्जरा के लिए करो।'
लोगस्स का पाठ प्रायश्चित के लिए बहुत काम में आता है। इसे श्वासोच्छवास के साथ करने से अधिक लाभ होगा। इसलिए धीमे-धीमे लयबद्ध उच्चारण करें। प्रत्येक पद के साथ श्वासोच्छवास का पद और मानसिक उच्चारण करें। सात श्लोकों का लोगस्स भावना का सुंदर प्रयोग है।
जैन भक्ति में एक सकाम भक्ति है और एक निष्काम भक्ति होती है। सकाम भक्ति में कोई मांग होती है। निष्काम भक्ति में कोई कामना नहीं होती। लोगस्स में कहा है
आरोग्ग बोहिलाभं, समाहिवरमुत्तमं दितु।
प्रभो! आप मुझे आरोग्य दें, बोधि और समाधि दें।ये तीन कामनाएं की गई है। उच्च स्तर की कामना। इसमें उच्चारण शुद्धि हो, लयबद्धता हो। अर्थ बोध के साथ इसे करें तो चित्त एकाग्र होता है। इससे शुभध्यान का सहज अभ्यास होता है।
खुद को जानना और अपना विकास करना है। इसके लिए ज्ञान आवश्यक है हर प्रक्रिया समझकर, अर्थ को जानकर करनी है। भारतीय दर्शनों में सबसे बड़ा पाप माना है अज्ञान या अविद्या। ज्ञान की उपासना, दर्शन और शक्ति की उपासना करनी चाहिए। ज्ञान के साथ मंत्र उच्चारण करो।
विकास करना है तो, जिज्ञासा चाहिए। नमस्कार महामंत्र की आराधना महान साधना है। अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और मुनि इस पंच परमेष्ठी की आराधना क्या है? यह समझ लो। जैसे पंचपरमेष्ठी की आराधना आत्मा की आराधना है। मंगलभावना जीवन की महान उपलब्धि है। मंगल भावना करें, मंगल भावना सबके लिए आवश्यक है। नमस्कार महामंत्र मंगल है। इसकी स्मृति उच्चारण सब कुछ मंगल है।
अपनी पहचान, गुणों का विकास और परिष्कार विवेक से करना चाहिए। इसके लिए हमें "मंगल भावना" का भी प्रयोग करना चाहिए। कोई भी कार्य करे तो 'मंगल' के साथ करें। हम देखते हैं, कोई भी कार्यक्रमों का प्रारंभ मंत्र अथवा मंगलाचरण द्वारा होता है। कार्यक्रम की सफलता के लिए इसका प्रयोग करते हैं। द्रव्य मंगल भी है और भाव मंगल भी है। द्रव्य का अर्थ अवास्तविक और भाव का अर्थ है वास्तविक, पारमार्थिक, अध्यात्म शास्त्र में मंगल उसी को मानना चाहिए जिससे निश्चित ही विघ्न और बाधाओं को मिटाने की क्षमता है। उसी को वास्तव मंगल मानना चाहिए।
हर व्यक्ति के लिए, हर काल, और देश में निश्चित मंगल होता है वह वास्तविक मंगल है। पांच मंगल है। अर्हत् मंगल है, सिद्ध मंगल है, आचार्य मंगल है, उपाध्याय मंगल है और साधु मंगल है। प्रश्न यह है इन्हीं को मंगल क्यों माना गया? कारण कि, यह सब आत्मा है। आत्मा सबसे बड़ा मंगल है। चैतन्य सबसे बड़ा मंगल है। आनंद और शक्ति सबसे बड़ा मंगल है। आत्मा के तीन लक्षण है। अनन्त चैतन्य, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति।ये सबसे बड़े मंगल हैं। इनसे कभी भी अमंगल नहीं होता।
बन अहम्भ
आसक्तिमूलकं पापं, धर्मः संवानणाशकः। संवादो महाधर्मः, परिवाहश्य पातकम् ॥
बने अर्ट
आसत्तिा पाप का गुल है। धर्म आसक्ति का नाश करने वाला है।
अपरिग्रह महान पर्ग है और परिवार पाप है।
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BY "सामायिक स्वयं ध्यान है"
यह मंगल भावना का मंत्र सबके लिए आवश्यक है, क्योंकि कोई व्यक्ति अकेला नहीं है, निरपेक्ष नहीं है, सब सापेक्ष हैं। मंगल सूत्र के बाद आता है मंगल पाठ।जैन परम्परा में सबसे अधिक प्रचलित है मंगल सूत्र। मंगलचार हैं - अर्हत्, सिद्ध, साधु और धर्म। नमस्कार महामंत्र में पंच परमेष्ठि मंगल है, मंगल पाठ में चार मंगल हैं। तीन मंगल तो नमस्कार महामंत्र के मंगल - अर्हत्, सिद्ध और साधु हैं, एक 'धर्म' इससे जुड़ गया। वास्तव में धर्म ही मंगल है।ये चार मंगल हैं।
अर्हत् इसलिए मंगल है वह वितराग है। सिद्ध सर्वथा आत्मा है, केवल आत्मा। आत्मा से बढ़कर कोई मंगल हो नहीं सकता। साधु को भी मंगल माना गया है। साध का मंगल अध्यात्म का मंगल है। धर्म मंगल है। धर्म आत्मा का स्वरुप है। आत्मा को छोड़कर कोई मंगल नहीं है। जैन आचार शास्त्रीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो एक मात्र मंगल है आत्मा। इसी आधार पर हमें प्रयोग करना चाहिए। कोई भी कार्य करना, मुहूर्त करना है, आत्मा में रमण करना है तो वह मंगल होगा। मंगल पाठ में निश्चय और व्यवहार दोनों सूत्र हैं। सदैव यह गूंजता रहेगा तो जीवन सुखी बनेगा।
धृति सम्पत्रोऽह स्याम्
शक्ति सम्पत्रोऽहं स्थान
पी सम्पयो
ही सम्पत्रोऽहं स्याम्
शान्ति सम्माजस्थान
नन्दी सम्पन्नाह स्याम्
HSushee
“सामायिक की निष्पत्ति है ध्यान और ध्यान की निष्पत्ति है सामायिक"
- 'आध्यात्म का प्रथम सोपान - सामायिक' आचार्यश्री महाप्रज्ञजी
Jaiha asala PN
बन अहम
स्वीकार्या मजुजै नित्यं, वाग्गुप्तिर्हितकारिणी। व त्तव्यं नानपेक्षायां सूक्तं कल्याणकारकम्॥
बने अहम
मनुष्यों को सता हित करने वाली सामाप्ति स्तीकार करनी चाहिए।
ाि अपेक्षा नाहीं सोलना चाहिए यह सूदगल वारल्याणकारी है।।
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卐 प्रेक्षाध्यान ॥ हर व्यक्ति में परमात्मा का अस्तित्व है। हमारे गुणों का विकास हमारे कर्तृत्व पर आधारित है। व्यक्तित्व विकास की प्रक्रिया सतत चलती है। सामायिक करने वाले व्यक्ति को यही ध्यान रखना चाहिए कि सामायिक में जो १८ पापों का त्याग करते हैं, उनके जीवन में हमेशा कैसा प्रभाव रहेगा? हम हमारे स्व का आत्मनिरीक्षण, परीक्षण करके प्रेक्षाध्यान, प्राणायाम इत्यादि प्रयोग सामायिक में करके हमारे स्वभाव में, व्यवहार में जो दोष है उसे निकाले । जैसे गुस्सा करना, झूठ बोलना, चुगली, निंदा करना, दूसरों का द्वेष करना मुख्यतः लोभ, ममकार, अहंकार इनका विलय प्रेक्षाध्यान द्वारा हो सकता है।
समता बढ़ाने के लिए, संपूर्ण जीवन भर समता में रहने के लिए सहना सीखें, कुछ न मुंह से कहना सीखें, तटस्थ-समभाव रखे और क्षमताओं का विकास करें। व्यवहार बदलना है तो मूल की खोज करना, उसके अनुरुप प्रयोग करना। सामायिक में, प्रेक्षाध्यान के प्रयोग करेंगे तो, निश्चित ही सामायिक का प्रभाव संपूर्ण जीवन पर होगा। आपके बदलाव को देखकर अन्यों को लगेगा, यह व्यक्ति सामायिक करता है। प्रेक्षाध्यान इसके लिए अप्रतिम साधना है।
आचार्य श्री महाप्रज्ञ फरमाते हैं - सामायिक स्वयं ध्यान है। इसमें विशेष प्रयोग किये जाते हैं। गुरुदेव तुलसी ने अभिनव सामायिक का प्रयोग प्रस्तुत कर सामायिक का आध्यात्मिक स्वरुप उजागर किया। जिसने भी इसे समझा, जाना और सामायिक में इसका प्रयोग किया, उसको सामायिक में कब ४८ मिनट हुए पता ही नहीं चलेगा, सामायिक से वह प्रसन्नता, स्फूर्ति का अनुभव करेगा। जीवन में शांति, आनंद आयेगा तो सारे द्वन्द खत्म होंगे। ममकार और अहंकार का विसर्जन होगा, विषमता मिटेगी और समता के द्वार खुलेंगे, जीवन सुखी और समृद्ध बनेगा।
'प्रेक्षा' शब्द का अर्थ है प्र + ईक्षा = प्रेक्षा, ईक्ष धातु से बने इस शब्द का अर्थ है प्रयानी गहराई से, ईक्ष-यानी देखना। प्रेक्षाध्यान यानी अपने आप को गहराई से देखना।
आत्मा के द्वारा आत्मा को देखना। अपने आप को देखना। मन के द्वारा आँखे बन्द करके सूक्ष्म मन को देखना। 'देखना' ध्यान का मूल तत्व है। जानना चेतना का मुख्य लक्षण है, क्षमता के लिए यह जरुरी भी है।
इसलिए जानों और देखों। यही मुख्य बात है। प्रेक्षाध्यान में एकाग्रता और अप्रमतता चाहिए। अप्रमाद यानी जागरुकता जरुरी है। क्षणभर भी प्रमाद मत करो। यही उपदेश देकर हमें भगवान ने जागृत किया है।
ध्यान का पहला चरण - कायोत्सर्ग 'कायोत्सर्ग' से प्रेक्षाध्यान की शुरुआत होती है। ध्यान का अर्थ है प्रवृत्ति का निरोध। प्रवृत्तियां तीन हैं - कायिक, वाचिक और मानसिक। इन तीनों का निरोध हैं ध्यान। फलतः ध्यान तीन प्रकार के होते हैं - कायिक ध्यान, वाचिक ध्यान और मानसिक ध्यान।
