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सामायिक करने की अर्हता
इसका वर्णन करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं, जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में जागरुक है, जो त्रस और स्थावर प्राणियों के प्रति समभाव रखता है उसके सामायिक होता है।
जिनभद्रगणि के अनुसार प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, संविग्न, पापभीरु, अशठ, क्षान्त, दान्त, गुप्त, स्थिर व्रती, जिनेन्द्रिय ऋजु, मध्यस्थ, समित और साधु संगति में इन गुणों से सम्पन्न व्यक्ति सामायिक ग्रहण करने योग्य होता है।
पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक सामायिक का अधिकारी होता है। व्यवहारिक दृष्टि से जो व्यक्ति समता का उपासक है, समता का विकास करना चाहता है, समता की साधना पर विश्वास रखता है, वह सामायिक का अधिकारी है।
सामायिक के प्रकार
स्थानांग सूत्र में सामायिक के दो प्रकार निर्दिष्ट है
अगारसमाइएचेव, अणगार सामइए चेव ।
(१) गृहस्थ की सामायिक
१२) साधु की सामायिक
साधु जीवनभर सावध योग का प्रत्याख्यान करता है।
बारह व्रतधारी श्रावक नौंवें सामायिक व्रत की आराधना करता है। उसका एक मुहूर्त अर्थात् २ घड़ी या ४८ मिनट सामायिक का काल निर्धारित है। ४८ मिनट समता की विशेष साधना, सब प्रकार की सावध (पापकारी) प्रवृत्तियों का दो करण तीन योग से त्याग करना।
१४८ मिनट कालावधि का किसी आगम में स्पष्ट संकेत नहीं। प्राचीन आचार्यों द्वारा सम्मत परंपरा है।
काल प्रतिबद्ध यानी काल से बँधी सामायिक है। करना, कराना और अनुमोदन - यह तीन करण हैं। मन वचन और काया की प्रवृत्ति यह तीन योग हैं। बनें अर्हम्
धर्मेण मनसः शान्तिः, धर्म परममंगलम् । भवसिन्धौ निमज्जन्ति, धर्महीना जना मुधा ॥
श्रावक की सामायिक दो करण तीन योग से होती है। इसमें 'अनुमोदन खुला रहता
है। प्रश्न यह है, ये सब ४८ मिनट ही क्यों ? इसका उत्तर यह भी हो सकता है, छदमस्थ अवस्था में प्राणी लगातार ४८ मिनट से अधिक समय तक शुभ योग में नहीं रह सकता। इसलिए शायद इसलिए सामायिक की कालावधि ४८ मिनट निर्धारित है। सामायिक के तीन प्रकार
(1) सम्यकत्व सामायिक
2) श्रुत सामायिक
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तत्त्वश्रद्धा
जीव आदि का परिज्ञान
(श्रुत सामायिक के तीन भेद हैं)
> श्रुत सामायिक,
> अर्थ सामायिक,
> तदुभय सामायिक
3) चारित्र सामायिक
+ सामायिक में क्या करना चाहिए ?
सामायिक अनुष्ठान के लिए बाह्य और आन्तरिक तैयारी आवश्यक है।
बाह्य तैयारी : इसमें सर्व प्रथम सामायिक का स्थान- यह भी महत्त्वपूर्ण है। जैसे स्थान चंचलता बढ़ाने वाला न हो, जहां टीवी, रेडिओ चलता है, ऐसी जगह न हो। टेलिफोन, दरवाजे और खिड़की के पास न बैठें। जिससे आने-जाने वाले व्यक्ति, आवाज, वाहन और अन्य घटनाओं का प्रभाव हो, ऐसी जगह न हो स्थान एकान्त, प्रसन्न, शांत हो। सबसे महत्त्वपूर्ण घर में उपासना कक्ष हो तो बहुत ही अच्छा, अन्यथा एक जगह निश्चित करके, उसी जगह हमेशा सामायिक करना चाहिए। स्थान का अपना प्रभाव होता है। निषेधात्मक भाव आने वाले प्रतिकूल स्थान होते हैं और ऐसे विधायक भाव आनेवाले स्थान भी होते है। इसलिए पहले जगह का अवलोकन करके जगह निश्चित करें। पूंजनी से स्थान साफ कर, आसन बिछाकर सामायिक करें। आपका मुख पूर्वाभिमुख या उत्तर दिशाभिमुख हो । अथवा गुरुदेव बिराजमान हैं तो उनके सम्मुख, किसी भी दिशा में मुख किया जा सकता है।
बनें अर्हम्
सावद्ययोगों विरती
धर्म पर मंगल है। धर्म से मानसिक शांति मिलती है। धर्महीन मनुष्य यं भवसागर में डूबते हैं।
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