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________________ 卐 प्रेक्षाध्यान ॥ हर व्यक्ति में परमात्मा का अस्तित्व है। हमारे गुणों का विकास हमारे कर्तृत्व पर आधारित है। व्यक्तित्व विकास की प्रक्रिया सतत चलती है। सामायिक करने वाले व्यक्ति को यही ध्यान रखना चाहिए कि सामायिक में जो १८ पापों का त्याग करते हैं, उनके जीवन में हमेशा कैसा प्रभाव रहेगा? हम हमारे स्व का आत्मनिरीक्षण, परीक्षण करके प्रेक्षाध्यान, प्राणायाम इत्यादि प्रयोग सामायिक में करके हमारे स्वभाव में, व्यवहार में जो दोष है उसे निकाले । जैसे गुस्सा करना, झूठ बोलना, चुगली, निंदा करना, दूसरों का द्वेष करना मुख्यतः लोभ, ममकार, अहंकार इनका विलय प्रेक्षाध्यान द्वारा हो सकता है। समता बढ़ाने के लिए, संपूर्ण जीवन भर समता में रहने के लिए सहना सीखें, कुछ न मुंह से कहना सीखें, तटस्थ-समभाव रखे और क्षमताओं का विकास करें। व्यवहार बदलना है तो मूल की खोज करना, उसके अनुरुप प्रयोग करना। सामायिक में, प्रेक्षाध्यान के प्रयोग करेंगे तो, निश्चित ही सामायिक का प्रभाव संपूर्ण जीवन पर होगा। आपके बदलाव को देखकर अन्यों को लगेगा, यह व्यक्ति सामायिक करता है। प्रेक्षाध्यान इसके लिए अप्रतिम साधना है। आचार्य श्री महाप्रज्ञ फरमाते हैं - सामायिक स्वयं ध्यान है। इसमें विशेष प्रयोग किये जाते हैं। गुरुदेव तुलसी ने अभिनव सामायिक का प्रयोग प्रस्तुत कर सामायिक का आध्यात्मिक स्वरुप उजागर किया। जिसने भी इसे समझा, जाना और सामायिक में इसका प्रयोग किया, उसको सामायिक में कब ४८ मिनट हुए पता ही नहीं चलेगा, सामायिक से वह प्रसन्नता, स्फूर्ति का अनुभव करेगा। जीवन में शांति, आनंद आयेगा तो सारे द्वन्द खत्म होंगे। ममकार और अहंकार का विसर्जन होगा, विषमता मिटेगी और समता के द्वार खुलेंगे, जीवन सुखी और समृद्ध बनेगा। 'प्रेक्षा' शब्द का अर्थ है प्र + ईक्षा = प्रेक्षा, ईक्ष धातु से बने इस शब्द का अर्थ है प्रयानी गहराई से, ईक्ष-यानी देखना। प्रेक्षाध्यान यानी अपने आप को गहराई से देखना। आत्मा के द्वारा आत्मा को देखना। अपने आप को देखना। मन के द्वारा आँखे बन्द करके सूक्ष्म मन को देखना। 'देखना' ध्यान का मूल तत्व है। जानना चेतना का मुख्य लक्षण है, क्षमता के लिए यह जरुरी भी है। इसलिए जानों और देखों। यही मुख्य बात है। प्रेक्षाध्यान में एकाग्रता और अप्रमतता चाहिए। अप्रमाद यानी जागरुकता जरुरी है। क्षणभर भी प्रमाद मत करो। यही उपदेश देकर हमें भगवान ने जागृत किया है। ध्यान का पहला चरण - कायोत्सर्ग 'कायोत्सर्ग' से प्रेक्षाध्यान की शुरुआत होती है। ध्यान का अर्थ है प्रवृत्ति का निरोध। प्रवृत्तियां तीन हैं - कायिक, वाचिक और मानसिक। इन तीनों का निरोध हैं ध्यान। फलतः ध्यान तीन प्रकार के होते हैं - कायिक ध्यान, वाचिक ध्यान और मानसिक ध्यान। सामायिक पाठ को भी हम समझेंगे तो इसमें भी जो उपासना करते हैं वह भी दो करण (करना, कराना) और तीन योग से (मन, वचन और काया से)। प्रेक्षाध्यान में सर्वप्रथम हम कायिक ध्यान करेंगे - कायोत्सर्ग द्वारा। कायोत्सर्ग का अर्थ है, शरीर का व्युत्सर्ग और चैतन्य की जागृति। कायोत्सर्ग की पहली शर्त है मानसिक, शारीरिक शिथिलता और मानसिक एकाग्रता। इसके लिए चित्त एवं शरीर की स्थिरता अनिवार्य है। सामायिक में भी त्रिगुप्ति की साधना में कायगुप्ति शरीर की स्थिरता, मौन करके ध्यान करने के लिए कहा है। सामायिक में भीतर का संतुलन और सही दृष्टिकोण का निर्माण है। यह प्रेक्षाध्यान के प्रयोग से ही होगा। तटस्थता की साधना, वर्तमान में जीना, रागद्वेष भाव से बचना सामायिक के उद्देश्य है और प्रेक्षाध्यान में यह प्रयोग है। भाव क्रिया का अभ्यास, प्रेक्षाध्यान की शुरुआत है। वर्तमान में जीना सामायिक का सच्चा स्वरुप है और प्रेक्षाध्यान में वर्तमान में जीना अभ्यास का एक अंग है। स बने अहम प्रसूता न रसाः सेव्या, रसनासंयमो महान । जिहेन्टिययगेन स्यात्, सारस्यं जीतने परम् ।। बन अहम्द र सों का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए। जिहा. संयम महान है। य-संयम से जीवन में परम सरसता आती है।
SR No.009660
Book TitleBane Arham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlka Sankhla
PublisherDipchand Sankhla
Publication Year2010
Total Pages49
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size57 MB
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