सामायिक पाठ को भी हम समझेंगे तो इसमें भी जो उपासना करते हैं वह भी दो करण (करना, कराना) और तीन योग से (मन, वचन और काया से)। प्रेक्षाध्यान में सर्वप्रथम हम कायिक ध्यान करेंगे - कायोत्सर्ग द्वारा। कायोत्सर्ग का अर्थ है, शरीर का व्युत्सर्ग और चैतन्य की जागृति। कायोत्सर्ग की पहली शर्त है मानसिक, शारीरिक शिथिलता और मानसिक एकाग्रता। इसके लिए चित्त एवं शरीर की स्थिरता अनिवार्य है।
सामायिक में भी त्रिगुप्ति की साधना में कायगुप्ति शरीर की स्थिरता, मौन करके ध्यान करने के लिए कहा है।
सामायिक में भीतर का संतुलन और सही दृष्टिकोण का निर्माण है। यह प्रेक्षाध्यान के प्रयोग से ही होगा। तटस्थता की साधना, वर्तमान में जीना, रागद्वेष भाव से बचना सामायिक के उद्देश्य है और प्रेक्षाध्यान में यह प्रयोग है। भाव क्रिया का अभ्यास, प्रेक्षाध्यान की शुरुआत है। वर्तमान में जीना सामायिक का सच्चा स्वरुप है और प्रेक्षाध्यान में वर्तमान में जीना अभ्यास का एक अंग है।
स
बने अहम
प्रसूता न रसाः सेव्या, रसनासंयमो महान । जिहेन्टिययगेन स्यात्, सारस्यं जीतने परम् ।।
बन अहम्द
र सों का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए। जिहा. संयम महान है।
य-संयम से जीवन में परम सरसता आती है।
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DD ध्यान का दूसरा चरण - अन्तर्यात्रा
प्रेक्षाध्यान का दूसरा चरण है अतर्यात्रा ध्यान साधना में नाड़ीतंत्र का प्राणशक्ति को विकसित करना आवश्यक है। चेतना की अन्तर्यात्रा से ऊर्जा का प्रवाह या प्राण की गति उर्द्धवागामी होती है।
तेजस्विता, संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास, चेतना का जागरण सामायिक में अंतर्यात्रा का प्रयोग करने से होता है। केवल मुंहपत्ती लगाकर, चादर ओढ़कर पाठ बोलकर ४८ मिनट कब होंगे? यह सोचते सामायिक करोंगे तो, ऐसी सामायिक सफल नहीं होंगी। सामायिक करने पर भी प्रतिक्रिया, निंदा, अशांति और आवेग रहेंगे। इसलिए हमें ३२ दोषों को टालकर प्रमादवश अतिचार-अनाचार हो तो प्रायश्चित पूर्वक शोधन व परिष्कार करना आवश्यक है। इसलिए हमेशा पूनिया श्रावक को याद रखें। कितनी अनमोल सामायिक होती है, यह समझो। अन्तर्यात्रा का प्रयोग करें ऊर्जा का प्रवाह या प्राण की गति उर्द्धवगामी करें।
ध्यान का तीसरा चरण - श्वास प्रेक्षा चित्त को एकाग्र करने का सरल और सक्षम उपाय है - श्वास प्रेक्षा।मन की शांति के लिए, एकाग्रता के लिए श्वास को नियंत्रित करना बहुत जरुरी है। श्वास पर विजय बिना ध्यान नहीं होता और स्वर को जाने बिना सामायिक साधना सहज नहीं होती। क्योंकि जिनका नाड़ीतंत्र संतुलित न हो उसमें समता का विकास संभव नहीं। 'श्वाँस ले रहा हूँ अनुभव करें, श्वासमय हो जाए। इस प्रकार वे श्वाँस की भाव-क्रिया श्वाँस प्रेक्षा है। श्वाँस मन्द, दीर्घ या सूक्ष्म करने से मन शांत होता है। आवेग, आवेश, कषाय और उत्तेजना शान्त होते हैं। श्वास वर्तमान की वास्तविकता है। श्वास को देखने का अर्थ है, समभाव में जीना। रागद्वेष मुक्त जीना।
हमारे दो स्वर होते हैं, दायां और बायां। दायां स्वर सक्रिय होता है तो क्रोध, आवेश, उत्तेजना और आक्रमकता बढ़ती है। बायां स्वर अधिक सक्रिय होने से भय, हीन भावना, निराशा का जन्म होता है। यह विषमता की स्थिति है। समता वहीं होगी जहां संतुलन
होगा। सामायिक में श्वाँस प्रेक्षा, प्राणायाम का अभ्यास ५-१० मिनट तक करें तो, यह प्रयोग अनेक अर्थों से उपयुक्त होगा।
श्वास वास्तविक है, इसलिए सत्य है - वर्तमान की घटना है। श्वास प्रेक्षा करना यानी श्वाँस को देखते हुए सत्य को देखना, वर्तमान में जीने का अभ्यास. श्वाँस को देखना ही समभाव जीना है।
श्वाँस निरंतर चलता है। श्वाँस भीतर लेते समय पेट फूलना चाहिए और श्वास छोड़ते समय पेट सिकोड़ना चाहिए।यौगिक भाषा में हम श्वाँस लेते हैं उसे पूरक कहते हैं। श्वाँस छोड़ने की क्रिया को रेचक कहते हैं और जो श्वाँस रोकते हैं उसे कुंभक कहते हैं। जो अपने आप चलता है, उसे स्वर कहते हैं।
स्वर चक्र से स्वभाव का गहरा संबंध है। इसलिए सामायिक में हमें अपने आपको बदलना है, स्वभाव बदलना है तो, श्वाँस को जानना और उसका अभ्यास करना बहुत जरुरी है।
श्वाँस प्रेक्षा में इसके लिए समवृत्ति श्वाँस का विकास किया गया है। समता जागृति के लिए यह बहुत जरूरी है। धार्मिक जीवन का, सामायिक की आराधना का आत्मा है समता की साधना। जिसे हम स्वर संतुलन के प्रयोग द्वारा सहज प्राप्त कर सकते हैं। चित्त की निर्मलता और एकाग्रता के लिए श्वाँसप्रेक्षा जरुरी है।
श्वाँस दो प्रकार का होता है। सहज और प्रयत्नजन्य। प्रयत्न द्वारा श्वाँस की गति में परिवर्तन किया जा सकता है।छोटे श्वाँस को दीर्घ बनाया जा सकता है।
सच बात तो यह है कि, श्वाँस ही जीवन है। जीवन की प्रत्येक क्रिया श्वास से जुड़ी है। सम्यक श्वाँस सर्वोपरि है। दुर्भाग्यवश इसे ही हम उपेक्षित रखते हैं। बहुत थोड़े लोग होंगे जो सही और पूरा श्वाँस क्या है? जानने का प्रयल करके वैसे ही श्वाँस लेने का अभ्यास करते हैं। गलत तरीके से श्वाँस लेने से अपर्याप्त ऑक्सीजन, दुर्बल स्वास्थ्य, स्नायिविक दुर्बलता और उत्तेजना बढ़ाते हैं। रोगों की प्रतिकार शक्ति में भारी कमी आती है।
इसलिए स्वास्थ्य और समता प्राप्ति के लिए, थकान दूर करके शांति और आनंद की अनुभूति के लिए सामायिक में सहज, मंद, दीर्घ श्वाँस का अभ्यास करना चाहिए।श्वसन की सम्पूर्ण क्रिया करने में जागरुकता की अपेक्षा है।
सेवया वर्धते प्रीलिः, सेवया कर्मणां क्षयः। त या आवसंशतिः, सेवाधर्मः सुखावहः॥
अभा
बन अहम
वाम सुस्वकाश हा जयोति सेवा से परस्पर IN ली है.
कों का नाश होता है और माता का शोफा होता है।
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॥ वंदना ॥ धर्म के क्षेत्र में वंदना का जितना मूल्य या महत्त्व है, व्यवहार के क्षेत्र में भी उसका उतना ही महत्त्व और मूल्य है। यह शिष्टाचार है। हमें बंदना करनी चाहिए। सद्गुरु की वंदना श्रद्धाभक्ति द्वारा करने से विनय की वृद्धि होती है। इसका मुख्य उद्देश्य भी आत्मशुद्धि है। हमें प्रत्याख्यान भी करना चाहिए।प्रमाद पूर्वक किये भूत कालीन दोषों का प्रत्याख्यान। प्रत्याख्यान हेतु पूर्वक नियत करने के अर्थ से यह प्रयुक्त है। साधु-साध्वियों की वंदना करते हैं, उससे अहं का विसर्जन होता है। आवश्यक छह अध्ययन है उनमें से एक वंदना है।
गौतम ने महावीर से पूछा- भंते! वंदना से जीव को क्या लाभ होता है ?
भगवान ने कहा – गौतम! वंदना से जीव नीच गोत्र कर्म को क्षीण करता है। उच्च गोत्र कर्म का बंध बांधता है।
वर्तमान युग में तनाव बहुत है। तनाव मुक्ति के यह सामायिक साधना आवश्यक है। चौबीस घंटे अपने आपको तरोताजा एवं कार्यक्षम रखने के लिए सामायिक सबसे उत्तम साधन है। इसलिए केवल जैन साधु, जैन श्रावक के लिए नहीं अपितु संपूर्ण मानव मात्र के लिए कल्याणकारी है। कुछ लोग बार-बार घड़ी देखते हैं, जैसे-तैसे सामायिक की अवधि पूरी करते हैं। अमेरिका में मैंने जब पर्युषण करवाया था, तभी कई श्रावक सामायिक के बारे में पूछते थे। हम सही अर्थ से सामायिक करेंगे, सुनियोजित और प्रायोगिक सामायिक करेंगे, तो हमें सामायिक में आत्मानंद मिलेगा।
ध्यान का चौथा चरण - ज्योति केन्द्र प्रेक्षा चित्त को ललाट के मध्य भाग में ज्योति केन्द्र पर केन्द्रित करें और वहां पर श्वेत रंग का ध्यान करें, जैसे पूर्णिमा का चाँद उग रहा है, उसकी श्वेत रश्मियां ज्योति केन्द्र पर गिर रही हैं अथवा किसी भी चमकती हुई श्वेत वस्तु का आलम्बन लें। ज्योति केन्द्र पर सफेद रंग का साक्षात्कार करें।....
