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आचार्य महाप्रज्ञ “अध्यात्म का प्रथम सोपान सामायिक' में लिखते हैं - खतरनाक होता है चुगलखोर यानि पैशुन्य। हम व्यवहार में देखते हैं हजारों लोग सामायिक नियमित करते हैं। उसमें से कितने अर्थ समझकर प्रयोग करते-करते अपने आपको बदलने का प्रयत्न करते है ? सामायिक बिना चाय तक नहीं पीने वाले, सामायिक बिना एक दिन भी खाली नहीं जाने देने वाले, कितनी आराम से चुगली करते हैं, दूसरों की निंदा करते हैं। मेरे मन में हमेशा आता है - सामायिक के समय केवल वे सावद्य प्रवृत्ति का त्याग करते हैं
और बाकी समय अपने को निंदा, चुगली, राग-द्वेष के लिए फ्री (खुला) रखते हैं। चुगलखोर मधुरभाषी होता है, इतनी ढंग से चुगली करता है, सामनेवाले को वह अपना हित चिन्तक ही लगता है। यदि आत्मदर्शन, स्वदर्शन का अभ्यास बढ़ जाता है तो यह परदर्शन बात गौण हो जायेगी। बाधक तत्व अपने आप समाप्त हो जायेंगे।
दिन-ब-दिन अपनी क्षमता का विकास करना चाहिए। हमारी उपयोगिता बढ़े, क्षमता बढ़े- हम प्रगति के इस सूत्र को समझें और साथ में अपनी सीमा भी समझें।
आदतों को बदलना, स्वभाव बदलना सामायिक अभ्यास से सहज शक्य है। सामायिक का सार यही है -चंचलता को रोकना और समभाव में रहना।
त्रिगुप्ति की साधना भी सामायिक में करना जरुरी है। मन, वचन और काया ये तीनों वश में हो जाते हैं तो मंगल बन जाते हैं। व्यवहार हो, चाहे परमार्थ तीन गुप्तियों के बिना कोई भी वश में नहीं होता।
जब तक मनुष्य के मन में राग-द्वेष की तरंगें मचलती हैं, क्रोध, ईर्ष्या और अभिमान से भरा रहता है, तब तक न मंत्र काम करता है और न तप।
- आचार्य तुलसी
ॐ अ-सि-आ-उ-सा-नमः
बने अहम
रागद्वेषप्रभावेण, जायते दुःरिवतं मनः। तस्य चारुसमाधानं, समतपरिशीलनम् ।।
बने अशा
राग-पोष के प्रभाव से मन दु:खी जलता है। इसलिए दुःख को मिटाने का गवण समाधान है- समता का परिशीलन।