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___卐 मंगल भावना ॥
सात गाथाओं से लोगस्स का पाठ बना है जिसमें चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। यह सप्तपदी मंत्र है, सात गाथाओं का एक महामंत्र।
प्रथम पद्य में तीर्थंकरों की स्तुति का संकल्प, अगले चार पदों में या तीर्थंकरों के नाम स्मरण पूर्वक स्तुति, छठे पद्य में आरोग्य, बोधि, समाधि की मांग और अंतिम पद में तीर्थंकर चंद्रमा से अधिक निर्मल, सूर्य से अधिक तेजस्वी तथा सागर से अधिक गंभीर होते हैं। अतः इन तीनों की उपलब्धि सहज है, ऐसा उल्लेख है। इस प्रकार यह आवश्यक में भी सबसे छोटा परंतु अत्यंत महत्त्वपूर्ण आवश्यक है।
यह भक्ति है। प्रश्न है, भक्ति का स्तुति करने से क्या लाभ होता है ? इससे मन की निर्मलता, भाव की विशुद्धि होती है।
उत्तराध्ययन सूत्र में पूछा गया 'भगवन! चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करने से जीव को क्या प्राप्त करता है?'
भगवान ने उत्तर दिया - 'दसणं विसोहिंजणयई' दर्शन की विशुद्धि को प्राप्त करता है। तीर्थंकरों की स्तुति या ध्यान करने से मोहनीय कर्म शांत होते हैं। लोगस्स का सूत्र अर्हता का सूत्र है। समर्पण का सूत्र है। जैन दर्श अनेकान्तवादी है। ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग सबको समान मानता है। भक्ति भी करनी है, क्यों ? महावीर का एक सूत्र बहुत सुंदर है। ननत्थ थेनिजस्टूठयारा-केवल निर्जरा के लिए करो।'
लोगस्स का पाठ प्रायश्चित के लिए बहुत काम में आता है। इसे श्वासोच्छवास के साथ करने से अधिक लाभ होगा। इसलिए धीमे-धीमे लयबद्ध उच्चारण करें। प्रत्येक पद के साथ श्वासोच्छवास का पद और मानसिक उच्चारण करें। सात श्लोकों का लोगस्स भावना का सुंदर प्रयोग है।
जैन भक्ति में एक सकाम भक्ति है और एक निष्काम भक्ति होती है। सकाम भक्ति में कोई मांग होती है। निष्काम भक्ति में कोई कामना नहीं होती। लोगस्स में कहा है
आरोग्ग बोहिलाभं, समाहिवरमुत्तमं दितु।
प्रभो! आप मुझे आरोग्य दें, बोधि और समाधि दें।ये तीन कामनाएं की गई है। उच्च स्तर की कामना। इसमें उच्चारण शुद्धि हो, लयबद्धता हो। अर्थ बोध के साथ इसे करें तो चित्त एकाग्र होता है। इससे शुभध्यान का सहज अभ्यास होता है।
खुद को जानना और अपना विकास करना है। इसके लिए ज्ञान आवश्यक है हर प्रक्रिया समझकर, अर्थ को जानकर करनी है। भारतीय दर्शनों में सबसे बड़ा पाप माना है अज्ञान या अविद्या। ज्ञान की उपासना, दर्शन और शक्ति की उपासना करनी चाहिए। ज्ञान के साथ मंत्र उच्चारण करो।
विकास करना है तो, जिज्ञासा चाहिए। नमस्कार महामंत्र की आराधना महान साधना है। अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और मुनि इस पंच परमेष्ठी की आराधना क्या है? यह समझ लो। जैसे पंचपरमेष्ठी की आराधना आत्मा की आराधना है। मंगलभावना जीवन की महान उपलब्धि है। मंगल भावना करें, मंगल भावना सबके लिए आवश्यक है। नमस्कार महामंत्र मंगल है। इसकी स्मृति उच्चारण सब कुछ मंगल है।
अपनी पहचान, गुणों का विकास और परिष्कार विवेक से करना चाहिए। इसके लिए हमें "मंगल भावना" का भी प्रयोग करना चाहिए। कोई भी कार्य करे तो 'मंगल' के साथ करें। हम देखते हैं, कोई भी कार्यक्रमों का प्रारंभ मंत्र अथवा मंगलाचरण द्वारा होता है। कार्यक्रम की सफलता के लिए इसका प्रयोग करते हैं। द्रव्य मंगल भी है और भाव मंगल भी है। द्रव्य का अर्थ अवास्तविक और भाव का अर्थ है वास्तविक, पारमार्थिक, अध्यात्म शास्त्र में मंगल उसी को मानना चाहिए जिससे निश्चित ही विघ्न और बाधाओं को मिटाने की क्षमता है। उसी को वास्तव मंगल मानना चाहिए।
हर व्यक्ति के लिए, हर काल, और देश में निश्चित मंगल होता है वह वास्तविक मंगल है। पांच मंगल है। अर्हत् मंगल है, सिद्ध मंगल है, आचार्य मंगल है, उपाध्याय मंगल है और साधु मंगल है। प्रश्न यह है इन्हीं को मंगल क्यों माना गया? कारण कि, यह सब आत्मा है। आत्मा सबसे बड़ा मंगल है। चैतन्य सबसे बड़ा मंगल है। आनंद और शक्ति सबसे बड़ा मंगल है। आत्मा के तीन लक्षण है। अनन्त चैतन्य, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति।ये सबसे बड़े मंगल हैं। इनसे कभी भी अमंगल नहीं होता।
बन अहम्भ
आसक्तिमूलकं पापं, धर्मः संवानणाशकः। संवादो महाधर्मः, परिवाहश्य पातकम् ॥
बने अर्ट
आसत्तिा पाप का गुल है। धर्म आसक्ति का नाश करने वाला है।
अपरिग्रह महान पर्ग है और परिवार पाप है।
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