अनुभव करें - पूर्णिमा के चाँद की श्वेत किरणें ज्योति केन्द्र पर गिर रही हैं। अनुभव करें-क्रोध शांत हो रहा है। आवेश और आवेग शांत हो रहे हैं। वासनाएं शांत हो रही है। (दो या तीन मिनट के बाद) अब चित्त को पूरे ललाट पर फैलाएं, पूरे ललाट पर श्वेत रंग का ध्यान करें। अनुभव करें कि पूरे ललाट के भीतर तक श्वेत रंग के परमाणु प्रवेश कर रहे हैं। पूरा ललाट श्वेत रंग के परमाणुओं से भर गया है। शान्ति व आनन्द का अनुभव करें।तीन दीर्घ श्वास के साथ प्रयोग सम्पन्न करें। विवेक सूत्र- १. अप्पणा सच्चमेसेज्जा मेत्तिं भूएसु कप्पए।
स्वयं सत्य खोजें, सब के साथ मैत्री करें। २. आहेसु विजा चरणं पमोक्खं।
दुःख-मुक्ति के लिए विद्या और आचार का अनुशीलन करें। शरण सूत्र: अरहंते सरणं पवजामि, सिद्धे सरणं पवजामि।
सरणं पवजामि, केवल-पण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि। श्रद्धा सूत्रः वन्दे सच्चं, वन्दे सच्चं, वन्दे सच्चं।
आगमाध्ययनं कार्य, श्रुतपाठः शंभुकरः ।। बन अहम्नानं पतर्धते तस्मात. स्वाध्यायः परमं तपः ।।
स्वाधशय उत्कृष्ट तप है इसलिए आगामों का अध्ययन करना चाहिए। चामालपाठ-शाम का पाठ भी कल्याणकारी है। इससे ज्ञानतदाता है।
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म संवर म
भिनव सामायिनी
संवर से आश्रव नये कर्मों के प्रवेश का निरोध होता है। संवर मोक्ष साधना में एक अनिवार्य साधन के रूप में सामने आता है। सम्यक् ज्ञान-दर्शन-चारित्र को त्रि-रत्न कहा जाता है। संवर चारित्र है और इस तरह यह उत्तम गुणरत्न है। संवर पदार्थ का स्वरूप- आश्रव दुवार करमा रा बारणा, ढकीया छे संवर दुवार।
आतमा वश कीयां संवर हुओ, ते गुण रतन श्रीकार। आसव-द्वार कर्म आने के द्वार हैं। इन द्वारों को बंद करने पर संवर होते हैं। आत्मा को वश में करने से आत्म-निग्रह से संवर होता है। यह उत्तम गुण-रत्न है।
सामायिक के साथ "संवर" को समझ लो, यह बहुत अच्छा, उपयोगी और व्यवहारिक है। इसका फायदा भी अच्छा होता है। मन चंचल है, एकाग्र होना मुश्किल है। साधना के लिए अगर हम ४८ मिनट का समय नहीं दे पाते, तो १०-१५ मिनट तो अपने लिए दे ही सकते है। "संवर" उनके लिए उपयुक्त है।
इसमें आप जहाँ भी हो उस क्षेत्र में, स्थान पर विशिष्ट कालावधि के लिए अपने आपको "संवर पाठ" से सामायिक जैसे ही व्रतबद्ध होकर, जो भी साधना करनी है, वहाँ कर सकते हैं। जिसमें आपकी रुचि हो, आवश्यकता हो और जितना समय है-वैसी साधना चुन सकते हैं। जैसे १० मिनट है और केवल नमस्कार महामंत्र और दूसरे कुछ मंत्र का जाप करना है- तो इतना कर सकते हैं अथवा उस समय में ध्यान का प्रयोग, प्राणायाम कुछ भी कर सकते हो। निश्चित समय, व्रतबद्ध होकर साधना करने से अधिक लाभ होता है। इसका लाभ होगा, रुचि बढ़ेगी तो आप वैसा समय बढ़ाकर साधना कर सकते हैं। मुझे विश्वास है, संवर की आदत हो जायेगी तो आप समय बढ़ाते बढ़ाते सामायिक तक जरुर पहुंचेंगे।
संवर पाट - पांच आश्रवद्वार छ: काय (१८ पाप) सेवन का दो करण तीन योग से (निर्धारित समय...) तक त्याग करता हूँ।
संवर आलोचना पाठ - किसी भी व्रत की सम्पन्नता पर पाँच नवकार मंत्र बोलकर "तस्स मिच्छामि डुक्कडं" ऐसा अन्त में कहना चाहिए। का
निर्मलयायुतं ध्यान, नूनं प्रसाद-कारणम् । इने अहम्
आत्मनात्मावलोकेन, जीत:शितत्तमभूले ।
बर्ने अ II
निमलतायुत ध्यान निश्चित प्रसन्नता का कारण है। आत्मा के द्वारा
मारणा का दर्शन करने से आत्मा शिवरच-मोक्ष को प्राप्त करती है।
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# अभिनव सामायिक ॥
सामायिक साधना उपकरण -मुख वस्त्रिका, माला, आसन, पूंजनी और चद्दर। स्थान - एकान्त या उपासना कक्ष। सावधानी -खाली पेट अथवा अल्पाहार। साधना -जप, ध्यान, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग, योगासन। सामायिक पाठ करेमि भंते! सामाइयं हे भगवान! मैं सामायिक करता हूँ। सावज्जं जोगं सावध योग (पापाकारी प्रवृत्ति) का पच्चक्खामि प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ। जाव नियम सामायिक का जितना काल है। (मुहुत्तं एग) एक मुहूर्त तक (४८मिनट) पज्जुवासामि
मैं उपासना करता हूँ। दुविह
दो करण (करना, कराना) तिविहेणं
तीन योग से (मन, वचन, काया) न करेमि
न करुंगा न करावेमि न कराऊँगा मणसा
मन से वयसा
वचन से कायसा
काया से तस्स
उन पूर्वकृत पापों से भंते!
हे भगवान! पडिक्कमामि
निवृत्त होता हूँ निंदामि
निंदा करता हूँ (आत्म साक्षी से) गरिहामि
गुरु साक्षी से आलोचना करता हूँ अप्पाणं वोसिरामि आत्मा को पाप से दूर करता हूँ। नोट : सामायिक पाठ के बाद लोगस्स का पाठ अवश्य पढ़े।
संघीयसाधना श्रेष्ठा, संघेनोपकृता वयम् ।। न हम्मानजय सेताऽचि, कर्तव्या महता मुता।।
अभिनव सामायिक प्रयोग वेशभूषा सादगी प्रधान।महिलाओं में भी सफेद परिधान हो।
आसन-सबका एक रहे। पद्मासन, सुखासन आदि में इस प्रकार पंक्तिबद्ध बैठा जाए जिससे एक-दूसरे का स्पर्श न हो। (पंक्तिबद्धता के लिए, आगे-पीछे व बगल में भी देखना चाहिए।
विधि सर्वप्रथम त्रिपदी वंदना से करें।
विधि-वंदना की मुद्रा (घुटनों के बल पर बैठें, दोनों हाथ जुड़े रहे) त्रिपदी वंदना कराने वाला ॐ ह्रीं श्री-इन तीन शब्दों का उच्चारण करता है। ॐ का उच्चारण हो तब सबके सब एक साथ हाथ जोड़कर घुटनों के बल वंदना की मुद्रा में स्थिर हो जाएं और 'वंदे' शब्द का उच्चारण करें।
ह्रीं का उच्चारण होते ही सबके सब एक साथ 'अर्हम' कहते हुए जमीन तक मस्तक को झुकाएं और तब तक झुकाए रखें जब तक श्री का उच्चारण न हो जाए। श्री का उच्चारण होते ही मस्तक को ऊपर उठाते हुए पुनः वंदना की मुद्रा में लौट आएं। इसी तरह दूसरी बार 'वंदे गुरुवरम्' एवं तीसरी बार 'वंदे सच्चं' का उच्चारण किया जाए।
सामूहिक णमोक्कार मंत्र का उच्चारण करते हुए सामायिक का प्रत्याख्यान करें।
सामायिक स्वीकार करते ही एक लोगस्स का कायोत्सर्ग करें। (एक श्वासोच्छवास में लोगस्स के एक पद का उच्चारण हो, इस रुप में संपूर्ण लोगस्स का कायोत्सर्ग किया जाए। कायोत्सर्ग के बाद सामायिक को चार भागों में विभक्त किया जाए। १. जप योग,
२. ध्यान योग, ३. स्वास्थ्य योग,
४. त्रिगुप्ति साधना। १. जपयोग का प्रयोग - समय दस मिनट। ध्यान की मुद्रा में 'अ. सि. आ. उ. सा.' मंत्र का एक स्वर में उच्चारण किया जाए। अ.सि.आ.उ.सा. - अरहंत, सिद्ध, आयरिय, उवज्झाय, साहू पंच परमेष्टी के प्रथम प्रथम अक्षरों से निमित पंचाक्षरी मंत्र है, उच्चारण में प्रत्येक अक्षर के लिए निर्धारित स्थान ध्यान में रहे।
बने अदमा
स धाय साधना अष्टहासंघद्वारा हम उपकृत हैं। इसरिमा जान खुशी के साथ हमें संघ की सेवा मालनी चाहिया ।।
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म सामायिक और आसन :
परमेष्ठी के पांच स्थान हैंअरहन्त का स्थान -सिर का मध्य भाग सिद्ध का स्थान -ललाट का मध्य भाग
आचार्य का स्थान -कण्ठ मध्य भाग उपाध्याय का स्थान -हृदय साधु का स्थान -नाभि
(जपयोग करते समय प्रत्येक अक्षर के उच्चारण के साथ मन उस उस स्थान पर केन्द्रित रहे)
२. ध्यानयोग का प्रयोग - समय दस मिनट। रीढ़ की हड्डी एवं गर्दन को सीधा रखते हुए बिना किसी अकड़न के श्वाँस को लम्बा, गहरा और मंद, आसानी से जितना लिया जा सके लें एवं उसी रुप में छोड़ें। श्वाँस लेते समय मन को नासाग्र पर टिकाएं। आतेजाते प्रत्येक श्वास को देखें साथ-साथ यह भी अनुभव करें कि श्वास लेते समय पेट फूलता है और छोड़ते समय सिकुड़ता है।
सामायिक आलोचना पाठ :
नौवें सामायिक व्रत में जो कोई अतिचार (दोष) लगा हो तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ/करती हूँ।
१. मन की सावध प्रवृत्ति की हो। २. वचन की सावध प्रवृत्ति की हो। ३. शरीर का सावध प्रवृत्ति की हो। ४. सामायिक के नियमों का पूरा पालन न किया हो। ५. अवधि से पहले सामायिक को पूरा किया हो। तस्स मिच्छा मि डुक्कडं-इनसे लगे मेरे पाप मिथ्या हो, निष्फल हो।
क्या गृहस्थ सामायिक में आसन कर सकते हैं? यह एक प्रश्न है। मुनि जब साधु-जीवन में भी आसन कर सकते हैं तो गृहस्थ के सामायिक में आसन करने में भी कोई बाधा नहीं है लेकिन उनका लक्ष्य विशुद्ध आध्यात्मिक होना चाहिए।
आसन की प्रक्रिया आत्मशुद्धि के लिए ही उपयोगी है। कैसे? आसन कायक्लेश है।कायक्लेश निर्जरा है और निर्जरा का अर्थ हैआत्मशुद्धि। कुछ आसन अव्यवहारिक होते हैं। उन्हें करते समय विवेक रखना चाहिए।
एक बात और - स्वास्थ्य लाभ आसन का प्रासंगिक और गौण फल है। ध्यान रहे, गौण को मुख्य बनाने की भूल न हो।
- आचार्य तुलसी
गुरू तुलसी की सामायिक अभिनव
प्रभावित हैसब जन-जन करते हैं आपको नमन...
