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संधारे के १२ वें दिन, बैकुंटी (पालखी, पास बेटे मातुश्री सुवादेवी
समतामय था, उनका संथारा उससे ही बढ़कर, सहज और चढ़ते परिणामों का था। जिसकी किसी ने कल्पना तक न की थी। मोह-ममता का त्याग कर अपने जन परिजन से क्षमा याचना कर हँसते-हँसते संथारे को स्वीकार किया। वो दमा से ग्रस्त रहते थे, उन्हें समय पर चाय लेने से ही आराम मिलता था। उनका बेटा (दीपचन्द) कभी कभी विनोद में कहता था कि 'आपको चाय के बिना तकलीफ रहती है, चाय के बिना आप नहीं रह सकते इसलिए संथारे की कल्पना अभी आपको नहीं करनी चाहिए। संथारे की भावना प्रबल हो तो पहले आपको चाय छोड़नी पड़ेगी, जो आपके लिए काफी कठिन होगी।"
सचमुच ही भावना प्रबल हो गई और एक उपवास पचक लिया। उस दिन उनका बेटा (दीपचन्दजी, मेरे पति) भी नवसारी शहर में नहीं था। उपवास की सूचना मिलते ही वे वापिस आ गए। दूसरे दिन पारणे की तैयारी की, तो सासुजी बोले - "मेरी बेला करने की भावना है और वो भी इतनी सहजता से।" तीसरे दिन कहने लगे मेरी संथारा करने की भावना प्रबल हो गई है और मैंने संथारे का संकल्प कर लिया है। बेटे ने समझाया और कहा कि, पहले आपकी डाक्टरी जाँच करवा लेते हैं, उसके बाद आगे बढ़ेंगे। उन्होंने तुरंत कहा – “मैं स्वस्थ हूँ।डाक्टर के कुछ भी कहने से मैं अपना निर्णय नहीं बदलूँगी।हाँ ! तुम चाहो तो पू. गुरुदेव एवं साध्वी श्री कनकश्रीजी को उनके आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु संवाद भेज सकते हो, लेकिन मैं संकल्पबद्ध हूँ, मेरा मनोबल दृढ़ है और मैंने तो मन ही मन पचक लिया है।"
साध्वीश्री कनकश्री के पास संवाद लेकर गए जो मुम्बई में बिराज रहे थे। उन्होंने प्रेरणा पाथेय देते हुए कहा, "यदि उनकी प्रबल इच्छा है तो, तुम परिजनों को तो उनके भावों को और प्रबल बनाना चाहिए, बजाय कि मोह-ममता में फंसकर अपने आप को कमजोर बनाओ।' गुरुदेव का मार्गदर्शन पाने के बाद उन्हें विधिवत् संथारा समाज के वरिष्ठ श्रावकों की उपस्थिति में पचकाया गया।
चेहरा शान्त, मन प्रसन्न, मोह-माया से विरक्त देखकर मैं तो अवाक् थी। जीवन में ऐसी पहली घटना देखी, जो मेरी स्मृतिपटल पर अब भी चित्रित है। माँसा के समतामय जीवन, श्रद्धानिष्ठ एवं गुरु के प्रति समर्पित भावना को शब्द बद्ध करना आसान नहीं है।
एक उदाहरण बताना चाहूँगी। संथारे के १२ वें दिन, अपनी तैयार की गई बैकुंठी के
बारे में उन्होंने पूछा। बाद में उसके पास बैठकर नमस्कार महामंत्र का जाप किया। गुरुदेव के प्रति अपनी समर्पण की अभिव्यक्ति सहजता और शालीनता से प्रकट की। उनका संथारे का प्रत्येक दिन चढ़ते भावों का था। ___ मैं अपने आप को भाग्यशालिनी मानने लगी, ऐसे परिवार में आकर, ऐसे धर्म संघ का मार्गदर्शन पाकर। उनका संथारा देखकर महसूस होने लगा, "जीवन जीने की कला है तो मृत्यु एक महाकला है, जिसे सिर्फ भाग्यवान ही प्राप्त कर सकते है।'' हँसते हँसते अपने नश्वर शरीर और परिजनो का परित्याग कर आत्मकल्याण के लिए गतिमान हो गए। ___ मैं ऐसी महान आत्मा को पुस्तक समर्पित करती हूँ। उस गरिमामयी आत्मा के लिए कामना करती हूँ कि उनकी आत्मा गति प्रगति करते हुए मोक्ष प्राप्त करे। उनका पूरा परिवार अपने आप को गौरवान्वित अनुभव करता है। संपूर्ण परिवार उनका सदा ऋणी रहेगा।