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सामायिक का उदभव वैशाख शुक्ला एकादशी को पूर्वाह्न काल, महासेन उद्यान में भगवान ने प्रथम बार सामायिक का निरुपण किया। कर्ता के बारे में जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण कहते हैं कि, व्यवहारिक दृष्टि से सामायिक का प्रतिपादन तीर्थंकर और गणधरों ने किया। निश्चयनय दृष्टि से सामायिक का अनुष्ठान करने वाला ही सामायिक का कर्ता है। LD सामायिक का अर्थ
सामायिक का सीधा अर्थ है समता की प्राप्ति। शास्त्रकारों ने सामायिक की अनेक परिभाषाएं की हैं। सामायिक की व्युत्पत्ति करते हुए आचार्य मलयगिरी कहते हैं कि - सम अर्थात् एकत्व रुप से आत्मा का आय – लाभ समान हैं। समाय का भाव ही सामायिक है। प्राचीन गाथा में सामायिक किसे कहते हैं, इसका उत्तर दिया है
॥ जो समो सासु तसेसु थावरेसु या॥
॥ तस्स सामाइयं हवड़, इड़ केवलिभासियं। ॥ सामायिक उसके होती है, जो सब प्राणियों के प्रति सम होता है। जिसके मन में किसी भी प्राणी के प्रति कोई विषमता नहीं होती, वह समभाव की साधना में बढ़ता चलता है। इस प्रकार सामायिक का स्वरुप समता है।
समता के अर्थ में जो सामायिक शब्द का प्रयोग हुआ है, यह भाव सामायिक का संकेत है, व्याकरण की दृष्टि से प्रत्येक शब्द का भाव समता रस में परिपूर्ण होता है।
सम-आय-इक, इन तीन शब्दों का संयोग सामायिक। सम-राग-द्वेष प्रवृत्ति का अभाव। आय-ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप आत्मगुणों की उपलब्धि है। इक-जो भाव वाचक प्रत्येय है। अर्थात् जिसमें समता का लाभ होता है उसका नाम है सामायिक।
आचार्य वट्टकेर के अनुसार, जीवन-मरण, लाभ-हानि, संयोग-वियोग-मित्रशत्रु, सुख-दुःख आदि में राग-द्वेष न करके इनमें समभाव रखना सामायिक है।
धर्मस्यं शरणं वाहां, सर्वदा सुखदं वरम्। बन अहम
खाता, पिता, माता, आता, समृदिदायकः।।
समता का महत्त्व हर धर्म में उगित हुआ है। गीता में समत्व को योग कहा है। योग शास्त्र में हरिभद्र स्पष्ट कहते हैं कि “न किसम्बने विना ध्यानम्" साम्य योग विना साधना क्षेत्र में चरणण्यास नहीं किया जा सकता।
चूर्णिकार जिनदासगणि कहते हैं- "जैसे आकाश सभी द्रव्यों का आधार है, वैसे ही सामायिक सब गुणों की आधार भूमि है।" जिनभद्रगणी क्षमा श्रमण इसके महात्म्य को प्रकट करते हुए कहते हैं कि, षटावश्यक में सामायिक प्रथम आवश्यक है।चतुर्विंशतिस्तव आदि में इन्हीं गुणों का समावेश हुआ है। उन्होंने सामायिकको चौदह पूर्वो का सार माना है।
समता का अर्थ है, मन की स्थिरता, रागद्वेष का शमन और सुख-दुःख में निश्चलता। विषम भावों से स्वयं को हटाकर स्व रुप में रमण करना, समता है। इस प्रकार सामायिक की साधना पवित्रता की साधना, बंधनमुक्ति की पवित्रतम आराधना है। उर्द्धवरोहण का सोपान है। भगवान महावीर ने आचारांग सूत्र में कहा - 'समया धम्ममुदाहरे मुणी' समता सबसे बड़ा धर्म है। अन्तर्मुखी चेतना निर्माण करती है, समायिक।
गौतम स्वामी ने भगवान से पूछा, 'सामायिक का अर्थ क्या है ?' महावीर ने कहा 'आया खलु सामाइए' आत्मा सामायिक है। इसका तात्पर्य यह है, आत्मा में रमण करना। अपने अस्तित्व में रहना।
चिन्तनीय बिन्दु यह है कि षटावश्यक में वर्णित सामायिक और श्रावक के नित्यक्रम में की जानेवाली सामायिक में अंतर है या नहीं? इस बारे में आचार्यों ने विशेष स्पष्टीकरण नहीं किया। संभव यही लगता है कि षटावश्यक में वर्णित सामायिक का प्रायोगिक रुप यह सामायिक है। आचार्य कुंदकुंद की प्रसिद्ध रचना 'समयसार' में भी समताभाव को ही प्रधानता दी है। जैन धर्म को अगर समता की साधना, सामायिक की साधना से पृथक कर दिया जाए तो धर्म क्रिया-शून्य हो जाएगा।सारी क्रियाओं के केन्द्र में समता की साधना है।
आवश्यक सूत्र में सावध योग के त्याग और निखद्य योग के स्वीकार को सामायिक कहा है। भगवती सूत्र के अनुसार आत्मा ही सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का अर्थ है। ने अश शर्म जाण देने वाला, पिला, माता, भाला, समृद्धि देने वाला, सर्कता सुख देने
- J वारना और श्रेष्ठ है। इसरिता धर्म की शरण स्वीकार करनी चाहिए।