हने अहम
सेवाधर्मो महाधर्मः, क्रियले येन भूस्पृशा। सहिष्णुभावतः नित्यं स याति गुणपत्राताम् ।।
सेवाधर्म महाना-पास है। जो मनुष्य सहिष्णु भाव से सदा सेवा कासराहगण-पात्र बन जाता है।
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# आधुनिक सामायिक ॥
सामायिक साधना : (देखें, अभिनव सामायिक)
नमस्कार महामंत्र- ॐ ही के साथ) णमो अरहंताणं अरहन्तों को नमस्कार। णमो सिद्धाणं सिद्धों को नमस्कार। णमो आयरियाणं आचार्यों को नमस्कार। णमो उवज्झायाणं उपाध्यायों को नमस्कार। णमो लोए सव्वसाहूणं लोक के सब सन्तों को नमस्कार।
अभिनव सामायिक ऐसे करेंवन्दे अहम् -तीन बार वन्दे गुरुवरम् -तीन बार वन्दे सच्चम् -तीन बार सामायिक प्रतिज्ञा - करेमि भन्ते...
नमन हमारा अरहंतों को, सिद्धों को आचार्यों को। आगम पुरुष उपाध्यायों को और लोक के सब संतों को।
एसो पंच णमुक्कारों, सच पावपणासणो।
मंगलाएं च सव्वेसिं. पढमं हवड़ मंगलं ॥ नमस्कार पंचक यह पावन, करता सब पापों का नाश । सभी मंगलों में प्रधान है, प्रकटे भीतर दिव्य प्रकाश ।।
सामायिक पाठ (देखें, अभिनव सामायिक)
ॐकार बिन्दु संयुक्तं. नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव, ॐकाराय नमो नमः ।।
- 'ॐ' समस्त मंत्रों का आदि, प्रेरक और आन्तरिक शक्तियों को जाग्रत करने
वाला शब्द ब्रह्म है। - 'ॐ' में पांच परमेष्ठी के पांच रंग के अनुसार ध्यान करते हुए ॐ के नाद से
सम्पूर्ण मन-मस्तिष्क को भर दीजिये। ॐकार का उच्चारण करने से पहले दीर्घ श्वाँस ले, मूंह को खोलके 'ओ' से उच्चारण शुरु करें, इस नाभीचक्र पर प्रकम्पन आएंगे। 'उ' का उच्चारण करते समय कंठ पर प्रकम्पन आएंगे और 'म' का उच्चारण करते समय मस्तिष्क पर प्रकम्पन आएंगे। ॐकार के उच्चारण को प्राथमिक स्वाध्याय में १० सेकन्ड लगते है, उसमें ओ को २ सेकन्ड, उको ३ सेकन्ड औरम को ५ सेकन्ड लगाने है। ॐकार का पाँच बार उच्चारण करें। उसके बाद महाप्राण ध्वनि का उच्चारण करें।
चत्तारि मंगलं
मंगल चार हैं:अरहंता मंगलं,
अरिहंत मंगल हैं, सिद्धा मंगलं,
सिद्ध मंगल हैं, साहू मंगलं,
साधु मंगल हैं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगल। केवलि–भाषित धर्म मंगल है। चत्तारि लोगुत्तमा
चार लोक में उत्तम हैं :अरहंता लोगुत्तमा
अरिहंत लोक में उत्तम हैं, सिद्धा लोगुत्तमा
सिद्ध लोक में उत्तम हैं, साहू लोगुत्तमा
साधु लोक में उत्तम हैं, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। केवलि–भाषित धर्म लोक में उत्तम है। चत्तारिसरणं पवजामि
मैं चारों की शरण में जाता हूँ :अरहंते सरणं पवजामि, मैं अरिहंतों की शरण में जाता हूँ, सिद्धे सरणं पवजामि,
मैं सिद्धों की शरण में जाता हूँ, साहू सरणं पवजामि, मैं साधुओं की शरण में जाता हूँ, केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पवजामि मैं केवलि–भाषित धर्म की शरण में जाता हूँ। बने अहम्
सेता से कीर्ति बढ़ती है। सेवा से बाल बढ़ता है। सेवा से शापित बढ़ती है और सेवा से सुख बनता है।
बन अहम
सेवया वर्धते कीर्तिः, सेवया वर्धते बलम् । रोतया वर्धते शान्तिः , सेतया वर्धते सुखम् ।।
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चतुर्विशक्ति-स्तव १. लोगस्स उज्जोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे।
अरहते कित्तइस्स, चउवीसंपि केवली ॥ २. उसभमजियं च वंदे, संभवमभिनंदणं च सुमई च।
पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे॥ ३. सुविहिं च पुष्फदंतं, सीअल सिज्जंस वासुपुजं च।
विमलमणंतं च जिणं, धम्म संतिं च वंदामि ॥ ४. कुंथु अरं च मल्लिं, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च।
वंदामि रिट्ठनेमि, पासं तह वद्धमाणं च ॥ ५. एवं मए अभिथुआ, विहुय-रयमला पहीणजर-मरणा।
चउवीसंपि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु॥ ६. कित्तिय वंदिय मए, जेए लोगस्स उत्तमा सिद्धा।
आरोग्य-बोहिलाभ, समाहिवरमुत्तमं दितु॥ ७. चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा। सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु॥
शब्दार्थ लोगस्स-लोक में। उओवगरे - उद्योत (प्रकाश) करनेवाला। धम्मतित्थयरे - धर्म रुप तीर्थ को स्थापित करने वाले। जिणे - रागद्वेष को जीतने वाले। अरिहन्त - कर्म रुप शत्रु का नाश करनेवाले। चउवीसंपि - चौबीसों। केवलि – केवल ज्ञानी तीर्थंकरों की। कित्तइस्सं - मैं स्तुति करता हूँ। उस - श्री वृषभ देव स्वामी को।च-और। अजियं - श्री अजितनाथजी को। बन्दे - वन्दना करता हूँ। सम्भव- श्री संभवनाथ स्वामी को। अभिणंदणं च -और श्री अभिनन्दन स्वामी को। सुमई - श्री सुमतिनाथ प्रभु को। च - और। पउमप्पहं - श्री पद्मप्रभु स्वामी को। सुपासं - सुपार्श्वनाथ प्रभु को। जिणं च चंदप्पहं- और श्री जिनेश्वर चन्दप्रभु को। वंदे-वन्दना करता हूँ। सुविहि- श्री सुविधिनाथजी को। च - और। पुष्फदंतं - श्री सुविधिनाथजी का दूसरा नाम श्री पुष्पदंत भगवान को। सीयल-श्री शीतलनाथजी को। सिजसं-श्री श्रेयांसनाथजी को। वासुपुत्रं
- श्री वासुपूज्य स्वामी को। च- और। विमल - श्री विमलनाथजी को। अणंतं च जिणं - श्री अनन्तनाथजी को। धर्म-श्री धर्मनाथजी को।च-और। संतिं - श्री शान्तिनाथजी को। बन्दामि - वन्दना करता हूँ। कुंथु - श्री कुंथुनाथजी को। अरं - श्री अरनाथजी को। मल्लिं - श्री मल्लिनाथजी को।बन्दे -वन्दन करता हूँ। मुणिसुब्वयं - श्री मुनिसुव्रतजी को।च-और।नमिजिणं - श्री नमिनाथ जिनेश्वर को। रिद्वेनेमि - श्री अरिष्टनेमि (श्री नेमिनाथजी) को। पासं - श्री पार्श्वनाथजी को। तह – तथा। बद्धमाणं - श्री वर्द्धमान (महावीर स्वामी) को। बन्दामि – मैं वन्दना करता हूँ।एवं - इस प्रकार।मए - मेरे द्वारा । अभित्थुआ-स्तुति करते हुए। बिहुयरयमला - पापरज के मल से विहीन। पहीणजर - मरणा - बुढ़ापे तथा मरण से युक्त। चवीसंपिचौबीसों। जिणवरा - जिनेश्वर देव। तित्थयरा- तीर्थंकर देव।मे - मुझ पर। पसीयंतु - प्रसन्न हो। कित्तिय - वचन योग से कीर्तन किये हुए।बंदिय-काया योग के पूजन किये हुए। महिया - मनोयोग से पूजन किये हुये।जे-जो। लोगस्स -लोक में। उत्तमा - उत्तम (प्रधान) सिद्धा-सिद्ध भगवन्त (है)। ए वे। आरुणाबोहिलाभ- आरोग्य को तथा धर्म के लाभ को। समाहिवरमुत्तमं - और उत्तम समाधि के वर को।दितु-देवें। चंदेसु-चन्द्रों से भी। निम्मलयरा -विशेष निर्मल । आइच्चेसु-सूर्यो से भी। अहियं - अधिक। पयासयरा -प्रकाश करने वाले। सागरवरगंभीरा - महासमुद्र के समान गंभीर सिद्धा-सिद्ध भगवान।मम - मुझको। सिद्धि-सिद्धि।दिसंतु-देवं।
बृहद मंगल-पाठ - अहिंसा विकास मंत्र
धम्मो-मंगल-मुक्किट्ठं अहिंसा संजमो तवो।
देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो । - शांतिस्तुति मंत्र
चइत्ता भाराहं वासं चक्कवट्टी महिडिओ।
संती संतिकरे लोए. पत्तो गइमणुत्तरं ॥ .बहाचर्य विकास मंत्र
देव-दाणव-गंधता, जवरव-रखरवसकिनारा । बंभयारिं नमसंति. दुक्करं जे करांति तं ॥
बन अहम्
शत्रोरपि विधातव्या, सेवा शालीनभावतः । मतभेटमनोवेटौ, मा स्यातां वाधको पुनः ।।
बने अर्हम्
शत्रु की सेता भी शालीन भाव से कली साहिए।
तमोद और मजमेद उसमें बाधक नहीं बने।
DIGI
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मंगल भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी । मंगलं स्थूलभद्रायाः जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ ३. सर्व मंगल मांगल्यं, सर्व-कल्याणकारणम् । प्रधानं सर्वधर्माणां, जैनं जयतु शासनम् ॥
१.
U. सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥
प्रेक्षाध्यान पर प्रयोग पद्धति :
ध्यान की पूर्व तैयारी - सावधान, ध्यान के लिए तैयार हो जाएं।
ध्यानासन -
ब्रह्म-मुद्रा
ज्ञान-मुद्रा
जिस आसन में लम्बे समय तक सुविधापूर्वक स्थिरता से बैठ सकें, उस ध्यानासन का चुनाव करें, जैसे- पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन या वज्रासन ।
किसी एक मुद्रा (ब्रह्म- मुद्रा या ज्ञान-मुद्रा) का चुनाव करें दोनों हथेलियों को नाभि के नीचे स्थापित करें। बायीं हथेली नीचे और दायीं ऊपर रहे। (अथवा )
दोनों हाथों को घुटनों पर टिकायें। अंगूठे और तर्जनी के अग्र
भागों को मिलायें। शेष तीनों अंगुलियां सीधी रहे।
आँखों को बिना दबाव दिये, कोमलता से बंद करें।
अर्हम् की ध्वनि - प्रारंभ में अर्हम् की नौ बार ध्वनि करें।
अर्हम्-ध्वनि की विधि - पहले पूरा श्वास भरकर उसे धीरे-धीरे छोड़ते समय अर्हम् का उच्चारण इस प्रकार करें 'अ' कार का उच्चारण करते समय चित्त नाभि पर केन्द्रित करें, ( समय २ सेकण्ड ) 'हे' का उच्चारण करते समय चित्त को आनन्दकेन्द्र (हृदय) पर केन्द्रित करें। (समय ४ सेकण्ड ) 'म्' की ध्वनि करते समय चित्त को विशुद्धि केन्द्र (गले) तक ले जाएँ, ( समय ६ सेकण्ड ) । अन्तिम नाद के समय चित्त को ज्ञान केन्द्र (मस्तष्क) पर टिकाएं (समय १ सेकण्ड ) एक सेकण्ड का समय प्रारंभ में नाद के लिए रहे।
बनें अर्हम्
स्वाध्यायः पंचधा प्रोक्तः, वाचना प्रच्छना तथा । सुपरिवर्तना वर्या, स्तनुप्रेक्षा कथाऽपि च ॥
५४.
ध्येय-सूत्र :
--
'संपिक्खए अपगमप्पएणं' का उच्चारण तीन बार करें।
आत्मा के द्वारा आत्मा को देखें। स्वयं को देखें।
अपने आपको देखने के लिए ही प्रेक्षाध्यान का अभ्यास करें।
ध्यान का संकल्प - मैं चित्त-शुद्धि के लिए प्रेक्षा-ध्यान का प्रयोग कर रहा हूँ। (तीन बार दोहराएं)
ध्यान का पहला चरण - कायोत्सर्ग
शरीर को स्थिर, शिथिल और तनाव मुक्त करें। मेरूदंड और गर्दन सीधी रहे। अकड़न न हो। मांस पेशियों को ढीला छोड़ें। शरीर की पकड़ को छोड़ें। पाँच मिनट तक काय गुप्ति का अभ्यास करें। प्रतिमा की भांति शरीर को स्थिर रखें। हलन चलन न करें। पाँच मिनट तक पूरी स्थिरता रखें।
-
कायोत्सर्ग के दो अर्थ हैं शरीर का शिथिलिकरण और अपने प्रति जागरुकता। प्रत्येक अवयव के प्रति जागरुक बनें। पूरे भाग में चित्त की यात्रा करें। शिथिलता का सुझाव दें और उसका अनुभव करें। प्रत्येक मांस पेशी और प्रत्येक स्नायु शिथिल हो जाये। इस प्रकार पूरे शरीर की शिथिलता को साधें। गहरी एकाग्रता, पूरी जागरुकता ही कायोत्सर्ग है ।
बने अर्हम्
मंगल संकल्प
मैं चैतन्यमय हूँ, मैं शक्तिमय हूँ, मैं आनंदमय हूँ
मेरे भीतर अनन्त चैतन्य का, अनन्त शक्ति का, अनन्त आनंद का सागर लहरा रहा है, इसका साक्षात्कार करना ही मेरे जीवन का लक्ष्य है।
स्वाध्याय के पांच प्रकार है वाचला. पृच्छना, परिवर्तना, सुपेक्षा और धर्मकथा
५५.
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- बुद्धि विकास मंत्र
ॐ णमो अरिहं तद-तद ताग-वादिनी स्वाहा ।
ज्ञान दर्शन चारित्र तप
विशेष मंत्र
चारित्र तप|
- तनाव मुक्ति मंत्र
ॐ ह्रीं श्रीं भगवते पार्श्वनाथाय हर-हर स्ताहा।
. सुख शांति मंत्र
ॐ ह्रीं श्रीं अ-सि-आ-उ-सा सर्व-विघ्न-रोगोपद्रव विनाशनाय मम ग्रहशान्तिं कुरु-कुरु स्वाहा ।।
- सिद्धचक्र मंत्र
. रोगनिवारक मंत्र
संती कुंथु अरहो, अरिठ्ठनेमी जिणंदपासो य। समरंताणं णिच्चं, सव्वं रोगं पणासेड़।
ॐहीं णमो नाणस्स, ॐहीं णमो दंसणस्स। ॐ हीं णमो चारितस्स, ॐ ह्रीं णमो ततस्स ॥ एयं च सिद्ध-चक्कं-कहियं विज्ञाणुवाय परमत्यं । नाएण जेण सहसा, सिझंति महंतसिद्धीओ॥
- क्रोध/आवेश मुक्ति मंत्र
ॐ शान्ते प्रशान्ते सर्व-क्रोधोपशमनी स्वाहा।
((नमानजस्से
- ग्रह मंत्र - ॐ शनैश्चराय नमः
ॐ ध्मां धमीं ध्मों ध्मः शनिदेवो रविसुतेः। तुष्टमानः ममानन्दं मम शत्रुहरो भव ।
नमस्कार मंत्र ॐ हीं णमो लोए सच साहूणं ॥
तीर्थंकर जाप ॐहीं श्रीं श्री मुनिसुव्रतस्वामिने नमः, मम शनि वाह शान्तिं कुरु कुरु स्वाहा ।
। प्राणायाम ) । दीर्घश्वास प्रेक्षा ।
समवृत्ति श्वास प्रेक्षा )
।
दने अहम्
जिज्ञासा जनयज्झानं, ज्ञानयुक्तः प्रसीदति । प्रश्नो नसतया कार्यः, ज्ञानाप्राप्त्यै बुधनः।।
बने अशा जिज्ञासा ज्ञान की जननी है। ज्ञानराज्यात पाणी प्रसन्नता को प्राप्त होता है।
मतः जान-पाति के लिए सभीजनों को तिजामात से प्रश्न करना चाहिया।
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मंगल भावना
श्री संपन्नोऽहं स्याम्
ही संपनोऽहं स्याम्
धी संपन्नोऽहं स्याम्
धृति संपन्नोऽहं स्याम्
शक्ति संपन्नोऽहं स्याम्
शांति संपनोऽहं स्याम्
मैं आभा सम्पन्न बनूँ
मैं लगा सम्पन्न बनूँ
मैं बुद्धि-सम्पन्न बनूँ
मैं धैर्य सम्पन्न बनूँ
मैं शक्ति सम्पन्न बनूँ
मैं शांति सम्पन्न बनूँ
मैं आनन्द सम्पन्न बनूँ
मैं तेज सम्पन्न बनूँ
मैं पवित्रता सम्पन्न बनूँ
नन्दी संपन्नोऽहं स्याम्
तेजः संपन्नोऽहं स्याम्
शुक्लः संपन्नोऽहं स्याम्
( बहनें संपन्नोऽहं के स्थान पर संपन्नाऽहं का उच्चारण करें।)
सभी के लिए मंगल भावना
सर्वे धाम स्वस्थि भवतु
सर्वे धाम शांति भवतु
सर्वे धाम मंगलं भवतु
सर्वे षाम पूर्ण भवतु ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
ग्रह
अर्हमित्यक्षरं ब्रह्मवाचकं
परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणिदध्महे ॥
अहं - यह अक्षर ब्रह्म स्वरूप है। पंच परमेष्ठी का वाचक है। सिद्ध चक्र का मूल
बीज है। मन-वचन-तन की एकलयता के साथ हृदय कमल में इसका ध्यान करो।
बनें अर्हम्
तत्त्वेषु मननं कार्य, तस्माज्ज्ञानं विवर्धते । सुज्ञानी व्रतमाप्नोति, व्रती चानन्दमश्नुते ॥
५८
游
बनें अर्हम्
अर्हम्
ॐ अर्हम्, सुगुरु शरणं, विघ्न हरणं, मिटे मरणं,
सहज हो मन, जगे चेतन, करें दर्शन, स्वयं के हम।
बनें अर्हम्, बनें अर्हम् बनें अर्हम्, बनें अर्हम् ॥
बनें
अर्ह अहं का ध्यान
अर्ह अहं का ध्यान लगाऊं। सांसों का इकतारा बजाऊं ।।
ज्योतिर्मय चिन्मय है आत्मा, शुद्धात्मा ही है परमात्मा । कर्मों की दीवार हटाऊं।।
इन्द्रिय-सुख को सब कुछ माना, वस्तु-जगत का कण-कण छाना । आत्मानंदी अब बन जाऊं।।
दौड़ रहा मन तृष्णा से जकड़ा, परमारथ का पंथ न पकड़ा। अपने घर का परिचय पाऊं।।
आत्मा के द्वारा आत्मा की प्रेक्षा, ऋजुता मृदुता की अनुप्रेक्षा ।
ज्ञाता द्रष्टा भाव जगाऊं । ।
मैत्री करुणा का फूल खिला है, आत्म-तुला का बोध मिला है। 'अपना पराया' भेद मिटाऊं।।
अजपाजाप 'कनक' का अर्ह, सोते-जगते अर्ह अहं
छूटे अहं, अर्ह पद पाऊं।।
तर्ज वार्षिक मर्यादोत्सव आया...
तरों पर मनन करना चाहिए मनन से ज्ञान वृद्धिगत होता है। सम्यक ज्ञानी व्रत को प्राप्त होता है और व्रती विशुद्ध आनन्द को प्राप्त होता है।
५९
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। आधुनिक सामायिक साधना)
(अर्हम् का पाँच बार उच्चारण करके सामायिक आलोचना पाठ करें।)
सामायिक आलोचना पाठ नौंवें सामायिक व्रत में जो कोई अतिचार (दोष) लगा हो तो मैं उसकी आलोचना करता हूं/ करती हूं। १.मन की सावध प्रवृत्ति की हो। २. वचन की सावध प्रवृत्ति की हो। ३. शरीर की सावध प्रवृत्ति की हो। ४. सामायिक के नियमों का पूरा पालन न किया हो। ५. अवधि से पहले सामायिक को पूरा किया हो। तस्स मिच्छा मि दुक्कडं - इनसे लगे मेरे पाप मिथ्या हो, निष्फल हो।
सामायिक पाठ ॐकारं नमस्कार महामंत्र बृहद् मंगल-पाठ.
........१५ मिनट
चतुर्विंशति-स्तव मंगल पाठ प्रेक्षाध्यान
...१५ मिनट
विशेष मंत्र प्राणायाम मंगल भावना
.....१०मिनट
बनें अहम् अहम् गीत अहम् ध्यान ......................................."
..........५ मिनट सामायिक आलोचना पाठ .....
.............३ मिनट
व्याख्यान-अवर्ण धर्मः, व्याख्यान-करणं वरम् । बन अहम्नः श्रोतयोरवैत, कर्मणां जायते क्षयः ।।
बर्ने अहम
J
ष्ठ
प्रतत्न सुनना धर्म है और प्रतवन करना भी धर्म है। कार्य है। प्रवचन-वन्तों दोनों के कार्यो का साय होता है।
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卐 स्वाध्याय ॥
आधुनिक सामायिक का प्रयोग किया और उसके जो अनुभव है वह उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है
स्वाध्याय में आवश्यक है वह तो करना ही है, उसके बाद अपनी रूचि और अध्ययन के अनुसार भक्तामर, थोकडे पाठ करना ऐसा कर सकते हैं। कोई इरियावहि पाठ, तस्स उत्तरीकरणेणं पाठ, णमोत्थणं पाठ पढ़ते हैं। मैं इस विषय की विशेषज्ञ तो नहीं हूँ, पर इतना जरूर कहना चाहूँगी, जिसमें मन एकाग्र हो, समता के भाव जगे, ऐसे प्रयोग करने चाहिए।
४८ मिनट की साधना जो मैं करती हूँ, वह आधुनिक सामायिक के रूप में मैंने सामने प्रस्तुत की है। आपके अध्ययन के लिए आप १५-१५ मिनट के तीन विभाग करके अपने रुचि और अध्ययन के अनुसार अपना खुद का ४८ मिनट का एक कार्यक्रम तैयार कर सकते है। जब चाहे, जैसा चाहे उसे बदल भी सकते है। सामायिक एक बार शुरु करनी जरुरी है। समझकर करोंगे तो देखना, बहुत अच्छा लगेगा।
इसके लिए मैं आपको मेरे कुछ अनुभव बताती हूँ। सबसे पहले मैंने भटार विस्तार में जो महिलाएं ५/६ सालों से सामायिक करती हैं, उनको यह आधुनिक सामायिक का प्रयोग करवाया। आचार्यश्री सूरत बिराजे थे, तब से हर शुक्रवार को २५ बहनें सामायिक करती हैं।
जब मैंने उनको Systmatic, ४८ मिनिट की Model के रुप में आधुनिक सामायिक करवायी तो, बहनों ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। सभी बहने बहुत खुश थी, जो मैंने बताये वह छोटे-छोटे प्रयोग बहुत ही अच्छे लगे।
जैसे प्रेक्षाध्यान, प्राणायाम और कुछ योग के प्रयोग जो उनके लिए नये थे और उन्होंने प्रथम बार किये, उनको ये प्रयोग उपयोगी लगे। क्षणभर भी प्रमाद न करते। ४८ मिनट का कार्यक्रम अच्छा लगा। बहन संतोष ने कहा, "पहले से इस सामायिक में मन अधिक एकाग्र हुआ और सामायिक जल्दी हो गई ऐसा लगा।संवर का प्रयोग भी शुरु किया।"
जब युवा पीढ़ी से चर्चा होती है तो पता चलता है, उनमें से बहुत कम युवा है जो नियमित सामायिक करते है। सामायिक के बारे में उनके मन में गैरसमज है। अभी डॉक्टर रीना जैन से परिचय हुआ जो अपना मानसोपचार का क्लिनिक चलाती है, जयपुर की स्थानकवासी परिवार से है और शादी करके सूरत में तेरापंथ में आयी है, जिसने पहली बार
डॉ. रीना जैन का पहली बार सामायिक करने का अनुभव
"मेरा नाम डॉ. रीना जैन है। मेरे पिताजी ने मुझे कई बार आग्रहपूर्वक सामायिक का महत्त्व समझाते हुए इसे करने के लिए कहा। उन्होंने यह भी कहा कि, सामायिक भावरुप करने से विशेष फलदायक होती है। यह साधना सभी साधनाओं में श्रेष्ठतम है। ऐसा मैंने भी सुना था, किन्तु मैं यह सोचती थी कि मैं नवकार मंत्र की माला का जप करती हूँ तो वही ठीक है, उससे ज्यादा मैं कुछ तो अपने Career में व्यस्त होने के कारण व कुछ सामायिक को ठीक तरह से न समझ पाने के कारण रुचि न ले पाई।
जब अल्काजी ने मुझे इस आधुनिक सामायिक (जो ४८ मिनट के पैकेज के रुप में है) के बारे में बताया, तो मैंने जिज्ञासापूर्वक इसे करने के लिए हां भर दी।सामायिक पूर्ण करने के बाद मुझे लगा कि मैंने यह ४८ मिनट के समय का पूर्ण एकाग्रता से सदुपयोग किया। जिसमें शांत चित्त से कई आसन, प्राणायाम, नवकार मंत्र का पाठ, अर्हम् पाठ, लोगस्स पाठ, संकट निवारक मंत्र, सुख शांति मंत्र, तनाव मुक्ति मंत्र, पैंसठिया छन्द व ओमकार का उच्चारण आदि किया। यह सब करके मुझे यह महसूस हुआ कि यह करने से तो Serotonin नामक Feel Good Hormone जरुर Secrete होगा। वे इसे करने से मानसिक व शारीरिक Fitness का लाभ मिलेगा व इतना ही नहीं इससे हमें सकारात्मक यानि Positive Vibrations मिलते हैं एवं हमारे Negative emotions जैसे राग, द्वेष दूर रहते हैं। धर्म के साथ "Mind Body Relaxation" का भी इस आधुनिक सामायिक के जरिये बखूबी मुझे अनुभव हुआ। इसके बाद मैंने मन ही मन तय किया है कि, मैं नियमित सामायिक करूँगी। मुझे सामायिक प्रयोग बहुत ही अच्छा लगा।" सूरत।
डॉ. रीना जैन दि. १५ मार्च २०१०
बन अहम्
अर्जिता प्रकृतिः प्रायः, परिवर्लनमहति । सम्वोधनप्रयोगेण, संभवेत् परिशोधनम् ।।
बने अर्ट
अर्जित आतत प्रायः उदल सकती है। प्रदेश के प्रयोग से उसका शोषण हो सकता है।
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श्री पैंसठिया छन्द
१. श्री नेमीश्वर सम्भव स्वाम, सुविधि धर्म शान्ति अभिराम।
अनन्त, सुव्रत, नेमिनाथ सुजाण, श्री जिनवर मुझ करो कल्याण ॥ अजितनाथ, चन्दा प्रभु धीर, आदीश्वर सुपार्श्व गम्भीर।
विमलनाथ विमल जग-भाण, श्री जिनवर मुझ करो कल्याण ॥ ३. मल्लिनाथ जिन मंगल रूप, पंचबीस धनुष सुन्दर स्वरूप।
श्री अरनाथ नमूं वर्धमान, श्री जिनवर मुझ करो कल्याण ॥ ४. सुमति, पद्म प्रभु अवतंस, वासुपूज्य, शीतल श्रेयांस।
कुंथु, पार्श्व, अभिनन्दन भाण, श्री जिनवर मुझ करो कल्याण॥ ५. इण परे श्री जिनवर संभारिए, दुःख दारिद्रय निवारिए।
पच्चीसे पैंसठ परमाण, श्री जिनवर मुझ करो कल्याण ॥ ६. इण भणतां दुःख नावे कदा, जो निज पासे राखै सदा।
धरिये पंचतणुं मन ध्यान, श्री जिनवर मुझ करो कल्याण ॥ ७. श्री जिनवर नामे वांछित मिले, मन वांछित सहु आशा फले।
धर्मसिंह मुनि नाम निधान, श्री जिनवर मुझ करो कल्याण॥
परमेष्ठी वंदना वन्दना आनन्द-पुलकित, विनयनत हो मैं करूं। एक लय हो एक रस हो भाव तन्मयता वरूं ॥ णमो अरहंताणं (अरहंतो को मेरा नमस्कार हो। वे कैसे हैं ?) १. सहज निज आलोक से भासित स्वयं संबुद्ध हैं।
धर्म तीर्थंकर शुभंकर, वीतराग विशुद्ध हैं। गति-प्रतिष्ठा त्राण-दाता, आवरण से मुक्त हैं।
देव अर्हन् दिव्य योगज अतिशयों से युक्त हैं। णमो सिद्धाणं (सिद्धों को मेरा नमस्कार हो। वे कैसे हैं ?) २. बंधनों की श्रृंखला से, मुक्त शक्ति-स्त्रोत हैं।
सहज निर्मल आत्मलय में सतत ओतःप्रोत हैं। दग्ध कर भव बीज अंकुर, अरुज अज अविकार हैं।
सिद्ध परमात्मा परम, ईश्वर अपुनरवतार हैं। णमो आयरियाणं (धर्माचार्यों को मेरा नमस्कार हो । वे कैसे हैं ?) ३. अमलतम आचार धारा, में स्वयं निष्णात हैं।
दीपसम शत दीप दीपन के लिए प्रख्यात हैं। धर्म शासन के धुरन्धर, धीर धर्माचार्य हैं।
प्रथम पद के प्रवर प्रतिनिधि, प्रगति में अनिवार्य हैं। णमो उवज्झायाणं (उपाध्यायों को मेरा नमस्कार हो । वे कैसे हैं ?) ४. द्वादशांगी के प्रवक्ता, ज्ञान गरिमा पुंज हैं।
साधना के शान्त उपवन में सुरम्य निकुंज हैं। सूत्र के स्वाध्याय में संलग्न रहते हैं सदा।
उपाध्याय महान श्रुतधर, धर्म-शासन सम्पदा॥ णमो लोए सबसाहूण (लोक के सब साधुओं को मेरा नमस्कार हो।वे कैसे हैं ?) ५. सदा लाभ अलाभ में,सुख-दुःख में मध्यस्थ हैं।
शान्तिमय, वैराग्यमय,आनन्दमय आत्मस्थ हैं। वासना से विरत आकृति, सहज परम प्रसन्न हैं।
साधना धन साधु अन्तर्भाव में आसन्न हैं। बने अहम्
क्षमण के समय सवा दीर्घश्वास का प्रयोग कऊना चाहिए। या साटन-योगा है और शरीर के लिए भी लाभदायी है।
श्री पैंसम्यिा यंत्र
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६ । १२
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बनें अहम्
दीर्घश्वासनयोगः स्याद, क्षमणसमये सदा। सहजः साधनयोगः, गाचे चापि सुखं भवेत् ॥
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मंगल गान
नमस्कार महामंत्र गीत सांस-सांस में रहे निनादित महामंत्र नवकार ले ले सहारा हो जाए बेड़ा पार।।
महामंत्र नवकार हृदय का अमृत है, एक-एक अक्षर ऊर्जा से संभृत है। जपे जाप तो खपे पाप, यह लोकोत्तर उपहार।।
पूण्य स्मरण से जो करता दिन की शुरुआत, उदिता मुदिता शुचिता की होती बरसात। मन प्राणों में नयी शक्ति का, होता है संचार।।
(तर्ज-धर्म की जय हो) श्रद्धा विनय समेत णमो अरिहताणं। प्रांजल प्रणत सचेत णमो अरिहंताणं ॥ध्रुवपद ॥ आध्यात्मिक पथ के अधिनेता, वीतराग प्रभु विश्व विजेता, शरच्चन्द्र सम श्वेत णमो अरिहंताणं ॥१॥ अक्षय, अरुज, अनन्त, अचल जो, अटल, अरुप, स्वरुप अमल जो, अजरामर, अद्वैत, णमो सिद्धाणं ॥२॥ धर्म-संघ के जो संवाहक, निर्मल धर्म-नीति निर्वाहक, शासन में समवेत, णमो आयरियाणं ॥३॥ आगम अध्यापन में अधिकृत। विमल कमल सम जीवन अविकृत। शम-संयम-समुपेत णमो उवज्झायाणं ॥४॥ आत्म साधना लीन अनवरत, विषय-वासनाओं से उपरत। 'तुलसी' है अनिकेत णमो लोए सव्व साहूणं ॥५॥
- आचार्य तुलसी
भोजन से पहले शुभ भावों से सुमरे, चिंता, लोभ और रस लोलुपता विसरे। कहते ज्ञानी महामंत्र यह, आध्यात्मिक उपचार।।
जपते जपते मंत्रराज जो शयन करे, सोए सुख की नींद शांति से नयन ठरे। मिले तनावों से छुटकारा, खुले सिद्धि के द्वार।।
भोजन, शयन, जागरण ये मंगलमय हो, तन से, मन से निर्भय और निरामय हो। 'कनक' (स्वस्थ) जैन जीवन शैली को, देना है आकार।। तर्ज : बार-बार तोहे...
प्रातः उठकर मैं करूँ, महामंत्री का जाप । और करुं शुभ भावना, कट जाए सब पाप ॥
भोजन से पहले करें, तीन बार नवकार। छोटा तप नवकारसी, जैनों का आचार॥
स बन अहम्न
शयने वर्तनात् पूर्वमाराध्यस्मरणं भवेत् । तः शय्या विधातव्या, कायोत्सर्ग सुखं सदा ।।
या |बन अहम्स
सोने से पूर्व आराध्य का स्मरण करना चाहिए। के बाद कायोरप्सर्ग में सुखपूर्वक शयन करना शारिश।
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प्रायश्चित गीत
तीर्थकर वंदना स्वीकारो सविनय भाव-वंदना तीर्थकर भगवान! तीर्थकर भगवान! निरंतर ध्याउं थारो ध्यान।।
जो कुछ भी पाप हुआ मुझसे, मिच्छा मि दुक्कड़ लेता हूं, भगवान आपकी साक्षी से, मिच्छा मि दुवाडं लेता हूं, गुरुदेव! आपकी साक्षी से, मिच्छा मि दुलार्ड लेता ई. अपनी आत्मा की साक्षी से. मिच्छा मि दुकाई लेता हूं.
आदीश्वर श्री ऋषभनाथजी, अजित अजित संकल्प। संभव अभिनंदन प्रभु मेटो मन रामलिन विकल्प। सुमति पद्मप्रभ श्री सुपार्श्व चंदाप्रभु सुविधि महान।।
साताकारी शीतल प्रभु श्रेयांस श्रेय दातार। वासुपूज्य जिन सुर-नर वंदित विमल विमल आचार। यो आलोक अनंत! मिटाऊंभीतर रोअज्ञान।।
धर्मनाथजी! आत्म धर्म में, रहूंसदा मैं लीन। शांति, कुंथु, अर तीनूं चक्री, अर्हत् पद आसीन। महिमामय मल्ली प्रभु महिला-जागृति रा प्रतिमान।।
मुनिसुव्रत, नमि, करुणा सागर नेमी ज्योतिर्धाम। चिंतामणि सम पारस प्रभुजी! श्रद्धासिक्त प्रणाम। वर्धमान द्यो आत्म-शाति, आरोग्य, बोधि रो दान।।
१. पंचाश्रव पाप अठारह का, जो सेवन किया कराया हो।
इस भव में या पिछले भव में, मिच्छा मि दुक्कडं लेता हूं। २. कर्मों के कर्ता राग द्वेष, ये नाच नचाते हैं मुझको।
इनके वश जो दुष्कर्म किये, मिच्छा मि दुक्कड लेता हूं। ३. कहां कहां पर मैंने जन्म लिए? कहां कहां पर कैसे मरण किए?
है अता पता कुछ भी न कहीं, मिच्छा मि दुक्कड लेता हूं। ४. कितनों से नाता जोड़ा है, कितनों से नाता तोड़ा है।
उन सबसे खमत खामणा कर, मिच्छा मि दुक्कडं लेता हूं। ५. जो मद-प्रमाद में पाप हुए, अनजान-जान में पाप हुए।
उन सब का आत्म साक्षी से, मिच्छा मि दुक्कडं लेता हूं। ६. सम्यग्-दर्शन सद्ज्ञान-चरण, का कभी नहीं आचरण किया।
भटका मिथ्यात्व मोह में जो, मिच्छा मि दुक्कडं लेता हूं। ७. भव-भव में मुझको बोध मिले, संयम समता के फूल खिले। मुनि शोभा आत्म शांति पाने, मिच्छा मि दुक्कडं लेता हूं।
- मुनि शोभालालजी
प्रातः सांय निरमल मन स्यूं समरुं जिन चौबीस। मन मंदिर में सदा विराजो विहरमाण प्रभु बीस। शुद्ध बुद्ध परमात्म बगूं कर वीतराग प्रणिधान।।
शासन-शेखर ग्यारह गणधर, सोलह सती स्वतंत्र। भी.भा.रा.ज.म.मा.डा,का.तु.म. महा महिम गुरु मंत्र। तुलसी महाप्रज्ञ रो शरणो ‘कनक' सिद्धि सोपान ।। तर्ज : बाजरिया थारो खीचड़ो...
जानूं जीव अजीव मैं, पुण्य-पाप की बात। आश्रव संवर, निर्जरा, बन्ध मोक्ष विरख्यात ।।
शैथिल्य स्थिरता नूनं, गाने कार्य प्रयत्जतः। न हमाचलसिले माल टीचश्वासो भवेत पुनः ॥ युगम् ॥
बन अहम
अभ्यासपूर्जक शरीर को शिथिल व स्थिर करें।
दासाटी तास का प्रयोग करें।
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मैंने प्रथम बार जैन धर्म को जाना, पहचाना, देखा और अनुभव किया
'धार्मिक परीक्षा बोर्ड" अहमदनगर में ...
सच बात तो यह है कि जन्म से मैं जैन हूँ पर जैन धर्म का ज्ञान मुझे बहुत देर से हुआ। आज ऐसा लगता है, यह ज्ञान जल्दी होता तो मुझे बहुत कुछ मिलता। आज मैं यही बता रही हूँ कि जैन धर्म को जानना, समझना बहुत आवश्यक है, क्योंकि बड़ा वैज्ञानिक और सटीक है जैन धर्म ।
मुझे 'अध्ययन' करना तथा ज्ञान लेना अच्छा लगता है। बचपन से ऐसे संस्कार मिले है। अनेक विषयों का अध्ययन करती थी, परंतु जैन धर्म का तलस्पर्शी, सहज, सुलभ और गहराई से ज्ञान कहीं मिल नहीं रहा था। क्योंकि मैं छोटे से गाँव श्रीगोंदा (महाराष्ट्र) में रहती थी। मेरी किस्मत भी अच्छी थी इसलिए पढ़ाई पूरी होते ही नौकरी के लिए मैं अहमदनगर गई थी। वहां कविता, योग, पत्रकारिता ऐसे अनेक क्षेत्रों में काम करते-करते एक दिन अहमदनगर के सबसे पवित्र, सुंदर, मनमोहक जगह से परिचय हो गया था वह था “धार्मिक परीक्षा बोर्ड'। वहा अत्यंत तेजस्वी, ओजस्वी, तपस्वी ओर ज्ञानपुंज - परम वंदनीय आचार्यश्री आनंदऋषिजी के दर्शन हुए। इसी 'आनन्दधाम' ने मेरे जीवन को एक नई दिशा दी। मुझे एक विशेष प्रेरणा मिली और वही मेरे जीवन का टर्निंग प्वाइंट रहा।
बनें अर्हम
अनित्याः सर्वसंयोगाः, जीवनं चाऽपि नश्वरम् । तत् किमर्थ ममत्तं स्यान् नाशशीलेषु वस्तुषु ॥
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जैन धर्म का पहला परिचय, जैन धर्म की ओर आकर्षण बढ़ाने वाले, जैन धर्म जानने हेतु प्रेरित करने वाले, मेरे अंतःकरण को स्पर्श करने वाले अनेक साधु-साध्वियां, वहां का वाचनालय और वातावरण चुंबक की तरह मुझे खींचता था। उस समय में अत्यंत व्यस्त रहती थी। सुबह वकालत का अभ्यास करने कॉलेज जाती, दीन भर नौकरी करती थी। 'योगशिक्षक' थी, इसलिए योग के वर्ग लेने, शिविर के आयोजन करने के साथ पत्रकारिता भी करती थी। जर्नालिज्म (पत्रकारिता) में पढ़ाने भी जाती थी। मैं स्पेश्यल ज्युडिशियल मजिस्ट्रेट भी थी। व्यस्त जीवनशैली के कारण "जैन धर्म" को जानने, समझने और पढ़ने को समय नहीं दे पा रही थी।
वहां स्थानकवासी अनेक साध्वियों को जब मालूम पड़ा, मैं “योगशिक्षक" हूँ तो वहां योग वर्ग शुरु कर दिया गया और मेरा सद्भाग्य अथवा कुछ अच्छे कर्म होंगे जिससे मुझे साध्वियों को योग सिखाने का मौका मिला। उस समय मुझे उनसे जो ऊर्जा, प्रेरणा और आशिर्वचन मिलते थे उसे मैं शब्दों में नहीं पकड़ सकती। मेरे अंतःकरण को छूने वाले, दिल को झंकृत करने वाले, मुझे जैनधर्म तक पहुँचाने वाले प.पू. आचार्यश्री आनन्दऋषिजी और वहां के साधु-साध्वियों की मैं ऋणी हूं। वहां का आत्मानंद, अनुभव, वहां के एक-एक क्षण मैं कभी भूल नहीं पाऊँगी। आँखें बंद कर, उन क्षणों का ऐहसास करती हूँ, तो आज भी वे क्षण तरो ताजा हो जाते हैं।
इस प्रकार मेरी जैन धर्म के प्रति रुचि बढ़ रही थी। माँ भी हमेशा कहती थी कि, जैन धर्म का अभ्यास क्यों नहीं करती ? माँ का आशीर्वाद, सभी साध्वियों की कृपा दृष्टि से मेरे मन की तमन्ना पूरी हुई शादी के बाद...
सबके आशीर्वाद से मेरी शादी ऐसी जगह हो गई, मेरा जीवन सफल हो गया। सबकी मंगलकामना से मुझे तेरापंथ मिला। परम पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी का अत्यन्त धार्मिक और अनुशासित परिवार। जिसने धर्म संघ के दान में दिए बेटे और बेटियां । स्व. मुनिश्री धनराजजी जैसे विद्वान संत साध्वी मोहनकुमारी जैसी विदुषी साध्वी दीक्षित हुई बने और उनके बाद स्व. साध्वीश्री हर्षकुमारीजी का अल्पायु में ही महाप्रयाण हुआ। मेरे दूसरे नणंदजी साध्वी कनकश्रीजी, विदुषी और अत्यंत मधुर भाषी वक्ता के साथ उत्कृष्ट लेखिका भी है। उनके एक-एक गीत और पुस्तक से मैंने जैन धर्म को सहजता से समझा ।
बनें अर्हम्
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सब संयोग अनित्य हैं और जीवन भी नश्वर है। फिर नाथधर्मा वस्तुओं पर समत्व क्यों किया जाए
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मेरा जीवन ही बदल गया
तेरापंथ धर्मसंघ में प्रवेश के बाद तेरापंथ के इस धार्मिक परिवार में मेरी शादी हुई। घर में बड़ी मेरी सासूजी एक अत्यन्त धार्मिक, सरल एवं भद्र महिला थी। उनका जीवन समतामय था। मेरी संसारपक्षीय ननन्दजी साध्वीश्री कनकश्री जी, तेरापंथ धर्मसंघ की परम विदुषी साध्वी, अत्यंत मधुर वाणी और ज्ञान की धनी हैं। जिनकी लेखनी में सरलता और सहजता ही उनका परिचय है। उनकी सेवा का मौका मेरे लिए अनुपम उपहार होता है जिसे शब्द बद्ध करना मेरी क्षमता के बाहर है।
पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी की नजर मुझ पर पड़ी तो मैं निहाल हो गई। उनका वात्सल्य और करुणामयी दृष्टि पाकर मैं गौरव का अनुभव करने लगी। आचार्य श्री महाप्रज्ञजी की कृपा दृष्टि मिली उसे सिर्फ अनुभव कर सकती हूँ, शब्दों में पकड़ नहीं सकती।गुरुदेव श्री तुलसी का चुम्बकीय व्यक्तित्व, आंखों की चमक, वाणी की मधुरता देखी तो आभास होने लगा कि जिस गुरु की कल्पना एक लम्बे अर्से से थी, पूर्ण हो गई।
ममतामयी साध्वी प्रमुखाश्री कनक प्रभाजी के पहले दर्शन ने ही मेरे मन को मोह लिया। मेरे सत्कर्म फलित हुए ऐसा लगने लगा। सभी साधू-साध्वियों का स्नेह और मार्गदर्शन मिलता रहा।
तेरापंथ धर्म संघ में ज्ञान का अमूल्य भंडार है। सुंदर और व्यवस्थित साहित्य का खजाना है। मेरी शुरुआत हुई पहली किरण, ज्योति किरण और ज्ञान किरण से। “अमत कलश" के पानी ने तो मेरे जीवन में बहार ही ला दी। फिर न जाने कितनी-कितनी पुस्तकों के ज्ञान की गंगा में बहने लगा मेरा जीवन।
गुरुदेव श्री तुलसी के 'अणुव्रत आन्दोलन' का ज्ञान प्राप्त करके तो मैं स्तब्ध सी हो गई। मैं नैतिकता का जीवन तो जी ही रही थी और इसके लिए न जाने मुझे कितने संघर्ष करने पड़े।मैंने सत्य और नैतिकता का जीवन जीया और यहां आने के बाद पता चला कि यही तो अणुव्रती जीवन है, इसी का नाम तो 'अणुव्रत' है। पू. गुरूदेव श्री तुलसी ने अपने
मुखारविन्द से फरमाया - तुम अणुव्रत प्रचेता बनो। योग शिक्षिका के साथ प्रेक्षाध्यान का अभ्यास करने की प्रेरणा भी पू. गुरूदेव द्वारा मिली। यही वजह थी कि मैंने जीवन विज्ञान, योग, प्रेक्षाध्यान और जैन विद्या में एम.ए. किया।
गुरूदेव श्री तुलसी एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञजी की मुझ पर अत्यंत कृपा रही, जिसके कारण मुझे तेरापंथ की प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण संस्थाओं से जुड़कर काम करने का मौका मिला। अणुव्रत महासमिति और जैन विश्वभारती जैसी प्रमुख संस्थाओं की मैं सदस्या रही। अमृत संसद की सदस्यता के बाद मैंने विकास परिषद में संस्कार निर्माण प्रभारी के रूप में कार्य किया। फिलहाल मैं जैन विश्व भारती विश्व विद्यालय के सूरत विभाग में एम.ए. की प्रशिक्षिका हूँ। अणुव्रत विश्वभारती राजसमन्द की भी सदस्या हूँ।
जैन धर्म में मैंने जाना सम्यक दर्शन का विशेष महत्त्व है। आचार्य महाप्रज्ञजी हमेशा कहते हैं, "समस्या नहीं ऐसा जीवन नहीं और समाधान नहीं ऐसी समस्या नहीं। समस्या को देखना जरूरी है और उसके मूल तक पहुँचना चाहिए।" भगवान महावीर ने हमें समस्या की मूलग्राही दृष्टि दी है। मूल को पकड़ो, उसे नष्ट करो, समस्या का समाधान मिलेगा।
'सामायिक' हर समस्या का समाधान है। इसलिए, बिना वक्त गँवाए, अपने आप को जानने के लिए आनंद की अनुभूति के लिए सामायिक शुरू करें। ४८ मिनिट अगर आप नहीं दे सकते तो संवर से शुरुआत करें। कम से कम १० मिनिट अपने आप को दें। धीरे-धीरे आप सामायिक तक पहुँच जाएंगे।
सत्यदर्शन बिना कुछ नहीं होगा। इसलिए चाहिए ज्ञान और फिर आचार – ‘पढमं नाणं तओ दया' । आचरण ज्ञान का सार है – 'नाणस्य सारं आयारो'।
"आओ हम जीना सीखें" पुस्तक में युवाचार्य महाश्रमणजी ने जीवन जीने की कला जीवन जीने की कला में कुशल कैसे बनें इसके अनेक सूत्र बताएं है।
इसमें सबसे पहले उन्होंने बताया है, जीवन के सभी क्रियाओं को सम्यक बनाना, अपना दृष्टिकोण सम्यक् बनाना जरुरी है। इसके लिए आत्म निरीक्षण, आत्म परिक्षण
बनें अहम्
जगति नियतो मृत्युः, सर्वेषां प्राणिनां कुते। महान्तः पुरुषाश्चापि, नीयन्ते समतलिना ।।
बने अहम
जगत् में सब प्राणियों के लिए मृत्यु निश्चित है।
वह महापुरुषों को भी ले जाती है।
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और आत्म-समीक्षा करना सीखें, यह समझाया है।
इसके लिए जैन आगम दसवे आलियं की चूलिका में जो कहां है, वह हमें बताया
जो पुव्वस्तात ररस्तकाले,
संपिक्खई अप्पगमप्पएवं।
कीं मे कडं किं च मे किच्चसे सं
किं सक्कणिज्जं न समायरामि ॥
मध्यरात्रि के नीरव वातावरण में व्यक्ति खुले दिमाग से सोचे मैंने क्या किया है ? क्या करना मेरे लिए शेष है ? और कौन सा वह कार्य है जिसे में कर सकता हूँ फिर भी नहीं कर रहा हूँ। ऐसा चिन्तन करना आत्म-निरीक्षण है, आत्म-दर्शन है, आत्म-संपेक्षा है।
सामायिक कर रहे हो और सही तरीके से नहीं कर रहे हो तो उसे समझकर करें। इसके लिए अध्ययन करें, गुरुदेव कि पुस्तकें तो पढ़े ही साथ-साथ घर बैठे बी.ए., एम. ए. के अभ्यास द्वारा न बढ़ाने का प्रयत्न करें।
तेरापंथ धर्म संघ में मेरी गति प्रगति का मुख्य कारण ही गुरू का आशीर्वाद रहा। जैसे मेरा जीवन बदला वैसे ही आप सब गति-प्रगति कर अपने जीवन को बदल सकते हैं, यही आशा और विश्वास है। सभी "अर्हम् बनें " इसी मंगल कामना के साथ यह पुस्तक प्रस्तुत कर रही हूँ।
बनें अर्हम्
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हे प्रभो यह पं
अहमेकः समायातः, गामी चैकः, पुन ध्रुवम् । मोहस्तदा किमर्थं स्यात् स्वजनेषु च वस्तुषु ॥
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आत्मनिरीक्षण और आत्मपरीक्षण करें....
अपने आप से पूछें, क्या मैं जागृत हूँ ? "क्षणभर भी प्रमाद मत करो" इसे याद करते हो ? सामायिक करते हो? अगर करते हो तो क्या सामायिक का सही अर्थ समझकर करते हो ? क्या इस पुस्तक को पढ़कर आपको कुछ नया ज्ञान मिला है ? क्या आप ज्ञान बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील हैं ?
पुस्तक में आपको क्या अच्छा लगा ? क्या कमी लगी? बताना चाहोगे ? घर बैठे पत्र द्वारा बी. ए., एम. ए. कैसे और कहां करना है यह जानना चाहोगे? मुझे लिखें, जिज्ञासा प्रस्तुत करें एवं फोन द्वारा संपर्क करें।
बनें अर्हम्
योग, प्रेक्षाध्यान और सामाजिक सीखनी है?
कोई भी विषय पर कार्यक्रम आयोजित करना है?
सीखना है? सही जीवन जीना सीखना है?
इस पुस्तक को अपने दोस्तों एवं रिश्तेदारों को भेंट करना चाहोगे?
अलका सांखला मो. 9427491613
e-mail: alkasankhala@yahoo.com
यह निश्चित है कि मैं अकेला आया हूँ और अकेला जाने वाला हूँ। फिर स्वजनों और वस्तुओं पर मोह किसलिए हो?
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________________ दुमपत्तए पंडुयए जहा निवडइ राइगणाण अच्चए एवं मनुयाण जीवियं समयं गोयम! मा पमायए KEYमो उपन्याया 'वामी सिद्धागा मोमध्यमाह Fधामो अरिहना पामो आयरिया *पामो न्यायासा शा . चरित्र सन्ध अहिंसा अचार्य अपरिग्रह रात्रियां बीतने पर वृक्ष पर पका हुआ पत्ता जिस प्रकार गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन एक दिन समाप्त हो जाता है। इसीलिए, हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर।