Book Title: Anekant 1940 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम . D ITTULLHDHINAMITRAAT 2. SSS JI TIMIRE नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ ___ सम्पादन-स्थान-चीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० बो० नं० ४८, न्यदेहली चैत्र-पूर्णिमा, वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम सं०१६६७ वर्ष ३ किरण ६ उमारकात्ति-रमरगा तत्त्वार्थसूत्र-कर्तारमुमास्वाति-मुनीश्वरम् । श्रुतकेलिदेशीयं वन्देऽहं गुण मन्दिरम् ॥ -नगरताल्लुक शिलालेख नं०४६ तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता उन उमास्वाति मुनीश्वर की मैं वन्दना करता हूँ-उनके श्रीचरणोंमें नतमस्तक होता हूँ-जो गुणोंके मन्दिर थे और करीब-करीब श्रुतकेवली थे । श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशस्तत्वार्थसूत्रं प्रकटीचकार। यन्मुक्तिमार्गाचरणोद्यतानां पाथेयमध्ये भवति प्रजानाम् ॥ -श्रवणबेलगोल शिलालेख नं०१०५ श्रीमान् उमास्वाति वे मुनीन्द्र हैं जिन्होंने उस तत्त्वार्थसूत्रको प्रकट किया है जो कि मुक्तिमार्ग पर चलने को उद्यमी प्रजाजनों के लिये मूल्यवान पाथेय (कलेवा) के समान है-मोक्षमार्ग पर चलने के लिये कमर कसे हुओं की आवश्यकताको पूरा करता हुअा उन्हें चलनेमें समर्थ बनाने वाला है । अभू दुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी । सूत्रीकृतं येनजिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवेन ॥ स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गृध्रपक्षान् । तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृध्रपिञ्च्छं॥ -श्रवणबेलगोल शिलालेख नं० १०८ उन (श्री कुन्दकुन्दाचार्य) के पवित्र वंशमें वे उमास्वाति मुनि हुए हैं जो संपूर्ण पदार्थोंके जानने वाले थे, मुनिपुंगव थे और जिन्होंने जिनदेव-प्रणीत श्रागमके संपूर्ण अर्थसमूहकी सूत्ररूपमें रचना की है । वे प्राणियों की रक्षामें बड़े सावधान थे और इसके लिये उन्होंने एक बार पिंछी के रूप में गृध्रके परोंको धारण किया था, उस वक्त से बुध-जन आपको 'गृध्रपिञ्छाचार्य' कहने लगे थे । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर कर्मसाहित्य दिगम्बर 'पंचसंग्रह [ले०-५० परमानन्द शास्त्री ] बंधशतक और पंचसंग्रह इस समय मेरे सामने उपस्थित है। इस ग्रंथमें बंध प ताम्बर सम्प्रदायमें 'कर्मप्रकृति' ग्रंथके कर्ता कथनक कथनकी प्रधानता होनेसे इसका नाम 'बंध-शतक' भी 7 आचार्य शिवशर्म माने जाते हैं, और आपको रूढ हो गया है । परन्तु इस शतक प्रकरणकी रचनाका पूर्वधर भी बताया जाता है । श्राप कर्म साहित्यके विशेषज्ञ सामञ्जस्य 'कर्मप्रकृति' के साहित्य आदि के साथ ठीक होते हुए अन्य सिद्धान्त आदि विषयोंमें भी अच्छी नहीं बैठता । जो गम्भीरता और सूत्र-कथन-शैली कर्म प्रकृतिमें है वह इस शतक प्रकरणमें उपलब्ध नहीं होती, योग्यता रखते थे। आपका समय यद्यपि पूरी तौरसे निर्णीत नहीं है, फिर भी संभवतः विक्रमकी ५वीं शता और इससे इसके शिव-शर्मकर्तृक होनेमें संदेह होता है । ऐसा मालूम होता है कि यह शतक' प्रकरण किसी ब्दी अनुमानित किया जाता है । 'कर्मप्रकृति' ग्रन्थके अन्य के द्वारा ही संग्रह किया गया है । इसके शुरुमें अवलोकन करनेसे आपकी विद्वत्ताका यथेष्ट परिचय मिल जाता है। इस ग्रंथकी रचना सुसम्बद्ध है और मंगलाचरण और ग्रंथप्रतिज्ञाकी जो गाथा पाई जाती है प्रतिपाद्य विषयके अच्छे प्रतिपादनको लिये हुए है । वह इस प्रकार हैइसमें जिस रूपसे बंध-उदय, उदीरणा, संक्रमण और अरहन्ते भगवन्ते अणुत्तरपरक्कमे पणमिऊणं । बंधसयगे निबद्ध संग्रह मिणमो पवक्खामि ॥ उपशम आदिका वर्णन दिया है वैसा सूत्रबद्ध, संक्षिप्त कथन अन्य श्वेताम्बरीय कर्म ग्रन्थोंमें बहुत ही इस गाथामें अणुत्तर पराक्रम वाले अरहंत भगवान् कम देखने में आता है। इन्हीं प्राचार्य-द्वारा संकलित को नमस्कार करके बंधशतकमें निबद्ध इस संग्रहको एक 'शतक' नामका प्रकरण भी कहा जाता है जो कहने की प्रतिज्ञा की गई है, इससे इस ग्रंथके एक संग्रह ---- ग्रंथ होने में तो कोई संदेह मालूम नहीं होता। परन्तु * आचार्य मलधारी हेमचन्द्र जो इस शतक प्रकरणके टीकाकार हैं उन्होंने इस ग्रंथ की गाथासंख्या संख्या मंगलाचरणकी गाथा सहित १०८ होती हैं । १०. बतलाई है जैसा कि उनके निम्न वाक्योंसे स्पष्ट यदि मंगलाचरणकी गाथाको मूलग्रंथकी न मानी जावे है -"श्री शिवशर्म सूरिभिः संक्षिप्ततरं सुखाबबोधं तो भी गाथाओंकी संख्या १०७ होती हैं जिसका च गाथाशतपरिमाणनिष्पन्नं यथार्थनामकं शतकाख्यं 'गाथाशत परिमाणनिष्पन्नं' वाले वाक्यके साथ विरोध प्रकरणमभ्यधायीति" । जब कि इस प्रकरणकी गाथा- होता है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ६] श्वेताम्बर कर्म साहित्य और दिगंबर 'पंचसंग्रह ' प्रश्न यह है कि वह संग्रह किसका किया हुआ है और कहांसे किया गया है । सटीक प्रतिमें उक्त गाथा पर कोई नम्बर नहीं दिया और न चूर्णीकारने इसकी व्याख्या ही की है । इसीलिये मलधारी हेमचन्द्रने इसकी टीका नहीं की और लिखा है कि 'यह गाथा इस ग्रंथके शुरुमें देखी जाती है परन्तु उसकी व्याख्या पूर्व चूर्णीकारने नहीं की, इसलिये उक्त गाथा प्रक्षिप्त मालूम होती है और सुगम भी है', ऐसा लिखकर उसके दोतीन पदों की साधारण व्याख्या दी है । इससे स्पष्ट है कि मलधारी हेमचंद्र भी इस गाथाको मूल ग्रंथकी मानने में संदिग्ध थे । अस्तु, यदि इस गाथाको मूल ग्रंथकी मानना इष्ट नहीं है तो इस ग्रंथके शिवशर्मकर्तृक होने की हालत में मंगलाचरणकी कोई दूसरी गाथा होनी चाहिये। क्योंकि आचार्य शिवशर्मने अपनी 'कर्मप्रकृति' में मंगलाचरण किया है । यह नहीं हो सकता कि एक हीग्रंथकार अपने एक ग्रंथमें तो मंगलगानपूर्वक ग्रंथ रचनेकी प्रतिज्ञा करे और दूसरे में न मंगलगान करे और न ग्रंथ रचने की कोई प्रतिज्ञा ही करे। जब मंगलादिककी दूसरी कोई गाथा नहीं है तब या तो इस ग्रन्थ को शिवशर्मकृत न कहना चाहिये । और या यह मानना चाहिये कि उक्त गाथा इसी ग्रंथकी गाथा है और उसके कथनानुसार यह ग्रन्थ एक संग्रह ग्रंथ है । दोनों हालतोंमें यह ग्रंथ शिवशर्मकृत नहीं ठहरता; क्योंकि यह ग्रंथ जैसा कि आगे प्रकट किया जायगा, शः नहीं किन्तु शब्दशः इतना अधिक संग्रहग्रंथ है कि इसे शिवशर्मजैसे श्राचार्यकी कृति नहीं कहा जा सकता। उनके कर्मप्रकृति ग्रंथकी पद्धति-कथनशैली और साहित्य के साथ इस * सिद्धं सिद्धत्थसुयं वंदियणिद्धो य सव्वकम्ममलं । कम्मट्ठगस्स करणगुदय संताणि वोच्छामि ॥ - कर्मप्रकृति १ ३७६ का कोई मेल भी नहीं बैठता और इसलिये इसका संग्रह किसी दूसरे ही विद्वान् ने किया । काँ है, इसका कुछ दिग्दर्शन श्रागे कराया जाता हैं । दि० जैन सम्प्रदाय में प्राकृत पंचसंग्रह नामका जो एक प्राचीन कर्मग्रंथ उपलब्ध है और जिसका संक्षिप्त परिचय अनेकान्तके इसी वर्षकी तीसरी किरण में 'अति प्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह ' शीर्षक के नीचे कराया जा चुका है, उसके 'शतक' नामक चतुर्थं प्रकरण की, जिसमें १०० बातें ३०० गाथाओं में वर्णित हैं, ६४गाथाएँ इस 'शतक' नामक प्रकरण में प्रायः ज्योंकी त्यों अथवा कुछ थोड़े से पाठ भेद या सामान्य शब्द - परिवर्तन के साथ पाई जाती हैं। उनमें एक गाथा ऐसे परिवर्तनको भी लिये हुए है जिसमें थोड़ासा साधारण मान्यता भेद उपलब्ध होता है और जो सम्प्रदाय - विशेष की मान्यताका सूचक है । प्राकृत पंचसंग्रहकी जो गाथाएँ उक्त 'शतक' अथवा 'बन्धशतक' में पाई जाती हैं उनमें से तीन गाथाएँ यहाँ नमूने के तौर पर नीचे दी जाती हैं:चोइससरायचरिमे पंचणियहीणियहि एयारं । सोलसमं दुणुभायं संजमगुणपच्छिम्रो जयइ ॥ - - प्रा० पंचसं० ४, ४७० चोइससरागचरिमे पंचमनियाट्टनियहि एक्कारं । सोलसमं दुभागा संजमगुणपत्थिश्रो जयइ ॥ -बन्धशतक, ७४ श्राहारमप्पमत्तो पत्तसुद्धो दु अरह सोयाणं । सोलस माणुस तिरिया सुर खिरया तमतमा तिरिण ॥ - प्रा० पंचसं०, ७, ४५६ श्राहारमध्यमत्तो पत्तसुद्धो उ घरइ सोगाणं । सोलस माणुसतिरिया सुरनारग तमतमा तिनि ॥ —बन्धशतक, ७५ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० अनेकान्त सम्माsst not a श्रट्ट परियत्तमज्झिमो जय । परियत माण मज्झिम मिच्छा इट्ठी दु तेवीसे || - प्रा० पंचस०, ४, ४८३ परियत्त मज्झिमो जय | मिच्छट्टिी उ तेवीसं ॥ —बन्धशतक, ७६ इनके सिवाय, पंचसंग्रहकी गाथाएँ, नं० ३, ४, ५, ६, २०, ५५, ५६, ६६, ७६ ७७, २००, २०१, २०२, २०३, २०४, २०५, २०६, २०७, २०८, २०६, २१०, २१३, २१६, २२०, २२१, २२३, २२४, २, ४, २३०, २३१, २३६, २३७, ३०२, ३०३, ३०६, ३१८, ३२१, ३२२ ४२४, ४२६, ४२७, ४२८, ४२६, ४३०, ४३१, ४३५, ४३६, ४३७, ४४५, ४४६, ४४७, ४५१, ४५४, ४५५, ४६६, ४७०, ४७६, ४७६, ४८०, ४८३, ४८८, ४६५, ४६७, ४६६; ५००, ५०५, ५०६, ५११, ५१४, ५१६, ५१६, ५२०, ५२१, ५२२, ५२३, ५२४, ५.२५, बंध शतक में क्रमशः नं० १, २, ३, ५, ६, ६, १०, ११, १४, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २१, २२, २३, २४, २५, २६, २७, ३०, ३१, ३२, ३४, ३५, ३८, ३६, ४०, ४१, ४२, ४३, ४४, ४५; ४७, ४६, ५०, ५१, ५५, ५६, ५७, ५८, ६०, ६१, ६२, ६३, ६४, ६५, ६६, ६८, ६६, ७०, ७४, ७५, ७६, ७७, ७८, ७६, ८२, ८७, ८, ६०, ६१; ६५, ६७, ६६, १००, १०१, १०२, १०३, १०४, १०५, १०६, १०७, पर पाई जाती हैं। "इनके अतिरिक्त जिन गाथाओं में कुछ उल्लेखनीय पाठभेद उपलब्ध है उनमेंसे नमूने के तौरपर दो गाथाएं नीचे दी जाती हैं: सम्माट्ठी मिच्छ व परियन्तमाण मज्झिम आवरणदेसवा यंतराय संजल पुरिससत्तरसं । विभावपरिणया तिभावसेसा सयं तु सत्तहियं ॥ - प्रा० पंचसंग्रह ४८६ [ चैत्र, वीर-निर्वाण सं० २४६६ श्रावरणदेसघायंतराय संजलपुरिससत्तरसं । चविभावपरिणया तिविह परिणया भेव सेसा ॥ --बन्धशतक, ८३ तिरि णरमिच्छ्रेयारह सुर मिच्छो तिथिण जयइ पयडीयो | उज्जीवं तमतमगा सुरणेरड्या हवे तिरिण || - प्रा० पंचसंग्रह ४६६ पंचसुर सम्मट्ठी सुरमिच्छतिनि जयह पयडीओो । उज्जोयं तमतमगा सुरणेरड्या भवे तिरहं ॥ — बंधशतक, ७३ इसी प्रकार पंचसंग्रहकी गाथाएँ नं० ४०, ५४, २१८, २२२, २२५, ३०४, ३१३, ४२३, ४६३, ४८६, ४८७, ४६८, ५०२, ५०७, ५१३, भी थोड़ेसे पाठ भेदके साथ बंधशतक में क्रमशः नं० ७, ८, २६, ३३, ३६, ४६, ४८, ५४, ७१, ८०, ८१, ८६, ६३, ६६, ६८, पर उपलब्ध होती हैं। नीचे वह गाथा भी दी जाती है जिसमें मान्यताभेदको लेकर कुछ साधारणसा परिवर्तन किया गया. जान पड़ता है: - थाक्कस्स पदेसं छच्चं मोहस्स णव दु ठाणाणि । सेसाणि तणु कसाश्रो बधइ उक्कस्स जोगेण ॥ - प्रा० पंचसंग्रह, ५०५ घाउक्तस्स पएसस्स पंच मोहस्स सत्त — ठाणाणि । सेसाणि तणुकसाचो बंधइ उक्कोसर जोगे ॥ - वंधशतक, ६४ ft बंध शतककी इस ६४ नं० की गाथाकी टीका हुए आचार्य मलधारी हेमचंद्रने लिखा है- 'अन्ये तु सास्वादन मिश्रावपि संगृह्य " मोहस्स यवदु ठायाणि” करते पठति' । इससे स्पष्ट है कि उक्त संस्कृत टीकाकारके सामने मोहके नवस्थानों का निर्देश करनेवाला प्राकृत पंचसंग्रहका अथवा अन्य कोई दिगम्बरीय पाठ अवश्य रहा है इसी कारण टीकाकारने उक्त सूचना दी है । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ६ ] श्वेताम्बर कर्मसाहित्य और दिगंबर 'पंचसंग्रह' aire र पंचसंग्रह श्वेताम्बरीय सम्प्रदाय में 'कर्मस्तव' नामका एक छोटा सा कर्मविषयक प्रकरण और भी है, जिसके कर्त्ता तथा रचनाकालका कोई पता नहीं और जिसे द्वितीय प्राचीन कर्मग्रन्थ के नामसे कहा जाता है । परन्तु इस प्रकरणका यथार्थ नाम 'बन्धोदय-मत्व युक्त स्तव' जान पड़ता है । जैसा कि उसके 'बन्धुदय संत जुत्तं वोच्छामि निसामेह' पदसे मालूम होता है। इस प्रकरण बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्तारूप प्रकृतियों का सामान्य कथन किया गया है। इसकी कुल गाथासंख्या ५५ है । परन्तु उक्त प्रकरण में बंध और उदयादि के कोई लक्षण या स्वरूप निर्देश नहीं किये गये जिनके निर्देशकी वहाँ पर निहायत ज़रूरत थी । और इस लिये उसमें बंध उदयादिके स्वरूपादिक का न होना बहुत खटकता है | इतना ही नहीं, किन्तु ग्रंथकी अप ता और व्यवस्थाको भी सूचित करता है; क्योंकि उसमें मंगलाचरणके बाद एकदम बिना किसी पूर्व सम्बन्ध के दूसरी गाथा में ही बंधसे व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों की संख्या गुणस्थानक्रमसे बतला दी है । इसके सिवाय, उसकी एक बात और भी खटकती है * प्रज्ञाचत्तु पं० सुखलालजीने भी द्वितीय कर्मग्रन्थकी प्रस्तावनामै 'ग्रन्थ रचनाका आधार' शीर्षकके नीचे 'कर्मस्तव' नामके द्वितीय प्राचीन कर्म ग्रन्थका असली नाम 'बन्धोदय -सत्व-युक्त स्तव' ही लिखा है । देखो, कर्मस्तव नामक द्वितीय ग्रन्थकी प्रस्तावना पृ०४ + इसकी मुद्रित मूल प्रतिमें गुणस्थानोंके नाम वाली दो गाथाओं को शामिल करके गाथा संख्या १७ दी है । परन्तु टीकाकारने उनपर कोई टीका नहीं लिखी, इस कारण उन्हें प्रचिप्त बतलाया जाता है । ३८१ और वह यह किबन्ध- व्युच्छिन्न, उदय- व्युच्छिन्न और उदीरणारूप प्रकृतियोंकी संख्या गिनानेके बाद ६ वीं गाथा में मूल कर्मप्रकृतियोंके आठ नाम दिये हैं और १० वीं गाथामें उत्तर प्रकृतियोंकी संख्या बताई है, जिन सबका वहाँ उस प्रकरण के साथ कोई सम्बन्ध मालूम नहीं होता, ऐसी स्थिति में उक्त प्रकरण किसी दूसरे ही ग्रन्थ परसे संकलित किया गया है और उसका संकलन- कर्ता मोटी मोटी त्रुटियों के कारण कोई विशेष बुद्धिमान मालूम नहीं होता । वह दूसरा ग्रन्थ जहाँ तक मैंने अनुसंधान किया है, दिगम्बर जैन समाजका 'प्राकृत पंचसंग्रह ' जान पड़ता है । उसमें 'बन्धोदयसत्व-युक्त-स्तव' नामका ही एक तृतीय प्रकरण है, जिसकी कुल गाथा संख्या ७८ है । इस प्रकरण में मंगलाचरण के बाद बंध, उदय, उदीरणा और सत्ताका सामान्य स्वरूप दिखाकर तीन चार गाथाश्रों द्वारा उनके विषयका कुछ विशेष स्पष्टीकरण किया है । पश्चात् उसमें यथाक्रम से बन्धादिसे व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों का खुलासा कथन किया है और साथमें अंक संहष्टि भी होने से वह विशेष सुगम तथा उपयोगी हो गया है । और इस तरहसे पंचसंग्रह का वह प्रकरण सुसम्बद्ध और नामकरण के अनुसार अपने विषयका स्पष्ट विवेचक है | जो बातें श्वेताम्बरीय 'कर्मस्तव' को देखनेसे खटकती हैं और असंगत जान पड़ती हैं वे सब यहाँ यथास्थान होनेसे सुसंगत और सुसम्बद्ध जान पड़ती हैं। पंचसंग्रहके इस प्रकरणकी ५३ गाथाएं साधारण से कुछ शब्दपरिवर्तन के साथ प्रायः ज्योंकी त्यों उक्त श्वे० 'कर्मस्तव' में पाई जाती हैं । और पंचसंग्रह 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' नामक अधिकारकी दो गाथाएं नं० २ र ४ हैं, जो मूल प्रकृतियों के नाम तथा उत्तर प्रकृतियोंकी संख्याकी निर्देशक हैं, वे Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ अनेकान्त [ चैत्र, वीर - निर्वाण सं० २४६६ 1 प्रकरण ग्रन्थ हैं । जिसे प्राचीन षष्ठ कर्मग्रन्थ भी कहते हैं। इसकी कुल गाथा संख्या ७५ है । इस प्रक रण के संकलन कर्ता श्राचार्य चन्द्रर्षि माने जाते कहा जाता है कि आपने स्वयं इस पर २३०० श्लोक प्रमाण एक टीका भी लिखी है । परन्तु वह अभी तक मेरे देखने में नहीं आई । श्राचार्य चन्द्रर्षि कर्मसाहित्यके अच्छे विद्वान थे । 'पंचसंग्रह ' नामकी आपकी कृतिका श्वेताम्बर सम्प्रदाय में विशेष आदर है । यह पचसंग्रह उक्त दिगम्बर पंचसंग्रह से भिन्न है । इस पंचसंग्रहमें शतक, सप्ततिका, कत्रायप्राभृत, सत्कर्म, और कर्मप्रकृतिलक्षण नामक ग्रंथोंका; अथवा योग, उपयोगमार्गणा, बन्धक, बंधव्य, बन्धहेतु और बन्धविधिरूप प्रकरणों का संग्रह कियागया है । जिससे इसका पंचसंग्रह नाम अधिक सार्थक जान पड़ता है। इस ग्रन्थकी कुल गाथा संख्या ६६१ है । इसपर ग्रंथकर्ताने खुद ६००० श्लोक प्रमाण एक टीका लिखी है जो मूलग्रंथके साथ मुद्रित हो चुकी है । यद्यपि इस ग्रंथ में शिवशर्म की प्रकृतिका विशेष अनुकरण है परन्तु वह सब अपने ही शब्दों में लिखा गया है। कहीं कहीं पर कुछ कथनं दिगम्बर ग्रंथोंसे भी लिया गया मालूम होता है, परन्तु वह बहुत ही अल्पे जान पड़ता है। आचार्य चन्द्रर्षिने पंचसंग्रह में यदि मंगल करके ग्रंथके, कथन करने की प्रतिज्ञाकी है और अन्त की निम्न गाथा में - कर्मस्तव में ६, १० नं० पर पाई जाती हैं। इस तरह से उक्त कर्मस्तव ग्रन्थ में ५५ गाथात्रोंका जो संकलन हुश्रा है वह सब इसी पचसंग्रह परसे हुआ जान पड़ता है । पाठकों की जानकारीके लिये तुलनाके तौर पर यहां दो गाथाएं दी जाती हैं:मिच्छ्णउंसयवेयं णिरयाऊ तहय चेव गिरयदुनं । इग वियलिंदियजाई हुँडमसंपन मायावं ॥ थावर सुहुमंच तहा साहारणयं तदेव श्रपज्जत्तं । ए ए सोलह पयडी मिच्छम्मि अ बंध- बुच्छेभो ॥ - प्रा० पंचसं० ३, १५, १६ मिच्छनपुंगवेयं नरयाउं तहयचेव नरयदुगं । वियलिंदिय जाई हुँडमसंपत्तमायावं ॥ थावरसुहुमं च तहा साहारणयं तदेव अपज्जतं । या सोलह पयडी मिच्छमि य बंधबोच्छेो ॥ — कर्मस्तव, ११, १२ इसी तरहसे प्राकृत पंचसंग्रहकी गाथाएं नं० १, ११, १२, २६, ५०, ५१, ५२, ५३, २, ४, १७, १८, ·. १६, २०, २१, २२, २३, २४, २५, २६, २७, २८, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३६, ४०, ४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८, ४६, ५५, ५६, ५७, ५८, ५६, ६०, ६१, ६२, ६३, ६४, ६५, ६६, कर्मस्तव में क्रमशः नं० १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ६, १०, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १६, २०, २१, २२, २३, २४, २५, २६, २७, २८, २६, ३०, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३६, ४०, ४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८, ४६, ५०, ५१, ५२, ५३, ५४, ५५, पर ज्योंकी त्यों रूपसे उपलब्ध होती हैं । सप्ततिका और पंचसंग्रह श्वेताम्बरीय कर्म ग्रंथोंमें 'सुप्ततिका' नामका भी एक * पंचानां शक्षक सप्ततिका - कषायप्राभृतपंचाना सत्कर्म-कर्म प्रकृतिलक्षणांनां ग्रन्थानां, अथवा मर्थानामर्थाधिकाराणां योगोपविषय मागंणा-बंधक : बंधव्य-बन्धहेतु-बन्धविधिलक्षणानां संग्रहः पंचसंग्रहः । -पंच व मलयगिरी गा० १ + नमिऊण जिणं वीरं सम्मं दुट्टटुकम्म निव बोच्छामि पंचसंगहमेय महत्वं जहत्थंच ॥ १ ॥ —पंचसंग्रहे, चन्द्रर्षिः 1 bi Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ६] श्वेताम्बर कर्म साहित्य और दिगम्बर 'पंचसंग्रह' ३८३ अपने उक्त प्रकरणकी समाप्ति के साथ अपना नाम भी लन किया हुअा मालूम नहीं होता, किन्तु किसी दूसरे व्यक्त किया है। ही के द्वारा इधर उधरसे संग्रह किया हुआ जान सुयदेविपसायाश्रो पगरणमेयं समासो भणियं। पड़ता है । समयानो चंदरिसिणा समईविभवानुसारेण ॥ दिगम्बरीय प्राकृत पंचसंग्रहके सत्तर भंगवाले इस गाथामें बताया है कि आगम और श्रुतदेवीकी अंतिम अधिकारकी ५१ गाथाएं उक्त प्रकरणमें प्रायः प्रसन्नतासे यह प्रकरण मुझ चंद्रर्षिने अपनी बुद्धिविभव ज्योंकी त्यों अथवा कुछ थोड़ेसे पाठ-भेदके साथ उपके अनुसार संक्षेपसे कहा है। लब्ध होती हैं । उसमें से दो गाथाएं यहां नमूनेके तौर इसके भिवाय, पंचसंग्रह की अपनी स्वोपज्ञवृत्तिमें पर दी जाती हैं:-- भी चंद्रर्षिने मंगलाचरण किया है और टीका के अंतमें कदिबंधतो वेददि कइया कदि पयडिठाण कम्मंसा If प्रशस्ति भी दी है जिसमें अपने को पार्श्वऋषिका मूलुत्तरपयडीसु य भंगवियप्पा दु बोहव्वा ॥ • शिष्य बतलाया है। परंतु 'सप्तितिका' नामके इस -प्रा० पंचसं०,५२८ प्रकरण में कोई मंगलाचरण नहीं किया है और न ग्रंथ- कइ बंधतो बेयइ कइ कइ वा पयडिसंतठाणाणि । के अन्त में संकलन कर्ताने अपना नाम ही व्यक्त किया मूलुत्तरपगईणं भंगवियप्पा उ बोहवा ॥ है । अतः चन्द्रर्षिही इस प्रकरण के संकलनकर्ता हैं या -सप्ततिका ७२ . कोई अन्य, यह बात जरूर विचारणीय है । ऐसा नहीं अट्ठविहसत्त छब्बंधगेसुअटेव उदयकम्मंसा । हो सकता कि एक ही ग्रंथकार अपने एक ग्रंथमें और एयविहे तिवियप्पो एयवियप्पो अबंधम्मि ॥ उसकी टीका तकमें तो मंगलाचरण दें और ग्रंथके प्रा० पंचसंग्रह, ५२६ अन्तमें अपना नाम भी प्रकट करें, परंतु दूसरे ग्रंथमें अट्टविहसत्तछब्बंधगेसु अटेव उदयसंताई । आदि अंतकी उक्त दोनों बातोंमें से एक भी न करें। एगविहे तिविगप्पो एगविगप्पो अबंधम्मि ॥ इसके अतिरिक्त चंद्रर्षिने अपने पंचसंग्रहमें समातिका' -सप्ततिका ३ नामका एक प्रकरण भी लिखा है, जिसमें विस्तारसे इनके अतिरिक्त पंचसंग्रहकी गाथाएं नं० ५२७, इन्हीं सब बातोंका कथन किया गया है, जो इम ५३०, ५३१, ५३३, ५४७, ५५५, ५५६, सप्ततिका प्रकरण में तथा दिगम्बरीय कर्मग्रंथों में पाई ५५१, ५६२, ५७३, ५७ ४, ७४२, ७७४, ७७५, ७७६, जाती हैं । परंतु वह सब कथन अपने अनुभवादिके ७८५, ७८८, ८२६, ८३०, ६११, ६४६, ६८२,६८३, साथ अपने शब्दोंमें निरूपित है, जिससे उक्त प्रकरण ९८४, ६८६, ६८७, ६६०, ६६१, ६६५, १००३, बहुत अच्छा है। उस प्रकरणसे इस प्रकरणमें कोई १०१४, १०१५, १०१६, १०१७, थोड़ेसे साधारण विशेषता मालम नहीं होती, जिससे उनके द्वारा उसीके शब्द परिवर्तनके साथ सप्ततिका(षष्ठकर्मग्रंथ) में क्रमशः फिरसे रचे जानेकी कल्पना की जा सके । इस प्रकरणमें नं० १, ४, ५, ७, ११, १३, १४, १५, १६, २४, पंचसंग्रह जैसा स्पष्ट तथा उससे अपूर्व कुछ भी कथन २५, ३२, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३६, ४६, ४७, नहीं है । इसीसे यह प्रकरण श्राचार्य चंद्रषिका संक- अत्र अंश इतिशद्वेन सत्ता गृह्यते । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ अनेकान्त [चैत्र, वीर निर्वाण सं०२४६६ - ५०, ५४, ५५, ५६, ५७, ५६, ६०, ६१, ६२, ६७, है। और उपयोगिता की दृष्टिसे यह ग्रंथ कितने अधिक ७३, ७४ ७५ पर पाई जाती हैं। महत्वका है । उक्त प्रकरणके संकलित करने में ____ इनके सिवाय, जिन गाथाओंमें थोड़ा या बहुत पंचसंग्रहकी जिन गाथाओंका उपयोग हुअा है उनमेंसे पाठ-भेद अथवा मान्यताभेद पाया जाता है उनमेंसे अधिकाँश गाथाअोंका उपयोग प्राचीन दिगम्बर कर्म उदाहरण के तौरपर यहाँ तीन गाथाएँ दी जाती हैं। साहित्यमें बराबर होता रहा है और प्राचार्य वीरसेनकी एकं च दोव चत्तारि दो एयाधिया दसुक्कस्सं। धवला टोकामें भी हुआ है । इससे उन गाथाओंका श्रोघेण मोहणिज्जे उदयट्ठाणाणि णव होंति ॥ अधिकतर दिगम्बर साहित्यसे ही सम्बंध रहा जान -प्रा. पंचसं०.५५२ पड़ता है श्वेताम्बरीय कर्म प्रकृति ग्रंथमें इस तरह की एक्कं च दोव चउरो एत्तो एक्काहिया दसुकोसा। प्रायः दो-तीन गाथाएँ ही उपलब्ध होती हैं है। और मोहेण मोहणिजे उदयट्ठाणा नव हबंति ॥ चंदर्षि के पंचसंग्रहमें ऐसी गाथाएं ८-१०के करीब ही -सप्तति. १२ पाई जाती है। मालम होता है कि चन्द्रर्षि के सामने मणुयगई पंचिदिय तस बायरणामसुहयमादिजं। दिगम्बरीय प्रा० पंचसंग्रह अथवा और इसी तरहका पजतं जसकित्ती तित्थयां णाम गाव होंति॥ अन्य दि० साहित्य अवश्य रहा है। -प्रा० पंचसं०,६८५ वीर सेवामंदिर. सरसावा ता० १५.४ १६४० मणुयगइ जाइतस बायरं च पजत्त सुभगमाइज । उदाहरणके लिये उसकी एकगाथा नीचे दी जाती जसकित्ती तित्थयरं नामस्स हवंति एया (उच्च)॥ है --सप्ततिका, ५८ घाईणं छउमत्था उदीरगा रागिणो य मोहस्स । बारस पणवाइं उद्य वियप्पेहि मोहिया जीवा। तइयाऊण पमत्ता जोगता उत्ति दोण्हं च ॥ चुलसीदि सत्तत्तरि पयबंधसदेहि विगणेया ॥ -कर्म प्र०, ४,४ -प्रा. पंचसं०, ८३१ यह गाथा दिगम्बरीय पंचसंग्रहके चौथे प्रकरणमें बारसपणसट्टसया उदयविगप्पेहि मोहिया जीवा। २१४ नं० पर और गोम्मट्टसार-कर्मकाण्डमें ४५५ नं. चलसीई सत्तुत्तरि पयविंद सएहि विन्नेया ॥ पर पाई जाती है। -सप्ततिका ४८ * उदाहरण केलिए दो गाथाएं नीचे दीजाती हैंइसी तरह की प्राकृत पंचसंग्रह की गाथाएं नं० अट्ठग सत्तग छक्का चउ तिग दुग एगाहिया वीसा। ५६८, ७७०, ७७१, ८२८, ६१७,६१८, ६३७, ६६२, तेरस बारेकारस संते पंचाह जा एकं ॥ ६६३, ६६६, १०११, १०१४ हैं,जो सप्ततिकामें क्रमशः -पंचसं० ३५, ५० २४४ नं० २०, ३३, ४३, ४५, ५१, ५२, ५३, ६३, ६६, यह गाथा दि० पंचसंग्रहमें ५५५ नं० पर और गो. ७२, पर उक्त प्रकारके पाठ भेदादिके साथ उपलब्ध कर्मकाण्डमें १०८ नं. पर उपलब्ध होती हैं। होती हैं। तेवीसा पणुसा छब्बीसा अट्ठावीस दुगुणतीसा । उपसंहार तीसेग तीस एगो बंधट्ठाणाइ नामेट ॥ इस सब तुलना परसे पाठक सहजमें ही जान -पंचसं०, ५५, पृ० २५७ सकेंगे कि प्राकृत पंचसंग्रह की गाथाओं का उक्त तीनों यह गाथा दि. पंचसंग्रहमें १७४ नं. पर पाई श्वेताम्बरीय कर्म ग्रन्थोंमें कितना अधिक उपयोग हा जाती है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माचरणमें सुधार ० - बा० सूरजभानुजी वकील ] [ ले० वा, गर्द गुबार श्रादिके कारण हर वक्त ही मकानों ह में कूड़ा कचरा इकट्ठा होता रहता है, जिससे दिनमें दो बार नहीं तो एक बार तो ज़रूर ही मकानोंको साफ़ करना पड़ता है। मकान में रक्खे हुए सामान पर भी गर्दा जम जाता है, इस कारण उनको भी झाड़ना पोंछना पड़ता है । हम जो शुद्ध वायु सांसके द्वारा ग्रहण करते हैं वह भी अन्दर जाकर दूषित हो जाती है, इस ही कारण वह गंदी वायु सांसके ही द्वारा सदा बाहर निकालनी पड़ती है, पसीना भी हमारे शरीर की शुद्धि करता रहता है । मल मूत्र त्याग करनेके द्वारा तो रोज़ ही हमको अपने शरीरकी शुद्धि करनी होती है। किसी कारण से यदि किसी दिन मल मूत्रका त्याग न हो तो चिंता हो जाती है और श्रौषधि लेनी पड़ती है । अनेक निमित्त कारणोंसे अन्य भी अनेक प्रकारके विकार शरीर में हो जाते हैं, जिनके सुधारके वास्ते वैद्य हकीम से सलाह लेनी पड़ती है, गेहूँ चावल आदि अनाज में जीव पड़ जाते हैं, इस कारण नित्य उनको भी काम में लाने से पहले बीनना पड़ता है । पानीको भी कुछ समयके बाद फिर छाननेकी ज़रूरत पड़ती है। ग़रज़ वा निमित्त कारणों से सब ही वस्तुओं में विकार प्राता रहता है, इस ही कारण सब ही का सुधार भी नित्य ही करना पड़ता है । सुधार किये बिना किसी तरह भी गुज़ारा नहीं चल सकता है । हमारी धार्मिक मान्यताओं क्रियाओं और साधनों में भी वा निमित्त कारणों से अन्य मतियों की संगति उनके सिद्धान्तोंके पढ़ने सुनने और उनकी धर्म क्रिया तथा साधनों के देखने सुननेसे और हमारी भी अनेक प्रकारकी कषायों तथा ज्ञानकी मंदता से अनेक प्रकारके विकार पैदा होते रहना स्वाभाविक ही है । इस कारण धार्मिक मान्यताओं और क्रियाओंकी शुद्धि होती रहना भी इतना ही जरूरी है जितना कि झाड़ पोंछकर नित्य मकानकी शुद्धि करते रहना, स्नान करने के द्वारा शरीर की शुद्धि करते रहना और धोने मांजनेके द्वारा कपड़ों बर्तनों की शुद्धि करते रहना जरूरी है। इस शुद्धिका मार्ग हमको धर्म शास्त्रोंके वचनोंसे बहुत ही आसानी से मिल सकता है। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी मान्यताओं, धर्म- क्रियाओं और साधनों को शास्त्रोंके वचनों से मिलाते रहें और जहां भी ज़रा विकार देखें, तुरन्त उसका सुधार करते रहें । नित्य शास्त्र स्वाध्याय करना तो इसी वास्ते प्रत्येक श्रावकके लिये ज़रूरी ठहराया गया है कि वह नित्य ही धर्मके सच्चे स्वरूप को याद कर करके अपने धर्म साधन में किसी भी प्रकारका कोई विकार न धाने दे और यदि कोई विकार श्रजाय तो उसका सुधार करता रहे। विकारोंका होना और उनका सुधार करते रहना जैनधर्म में इतना जरूरी ठहराया है कि मुनि महाराजोंके लिये भी नित्य शास्त्र स्वाध्याय करते रहना ज़रूरी बताया है, जिससे धर्मका सत्य स्वरूप नित्य ही उनके सामने आता रहे और वे विचलित न होने पावें । फिर उनको नित्य ही अपने भावों- परिणामों और कृत्योंकी Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६६ % 34 आलोचना प्रतिक्रमणादि करते रहना भी ज़रूरी ठहराया हो जाते हैं और सब संकट दूर कर इच्छित मनोकामना है जिससे हर रोज़की अपनी ग़लती उनको मालूम होती पूरी करनेको तय्यार हो जाते हैं, ऐसी अन्य मत वालों रहे और उसका सुधार भी प्रतिदिन होता रहे । अगर को मान्यता है। इस कारण उनकी सब धर्म क्रियायें कोई दोष विशेष प्रकारका होगया है तो उस दोषको प्रायः वाह्य साधन रूप ही होती हैं। प्राचार्य महाराजके सामने साफ़ २ प्रकट कर दिया परन्तु जैनधर्मका सिद्धान्त इससे बिल्कुल ही विलजाय और जो कुछ वे दंड दें उसको अपने सुधारके क्षण है। जैनधर्ममें तो किसी भी ईश्वर परमात्मा वा अर्थ निस्संकोच भावसे स्वीकार किया जाय । यदि मुनि देवी देवताको प्रसन्न करना नहीं है, किन्तु अपनी ही के अन्दर कोई बहुत ही ज़्यादा विकार श्रागया तो आत्माको विषय कषायों और राग द्वेषके मैल से शुद्ध प्राचार्य महाराजको उचित है कि उसके सुधारके वारते करना है । जिस प्रकार बीमारको स्वास्थ्य प्राप्त करने के उसको मुनि पदसे ही अलग कर देवें और फिर अाहि- वास्ते औषध आदिके द्वारा अपने शरीरमें से दोषोंका स्ता २ उसका सुधार कर दोबारा मुनि दीक्षा देखें। निकाल देना ज़रूरी है, शरीरके जितने जितने दोष इस प्रकार जब मुनियों तकमें विकार आजानेकी सम्भा- शांत होते रहते हैं उतना ही उतना उसको स्वास्थ्य वना और उनका सुधार होना ज़रूरी है तब श्रावकोंमें लाभ और सुख शांतिकी प्राप्ति होती रहती है। तो विकार उत्पन्न होते रहनेकी बहुत ही ज़्यादाःसम्भा- उसी प्रकार धर्म-सेवनके द्वारा राग द्वेष और विषयवना है, उनमें भी पहली प्रतिमा धारी अव्रती श्रावकों कषायोंमें जितनी कमी होती है उतनी ही उतनी में तो विषय कषायोंकी अधिकताके कारण विकारोंके उसकी आत्माकी शुद्धि होती जाती है और सुख पैदा होते रहनेकी और भी ज्यादा सम्भावना और उन शांति मिलती जाती है ।अतः जैनधर्ममें वे ही साधन का सुधार होते रहनेकी और भी ज्यादा ज़रूरत है। धर्म साधन माने जाते हैं और वही क्रियायें धर्म क्रियायें जैनधर्मके सिवाय अन्य मतोंमें तो जिनमें एक समझी जाती हैं, जिनसे राग द्वेष और विषय कषायों ईश्वर वा अनेक देवी देवताओं के द्वारा ही जीवोंको में मंदता पाती हो और होते होते उनका सर्वथा ही सुख-दुख मिलना माना जाता है, उस एक ईश्वर वा नाश हो जाता हो । दूसरे शब्दोंमें यूं कहिये कि जैनदेवी देवताओंको प्रसन्न करते रहना ही एक मात्र धर्म धर्ममें अन्य मतोंकी तरह बाह्य क्रियायें करना ही धर्म साधन ठहराया गया है-उन्हींके प्रसन्न होनेसे पूर्वकृत नहीं है किन्तु इसके विपरीत जैनधर्मका असली धर्म पाप क्षमा हो जाते हैं और बिना पुण्य कर्म किये ही साधन एकमात्र राग द्वेष और विषय कषायोंसे अपनी सब सुख मिल जाते हैं। उनको प्रसन्न करनेके वास्ते प्रात्माको शुद्ध करना ही है। बाह्य क्रियायें तो इस भी उन मतोंमें भेंट चढ़ाने, स्तुति गाने, मुखसे नाम असली धर्म-साधनकी सहायक ही हो सकती हैं । रागजपते रहने या दूसरोंसे जाप करा देने,गंगा आदि नदियों द्वेष और विषय कषायोंकी मंदताके बिना कोई भी में नहाने आदिकी ऐसी बाह्य क्रियायें निश्चित् हैं, क्रिया धर्म क्रिया नहीं मानी जाती है । परन्तु मनुष्य जिनमें अन्तरंगकी शुद्धिकी प्रायः कुछ भी ज़रूरत नहीं के लिये बाह्य क्रियोंका करना आसान होता है और पड़ती है, बाह्य विधियों के पूरा होनेसे ही देवता प्रसन्न अंतरंगको शुद्ध करना बहुत ही कठिन । मनुःप धर्मके Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ६] धर्माचरणमें सुधार ३८७ नामसे सर्व प्रकारके शारीरिक कष्ट उठा सकता है और बतलाते हुए जैनधर्मको भी बदनाम करते हैं और बड़ी धन भी खर्च कर सकता है, क्योंकि ऐसा उसको अपने भारी क्षति पहुँचाते हैं। सांसारिक कार्योंकी सिद्धिके वास्ते सदा ही करना पड़ता वाह्य क्रियायें जब उस उद्देश्यकी सिद्धिके वास्तेकी है। सांसारिक मनुष्य कष्ट उठाने और धन खर्च करने जाती हैं जिनकी वे साधन हैं। तब तो वे क्रियायें का तो पूर्ण रूपसे अभ्यासी ही होता है। संसारी बहुत ही कार्यकारी और जरूरी होती हैं ! लेकिन अगर मनुष्य तो अपनी आजीविका आदिके वास्ते भी फौजमें असली ग़रजको छोड़कर सिर्फ वाह्यक्रियायें ही की जावें भरती हो कर और युद्ध में जाकर अपनी जान तककी तो वे एक प्रकारकी मूर्खता और नादानी ही होती भी परवाह नहीं करता है। माता अपने बच्चे की है। जैसा कि पागके बिना भोजन नहीं पक सकता पालनाके वास्ते सब कुछ तपस्या करनेको तय्यार होती है। भोजन पकानेके वास्ते पागकी सहायताकी प्रत्य है । व्याह शादी आदि अनेक गृहस्थ कार्यों में संसारी न्त जरूरत है। परन्तु यदि कोई पाटा दाल आदि मनुष्य करज़ लेकर भी इतना खर्च कर देते हैं कि उमर भोजनकी सामग्रीके बिना ही नित्य चूल्हेमें भाग भर भी उसे नहीं चुका सकते हैं। ग़रज़ कष्ट उठाना और जलाया करै और तवा गर्म किया करै तो क्या वह पैसा खर्च करना तो मनुष्यके लिये आसान है परन्तु मुर्ख नहीं समझा जायगा ? इसी प्रकार यदि कोई अन्तरंगसे राग द्वेषको घटाना और विषय कषायोंको पढ़ना तो न चाहे एक अक्षर भी, किन्तु पुस्तकें लेकर कम करना बहुत ही मुश्किल है । इस कारण जैनियोंके अध्यापकके पास अवश्य जाया करे और उसकी सेवा लिये असली धर्म-साधनसे फिसलना-अन्तरंग भी सब तरहसे किया फिर तो क्या उसकी यह सब शुद्धिको छोड़कर वाह्य क्रियाओंको ही सब कुछ समझ- कोशिश व्यर्थ नहीं है ? इस ही प्रकार यदि कोई लेना-बहुत ज्यादा सम्भव है। विशेषकर जब वे बीमार वैद्य हकीम तो बढ़िया २ बुलाया करे और अपने पड़ौसी अन्यमतियोंको सिर्फ़ वाह्य क्रियाओं उनकी बताई औषधि भी तय्यार कराया करे, परन्तु द्वारा ही धर्म साधन करता देखते हैं-यहां तक कि दवाका खाना तो दूर रहा, उसको चाखकर देखनेका दूसरे २ पुरुषों के द्वारा पूजन और जाप श्रादि करानेसे भी साहस न किया करे, उल्टा कुपथ्य सेवन ही करता भी उनका धर्म साधन हो जाता है, तो इस सहज रहा करे तो क्या उसको कुछ स्वास्थ्य लाभ हो रीतिका असर जैनियों पर भी पड़ता है और वे भी सकेगा ? इसी ही प्रकार यदि कोई खेतमें बीज तो अपनी अन्तरंग शुद्धिको छोड़कर केवल वाह्य क्रियायें डालना न चाहे किन्तु बाहना, जोतना क्यारियां ही करने लगजाते हैं । इस प्रकारसे अनेक भारी विकार बनाना, पानी सींचना और पहरा देना आदि सब जैनियोंमें आते रहते हैं जिनका सुधार होते रहना आवश्यक क्रियायें बड़ी सावधानीके साथ करता रहा अत्यन्त श्रावश्क है। नहीं तो ऐसे विकारोंके द्वारा करै, तो क्या उसके खेतमें कुछ पैदा होगा या उसकी जैनी अन्यमतके सिद्धान्तोंको मानते हुए भी और सब मेहनत निष्फल ही जायगी ? ऐसा ही धर्म साधन अन्यमतके अनुसार ही धर्म साधन करते हुए भी इन की सहायक सब ही वाह्य क्रियाओंकी बाबत समझ अपनी सब मान्यताओं और साधनोंको ही जैनधर्म लेना चाहिए । यदि वे क्रियायें इस विधिसे की जाती Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ अनेकान्त [चैत्र, वीर निर्वाण सं०२४६६ हैं जिससे राग द्वेष और विषय कषायकी मंदता होती के द्वारा भी अपने भावोंकी शुद्धि नहीं की जाती है हो और अपनी आत्मा शुद्ध होती हो, तब तो वे किन्तु भाव हमारे चाहे कुछ ही हों, तीर्थ पर जाने से क्रियायें लाभदायक और जरूरी हैं और यदि इस ही महापुण्यकी प्राप्ति होती है, इस ही श्रद्धासे जाते विधिसे की जाती हों जिससे रागद्वेष और विषय हैं। दान देनेके लिए भी करुणा आदिकी जरूरत नहीं, कषायोंकी कुछ भी मंदता न होती हो, तो वे सब किंतु देना ही दान है । देनेसे पुण्यकी प्राप्ति होती है, धर्म क्रियायें भी एक मात्र ढौंग और संसारमें ही इस ही वास्ते दिया जाता है यहां तक कि कोई २ भ्रमानेवाली हैं-संसारसे तिराने वाली नहीं हो तो अपने किसी कष्टके निवारणार्थ ही दान देने सकती हैं। . लगते हैं । इसी तरह दूसरेके द्वारा पूजन कराना, यहां आजकल बहुधा हमारी दशा ऐसी ही हो रही तक कि नित्य पूजन करते रहने के वास्ते कोई नौकर है, जिससे धर्म-क्रियाओं द्वारा हमने अात्म-शुद्धि रख देना भी धर्म साधन समझते हैं । गरज़ कहाँ तक करना, रागद्वेष और विषय कषायों को मंद करना तो गिनाया जाय. हमारी तो सब ही क्रियायें थोथी रह विल्कुल भुला दिया है, किन्तु बिना आटे दालके एक गई हैं। मानो जैनधर्म ही पृथ्विी परसे लोप हो मात्र भाग जलाया करनेके समान, मात्र वाह्य क्रिया- गया है। ओंका करना ही धर्म समझ लिया है और यह ही हम यह नहीं कहते कि यह सब क्रियायें धर्मकरना शुरू कर दिया है। यदि हम पंचपरमेष्ठीका क्रियाये नहीं हैं, जरूर हैं और अवश्य हैं । इन वाह्य जाप करते हैं तो उनके वीतराग रूप गुणों को जाननेकी क्रियाओं के बिना तो धर्म-साधन हो ही नहीं सकता जरूरत नहीं समझते, जिनका हम जाप करते हैं है। परन्तु आटा दालके बिना अग्नि जलानेके समान, . कोई २ तो पंचनमस्कारका जाप करते हुए उसके अर्थके यदि असली ग़रजको छोड़कर केवल ये वाह्य क्रियायें जाननेकी भी जरूरत नहीं समझते, किन्तु मन्त्रके ही की जावें तो यह धर्म क्रियायें नहीं हैं । केवल शब्दों वा मंत्रोंका मुंहसे निकलते रहना ही काफ्नो इन वाह्य क्रियाओं को ही धर्म मानना कोरा मिथ्याव समझते हैं । और कोई कोई तो उलटा अपने राग- है और इनको फिर जैनधर्मकी क्रियायें बताना तो द्वेष और विषय कषायकी सिद्धिके वास्ते ही इन मन्त्रों जैनधर्मको लजाना है। परन्तु अफ़सोस है कि जब भी को जपते हैं । अनेक भाई बिना अर्थ समझे भक्तामर इनमें सुधार करनेकी आवाज़ उठाई जाती है, तब ही स्तोत्रके संस्कृत काव्योंको पढ़ कर ही अपने सांसारिक हमारे भोले भाई ही नहीं किन्तु अनेक विद्वान पंडित कार्यों की सिद्धि हो जानेकी आशा किया करते हैं। भी चिल्ला उठते हैं कि यह तो साक्षात् धर्मपर ही उपवासके दिन निराहार रहना ही काफ़ी समझते हैं। कुठाराघात है, जो हो रहा है वह ही होने दो, असली उस दिन सर्वथा प्रारम्भ त्याग कर धर्म सेवनमें ही दिन या नक़ली जो भी क्रिया हो रही है उस ही से जैनधर्म व्यतीत करना ज़रूरी नहीं समझते। इस ही कारण का नाम कायम है, नहीं तो यह भी नहीं रहेगा। संसारके सब कार्य करते हुए भी एक मात्र निराहार परन्तु हम इसके विरुद्ध यह देखते हैं कि आजकल रहनेसे ही उपवासका होना समझ लेते हैं । तीर्थयात्रा- अन्धश्रद्धा वाले लोग कम होते जाते हैं और परीक्षा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३. किरण ६] धर्माचरणमें सुधार ३८६ कर असलियत को ढूंढने वाले बढ़ते जाते हैं । जब वे होना चाहिए किन्तु धर्मके जाननेके वास्ते धर्मशास्त्रोंको देखते हैं कि विद्वान लोग भी निर्जीव थोथी क्रियाओंको ही आधार मानना चाहिये । ही धर्म बताते हैं और सुधारकोंको अधर्मी ठहराते हैं। जो विद्वान भाई जैनधर्मके असली स्वरूपको तब जैनधर्म वास्तवमें यह थोथा ही धर्म होगा, जिस- समझ कर वैसा ही सर्व साधारणमें प्रगट करनेका का समर्थन विद्वानों द्वारा हो रहा है। ऐसा देखकर साहस रखते हैं, उनसे हमारा नम्र निवेदन है कि उनकी श्रद्धा जैनकी तरफसे शिथिल होनी जाती है। वे साहस कर सुधारके लिये कमर बांधे । दुनियांके अतः हमको लाचार होकर अब यह कहने की जरूरत लोग तो आजकल दुनियांकी बातों में सुधार होनेके पड़ती है कि हमारे परीक्षा प्रधानी भाई स्वयं जैन वास्ते भी अपना तन, मन, धन अर्पण करनेको शास्त्रोंकी स्वाध्याय कर जैनधर्मके स्वरूपको पहचानें। तैयार हैं, तो क्या जैनधर्म में ऐसे सच्चे श्रद्धानी नहीं जैनधर्म में तो इस ही कारण सबसे पहले तत्वोंके मिलेंगे जो धर्ममें सुधार करनेके लिये उसके मानने स्वरूपको भलीभांति समझकर उन पर श्रद्धान लाना वालोंकी मान्यताओं में जो विकार आरहा है उसको ज़रूरी बताया है। चारित्र तो उसके पीछे ही बताया जैनशास्त्रोंके आधारसे दूर कर शास्त्रानुकूल सत्यधर्मका है। और वह ही चारित्र सच्चा चारित्र ठहराया है जो प्रचार करने के लिये खड़े हो जावें और अपने भाइयों के सम्यक श्रद्धान और सम्यक् ज्ञान के अनुकूल हो, विरोधका कुछ भी बुरा न मान उसको हंसते २ सहन जिससे प्रात्माकी शुद्धि होकर उसका विभाव भाव दूर कर जावें । ऐसे सच्चे धर्मात्मा अवश्य हैं, उन ही से होता हो और असली स्वभाव प्रगट होता हो। इस हमारी यह अपील है। कारण किसीके भी बहकायेमें श्राकर विचलित नहीं महावीर-गीत (ले०–शान्तिस्वरूप जैन कुसुम'] तुम थे जगके मीत, स्वामी ! तुम थे जगके मीत । जीवन नौका लिये गुणागर ! विषय-तप्त इस दीन जगत् पर, आये जब तरने भव सागर, • बर्षाया वचनामृत झर-झर, मुदित हुए सब जीव जगत्के, विपद हुई भय भीत। कण-कराने पाया नवजीवन, उलट गयी सब रीत । तुम थे जगके मीत, स्वामी ! तुम थे जगके मीत ॥ तुम थे जगके मीत, स्वामी ! तुम थे जगके मीत ॥ कितनी नावें ऊब चुकी थीं, जगसे जड़ता दूर भगाकर, कितनी इनमें डब चुकी थीं, सत्य अमर संगीत सुनाकर, कितनी झंझाके झोकोंसे, बहती थीं विपरीत। उसी रागसे जाग उठी फिर सोई जगकी प्रीत । तुम थे जगके मीत, स्वामी ! तुम थे जगके मीत ॥ तुम थे जगके मीत, स्वामी ! तुम थे जगके मीत ॥ पर तुम थे उन सबसे न्यारे, आज मनाते जन्म तुम्हारा, बाधक, साधक हुए तुम्हारे, __ गद्गद् होता हृदय हमारा, पहुँच गये मंजिल पर अपनी, लेकर लक्ष्य पुनीत । गाता है, गायेगा प्रभुवर ! जगत तुम्हारे गीत ! तुम थे जगके मीत, स्वामी ! तुम थे जगके मीत ॥ तुम थे जगके मीत, स्वामी ! तुम थे जगत के मीत । . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा [ ले० ते० - श्री बसन्तकुमार, एम.एस.सी. ] जीवन वनका ध्येय निरन्तर विकसित होना है । विकाकी पूर्णावस्था जीवनकी वह स्थिति है जहाँ पहुँचकर विश्व के जीवनके साथ उसका कोई विरोध न रह सके । विकासकी यह अन्तिम अवस्था है और जीवन का आदर्श है । ज्यों ज्यों इस आदर्श की ओर हम बढ़ते हैं त्यों त्यों हम सत्यके निकट पहुँचते हैं । इस प्रकार विकासकी ओर बढ़नेका मार्ग सत्यकी शोध और विश्व कल्याणका मार्ग है । tant सारी प्रेरणायें और प्रक्रियायें सुखी बनने के लिये होती हैं, और ज्यों ज्यों उसकी प्रसुप्त शक्तियाँ विकसित होती जाती हैं वह सुखकी ओर बढ़ता जाता है । विकास और सुख एक ही वस्तुके दो भिन्न भिन्न पहलू हैं, अथवा यों कहिये सिक्के की दो तरफैं (Sides) हैं । एकके बिना दूसरेका अस्तित्व नहीं । जितना हमारा जीवन विरोधी और विकसित होगा उतनी ही मात्रा में हम अधिक सुखी होंगे । जीवन सम्बन्धी सारी समस्याओं पर इसी स्वयंसिद्धिको लेकर विवेचन किया जा सकता है । संसारके प्राणियों के जीवनकी प्रवृत्तियाँ अधिकांश में स्व-केन्द्रित (Self centred) होती हैं । श्रर्द्धविकसित और विकसित प्राणियों में यह बात और भी अधिक मात्रा में पाई जाती है । उनका प्रत्येक कार्य अपने स्तित्वको कायम रखने के लिये होता है । जीवनकी इस होड़ में एक प्राणी दूसरे प्राणीका आहार बना हुआ है । इसीलिये जीवन के इस स्तर में आपको बीभत्सता, नारकीयता और अशान्ति के दर्शन होते हैं । जीव की प्रवृत्तियों में ज्यों ज्यों इस स्वकेन्द्रीकरणकी मात्रा कम होती जाती है त्यों त्यों वह अधिक विकसित होता चला जाता है । संसारकी अशान्ति और अराजकताका मूल कारण प्रवृत्तियों का स्व- केन्द्रीकरण है । एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की सम्पदाको हड़प कर सुखी बनना चाहता है, एक समाज दूसरे समाजको बर्बाद कर अधिक शक्तिशाली बननेकी कल्पना करता हैं। अधिक व्यापक रूपमें एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर अधिकार कर अपना प्रभुत्व बढ़ानेमें लगा हुआ है। पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, नाजीवाद, तथा फ़ैसिम ये सब प्रवृत्तियों के स्व-केन्द्रीकरण के आधार पर ही स्थिर हैं । इसीलिये उनका परिणाम है दुःख और शान्ति । प्रवृत्तियों के इस स्वकेन्द्रीकरणको देखकर शायद नैशेने इस सिद्धान्तका प्रतिपादन किया था कि जीवकी मूलभावना लोक में शक्ति (प्रभुत्व ) प्राप्त करना है । वर्तमान जर्मनी नैशेके विचारोंका मूर्तिमंत रूप है । नैशेके इस सिद्धान्तको लेकर हम किसी भी प्रकारकी स्थायी सामाजिकव्यवस्थाकी कल्पना नहीं कर सकते; उसके सारे फलितार्थ हमें अराजकता ( Chaos ) की ओर ले जाते हैं । तत्र संसार के दुःखों को किस प्रकार दूर किया जा सकता है ? जब तक व्यक्ति के स्वार्थका समाजके स्वार्थ के साथ विरोधीपन नहीं होता तब तक न तो व्यक्ति ही सुखी हो सकता है और न समाजही सुखका अनु Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ६ ] . भव कर सकता है। जीवकी प्रवृत्तियां जब व्यक्तिको atest समष्टिक घर बढ़ने लगती हैं तब ही उस वस्तुका जन्म होता है जिसे हम 'अहिंसा' कहते हैं । 'सर्वभूतहित' और 'निष्कामकर्म' के सिद्धान्त 'अहिंसा' केही दूसरे रूप हैं । हिंसाकी व्यापक भावना 'सर्वभूत-हित' में समाई हुई है । परिणाम स्वीकार करके एक महत्वपूर्ण तथ्यको भुला देते हैं । वे यह नहीं सोचते कि इन बुराइयोंका मूलकारण संगठित हिंसा द्वारा व्यवस्थित हमारे कानून और विधान हैं और इसी कारण विज्ञान के आविष्कार शोषण के साधन बन जाते हैं । जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Force of gravitation) अनन्त आकाश में तारों, ग्रह-नक्षत्र इत्यादिको एक व्यवस्था में बाँधे हुए हैं, उसी प्रकार हिसा में भी संसारको व्यवस्थित करनेकी शक्ति संनिहित है । हिंसा हमारी राजनैतिक ग्रार्थिक-सामाजिक कठिनाइयों का मूल कारण है और हिंसा उनको दूर करनेका साधन है । 1 साम्यवाद समाजके दुखोंको नष्ट करनेके लिए आगे बढ़ता हुआ प्रतीत होता है, लेकिन समाजके लिए व्यक्ति के जीवनको यांत्रिक बना कर वह ऐसा करना चाहता है, और जब जीवन मशीनकी तरह काम करने लगता है तो विकास और सुख स्वप्नकी वस्तु बन जाते हैं । इस प्रकार साम्यवाद्र जिन बुराइयोंको दूर करने की प्रतिज्ञा करता है उन्हीं में उलझता हुआ प्रतीत होता है । हिंसा जीवनको यंत्रवत् नहीं बनाती, वह जीवनमें 'आत्मोपम्य-बुद्धि' जागृत कर समाजहित में प्रवृत्त होनेके लिये प्रेरणा करती है । साम्यवाद सार्वजनिक हितके लिये हमारी प्रवृत्तियों पर बन्धन लगाता है, श्रहिंसा में हमारी प्रवृत्तियाँ स्वतः ही लोकहित के लिये होती हैं । साम्यवाद मनोविज्ञानकी अवहेलना करता है, अहिंसा मनोविज्ञानको साथ लेकर मनुष्यकी वृत्तियों को शुद्ध करती हुई विकासकी ओर ले जाती है । इसलिये कोई भी राजनैतिक, आर्थिक या सामाजिक व्यवस्था जिसका आधार सर्वभूतहित या अहिंसा नहीं है, अपूर्ण और अधूरी हैं। युगोंसे हिंसात्मक व्यवस्था द्वारा अनुशासित रहने के कारण अहिंसात्मक व्यवस्थाकी कल्पना कुछ अजीब सी मालूम पड़ती है और हम सोचते हैं कि इस प्रकार की व्यवस्थासे शायद अराजकताकी मात्रा और अधिक न बढ़ जाय, लेकिन हिंसासे भी अव्यवस्था घटती नहीं, और यह जान लेने पर कि समाजकी बीमारीका कारण हिंसा है उसके पक्ष में कोई दलील देने को नहीं हिंसा अव्यवस्थित वर्गीकरण और शोषण समाजके दुखका मूल कारण है। मौजूदा राजनैतिक तथा आर्थिक कानून और विधान 'संगठित हिंसा' को जन्म देते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि अल्पसंख्यक वर्ग के हाथ में शक्ति श्राजाती है और वह उसका उपयोग समाजके बहुसंख्यक वर्ग के शोषण में करता है । संसारकी अधिकतम शासन व्यवस्थायें संगठित हिंसाका मूर्तिमंत रूप हैं । हिटलर यदि पोलैंड पर आक्रमण करता है तो इससे यह न समझ लेना चाहिए कि जर्मनी की साधारण जनता हिटलरकी इन प्रवृत्तियोंसे सहानुभूति रखती है। नॉजी सरकार संगठित हिंसाके बलपर जर्मन जनताको युद्ध के लिये विवश करती हैं । यही बात अन्य साम्राज्यवादी शासन-प्रणालियों पर लागू होती है । 'विज्ञान' को श्रौद्योगिक केन्द्रीकरण तथा उसके दुष्परिणाम पूंजीवाद, समाजकी बेकारी, इत्यादिका दोषी ठहराया जाता है । हमारे अर्थशास्त्री भी इन बुराइयोंको विज्ञान के आविष्कारोंका स्वाभाविक . ३६१ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, . किरण ६ ] श्रहिंसा रहजाती । हिंसा में सन्देह करने का दूसरा कारण यह है कि हम नैतिक नियमों को उपयोगी और अच्छा समझते हुए भी उनकी व्यावहारिकता में अविश्वास रखते हैं | राजनीति और अर्थनीति को जितना नैति कता से दूर रक्खा जाता है उतनी ही उनमें कृत्रिमता की मात्रा अधिक बढ़ती हैं और वे लोकहित के लिये उतनी ही अनुपयोगी सिद्ध होती हैं। संभार यांत्रिक उपायोंसे सुव्यवस्था स्थापित नहीं की जा सकती । इस नग्न सत्य को हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा । हिंसा का तत्व इतना मनोवैज्ञानिक और आवश्यक है कि उसकी अवहेलना नही की जासकती । टाल्स्टाय के निम्न शब्दों के साथ हमें सहमत होना पड़ता है - "अहिंसा के अवलम्बन करने का केवल यही कारण नहीं है कि वह हमारी तमाम सामाजिक बुरा in harmless joys are spent" अर्थात् सज्जन वह है जो अपनी सुख -घड़ीको दूसरोंकी दुःख घड़ी न बनने दे । मालूम हुआ, यह कैंपियन कविकी कविता है । सज्जनताके इस लक्षणका मेरे दिल पर खासा असर हो आया, और तुरन्त ही इससे मिलता जुलता और एक लक्षण मुझे याद आगया: " सदाचारी वह है जो सुख-साधनों की लूट नहीं चाहता, किन्तु उनका विभाजन करनेकी चेष्टा करता है। सुख-साधनोंकी लूट चाहने वाला दुराचारी है ।" ( दरबारीलाल सत्यभक्त ) । वाक़ई में सज्जनता इसीका नाम है । संसार में सुखकी वृद्धि कैसे हो ? - एक कमरे में मैं और मेरे पास ही दूसरे में एक टेंथ क्लासका छात्र, दोनों पढ़ रहे थे। छात्रने पढ़ाः"The man whose silent days, चाहे वह कोई हो, जो मनुष्य श्रमसाध्य (कृषि - इत्यादि) कर्मों को छोड़कर बुद्धि और सम्पत्तिका दुरुपयोग करके उसके बलपर दूसरोंके कंधों पर बैठ कर जन साधारण के सुख-साधनोंकी लूट खसोटमें लगा हुआ है, जिससे दूसरोंके सत्व - रक्षाकी पर्वाह नहीं है वह तो सज्जन नहीं हो सकता । ३६२ इयों का एकमात्र रामबाण उपाय है, बल्कि हमारे ज़माने के प्रत्येक मनुष्य के नैतिक सिद्धान्तके वह पूरी तरह अनकूल भी हैं । जन साधारण के दुखोंको दूर करनेके लिये जिस तत्वकी आवश्यकता है वही प्रत्येक मनुष्य की आत्मिक शान्ति के लिये भी परमावश्यक है ।" इस प्रकार हिंसा व्यक्ति और समाजके कल्याण के लिये एक श्रावश्यक तत्व है और उसमें जीवनकी सारी समस्याओं को हल करनेकी शक्ति संनिहित है । २५०० वर्ष पहिले भगवान् महावीर और भगवान् बुद्धने सिद्धान्त के रूपमें विश्वके लिये हिंसाका सन्देश दिया था; गांधीजी आज एक प्रयोगवेत्ता के रूप में व्यवहारमें उसके फलितार्थोंको दुनिया के सामने रख रहे हैं। श्री दौलतराम मित्र ] अतएव यदि हम संसार में सुखकी वृद्धि देखना चाहते हैं तो हमारा कर्तव्य हो जाता है कि हम संसार भर में अति परिग्रह - विरोधी जैनाचारकी उपयोगिता के प्रचार प्रसिद्ध करनेका उद्योग करें, ताकि दुराचारियोंकी संख्या बढ़ने न पावे, सदाचारियोंकी संख्या बढ़े और संसार में सुखकी वृद्धि होवे । परन्तु अफ़सोस आज दुनियाकी सूझ ( दृष्टि ) श्रधी ( मिथ्या ) हो रही है । जैसा कि "एल.पी. जैक्स" का कथन है कि 6. की दुनिया सम्पत्तिको सामाजिक (सर्वसाधारण की चीज) बनाना चहती है; लेकिन मनुष्यको — उसके स्वभावको—सामाजिक बनानेकी बात उसे सूझती नहीं । जब तक यह नहीं होगा, तब तक कोई भी "इज़म” (वाद ) स्थापित नहीं हो सकेगा । अगर मनुष्यका चरित्र सुधर जाय तो चाहे जिस “इज़म " से निभ जायगा । आओ हम सब मंगल कामना करें और साथ ही तदनुकूल प्रयत्न भी करें कि दुनियाँको सीधी (सम्यक् ) सूझ ( दृष्टि ) प्राप्त हो । इसीसे संसार में सुखकी वृद्धि हो सकेगी । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाचन्द्रका तत्वार्थसूत्र [सम्पादकीय ] चाभी तक हम उमास्वाति या उमास्वामी श्रा- पूज्यपादका समय विक्रमकी छठी शताब्दी सुनिश्चित है। - चार्यके तत्त्वार्थसूत्रको ही जानते हैं- और तीसरे वे प्रभाचन्द्र' हैं जिनका उल्लेख श्रवणबेल्गोल 'तत्त्वार्थसूत्र' नामसे प्रायः उसीकी प्रसिद्धि है । परन्तु के प्रथम शिलालेखमें पाया जाता है, और जिनकी बाबत हाल में एक दूसरा पुरातन तत्त्वार्थसूत्र भी उपलब्ध यह कहा जाता है कि वे भद्रबाहुश्रुतकेवलीके दीक्षित हुश्रा है, जिसके कर्ता आचार्य प्रभाचन्द्र हैं । ग्रंथकी शिष्य सम्राट 'चन्द्रगुप्त' थे । इनका समय विक्रम सं० सन्धियोंमें प्रभाचन्द्राचार्य के साथ 'बृहत्' विशेषण से भी कोई तीनसौ वर्ष पहले का है । तब यह ग्रंथ लगा हुआ है, जिससे यह ध्वनित होता है कि प्रकृत कौनसे बड़े प्रभाचंद्राचार्यकी कृति है, यह बात निश्चिग्रंथ बड़े प्रभाचन्द्र का बनाया हुआ है। प्राचन्द्र तरूपसे नहीं कही जासकती । इसके लिये विशेष खोज नामके अनेक प्राचार्य हो गये हैं। । बड़े प्रभाचन्द्र होनेकी ज़रूरत है । फिर भी इतना तो कह सकते हैं कि श्राम तौर पर 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' और 'न्यायकुमुद- यह भद्रबाहु श्रुतकेवलीके शिष्य प्रभाचन्द्रकी कृति चंद्र' के कर्ता समझे जाते हैं; परंतु इनसे भी पहले नहीं है। क्योंकि उनके द्वारा किसी भी ग्रंथ-रचनाके प्रभाचंद्र नामके कुछ आचार्य हुए हैं, जिनमेंसे एक होने का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। तो परलुरु-निवासी 'विनयनन्दी' प्राचार्य के शिष्य थे और जिन्हें चालक्य राजा कीर्तिवर्मा प्रथमने एक दान ग्रन्थप्रति और उसका प्राप्ति दिया था है। ये प्राचार्य विक्रमकी छठी और सातवीं उक्त तत्त्वार्थसूत्रकी यह उपलब्ध प्रति पौने दस शताब्दीके विद्वान थे; क्योंकि उक्त कीर्तिवर्माका अस्ति- इञ्च लम्बे और पांच इञ्च चौड़े. श्राकारके आठ पत्रों त्व-समय शक सं० ४८६ (वि० स०६२४) पाया जाता पर है। प्रथम पत्रका पहला और अन्तिम पत्रका है । दूसरे वे प्रभाचंद्र हैं जिनका श्री पूज्यपादाचार्य- दूसरा पृष्ठ खाली है, और इस तरह ग्रंथ की पृष्ठ-संख्या कृत 'जैनेन्द्र' व्याकरण के 'रात्रेः कृति प्रभाचन्द्रस्य' १४ है । प्रत्येक पृष्ठपर ५ पंक्तियां हैं, परन्तु अन्तके इस सूत्रमें उल्लेख मिलता है, और इस लिये जो पष्ठ पर ४ पंक्तियां होनेसे कुल पंक्ति-संख्या ६६ होती विक्रमकी छठी शताब्दीसे पहले हुए हैं; क्योंकि आचार्य है। प्रति पृष्ठ अक्षर-संख्या २० के करीब है, और +देखो, माणिकचन्द्रग्रन्थमालामें प्रकाशित रत्न- इसलिये ग्रंथकी श्लोकसंख्या (३२ अक्षरोंके परिमाकरण्डश्रावकाचारकी प्रस्तावना, पृ० ५७ से ६६ तक । णसे) ४४ के करीब बैठती है। * देखो, 'साउथइण्डियन जैनिज़म', भाग दूसरा, काग़ज़ देशी साधारण कुछ पतला और खुदरासा पृ० ८८ । लगा है । लिखाई मोटे अक्षरोंमें है और उसमें कहीं Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ 'अनेकान्त कहीं स्वरादि-संधि-सूचक संकेतचिन्ह, पदोंकी विभिनता सूचक चिन्ह तथा संख्या- सूचक अंक भी बारीक टाइपमें (लघुआाकारमें) अक्षरों के ऊपर की ओर लगाये गये हैं । टिप्पणी एक स्थान को छोड़कर और कहीं भी नहीं है, और वह है “त्रिविधा भोगभूमयः ” सूत्र पर " जघन्य १ मध्य २ उत्कृष्ठ ३" के रूपमें, जो प्रायः प्रतिलिपि करने वाले के ही हाथ की लिखी हुई जान पड़ती है और इस बात को सूचित करती है कि जिस प्रति परसे यह प्रति उतारी गई है संभवतः उसमें भी वह इसी रूप में होगी । इस प्रतिमें अनुस्वारको कहीं भी पंचमाक्षर नहीं किया गया है। कार की आकृति 'र्ड और औौकार की 'ऊ' दी है । अंकों में ६-६ की आकृति क्रमशः '६' और '' दी है । [ चैत्र, वीर- निर्वाण सं० २४६६ नहीं है, फिर भी यह प्रति अपने काग़ज़ की स्थिति और लिखावट श्रादिपरसे २५०-३०० वर्ष से कमकी लिखी हुई मालूम नहीं होती । इसे पण्डित रतनलालने कोपावदा में लिखा है, जैसा कि इसकी निम्न अन्तिम पंक्तिसे प्रकट है: "पंडित रतनलालेन लिषितं कोटपावदामध्ये संपूर्णजातः” 4 ग्रंथप्रति यद्यपि अधिकांश में शुद्ध है, फिर भी उसमें कुछ साधारण तथा महत्वकी अशुद्धियां भी पाई जाती हैं। व-ब का भेद तो बहुत ही कम रक्खा हुआ जान पड़ता है - कहीं कहीं तो इन अक्षरोंका प्रयोग ठीक हुआ है, और कहीं वकार की जगह बकार और बकार की जगह वकारका प्रयोग कर दिया गया है— जैसे बिधो, बिधः, द्रव्य, बिग्रहा, देव्यः, वर्षाणि, विधा, चतुर्विंशति, बैमानिका, विघ्न, बिरति बिधं, पंचहि शति, अष्टाविंशति, ज्ञानाबरण, विंशति, संबर और बिरचिते (सर्वत्र) इनमें 'व' के स्थान पर 'ब' का प्रयोग है; और जंव ब्रह्मालया तथा बहु, इन शब्दों में 'ब' के स्थान पर 'व' का प्रयोग हुआ है, जो शुद्ध है, और यह सब प्रायः लिपिकारकी नित्यकी बोलचालके अभ्याससे सम्बन्ध रखता हुआ जान पड़ता है। ग्रन्थप्रति अन्त में यद्यपि लिपि सम्वत् दिया हुआ मालूम नहीं यह 'कोषावदा' स्थान कहाँपर स्थित है । परन्तु इस ग्रन्थप्रतिकी प्राप्ति वर्तमान में कोटा रियासतसे हुई है। कोटा में भाई केसरीमलजी एक प्रमुख खण्डेलवाल जैन तथा सार्वजनिक कार्यकर्ता हैं, उनके पास रामपुर जि० सहारनपुर निवासी बाबू कौशलप्रसादजीने, जो आजकल सहारनपुर में तिलक बीमा कम्पनी चीफ़ एजेंट हैं, यह ग्रन्थ देखा और इसे एक अपूर्व चीज समझकर उनके पाससे ले आए तथा विशेष जाँचपड़ताल एवं परिचयादिके लिये मेरे सुपुर्द किया, जिसके लिये मैं उनका बहुत ही आभारी हूँ । भाई केसरीमलजी ने इस ग्रंथकी प्राप्तिका जो इतिहास बा० कौशलप्रसादजीको बतलाया उससे मालूम हुआ कि 'कोटा में भट्टारककी एक गद्दी थी, उस गद्दीपर दुर्भाग्य से एक ऐसा ही आदमी आगया जिसने वहाँका सारा शास्त्र भण्डार रद्दीमें बेच दिया ! कुछ दिन पहले केसरीमलजीने इस प्रकारकी रद्दीकी एक बोरी एक मुसलमान बोहरके यहाँ देखी और उसे आठ आने में खरीद लिया । उसी बोरीमें से इस ग्रन्थरत्नकी प्राप्ति हुई है ।' ग्रंथ प्राप्तिकी यह छोटीसी घटना बड़ी ही हृदयद्रावक है और इससे जैनियोंके शास्त्र भण्डारों की श्रव्यवस्था, अपात्रों के हाथमें उनकी सत्ता और साथ ही अनोखी श्रुतभक्तिपर दो आँसू बहाये बिना नहीं रहा जाता ! जैनियोंकी इस लापर्वाही और ग्रन्थोंकी बेदर Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ६] प्रभाचन्द्रका तस्वार्थसूत्र ३६५ कारीके कारण न मालूम कितने ग्रंथरल पसारियोंकी क्रमशः १५, १२, १८, ६, ११, १४, ११,८,७, ५ दुकानोंपर पुड़ियात्रोंमें बँध बँधकर नष्ट हो चुके हैं !! हैं, और इस तरह कुल सूत्र १०७ हैं । इस सूत्रमें दश कितने ही ग्रंथोंका उल्लेख तो मिलता है परन्तु वे ग्रंथ अध्याय होने के कारण इसे 'दशसूत्र' नाम भी दिया आज उपलब्ध नहीं हो रहे हैं । इस विषय में दिगम्बर गया है-उमास्वातिके तत्त्वार्थ सूत्रको भी 'दशसूत्र' समाज सबसे अधिक अपराधी है, उसकी ग़ानत अब- कहा जाता है, और यह नाम ग्रंथकी प्रथम पंक्ति में ही, तक भी दूर नहीं हुई और वह अाज भी अपने ग्रंथोकी उसका लिखना प्रारम्भ करते हुए, 'अर्थ' और 'लिख्यते' खोज और उन के उद्धार के लिये कोई व्यवस्थित प्रयत्न पदों के मध्य में दिया है ! ग्रंथके अन्त में-१०वीं संधि नहीं कर रहा है । और तो क्या, दिगम्बर ग्रन्थोंकी कोई (पुष्पिका ) के अनन्तर-'इति' और 'समाप्त' पदोंके अच्छी व्यवस्थित सूची तक भी वह अबतक तैय्यार मध्य में इसे 'जिनकल्पी सूत्र' भी लिखा है । इस प्रकार करानेमें समर्थ नहीं हो सका; जबकि श्वेताम्बर समाज ग्रंथप्रति के आदि, मध्यम और अन्तमें इस सूत्रग्रंथके अपने ग्रंथोंकी ऐसी अनेक विशालकाय-सूचियाँ प्रकट क्रमशः दशसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र और जिनकल्पी सूत्र, ऐसे कर चुका है । जिनवाणी माता की भक्तिका गीत गाने- तीन नाम दिये हैं । पिछला नाम अपनी खास विशेषता वालों और उसे नित्य ही अर्घ चढ़ानेवालों के लिये ये रखता है और उसने बा० कौशलप्रसादजीको इस सब बातें निःसन्देह बड़ी ही लजाका विषय हैं। उन्हें ग्रन्थको कोटासे लाने के लिये और भी अधिक प्रेरित इनपर ध्यान देकर शीघ्र ही अपने कर्तब्यका पालन करना किया है। हाँ, मात्र १०वीं संधिमें 'तत्त्वार्थसूत्र' के चाहिये-ऐसा कोई व्यवस्थित प्रयत्न करना चाहिये स्थानपर 'तत्त्वार्थसारसूत्र' ऐसा नामोल्लेख भी है, जिसका जससे शीघ्र ही लुप्तप्राय जैन ग्रंथोंकी खोजका काम यह अाशय होता है कि यह ग्रंथ तत्त्वार्थ विषयका. सारज़ोर के साथ चलाया जासके, खोजे हुए ग्रन्थोंका उद्धार भूत ग्रंथ हैं अथवा इस सूत्रमें तत्त्वार्थशास्त्रका सार हो सके और संपूर्ण जैन ग्रंथोंकी एक मुकम्मल तथा खोंचा गया है । पिछले अाशयसे यह भी ध्वनित हो सुव्यवस्थित सूची तैयार हो सके । अस्तु । सकता है कि इस ग्रथमें सम्भवतः उमा वाति के तत्त्वार्थ अब मैं मूल ग्रन्थको अनवाद के साथ अनेकान्तके सूत्रका ही सार खींचा गया हो। ग्रन्थ-प्रकृति और पाठकों के सामने रखकर उन्हें उमका पूरा परिचय करा उसके अर्थ सादृश्यको देखते हुए, यद्यपि, यह बात देना चाहता हूँ। परन्तु ऐसा करने से पहले इतना और कुछ असंगत मालम नहीं होती बल्कि अधिकतर झुकाव भी बतला देना चाहता हूँ कि यह ग्रंथ श्राकारमें छोटा उसके माननेकी अोर होता है; फिर भी ह संधियों में होनेपर भी उमास्वातिके तत्त्वार्थ सूत्रकी तरह दश 'सार' शब्दका प्रयोग न होनेसे १०वीं संधिमें उसके अध्यायोंमें विभक्त है, मूल विषय भी इसका उसीके प्रयोगको प्रक्षिप्त भी कहा जा सकता है। कुछ भी हो, समान मोक्षमार्गका प्रतिपादन है और उसका क्रम भी अभी ये सब बातें विशेष अनुसंधानसे सम्बन्ध रखती हैं, प्रायः एक ही जैसा है-कहीं कहीं पर थोड़ासा कुछ और इसके लिये ग्रंथकी दूसरी प्रतियोंको भी खोजनेकी विशेष ज़रूर पाया जाता है, जिसे आगे यथावसर जरूरत है । साथ ही, यह भी मालूम होना ज़रूरी है कि . सूचित कर दिया जायगा । इन अध्यायोंमें सूत्रोंकी संख्या इस सूत्रग्रन्थपर कोई टीका-टिप्पणी भी. लिखी गई है Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त । ... [चैत्र, वीर निर्वाण सं०३४५६ : याकि नहीं जिसके लिखे जानेकी बहुत बड़ी सम्भावना है उसमें छूट गया है । उसके सामने आने पर और भी है । यदि कोई टीका-टीप्पणी उपलब्ध है तो उसे भी कुछ बातों पर प्रकाश पड़नेकी संभावना है, और इस विशेष परिचयादिके द्वारा प्रकाशमें लाना चाहिये। लिये इस ग्रंथकी दूसरी प्रतियोंको खोजनेकी और भी फिर भी इस ग्रंथके विषयमें इतना कह देनेमें तो ज्यादा ज़रूरत है । आशा है इसके लिये साहित्य प्रेमी कोई आपत्ति मालूम नहीं होती कि इसके सूत्र अर्थ- विद्वान् अपने अपने यहाँके शास्त्रभंडारोंको ज़रूर ही गौरवको लिये होने पर भी आकारमें छोटे, सुगम, कण्ठ खोजनेका प्रयत्न करेंगे और अपनी खोजके परिणामसे करने तथा याद रखनेमें आसान है, और उनसे तत्त्वार्थ- मुझे शीघ्र ही सूचित कर अनुगृहीत करेंगे। शास्त्र अथवा मोक्षशास्त्रका मूल विषय सूचनारूप में संक्षेपतः सामने प्राजाता है। मूलग्रंथ और उसका अनुवादादिक ___ एक बात और भी प्रकट कर देनेकी है और वह नीचे मूल ग्रंथके सूत्रादिको उदधृत करते हुए जहाँ यह कि इस सूत्रग्रन्थके शुरू में प्रतिपाद्य विषय के सम्बंध- मूलका पाठ सष्टतया अशुद्ध जान पड़ा है वहाँ उसके को व्यक्त करता हुआ एक पद्य मंगलाचरणका है,परन्तु स्थान पर वह पाठ दे दिया गया है जो अपने को शुद्ध अन्तमें ग्रंथकी समाप्ति श्रादिका सूचक कोई पद्य नहीं है। प्रतीत हुआ है और ग्रन्थप्रतिमें पाये जाने वाले अशुद्ध , ऐसे गद्यात्मक सूत्रग्रंथों में जिनका प्रारम्भ मंगलाचर- पाठको फुटनोट में दिखला दिया है, जिससे वस्तुस्थितिके सादिके रूपमें किसी पद्य-द्वारा होता है उनके अन्तमें ठीक समझने में कोई प्रकारका भ्रम न रहे और न मूल भी कोई पद्य समाप्ति आदिका जरूर होता है, ऐसा सूत्रोंके पढ़ने तथा समझने में कोई दिक्कत ही उपस्थित अक्सर देखने में आया है। उदाहरणके लिये परीक्षा- होवे । परन्तु वकारके स्थान पर बकार और बकारके मुखसूत्र, न्यायदीपिका और राजवार्तिकको ले सकते हैं, स्थान पर वकार बनानेकी जिन अशुद्धियोंको ऊपर इन ग्रंथोंमें आदिके समान अन्त में भी एक एक पद्य सूचित किया जा चुका है उन्हें फुटनोटोंमें दिखलाने की पाया जाता है। जिन ग्रंथ-प्रतियोंमें वह उपलब्ध नहीं ज़रूरत नहीं समझी गई। इसी तरह संधि तथा पद-विभिहोता उनमें वह लिखनेसे छूट गया है, जैसे कि न्याय- नतादिके संकेतचिन्होंको भी देनेकी ज़रूरत नहीं समझी दीपिका और राजवार्तिककी मुद्रित प्रतियोंमें अन्तका गई। इसके अतिरिक्त जो अक्षर सूत्रोंमें छूटे हुए जान पद्य छट गया है, उसे दूसरी हस्तलिखित प्रतियों पर . पड़े हैं उन्हें सूत्रों के साथ ही[ ] इस प्रकारके से खोजकर प्रकट किया जा चुका है* । ऐसी स्थिति कोष्ठकके भीतर रख दिया है और जो पाठ अधिक होते हुए इस सूत्रग्रंथके अन्तमें भी कमसे कम एक . संभाव्य प्रतीत हुए हैं उन्हें प्रश्नांक के साथ (...?) ऐसे पद्यक होनेकी बहुत बड़ी सम्भावना है। मेरे ख्यालसे कोष्ठकमें देदिया है। पाई(1) दो पाई (1) के विरामचिन्ह वह पद्य इस ग्रंथप्रतिमें अथवा जिसपरसे यह प्रतिकी गई ग्रंथमें लगे हुए नहीं हैं, परंतु उनके लिये स्थान छुटा देखो, प्रथम वर्षके अनेकान्त' की वी किरण हुअा है, उन्हें भी यहां दे दिया है। और इस तरह में पुरानी बातोंकी खोज मूल ग्रंथको उसके असली रूप में पाठकोंके सामने • २७२। रखनेका भरसक यत्न किया गया है। फिर भी यदि १३ सूखमा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ६] कोई अशुद्धियाँ रह गई हों तो उन्हें विज्ञ पाठक सूचित करने की कृपा करें, जिससे उनका सुधार हो सके । अनुवादको मूल सूत्रादिके अनन्तर अनुवादके रूप में ही रक्खा गया है – व्याख्यादिके रूपमें नहीं । और उसे एक ही पैरेग्राफमें सिंगल इनवर्टेडकामाज़ के भीतर देदिया गया है, जिससे मूलको मूलके रूप में ही समझा जा सके। जहां कहीं विशेष व्याख्या, स्पष्टीकरण अथवा तुलनाकी ज़रूरत पड़ी है वहां उस सब को अनुवादके अनन्तर भिन्न पैरेग्राफोंमें अलग दे दिया है। प्रभाचन्द्रका तत्वार्थसूत्र `इस प्रकार यह मूल ग्रन्थ और उसके अनुवादादिक को देनेकी पद्धति है, जिसे यहां अपनाया गया है । ग्रन्थारंभ से पूर्व का अंश ॥ ऐं ॥ ॐ नमः सिद्धं । श्रथ दशसूत्रं लिख्यते । 'ऐं, ॐ, सिद्ध को नमस्कार । यहां (अथवा अब ) लिखा जाता है ।' दशसूत्र यह प्रायः लिपिकर्त्ता लेखकका मंगलाचरण के साथ ग्रंथका नामोल्लेख पूर्वक उसके लिखने की प्रतिज्ञा एवं सूचनाका वाक्य है। हो सकता है कि यह वाक्य प्रकृत ग्रंथप्रतिके लेखक पं० रतनलालकी खुदकी कृति न हो बल्कि उस ग्रंथ प्रतिमें ही इस रूपसे लिखा हो जिस पर से उन्होंने यह प्रति उतारी है। मूल ग्रंथ मंगलाचरणादिके साथ इसका सम्बन्ध नहीं है । पहला अध्याय मूलका मंगलाचरण सदुदृष्टिज्ञानवृत्तात्मा मोक्षमार्गः सनातनः । श्राविरासीद्यतो वंदे तमहं वीरमच्यतं ॥१॥ + ग्रन्थप्रतिमें 'दशसूत्र' ऐसा अशुद्ध पाठ है । ३३७ 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप सनातन मोक्ष मार्ग जिससे — जिसके उपदेशसे— प्रकट हुआ है उस अच्युत वीरकी मैं वन्दना करता हूँ ।' इस ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय मोक्षमार्ग है, उस सनातन मोक्षमार्गका जिनके उपदेश द्वारा लोकमें श्राविर्भाव हुआ है – पुनः प्रकटीकरण हुआ है-उन अमरअविनाशी वीर प्रभुका उनके उस गुणविशेष के साथ वन्दन - स्मरण करके यहां यह व्यक्त किया गया है कि इस ग्रंथ के प्रतिपाद्य विषयका सम्बंध वीरप्रभुके उपदेश से है— उसीके अनुसार सब कुछ कथन किया गया है । सूत्रारम्भ सम्यग्दर्शनाऽवगमवृत्तानि मोक्षहेतुः ॥१॥ 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र - ये तीनों मिले हुए - मोक्षका साधन है ।' यह सूत्र और उमास्वातिके तत्वार्थ सूत्रका पहला सूत्र दोनों एकही टाइप और एक ही श्राशयके हैं। अक्षरसंख्या भी दोनोंकी १५-१५ ही है। वहां ज्ञान, चारित्र और मार्ग शब्दों का प्रयोग हुआ है तब यहाँ उनके स्थान पर क्रमशः अवगम, वृत्त और हेतु शब्दोंका प्रयोग हुआ है, जो समान अर्थके ही द्योतक हैं। जीवादिसप्ततत्त्वं ||२|| 'जीव श्रादि सात तत्व हैं ।' यहाँ 'आदि' शब्दसे अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ऐसे छह तत्त्वोंके ग्रहणका निर्देष है, क्योंकि जैनागममें जीव सहित इन तत्त्वोंकी ही 'सप्ततत्त्व' संज्ञा है । यह सूत्र और उमास्वातिका ४था सूत्र दोनों एकार्थ-वाचक हैं। उसमें सातों तत्त्वोंके नाम दिये गये हैं तब इसमें 'आदि' शब्द से शेष छह रूढ़ तत्त्वोंका संग्रह किया गया है, और इसलिये इसमें अक्षरोंकी संख्या अल्प हो गई है । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ अनेकान्त. ' तदर्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं ॥३॥ उनके - सप्ततत्त्वोंके - अर्थश्रद्धानको - निश्चयरूप रुचिविशेषको सम्यग्दर्शन कहते हैं ।' P यह उमास्वातिके द्वितीय सूत्रके साथ मिलता जुलता है । दोनोंकी अक्षर संख्या भी समान है - वहाँ तत्त्वार्थ श्रद्धा' पद दिया है तब यहां 'तदर्थश्रद्धानं' पदके द्वारा वही श्राशय व्यक्त किया गया है। भेद दोनोंमें कथनशैलीका है । उमास्वातिने सम्यग्दर्शनके लक्षण में प्रयुक्त हुए 'तत्त्व' शब्दको आगे जाकर स्पष्ट किया है और प्रभाचन्द्र ने पहले 'तत्त्व' को बतला कर फिर उसके अर्थश्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाया है और इस तरह कथनका सरल मार्ग अंगीकार किया है । कथनका यह शैली-भेद आगे भी बराबर चलता रहा हैं । तदुत्पत्तिर्द्विधा ||४|| 'उस - सम्यग्दर्शन - की उत्पत्ति दो प्रकारसे है ।' यहां उन दो प्रकारोंका–श्रागमकथित निसर्ग और अधिगम भेदोंका - उल्लेख न करके उनकी मात्र सूचना की गई है; जबकि उमास्वातिने 'तनिसर्गादधिगमाद्वा' इस तृतीय सूत्रके द्वारा उनका स्पष्ट उल्लेख कर दिया है । [ चैत्र, वीर- निर्वाण सं० २४६६ "नाम स्थापना द्रव्य भावतस्तन्न्यासः " का होता है । प्रमाणे द्वे ||६|| 'प्रमाण दो हैं । ' यहाँ दोकी संख्याका निर्देश करनेसे प्रमाणके श्रागमकथित प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ग्र गया है । यह उमास्वातिके १० वें सूत्र " तत्प्रमाणे" के साथ मिलता-जुलता है, परन्तु दोनोंकी कथनशैली और कथनक्रम भिन्न हैं । इसमें प्रमाणके सर्वार्थसिद्धि-कथित 'स्वार्थ' और परार्थ नामके दो भेदों का भी समावेश हो जाता 1 नामादिना तन्न्यासः ॥५॥ 'नाम आदिके द्वारा उनका - सम्यग्दर्शनादिका तथा जीवादि तत्वोंका-न्यास (निचेप) होता है - व्यवस्था पन और विभाजन किया जाता है ।' यहाँ 'आदि' शब्दसे ं स्थापना, द्रव्य और भावके ग्रहणका निर्देश है; क्योंकि श्रागममें न्यास अथवा नि क्षेपके चार ही भेद किये गये हैं और वे षट्खण्डागमादि मूल ग्रंथों में बहुत ही रूढ़ तथा प्रसिद्ध हैं और उनका बार बार उल्लेख आया है । और इसलिये इस सूत्र भी वही आशय है जो उमास्वाति के पाँचवें सूत्र नयाः सप्त ||७|| 'नय सात हैं ।' यहाँ सातकी संख्याका निर्देश करनेसे नयोंके - गम-कथित नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ऐसे सात भेदोका संग्रह किया गया है । उमास्वातिने नयका उल्लेख यद्यपि 'प्रमाणनयैरधिगमः' इस छठे सूत्र में किया है परन्तु उनकी *सात संख्या और नामोंका सूचक सूत्र प्रथम अध्याय के अन्तमें दिया है। यहाँ दूसरा ही क्रम रक्खा गया है। और उक्त छठे सूत्रके अाशयका जो सूत्र यहाँ दिया है वह इससे अगला आठवाँ सूत्र है । * श्वेताम्बरीय सूत्रपाठ और उसके भाष्य में नयों की मूल संख्या वैगम संग्रह व्यवहार, ऋजु सूत्र धर शब्द, ऐसे पांच दी है, फिर नैगमके दो और शब्द नयके साम्प्रत, समभिरूद, एवंभूत ऐसे तीन भेद किये गये हैं, और इस तरह नयके घाठ भेद किये हैं। परन्तु पं० सुखनालजी अपनी तत्वार्थसूत्रकी टीका वह स्पष्ट स्वीकार करते हैं कि जैनागमों और दिगम्बरीय ग्रंथों की परम्परा उक्त सात नयकी ही है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ६] प्रभाचन्द्र का तत्त्वार्थसूत्र तैरधिगमस्तत्त्वानां ॥८ होता है, इसलिये क्षायिक' कहा जाता है । 'उन-प्रमाणों तथा नयों के द्वारा तत्वोंका षड्विधोऽवधिः ॥१२॥ विशेष ज्ञान होता है।' 'अवधिज्ञान छह भेदरूप है।' ___ इस सूत्रमें 'प्रमाणनयैः' की जगत 'तैः' पदके प्रयोग यहां छहकी संख्याका निर्देश करनेसे अवधिज्ञान से जहां सूत्रका लाघव हुआ है वहां 'तरवाना' पद कुछ के अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवअधिक जान पड़ता है । यह पद उमास्वातिके उक्त छठे स्थित और अनवस्थित ऐसे छह भेदोंका ग्रहण कियों सूत्रमें नहीं है फिर भी इस पदसे अर्थमें स्पष्टता जरूर गया है,जो सब क्षयोपशमके निमित्तसे ही होते हैं । भव श्रा जाती है। प्रत्यय अवधिज्ञान जो देव-नारकियोंके बतलाया गया है सदादिभिश्च ॥९॥ वह भी क्षयोपशमके बिना नहीं होता और छह भेदोंमें 'सत् भादिके द्वारा भी तस्वोंका विशेष ज्ञान होता उसका भी अन्तर्भाव हो जाता है, इसीसें यहाँ उसका पृथक रूपसे ग्रहण करना नहीं पाया जाता। यह सूत्र यहां 'श्रादि' शब्दसे संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, उमास्वातिके 'अयोपशमनिमिसः पविकल्पः शेषाणां अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व नामके सात अनुयोग- पर इस २२ वें सूत्रके साथ मिलता-जुलता है। द्वारोंके ग्रहणका निर्देश है; क्योंकि सत्-पूर्वक इन अनु द्विविधो मनःपर्ययः ॥१३॥ योगद्वारोंकी पाठ संख्या अागममें रूढ़ है-षट्खण्डा 'मनः पर्ययज्ञाम दो भेदरूप हैं।' गमादिकमें इनका बहुत विस्तारके साथ वर्णन है । इस ___यहां दोकी संख्याके निर्देश द्वारा मनः पर्ययके सूत्रका और उमास्वाति के 'सत्संख्यादि' सूत्र नं० ८ का ऋजमति और विपुलमति दोनों प्रसिद्ध भेदोंका संग्रह एक ही प्राशय है। किया गया है और इसलिये इसका वही श्राशय है जो मित्यादीनि [पंच] ज्ञानानि ॥१०॥ उमास्वातिके 'ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः' इस सूत्र नं० 'मति प्रादिक पांच ज्ञान हैं।' २३ का होता है। यहाँ 'श्रादि' शब्दके द्वारा श्रुत, अवधि, मनःपर्यय अखंडं केवलं ॥ १४॥ और केवल, इन चार ज्ञानोका संग्रह किया गया है, क्योंकि मति-पर्वक ये ही पाँच ज्ञान भागममें वर्णित है। केवलज्ञान प्रखंड है-उसके कोई भेद-प्रभेद क्षयोपशम [क्षय] हेतवः ॥११॥ नहीं है।' 'मस्यादिक ज्ञान पयोपशम-पय हेतुक है।' इस सूत्रके आशयका कोई सूत्र उमास्वातिके मति, श्रत, अवधि, मनःपर्यय, ये चार ज्ञान तो तत्वाथसूत्रम नहीं है। मतिज्ञानावरणादि कर्म प्रकृतियोंके क्षयोपशमसे होते हैं, समयो समयमेकत्र चत्वारि ॥ १५॥ ... इसलिये 'क्षायोपशामिक' कहलाते हैं और केवलज्ञान 'कभी कभी एक नींवमें युगात चार ज्ञान होते हैं। ज्ञानावरणादि-घातियाकर्म-प्रकृतियोंके क्षबसे उत्पन्न केवलज्ञानको छोड़ कर शेष चार शाम एक स्थान. स। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६६ पर किसी समय युगपत् हो सकते हैं । इससे दो तीन नामका सूत्र एक ही अर्थके वाचक हैं । ज्ञानोंका भी एक साथ होना ध्वनित होता है । दो एक सद्विविधः ॥ ३ ॥ साथ होंगे तो मति, श्रुत होंगे, और तीन होंगे तो मति, . 'वह (उपयोग) दो प्रकारका होता है।' श्रुत, अवधि अथवा मति, श्रुत और मनः पर्यय होंगे। यहां दोकी संख्याका निर्देश करनेसे उपयोगके एक ज्ञान केवलज्ञान ही होता है-उसके साथमें आगमकथित दो मूल भेदोंका संग्रह किया गया हैदूसरे ज्ञान नहीं रहते। यह सत्र उमास्वातिके एकादी- उत्तर भेदोंका वैसा कोई निर्देश नहीं किया जैसा कि नि भाज्यानि युगपदेकस्मिनाचतुर्म्यः' इस सूत्रके उमास्वातिके "सद्विविधोऽष्टचतुर्भेदः' इस सूत्र नं०६ समकक्ष है और इसी-जैसे श्राशयको लिये हुए है। में पाया जाता है । परन्तु इसकी शब्द-रचना कुछ सन्दिग्धसी जान पड़ती द्वींद्रियादयस्त्रसाः॥४॥ है । संभव है 'एकत्रचत्वारि' के स्थान पर 'एकत्रैक द्वीन्द्रियादिक जीव त्रस हैं।' द्वित्रिचत्वारि' ऐसा पाठ हो। यहां 'श्रादि' शब्दसे त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय तथा • इति श्री वृहत्प्रभाचन्द्रविरचिते तत्त्वार्थसूत्रे संज्ञी-असंज्ञीके भेदरूप पंचेन्द्रिय जीवोंके ग्रहणका प्रथमोध्यायः ॥१॥ निर्देश है । यह सूत्र और उमास्वातिका १४ वाँ सूत्र 'इस प्रकार श्री वृहत् प्रभाचन्द्र-विरचित तत्त्वार्थ- अक्षरशः एक ही हैं । सूत्रमें पहला अध्याय समाप्त हुआ। शेषाः स्थावराः ॥५॥ दूसरा अध्याय 'शेष (एकेन्द्रिय) जीव स्थावर हैं।' जीवस्य पंचभावाः ॥१॥ उमास्वातिके दिगम्बरीय सूत्रपाठके 'पृथिव्यपते'जीवके पंचभाव होते हैं।' जोवायुवनस्पतयः स्थावराः' सूत्र नं० १३ का जो आशय यहाँ पाँचकी संख्याका निर्देश करनेसे जीवके है वही इस सूत्रका है । और इसलिए स्थावर जीव पृथिवी श्रादिके भेदसे पांच प्रकारके हैं। श्रागम-कथित औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक, ऐसे पांच भावोंका संग्रह द्रव्यभावभेदादिंद्रियं द्विप्रकारं ॥ ६॥ 'द्रव्य और भावके भेदसे इन्द्रिय दो प्रकार है।' किया गया है । उमास्वातिके दूसरे अध्यायका "श्रौपशमिकक्षायिकौ" अादि प्रथम.सूत्र भी जीवके भावोंका इस सूत्रमें यद्यपि उमास्वातिके "द्विविधानि' १६, द्योतक है। उसमें पांचोंके नाम दिये हैं, जिससे वह __* द्वि । बड़ा सूत्र हो गया है । श्राशय दोनोंका प्रायः एक ही श्वेताम्बरीय सूत्रपाठमें १४वें सूत्रका रूप 'तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च ब्रसाः' ऐसा दिया है, क्योंकि श्वेत्ता। उपयोगस्तल्लक्षणं ॥ १॥ म्बरीय भाई अग्नि और वायुकायके जीवोंको भी त्रस 'जीवका लक्षण उपयोग है ।' जीव मानते हैं। यह सूत्र और उमास्वातिका 'उपयोगो लक्षणं' tषा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ६] प्रभाचन्द्रका तत्वार्थसूत्र । 'निवृत्युपकरणे द्रव्येन्दियं' १७, लब्ध्युपयोगौ मावेन्द्रियं । यहाँ 'श्रादि' शब्दसे वैफ्रियक, अहारक, तेजस १८, इन तीन सूत्रोंके आशयका समावेश है, परन्तु और कार्मण नामके चार शरीरोंके ग्रहणका संकेत है; द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रियके भेदोंको खोला नहीं। क्योंकि औदारिक-सहित शरीरोंके पांच ही भेद आगममें विग्रहाद्या गतयः ॥७॥ पाये जाते हैं। और इसलिये इस सत्रका वही श्राशय 'विग्रहा मादि गतियां है।' है जो उमास्वातिके 'औदारिकवैक्रियिकाहारकयहाँ गतियोंकी कोई संख्या नहीं दी। विग्रहागति तैजसकार्मणानि शरीराणि" इस सूत्र नं० ३६ का है। संसारी जीवोंकी और अविग्रहा मुक्त जीवोंकी होती है। . एकस्मिन्नात्मन्याचतुर्थ्यः ॥१०॥ अविग्रहाको 'इषुगति' भी कहते हैं, और 'विग्रहा' के तीन 'एक जीवमें चार तक शरीर (एक साथ) होते हैं।' भेद किये जाते हैं-१ पाणिमुक्ता २ लाङ्गलिका ३ यह सत्र उमास्वातिके "तदादीनिभाज्यानि युगपदेगोमूत्रिका | आर्षग्रंथों में इघुगति-सहित इन्हें गतिके चार कस्मिन्नाचतुर्व्यः" इस सत्रके साथ मिलता जुलता है; भेद गिनाये हैं। यदि इन चारोंका ही अभिप्राय यहाँ परन्तु इस सत्रमें 'तदादीनि' पदके द्वारा 'तेजस और होता तो इस सूत्रका कुछ दूसरा ही रूप होता। अतः कार्मण नामके दो शरीरोंको श्रादि लेकर' ऐसा जो विग्रहा, अविग्रहाके अतिरिक्त गतिके नरकगति, तिर्यंच कथन किया गया है और उसके द्वारा एक शरीर अलग गति, देवगति,मनुष्यगति ऐसे जो चारभेद और भी किये नहीं होता ऐसा जो नियम किया गया है वह स्पष्ट जाते हैं उनका भी समावेश इस सूत्रमें हो सकता है । विधान इस सूत्रसे उपलब्ध नहीं होता । वा उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमें इस प्रकारका कोई अलग ___ आहारकं प्रमत्त संयत]स्यैव ॥११॥ सूत्र नहीं है-यों 'अविग्रहाजीवस्य, विग्रहवती च संसा 'पाहारक प्रमत्तसंयतके ही होता है।' रिणः प्राक्चतुर्थ्यः, एकसमयाऽविग्रहा' आदि सूत्रोंमें श्राहारक शरीरके लिये यह नियमः है कि वह गतियोंका उल्लेख पाया ही जाता है। प्रमत्तसंयत नामके छठे गुणस्थानवर्ती मुनिके ही होता सचित्तादयो योनयः ॥ ८ ॥ है-अन्यके नहीं । उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमें इसी _ 'सचित्त आदि योनियाँ हैं।' श्राशयका सूत्र नं०४६ पर है। उसमें आहारक शरीरके यहाँ सत्रमें यद्यपि योनियोंकी संख्या नहीं दी; परंतु शुभ, विशुद्ध, अव्याधाति ऐसे तीन विशेषण दिये हैं। सचित्त योनिसे जिनका प्रारम्भ होता है उनकी संख्या मूल बात श्राहारक शरीरके स्वामितत्वनिर्देशकी दोनोंमें आगममें नव है-ग्रंथप्रतिमें 'योनयः' पद पर ६ का एक ही है । श्वेताम्बरीय सूत्रपाठमें 'प्रमत्तसंयतस्यैच अंक भी दिया हुआ है । ऐसी हालतमें उमास्वातिके के स्थान पर 'चतुर्दशपूर्वधरस्यैव' पाठ है, और इसलिये "सचित्त-शीत-संवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तयोनयः" वे लोग चौदह पूर्वधारी (श्रुतकेवली) मुनिके ही श्राहाइस सूत्र नं० ३२ का जो आशय है वही इस सूत्रका रक शरीरका होना बतलाते हैं। . श्राशय समझना चाहिये । तीर्थेश-देव-नारक-भोगभुवोऽखंडायुषः ॥१२॥ भौदारिकादीनि शरीराणि ॥९॥ 'भौदारिक मादि शरीर होते हैं।' अिखंडायुषः । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६६ 'तीर्थकर, देव, नारकी ओर भोगभूमिया अखंड प्रभाको आदि लेकर ये ही सब सात नरक भूमियां वणित मायु वाले होते है। हैं । यह सूत्र उमास्वाति-तत्त्वार्थसूत्रके तृतीय अध्यायके अकालमरणके द्वारा बद्ध आयुका बीचमें खण्डित प्रथम सूत्रके मूल आशयके साथ मिलता-जुलता है । न होना 'अखण्डायु' कहलाता है। तीर्थंकरों श्रादिका उसमें 'धनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः' और 'मधोऽधः' पदों अकालमरण नहीं होता–बाह्य निमित्तोको पाकर उनका के द्वारा इन नरकभूमियोंके सम्बन्धमें कुछ विशिष्ट आयु छिदता-भिदता अथवा परिवर्तनीय नहीं होता- ' एवं स्पष्ट कथन और भी किया है । वे कालक्रमसे अपनी पूरी ही बद्धायुका भोग करते तासु नारकाः सपंचदुःखाः ॥२॥ हैं। दूसरे मनुष्य-तिर्यंचोंके अखण्डायु होनेका नियम 'उन सातों भूमियोंमें नारकी जीव रहते हैं और नहीं वे अखण्डायु हो भी सकते हैं और नहीं भी। वे पंच प्रकारके दुःखोंसे युक्त होते हैं। यह सूत्र उमास्वातिके औपपादिकचरमोत्तमदेहाऽसंख्येय नारकी जीव स्वसंक्लेशपरिणामज, क्षेत्रस्वभावज, वर्णयुषोऽनपवायुषः' इस ५३वे सूत्रकी अपेक्षा बहुत परस्परोदीरित और असुरोदीरित आदि अनेक प्रकारके कुछ सरल स्पष्ट तथा अल्पाक्षरी है, इसमें उक्त सूत्र- दुःखोंसे निरन्तर पीडित रहते हैं। यहाँ उन सब दुःखों जैसी जटिलता नहीं है। को पांच भेदोंमें सीमित किया गया है, जिनके स्पष्ट ____ इति भीप्रभाचंद्रविरचिते तत्त्वार्थसूत्रे द्विती- नाम नहीं मालूम हो सके। उमास्वातिके प्रायः २ से ५ योध्यायः ॥२॥ तकके सूत्रोंका श्राशय इसमें संनिहित जान पड़ता है । 'इस प्रकार श्री प्रभाचंद्र-विरचित तत्वार्थसूत्रमें जम्बूद्वीपलवणोदादयोऽसंख्येयद्वीपोदधयः ॥३॥ दूसरा अध्याय समाप्त हुमा । . 'जम्बूद्वीप और लवणोदधिको मादि लेकर असं. स्यात द्वीप समुद्र हैं।' तीसरा अध्याय . यह स्त्र और उमास्वातिका "जम्बूद्वीपलवणोदा. दयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः' यह सूत्र नं० ७ दोनों रत्नप्रभाद्याः सप्तभूमयः ॥१॥ . एक ही श्राशयको लिये हुए हैं। एकमें द्वीप-समुद्रोंक। रत्नप्रभा आदि सात भूमियां हैं।' 'शुभनामानः' विशेषण है तो दूसरेमें 'मसंख्येय' विशेयहाँ 'पादि' शब्दसे शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, महातमःप्रभा इन छह तन्मध्ये लक्षयोजनप्रमः सचूलिको मेरुः ॥ ४ ॥ भमियोंका संग्रह किया गया है, क्योंकि अागम में रत्न- 'उन दीप-समुद्रों के मध्य में लाख योजन प्रमाण श्वेताम्बरीव सूत्रपाठमें 'औपपातिकतरमदेहो- वाला चूलिका सहित मेरु (पर्वत) है ।' - • तमपुरुषा" ऐसा पाठ है जिसके द्वारा सभी चरम शरीरी उमास्वातिने 'तन्मध्ये मेरुनाभिवृ'तो' इत्यादि तथा उत्तम पुलोंको प्रखरता बतलाया है। उसमें सूत्रके द्वारा मेरुपर्वतको नाभिकी तरह मध्यस्थित बत' भी यह द्वितीय अध्यायका मन्तिम सूत्र है पख्तु इसका लाते हुये उसका कोई परिमाण न देकर जम्बूद्वीपको नम्बर कहाँ ५२ है। .. . लक्ष योजन-प्रमाण विस्तार वाला बतलाया है, जब कि Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ६ प्रभाचन्द्रका तत्वार्थसूत्र यहाँ जम्ब द्वीपका कोई परिमाण न देकर मेरुका ही शन्दसे आगमवर्णित सिंधु, रोहित, रोहितास्या, हरित्, परिमाण दिया है। जम्बूद्वीप और मेरुपर्वत दोनों ही हरिकान्ता, सीता, सीतोदा, नारी, नरकान्ता, सुवर्णकूला, एक एक लाख योजनके हैं । रूप्यकूला,रक्ता, रक्तोदा, इन १३ नदियोंका संग्रह किया हिमवत्प्रमुखाः षट्कुलनगाः ॥ ५ ॥ गया है । उमास्वातिने अपने 'गंगासिंधु आदि सूत्र 'हिमवान्को मदि लेकर षट् कुबाचन हैं।' नं० २०1 में इन सबका नामोल्लेख-पूर्वक संग्रह किया यहां छहकी संख्याका निर्देश करनेसे 'प्रमुख' है। इसीसे वह सूत्र बड़ा हो गया है। शन्दके द्वारा महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी भरतादीनि वर्षाणि ॥ ९॥ शिखरी इन पांच कुलाचलोंका संग्रह किया गया है, 'भरत भादि क्षेत्र हैं।' क्योंकि आगममें हिमवान्-सहित छह पर्वतोंका वर्णन यहां 'श्रादि' शन्दसे हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, है जो जम्बूद्वीपादिकमें स्थित हैं । उमास्वातिने ११ वें हैरण्यवत और ऐरावत नामके छह क्षेत्रोंका संग्रह किया सूत्रमें उन सबका नाम-सहित संग्रह किया है। गया है । षट् कुलाचलोंसे विभाजित होनेके कारण जम्बू तेषु पद्मादयो हदाः॥६॥ दीपके क्षेत्रोंकी संख्या सात होती है। यह संत्र और 'उन कुणाचलों पर 'पद्म' मादि वह हैं।' उमास्वातिका १० वाँ ('भरतहैमवत हरिविदेहरम्वकोर यहां 'आदि' शन्दसे महापद्म, तिगिंछ, केसरी एयवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि') सूत्र एक ही आशयके हैं। महापण्डरीक और पुण्डरीक नामके पांच द्रहोंका संग्रह . त्रिविधा भोगभूमयः ॥१०॥ किया गया है, जो शेष महाहिमवान् श्रादि कुलाचलों भोग भूमियां तीन प्रकारकी होती है।' पर स्थित है । और जिनका उमास्वातिने अपने १४ वे यहाँ जघन्य, मध्यम और उत्तम ऐसे तीन प्रकार 'पद्ममहापद्म' आदि सूत्रमें उल्लेख किया है। की भोगभूमियोंका निर्देश है। हैमवत-हैरण्यवत क्षेत्रों तन्मध्ये श्यादयो देव्यः ॥७॥ में जघन्य भोगभूमि, हरि-रम्यकक्षेत्रोंमें मध्यमभोगभूमि 'उन द्रहों के मध्यमें श्री आदि देवियां रहती हैं।' और विदेहक्षेत्र स्थित देवकुरु-उत्तरकुरुमें उत्तमकर्म यहां 'आदि' शब्दसे आगम-वर्णित ही, धति, भूमिकी व्यवस्था है। उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमें यद्यपि कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी नामकी पांच देवियोंका संग्रह इस प्रकारका कोई स्वतन्त्र सूत्र नहीं है परन्तु उसके किया गया है, जिन्हें उमास्वातिने अपने १६ वें सत्रमें 'एकद्वित्रिपल्योपम' आदि सूत्र नं० १६ और 'तयोत्तसः'. द्रह स्थित कमलोंमें निवास करने वाली बतलाया है। नामके सूत्र नं० २०७ में यह सब आशय संनिहित है। तेभ्योस गंगादयश्चतुर्दशमहानद्यः ॥ ८॥ भरतैरावतेषु षद्कालाः ॥११॥ 'उन (बहों) से गंगादिक १४ महा नदियां निक, भरत और ऐरावत नामके क्षेत्रोंमें छह काल, वर्तते. लती हैं। यहां १४ की संख्याके निर्देशके साथ 'श्रादि' - श्वेताम्बरीय सूत्रपाठमें यह सूत्र ही नहीं है।'' * श्वेताम्बरीय सूत्रपाठमें ये दोनों ही सूत्र नहीं है। तस्माद। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ . अनेकान्त [चैत्र, वीर निर्वाण सं०२४६६ इस सूत्रका प्रायः वही श्राशय है जो उमास्वातिके स्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमें नहीं है । 'भरतैरावतयोवृतिहासौषट्समयाभ्यामुत्सर्पिश्यवसर्पि- मनुष्यतिरश्चामुकृष्ट-जघन्यायुषी त्रिपल्योपमातणीभ्याम्' इस सूत्र नं० २७ का है। मुहूः ॥१८॥ विदेहेषु सन्ततश्चतुर्थः ॥१२॥ 'मनुष्य और तिर्यचोंकी उस्कृष्ट प्रायु तीन पल्यकी 'विदेहक्षेत्रों में सदा चौथा काब वर्तता है। और जघन्य आयु अन्तर्मुहुर्तकी होती है। इस आशयका कोई सूत्र उमास्त्राति के तत्त्वार्थसूत्र उमास्वातिके "नृस्थितिपरापरे त्रिपल्योपमान्तमें नहीं है। सर्वार्थसिद्धिकारने 'विदेहेषु संख्येयकालाः' मुहूर्ते" और "तिर्यग्बोनिजानां च” इन दो सूत्रों (३८, सूत्र की व्याख्या करते हुए 'तत्र कालः सुषमदुःषमा- ३६) में जो बात कही गई है वही यहां इस एक सूत्रमें न्तोपमः सदाऽवस्थितः इस वाक्यके द्वारा वहाँ सदा वर्णित है-अक्षर भी अधिक नहीं हैं । चतुर्थ कालके होनेको सूचित किया है । इति श्रीवृहत्प्रभाचन्द्रविरचिते तत्त्वार्थसूत्रे आर्या म्लेच्छाश्च नरः ॥१३॥ तृतीयोध्यायः ॥३॥ 'मनुष्य मार्य और म्लेच्छ होते हैं । 'इस प्रकार श्रीवृहत्प्रमाचंद्र-विरचित तत्वार्थसूत्र में . यह सूत्र और उमास्वातिका 'भार्या म्लेच्छाश्च' 'तीसरा अध्याय समाप्त हुआ। सूत्र (नं० ३६) एक ही आशयक हैं । इसमें 'नरः' पद 'न' शब्दका प्रथमाका बहुवचनान्तपद है, जो यहाँ चौथा अध्याय अधिक नहीं, किन्तु कथन-क्रमको देखते हुए श्रावश्यक जान पड़ता है। दशाष्टपंचमभेदभावन-व्यन्तर-ज्योतिष्काः ॥१॥ त्रिषष्ठि 'शलाकापुरुषाः ॥१४॥ 'भवनवासियों, न्यन्तरों और ज्योतिषियोंके क्रमशः एकादशरुद्राः ॥१५॥ दश, पाठ और पाँच भेद होते हैं। नवनारदाः ॥१६॥ भबनवासी श्रादि देवोंकी यह भेद-गणना उमाचतुर्विशति कामदेवाः ॥१७॥ 'वेसठ शनाका पुरुष होते हैं।' स्वातिके "दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः कल्पोपपक्षपर्यताः" सूत्र (नं० ३) में पाई जाती है । 'ग्यारह रुद्र होते हैं।' , 'नव नारद होते हैं। वैमानिका द्विविधाः 'कल्पजकल्पातीतभेदात् ॥२॥ 'चौबीस कामदेव होते हैं। 'वैमानिक ( देव ) कल्पन और कल्पातीतके भेदसे इन चारों सूत्रोंके आशयका का कोई भी सूत्र उमा- दो प्रकारके होते हैं। इस सूत्र विषयके लिये उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्र में वेताम्बरीय सूत्रपाठमें वह सूत्र भी नहीं है। - यह सूत्र भी श्वेताम्बरीय सूत्र पाठमें नहीं है। * मुहूतौ ।। - सनाका। १ धा। २ता Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ६] प्रभाचन्द्रका तत्वार्थसूत्र ४०१ 'वैमानिकाः' और 'कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च' ऐसे दो उमास्वातिने 'दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम्' इत्यादि सूत्र पाये जाते हैं । अनेक सूत्रोंमें इसी आशयको वर्णित किया है। इस सौधर्मादयः षोडशकल्पाः ॥३॥ सूत्रका 'सामान्यतया' पद खास तौरसे ध्यान देने योग्य 'सौधर्म श्रादि सोलह कल्प हैं।' है, और उससे विशेषावस्थामें किसी अपवादके होनेकी इस सूत्रमें कल्पोंकी संख्या १६ निर्दिष्ट करनेसे भी सूचना मिलती है। 'श्रादि' शब्दके द्वारा ईशान आदि उन १५ स्वर्गोंका इति श्रीवृहत्प्रभाचंद्रविरचिते तत्त्वार्थसूत्रे संग्रह किया गया है जिनके नाम उमास्वाति के दिगम्बर चतुर्थोध्यायः ॥४॥ पाठानुसार १६ वे सूत्रमें दिये हैं। 'इस प्रकार श्री वृहप्रभाचंद्रविरचित तत्वार्थसूत्र में ब्रह्मालयाः लौकांतिकाः ॥४॥ चौथा अध्याय पूर्ण हुआ।' 'लोकान्तिक (देव) ब्रह्मकल्पके निवासी होते हैं।' पंचवाँ अध्याय यह सूत्र और उमास्वातिका 'ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकोः' सूत्र प्रायः एक ही है । पंचास्तिकायाः॥१॥ प्रैवेयकाद्या अकल्पाः ॥५॥ 'पाँच अस्तिकाय हैं।' ... 'वयेक आदि प्रकल्प हैं।' यहाँ अस्ति कायके लिये पाँचकी संख्याका निर्देश यहाँ 'श्रादि' शब्दसे विजय, वैजयत्त, जयन्त, अ- करनेसे श्रागमकथित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और पराजित और सर्वार्थसिद्धि नामके उन आगमोदित वि- आकाश ऐसे पांच द्रव्योंका संग्रह किया गया है। इनमानोंका संग्रह किया गया है जिनका उमास्वातिके भी का अस्तित्व और बहुप्रदेशत्व गुणोंके कारण 'अस्तिउक्त १६ वे सूत्र में उल्लेख है । उमास्वातिने भी 'प्राग्गै- काय' संज्ञा है उमास्वातिने इनका संग्रह 'अजीवकायावेयकेभ्यः कल्पाः' इस सूत्रके द्वारा इन्हें 'अकल्प' सूचित धर्माधर्माकाशपुद्गलाः' और 'जीवाश्च' इन सूत्रों किया है। (नं० १, ३) में किया है। ___सामान्यतो देवनारकाणामुत्कृष्टेतरस्थितिस्त्रय नित्यावस्थिताः ॥२॥ स्त्रिंशत्सागराऽयुताब्दाः ॥६॥ ___(पांचों अस्तिकाय) नित्य हैं और अवस्थित हैं।' ... 'सामान्यतया देवनारकोंकी उत्कृष्ट स्थिति ३३ ये पाँचों द्रव्य अपने सामान्य-विशेषरूपको कभी सागर और जघन्य स्थिति १० हजार वर्षकी है।' छोड़ते नहीं, इसलिये नित्य हैं और अस्तिकायरूपसे लो। अपनी पाँचकी संख्याका भी कभी त्याग नहीं करते__सागरप्रयुताब्दाः, यह पाठ इसलिये ठीक नहीं चार या छह श्रादि रूप नहीं होते-इसलिये अवस्थित है कि 'प्रयुत' शब्द १० लाखका वाचक होता है. हैं । उमास्वातिका 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' सूत्र इस उतनी जघन्य स्थितिका होना सिद्धान्तके विरुद्ध सूत्रके साथ मिलता जुलता है। 'अयुत' का अर्थ १० हजार होता है, इसलिये उसीका रूपिणः पुद्गलाः ॥३॥ प्रयोग ठीक जान पड़ता है। 'पुद्गल रूपी होते हैं। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६६ पंचास्तिकायरूप द्रव्योंमेंसे पुद्गलोंको रूपी बत- 'द्रव्य सहभावि गुणों तथा क्रमभावि-पर्यायों वाला लानेका फलितार्थ यह होता है कि जीव, धर्म, अधर्म, होता है।' और आकाश, ये चार द्रव्य अरूपी हैं-स्पर्श, रस,गंध, यह सूत्र उमास्वातिके 'गुणपर्ययवद्व्यं सूत्रसे कुछ और वर्णसे रहित अमूर्तिक हैं । यह सूत्र और उमा- विशेषताको लिये हुए है। इसमें गुणका स्वरूप सहभावी स्वातिका चौथा सत्र अक्षरसे एक ही हैं। और पर्यायका क्रमभावीभी बतला दिया है । । धर्मादेरक्रियत्वं ॥४॥ कालश्च ॥६॥ 'धर्म प्रादिके प्रक्रियत्व है। __'काल भी द्रव्य है। यहाँ 'श्रादि' शब्दसे अधर्म और श्राकाशका संग्रह यह सूत्र और उमास्वातिका ३६ वाँ सूत्र अक्षरसे किया गया है, क्योंकि पंचास्तिकायमें धर्म द्रव्यंके बाद एक हैं। ये ही पाते हैं। ये तीनों द्रव्य क्रियाहीन हैं। जब ये अनंतसमयश्च ॥१०॥ क्रियाहीन हैं तब शेष जीव और पुद्गल द्रव्यक्रिया- ( कालद्रव्य ) अनन्त समय ( पर्याय ) वाल। वान् हैं, यह सूत्र-सामर्थ्यसे स्वयं अभिव्यक्त हो जाता है।' . है । उमास्वाति के 'निष्क्रियाणि च' सूत्रका और इसका यह सत्र उमास्वाति के 'सोऽनन्तसमयः'सूत्र के साथ एक ही प्राशय है। बहुत मिलता जुलता है और एक ही आशयको लिये . जीर्वादेर्लोकाकाशेऽवगाहः ॥५॥ . हुए है। ___'जीवादिकका लोकाकाशमें अवगाह है।' __गुणानामगुणत्वं ॥११॥ ___ यहाँ 'श्रादि' शब्दसे पुद्गल, धर्म, और अधर्म गुणोंके गुणत्व नहीं होता।' .का संग्रह किया गया है-चारों द्रव्योंका अाधार लोका- गुण स्वयं निर्गुण होते हैं । गुणोंमें भी यदि अन्य काश है । आकाश स्वप्रतिष्ठित-अपने ही आधार पर गुणोंकी कल्पना की जाय तो वे गुणी, गुणवान् एवं स्थित है इसलिये उसका अन्य आधार नहीं है। यह द्रव्य हो जाते हैं, फिर द्रव्य और गुणमें कोई विशेषता सत्र और उमास्वतिका १२ वाँ 'लोकाकाशेऽवाग्रहः' नहीं रहती और अनवस्था भी आती है । यह सत्र उमासूत्र प्रायः एक ही हैं। स्वाति के 'द्रव्याश्रयाः निर्गुणा गुणा:' इस सूत्र (नं. सत्त्वं द्रव्यलक्षणं ॥६॥ ४१, श्वे० ४० ) के समकक्ष है। 'द्रव्याश्रयाः' पदका श्राशय इससे पर्व ८ वें सत्र में 'सहभावी' विशेषण के उत्पादादियुक्त सत् ॥७॥ द्वारा व्यक्त कर किया गया है। 'द्रव्यका लक्षण सत्व ( सत्काभाव ) है।' । . इति श्रीवृहत्प्रभाचंद्रविरचिते तत्त्वार्थसूत्रे 'उत्पाद आदि ( व्यय, धौव्य ) से जो युक्त है वह . पंच मोध्यायः ॥५।। सत् है।' ____ इस प्रकार श्री वृहत्प्रभाचन्द्र-विरचित तत्वार्थसूत्र में ..ये सत्र उमास्वातिके 'सद्व्यलक्षणं' और 'उत्पाद- पाँचवाँ अध्याय समाप्त हुआ।' व्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्' इन सूत्रोंके साथ पूर्ण सामंजस्य (आगामी किरणमें समाप्त) रखते हैं और एक ही आशयको लिये हुए हैं । सहक्रमभाविगुणपर्ययवद्र्व्यं ॥८॥ * श्वेताम्बरीय सूत्रपाठमें इसके अनन्तर 'इत्येके' जुड़ा हुआ है और इसे ३८ नम्बर पर दिया है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-सुख इकी इच्छाये है जिन्हें कुछ स पृथ्वी मंडल पर कुछ ऐसी वस्तुयें और मन जानने पर - [ श्रीमद् रायचन्द्रजी ] । जब भी कहा नहीं जा सकता । फिर भी ये वस्तुयें कुछ संपूर्ण शाश्वत अथवा अनंत रहस्यपूर्ण नहीं है ऐसी वस्तुका वर्णन नहीं हो सकता तो फिर अनंत सुखमंय मोक्षकी तो उपमा कहाँसे मिल सकती है ? भगवान् से गौतमस्वामीने मोक्ष के अनंतसुख के विषय में प्रश्न किया तो भगवान्ने उत्तर में कहा - गौतम ! इस अनंत सुखको जानता हूँ परन्तु जिससे उसकी समता दी जा सके, ऐसी यहाँ कोई उपमा नहीं ।. जगत् में इस सुखके तुल्य कोई भी वस्तु अथवा सुख नहीं ऐसा कहकर उन्होंने निम्नरूपसे एक भीलका दृष्टान्त दिया था । किसी जंगल में एक भोलाभाला भील अपने बाल बच्चों सहित रहता था । शहर वगैरहकी समृद्धिकी ● उपाधिका उसे लेश भर भी भान न था । एक दिन कोई राजा श्वक्रीड़ाके लिये फिरता फिरता वहाँ ग्रा निकला । उसे बहुत प्यास लगी थी । राजाने इशारेसे भील से पानी माँगा । भीलने पानी दिया। शीतल जल पीकर राजा संतुष्ट हुआ । अपनेको भीलकी तरफ़ से मिले हुए अमूल्य जल-दानका बदला चुकानेके लिये भीलको समझाकर राजाने उसे साथ लिया । नगर में आनेके पश्चात् राजाने भीलको उसकी ज़िन्दगी में न देखी हुई वस्तुनों में रक्खा । सुन्दर महल, पासमें अनेक अनुचर, मनोहर छत्र पलंग, स्वादिष्ट भोजन, मंद मंद पवन और सुगन्धी विलेपन से उसे श्रानन्द श्रानन्द कर . दिया | वह विविध प्रकारके हीरा, मणिक, मौक्तिक, मणिरत्न और रंग विरंगी अमूल्य चीज़ें निरन्तर उस भील को देखने के लिये भेजा करता था, उसे बाग़-बगीचों में घूमने फिरनेके लिये भेजा करता था । इस तरह राजा उसे सुख दिया करता था। एक रातको जब सब सोये हुए थे, उस समय भीलको अपने बाल-बच्चोंकी याद आई, इसलिये वह वहाँसे कुछ लिये करे बिना एकाएक निकल पड़ा, और जाकर अपने कुटुम्बियोंसे मिला । उन सबने मिलकर पूछा कि तू कहाँ था ? भीलने कहा, बहुत सुखमें। वहाँ मैंने बहुत प्रशंसा करने लायक वस्तुएँ देखीं। कुटुम्बी - परन्तु वे कैसी थीं, यह तो हमें कह | भील - क्या कहूँ, यहाँ वैसी एक भी वस्तु नहीं । कुटुम्बी - यह कैसे हो सकता है ? ये शंख, सीप, कौड़े कैसे सुन्दर पड़े हैं ! क्या वहाँ कोई ऐसी देखने लायक वस्तु थी ? भील - नहीं भाई, ऐसी चीज तो यहाँ एक भी नहीं । उनके सौवें अथवा हज़ारखें भाग तककी भी मनोहर चीज़ यहाँ कोई नहीं । कुटुम्बी - तो तू चुपचाप बैठा रह । तुझे भ्रमणा हुई है। भला इससे अच्छा क्या होगा ? कर गौतम ! जैसे यह भी राज- वैभव के सुख भोगआया था, और उन्हें जानता भी था, फिर भी उपमाके योग्य वस्तु न मिलने से वह कुछ नहीं कह Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ अनेकान्त [ चैत्र, वीर-निर्वाण २०२४६६ सकता था, इसी तरह अनुपमेय मोक्षको, सच्चिदानन्द कुछ जान अथवा देख नहीं सकते; और यदि कुछ स्वरूपमय निर्विकारी मोक्षके सुखके असंख्यातवें भागको जानने में श्राता भी है, तो वह केवल मिथ्या स्वपनोभी योग्य उपमाके न मिलनेसे मैं तुझे कह नहीं पाधि पाती है। जिसका कुछ असर हो ऐसी स्वप्न सकता। रहित निद्रा जिसमें सूक्ष्म स्थूल सब कुछ जान और मोक्षके स्वरूपमें शंका करनेवाले तो कुतर्कवादी देख सकते हों, और निरुपाधिसे शान्ति नींद ली जा हैं । इनको क्षणिक सुखके विचारके कारण सत्सुखका सकती हो, तो भी कोई उसका वर्णन कैसे कर सकता विचार कहाँसे श्रा सकता है ? कोई अात्मिक ज्ञान हीन है, और कोई इसकी उपमा भी क्या दे ? यह तो स्थूल ऐसा भी कहते है कि संसारसे कोई विशेष सुखका दृष्टान्त है, परन्तु बालविवेकी इसके ऊपरसे कुछ विचार साधन मोक्षमें नहीं रहता इसलिये इसमें अनन्त अव्या- कर सकें इसलिये यह कहा है। बाध सुख कह दिया है, इनका यह कथन विवेकयुक्त भीलका दृष्टान्त समझाने के लिये भाषा-भेदके फेर नहीं। निद्रा प्रत्येक मानवीको प्रिय है, परन्तु उसमें वे फारसे तुम्हें कहा है। वीर-श्रद्धाञ्जलि [लेo-श्रीरघुवीरशरण अग्रवाल, एम.ए. 'घनश्याम'] लिच्छिवी वंशके रत्न ! अमर है कीति तुम्हारी। भारत-नभमें चमक रही है ज्योति तुम्हारी ॥ धर्म-कर्म-उद्धार हेतु अवतरित हुए थे। धर्म अहिंसा प्रसर-हेतु सब चरित किये थे॥ (२) जित-इन्द्रिय थे, महावीर ! सच्चे व्रतधारी । जीवोंके कल्याण-हेतु थी देह तुम्हारी ॥ राज सुखोंको छोड़, धर्मकी ध्वजा उठाई। धर्ममयी भारत सुभूमि निज हाथ बनाई । (५) वह ही सच्चा वीर, इन्द्रियाँ जीत सके जो। परम इष्टसे इष्ट वस्तुको त्याग सके जो ।। धन, दारा श्री पुत्र सभी का मोह तजे जो। सत्य-प्रेमसे युक्त हुआ निज-श्रात्म भजे जो ॥ यदपि जन्म को वर्ष अनेकों बीत गये हैं। फिर भी अद्भुत कार्य तुम्हारे दीख रहे हैं। धन्य त्याग है राज-सुखों का यश-वैभव का। महा पुरुष ! था तुम्हें ध्यान नित निज गौरव का। आत्म-सदृश हाँ, सभी जीव तुमने बतलाये। बलि-वधयुत सब यज्ञ पापकी खान जताये ॥ हिसाका कर नाश, दयाके भाव बढ़ाये । परउपकृतिके काम धर्मके. रूप गिनाये ॥ करो नित्य कल्याण सभी विधि भक्तजनों का । भू-तल पर हो चहूँ ओर विस्तार गुणों का ॥ श्रद्धाञ्जलि यह प्रेमपूर्ण अर्पित करता हूँ। प्रभुवरसे बहुबार विनय मनसे करता हूँ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत पंचसंग्रहका रचना-काल [ले०-प्रो० हीरालाल जैन एम. ए.] पाचीन जैन साहित्यका बहु भाग अभी भी प्रमाणके अभी इस विषयमें कुछ भी नहीं कहा जा अंधकारमें है। हर्षकी बात है कि अब सकता है, तो भी इससे इतना तो ध्वनित है कि धीरे धीरे अनेक प्राचीन ग्रंथ प्रकाशमें आ रहे हैं। पंचसंग्रहकी रचना कुन्दकुन्दसे पहिले या कुछ अभी अनेकान्त वर्ष ३ कि० ३ के पृ० २५६ पर पं० थोड़े समय बाद ही हुई होगी”। पंचसंग्रहकी एक परमानन्दजी शास्त्रीने अब तक अज्ञात एक 'अति गाथा सर्वार्थसिद्धि वृत्तिमें भी पाई जाती है जिस प्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह' का परिचय प्रकाशित परसे लेखकके मतसे "स्पष्ट है कि पंचसंग्रह पूज्यकिया है । इसकी जो प्रति लेखकको उपलब्ध हुई पादसे पहिलेका बना हुआ है"। वह सं० १५२७ में टवक नगरमें माघ बदी ३ पंचसंग्रहमें तीन गाथाएँ ऐसी भी हैं जो जयगुरुवारको लिखी गई थी और उसकी पत्र संख्या धवलाके मूलाधार गुणधर आचार्य कृत कषाय ६२ है । ग्रन्थमें प्रशस्ति आदि कुछ नहीं है अतः प्राभृतमें भी पाई जाती हैं किन्तु यहाँ लेखकने यह उसपरसे उसके कर्ता व समयका कोई ज्ञान नहीं अनुमान किया है कि " उक्त तीनों गाथाएँ कषाय होता। किन्तु इस ग्रंथमें बहुत सी ऐसी गाथाएँ प्राभृतकी ही हैं और उसी परसे पंचसंग्रहमें उठापाई गई हैं जो धवलामें भी उद्धत पाई जाती हैं। कर रक्खी गई हैं।" इसपरसे उक्त परिचयके लेखकने यह निर्णय हमारे सामने उपर्युक्त पं० परमानन्दजीके किया है कि "श्राचार्य वीरसेनके सामने 'पंच लेखके अतिरिक्त पंचसंग्रहको प्रति आदि कोई संग्रह' ज़रूर था। इसीसे उन्होंने उसकी उक्त गा- सामग्री ऐसी नहीं है जिस परसे हम उक्त ग्रंथके थाओंको अपने ग्रन्थोंमें उद्धृत किया है । आचार्य निर्माण-कालका कोई अनुमान लगा सकें। किन्तु वीरसेनने अपनी धवला टीका शक सं० ७३८ उपर्युक्त प्रमाणों परसे लेखकने जो उस ग्रंथको ( विक्रम सं० ८७३ ) में पूर्ण की है। अतः यह वीरसेन व पूज्यपाद देवनन्दीसे पूर्व कालीन रचना निश्चित है कि पंचसंग्रह इससे पहिलेका बना सिद्ध की है वह युक्ति संगत नहीं जान पड़ता, हुआ है।" यही नहीं, पंचसंग्रहमें एक गाथा ऐसी क्योंकि यह अनिवार्य नहीं कि वीरसेन व पूज्यभी है जो आचार्य कुन्दकुन्दके 'चरित्र प्राभृत' में पादने इसी संग्रह परसे वे गाथाएँ उद्धृत की हों। भी उपलब्ध होती है । इससे लेखकने यह निष्कर्ष जैसा · कुन्दकुन्दकी रचनाओं में उसकी एक निकाला है कि 'बहुत सम्भव है आचार्य कुन्द- गाथा पाये जानेसे लेखकने केवल यह अनुमान कुन्दने पंच संग्रहसे उद्धृत की हो और यह भी किया है कि दोनोंमेंसे कोई भी आगे पीछे को हो सम्भव है कि चरित्र प्राभूतसे पंचसंग्रह कारने सकती है, वैसा वीरसेन व पूज्यपादके सम्बन्धमें उठाकर रक्खी हो । परन्तु बिना किसी विशेष भी कहा जा सकता है । पंचसंग्रहको कुन्दकुन्दसे Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० अनेकान्त पोछेको मानने पर उसे कुछ बादका ही क्यों माना जाय सो भी समझ में नहीं आता । चारित्र - पाहुड़से उद्धरण तो तबसे लगाकर अबतक कभी भी किया जा सकता हैं । यदि कहा जाय कि वीरसेन व पूज्यपादने अपनी टीकाओं में वे गाथाएँ स्पष्टतः उद्धृत की हैं, किन्तु पंचसंग्रह में वे बिना ऐसे किसी संकेतके आई हैं इस कारण वे पंचसंग्रहकारकी मूल रचना ही समझी जानी चाहियें तो यह भी युक्ति संगत नहीं होगा । गोम्मटसार में भी वे सैकड़ों गाथाएँ बिना किसी उद्धरणकी सूचना के आई हैं जो धवला में 'उक्तं च' रूपसे पाई जाती हैं और यदि हमें गोम्मटसार कर्ताके समयका ज्ञान नहीं होता तो संभवतः उक्त तर्क सरणिसे उसके विषयमें भी यही कहा जा सकता था कि उसी परसे घवलाकार ने उन्हें उद्धृत किया है। अतः गोम्मट पहिलेकी रचना है । किन्तु हम प्रामाणिकता से जानते हैं कि गोम्मटसार में ही वे धवलासे संग्रह की गई हैं। इसी प्रकार यह असम्भव नहीं 1 [ चैत्र, वीर- निर्वाण सं० २४६६ है कि पंचसंग्रह कारने ही उन्हें गुणधर आचार्य. कुन्दकुन्द, पूज्यपाद वीरसेन आदि आचार्योंकी रचना पर से ही संग्रह किया हो । यह भी हो सकता पूज्यपाद वीरसेन तथा पंचसंग्रहकारने उन्हें किसी अन्य ही ग्रंथ से उद्धृत किया हो । ऐसी अवस्था में अभी केवल समान गाथाओं के पाये जाने से पंचसंग्रहको वीरसेन व पूज्यपाद से निश्चयतः पूर्ववर्ती कदापि नहीं कह सकते । संग्रहकार के समय-निर्णय के लिये कोई अन्य ही प्रबल व स्वतंत्र प्रमाणों की आवश्यकता है। विशेषकर जब कि ग्रंथकार स्वयं ही अपनी रचनाको 'संग्रह' कह रहे हैं तब सम्भव तो यही जान पड़ता है कि वह बहुतायत मे अन्य ग्रंथों परसे संग्रह की गई है । ये 'सार' या 'संग्रह' ग्रंथ प्रायः इसी प्रकार तैयार होते हैं। उनमें कर्ताकी निजी पूंजी बहुत कम हुआ करती है । आश्चर्य नहीं जो उक्त पंचसंग्रह धवला से पीछेकी रचना हो । उसका सिद्धान्त-ग्रंथसे कुछ सम्बन्ध होने के कारण गोम्मटसारके समकालीन होनेकी सम्भावना की जा सकती है । प्रश्न [ श्री 'रत्नेश' विशारद ] शून्य विश्व के अन्तस्तल को, ज्योति-युक्त करता है कौन ? - जीवन - नर्जर-सा प्राणदान देता है कौन होवे, ? अन्धकारमय हृदय-पटल में, वह अनन्त बल लाता कौन ? इस अस्थिर मय क्रूर देह की, चंचलता को हरता कौन ? Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य सम्मेलनकी परिक्षाओंमें जैन-दर्शन [ले० पं० रतनलाल संघवी, न्ययातीर्थ - विशारद ] ++£0103++ शि -ताप्रेमी पाठकोंको मालूम है कि हिन्दी- पत्र में जैनदर्शनका समावेश किया जाय । साहित्य सम्मेलन प्रयागकी परीक्षाओं के वैकल्पिक विषयों में जैन दर्शनको भी स्थान दिलाने के लिये गत दो वर्षोंसे मैं बराबर प्रयत्न करता था रहा हूँ । हर्षका विषय है कि परीक्षा समितिने अब जैनदर्शनको भी स्थान देना स्वीकार कर लिया है । इस सम्बन्ध में थाये हुए पत्रकी प्रतिलिपि इस प्रकार है। : -: प्रिय महोदय ! जैन-दर्शनको प्रथम तथा मध्यमा परीक्षाओं के वैकल्पिक विषयों में स्थान देनेके लिये हमने आपका पत्र परीक्षा समिति के सामने विचारार्थ उपस्थित किया था । समितिने इस संबंध में निम्नलिखित निश्चय किया (१) प्रथम परीक्षा के लिये एक ऐसी पुस्तक तैयार की जाय जिसमें सार्वभौमिक धर्म अच्छे रूपसे छोटे बच्चों के सामने रखा जाय और जिसमें भारत में प्रचलित भिन्न भिन्न धर्मोंके विशेष प्राचार्योंके वाक्यांश उद्धृत हों । पुस्तक के प्रकाशन के संबंध में यह प्रस्ताव साहित्य समिति के पास भेजा जाय । (२) मध्यमा परीक्षा में इस विषयकी पुस्तकोंको स्थान देनेके संबंध में श्री संघवीजीसे पूछा जाय कि वे कौनसी पुस्तक निर्धारित करना चाहते हैं। पुस्तक ऐसी होनी चाहिये जिसमें विवादास्पद विषय न हों । (३) उत्तमा परीक्षा के दर्शन विषयक चौथे प्रश्न इसके लिये पुस्तकों की सूची मेरे पास भेजिये । भवदीयदयाशंकर दुबे, परीक्षा मंत्री । समितिके उपयुक्त प्रस्तावोंसे यही ज्ञात होता है कि प्रथमा परीक्षा में तो जैन दर्शन नहीं रक्खा जायगा । मध्यमाके वैकल्पिक विषयों में जैन-दर्शन रह सकेगा । इसी प्रकार उत्तमामें भी दर्शन विषयके चौथे प्रश्नपत्र में जैन दर्शनको स्थान मिल सकेगा । प्रस्तावानुसार मैंने जो पाठ्यक्रम निर्धारित किया है । उसकी प्रतिलिपि इसी निवेदन के अन्त में दे रहा हूँ । मैंने इस कोर्सकी प्रतिलिपि पं० सुखलालजी, श्री जैनेन्द्रकुमारजी (दिल्ली), पं० नाथूरामजी प्रेमी, पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल आदि अनेक विद्वानोंकी सेवा में भी भेजी है। अब सभी शिक्षा-प्रेमी सज्जनों एवं अन्य पाठक महानुभावों की सेवा में इसे समाचार पत्रों द्वारा पेश कर रहा हूँ। श्राशा है विद्वजन इस पर अपनी बहुमूल्य सम्मति एवं संशोधन भेजने की कृपा करेंगे । जिससे कि मैं इसे अंतिम रूप देकर प्रामाणिक रूपले सम्मेलन के अधिकारियोंको भेज सकूँ । रजिस्ट्रार परीक्षा बिभागके पत्र नं० १४०२२ द्वारा ज्ञात हुआ है कि जैन दर्शनका समावेश संवत् ११३८ से हो सकेगा । इसी प्रकार पत्र नं० १३३०० द्वारा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ अनेकान्त [ चैत्र, वीर- निर्वाण सं० २४६६ जानने योग्य खास खास श्राचार्योंके जीवन चरित्रोंका भी इसमें समावेश है । एवं तीनों संप्रदायोंके समाचार पत्रों का पठन भी श्रावश्यक माना गया है, इससे परस्परकी स्थिति एवं भावनाओं का ज्ञान भी छात्रोंको हो सकेगा । आशा है कि विद्वान् महानुभाव इस दृष्टिकोण का विचार करते हुए, अपना संशोधन और अपनी बहु मूल्य सम्मति निम्न पते पर १५ मई तक भेजनेकी कृपा करेंगे, जिससे कि मई के अंतिम सप्ताह तक सम्मेलन कार्यालय में पाठ्यक्रमकी अन्तिम रूपरेखा भेजी जा सके । सूचित किया गया है कि पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों की तीन तीन प्रतियाँ भी सम्मेलन-कार्यालय में भिजवायेगा | क्योंकि इन पुस्तकोंकी जाँच पड़ताल परीक्षा-समिति करेगी । बिना पुस्तकोंके देखे परीक्षा - समिति पाठ्यक्रम में स्थान नहीं दे सकेगी । श्रतः जिन प्रकाशकोंकी पुस्तकें पाठ्यक्रम में निर्धारित हों उन्हें सूचना पाकर उनकी तीन तीन प्रतियाँ शीघ्र भेजने की कृपा करनी चाहिये । पुस्तकें मध्यमा और दर्शन रत्न चतुर्थ प्रश्न पत्र की भेजना होंगी । 'पाठ्यक्रम सरल और महत्वपूर्ण हो,' यही एक दृष्टिकोण रक्खा गया है। क्योंकि मध्यमामें जैनदर्शन के साथ अन्य दो विषय और भी रहेंगे । श्रतः सरल होने पर ही जैन छात्र एवं श्रन्य जैनेतर छात्र इस ओर आकर्षित हो सकेंगे । अन्यथा जटिल होनेकी दशामें यह प्रयास और ध्येय व्यर्थ ही सिद्ध होगा । यह स्पष्ट ही है कि यदि जैन दर्शनका पाठ्यक्रम जटिल होगा तो छात्र इसे न चुन कर किसी अन्य वैकल्पिक विषय का चुनाव कर लेंगे । इस लिये सरलता किन्तु महत्ताका ख्याल रख करके ही यह पाठ्यक्रम बनाया गया है । इसी प्रकार इसमें श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों पक्ष के ग्रंथोंको स्थान दिया गया है, जिससे कि यह एक पक्षीय न होकर सार्वदेशिक जैन दर्शनका प्रति निधित्व करता है । इससे परस्पर में सांप्रदायिक भावarah स्थान पर एक ही जैनत्वकी भावनाओंका ( बैरिस्टर चम्पतरायजी कृत ) हिन्दी अनुवाद | सहायक ग्रन्थ - १ श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र छात्रों में प्रसार होगा तथा कटुताके स्थान पर मातृत्व भावना और विशालताका फैलाव होगा । इस पाठ्यक्रम में जैन दर्शन सम्मत तत्ववाद, द्रव्यवाद, गुणस्थानवाद, कर्मवाद, अहिंसावाद, रत्नत्रयवाद, प्रमाण-नयवाद, स्याद्वाद आदि आदि मूलभूत सिद्धान्तों का आवश्यक और महत्वपूर्ण विवेचन श्रागया है । पता - रतनलाल संघवी, पो० छोटी सादड़ी (मेवाड़) वाया नीमच | पाठ्यक्रम मध्यमा परीक्षा प्रथम प्रश्नपत्र पाठ्य ग्रंथ - १ कर्म-ग्रंथ १ला भाग भूमिका सहित (गाथाऐं कंठस्थ नहीं ) पं० सुखलालजी कृत श्रागरा वाला । २ जैन सिद्धान्त प्रवेशिका ( प्रथम अध्याय और प्रश्न ३७८ से ३६६ तक छोड़कर) पं० गोपालदासजी बरैया कृत । २ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ( श्री अमृतचंद्र स्वामी) हिन्दी अनुवाद - श्री नाथूरामजी प्रेमीवाला । ३ स्याद्वाद और सप्तभंगीका साधारण आवश्यक ज्ञान । अंकों का क्रम - पाठ्य ग्रंथ ७० अंक और सहायक ग्रंथ ३० अंक | Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ६ ] साहित्य सम्मेलन की परिक्षाओं में जैन-दर्शन द्वितीय प्रश्न पत्र पाठ्य ग्रंथ - १ तत्त्वार्थसूत्र हिन्दी ( पं० सुखलालजी) २- द्रव्य संग्रह - हिन्दी (नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती) अनु० पं० पन्नालालजी । सहायक ग्रंथ - १ निर्ग्रन्थ प्रवचन ( गाथाएँ कंठस्थ नहीं) मुनि श्री चौथमलजी संग्रहीत | २ - कुन्दकुन्दाचार्य, समन्तभद्र, अकलंकदेव, प्रभाचन्द्र, नेमिचन्द्र आदिका जीवन चरित्र ( संक्षिप्त ) वीर पाठावलि ( कामताप्रसादजी कृत) के आधारसे अथवा अन्य आधारसे । ३ - सिद्धसेन दिवाकर, उमास्वाति, हरिभद्र, हेमचंद्र, यशोविजय श्रादिका जीवन चरित्र ( अनेकांत वर्ष २ और ३ की फाइलों के श्राधारसे) परीक्षार्थियों को जैन समाजकी सामयिक स्थितिका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये निम्न लिखित पत्र पत्रिकाओंका श्रध्ययन करते रहना चाहियेः – १ अनेकांत (न्यू देहली) - २ जैन मित्र (सूरत) ३ जैन संदेश (आगरा ) ४ जैन (भावनगर) ५ जैन प्रकाश (बम्बई) ६ जैन युग (बम्बई) कोंका क्रमः - पाठ्यय ग्रंथ ७० अंक और सहायक ग्रंथ तथा पत्रपत्रिकाओंका अध्ययन ३० अंक उत्तम परीक्षा दर्शन - विषयक चतुर्थ प्रश्नपत्र १ " स्याद्वादमंजरी - हिन्दी - (श्री जगदीशचन्द्रजी संपादित) ४१३ २ प्रमाण मीमांसाकी हिन्दी टिप्पणियाँ (पं० सुखलालजी) ३ श्रसमीमांसा मूल (श्री समंतभद्राचार्य) ४ कलंक - ग्रंथत्रयकी प्रस्तावना । ( पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य ) ५ सूत्र कृतांग, हिन्दी ( स्थानकवासी कान्फ्रेन्स वाला) नोट - इस लेखमें जो पाठ्यक्रम दिया है वह अभी बहुत कुछ विचारणीय है- उसमें कितनी ही त्रुटियाँ जान पड़ती हैं । दिगम्बर और श्वेताम्बर सभी शिक्षा शास्त्रियों को उस पर गंभीरता के साथ विचार करना चाहिये, और अपना अपना संशोधन यदि कुछ हो तो उसे शीघ्र ही उपस्थित करना चाहिये । साथ ही पाठ्यक्रम को निर्धारित करते समय परीक्षा समितिके इस प्रस्ताव वाक्य पर खास तौर से ध्यान रखना चाहिये कि "पुस्तक ऐसी होनी चाहिये जिसमें विवादास्पदविषय न हो ।" बाकी यह अपील संयोजक महोदय की - बहुत समुचित है कि जिन प्रकाशकोंकी पुस्तकें पठनक्रममें रखनेके लिये परीक्षा समितिको भेजने की जरूरत हो उनकी तीन तीन कापियाँ वे सूचना पाते ही भेज देनेकी कृपा करें और इस तरह इस शुभ कार्यमें अपना सक्रिय सहयोग प्रदान करें । सम्पादक Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरका जीवन-मार्ग [ले.-श्री जयभगवान जैन, बी. ए. एस एस. बी. वकील] जीवनकी विकटता: है, कितना वेदनासे भरा है। उसके लिये कैसे कैसे श्राघात-प्रघात सहन करता है ! कैसी २ बाधाओं विपजीवन सुनहरी प्रभातके साथ उठता है, अरुण दाओंमेंसे गुज़रता है ! परन्तु यह सब हुछ होने पर भी "सूर्यके साथ उभरता है, उसके तेजके साथ सिद्धिका कहीं पता नहीं। यदि भाग्यवश कहीं सिद्धि खिलखिलाता है, उसकी गति के साथ दौड़ता-भागता है, हाथ भी आई तो वह कितनी दुःखदायी है ? वह प्राप्तिउसकी संध्याकी छायाके साथ लेम्बा हो जाता है और कालमें आकुलतासे अनुरञ्जित है, रक्षाकालमें चिन्तासे असके ग्रस्त होने पर निश्रेष्ठ हो सो जाता है। संयुक्त है और भोगकालमें क्षीणता और शोकसे ग्रस्त सुबह होती है शाम होती है, है। इसका आदि, मध्य और अन्त तीनों दुःख पूर्ण उम्र यों ही तमाम होती है। हैं ! यह वास्तवमें सिद्धि नहीं, यह सिद्धिका आभाससो क्या श्रम और विश्राम ही जीवन है ? काम मात्र है । इस सिद्धि में सदा अपूर्णता बसती है। यह और अर्थ ही उद्देश है ? साँझ सवेर-बाला ही लोक सब कुछ प्राप्त करने पर भी रङ्क है, रिक्त है, वाँछा ... . यदि यों ही श्रम और विश्रामका सिलसिला बना यह ज़िन्दगी दो रंगी है । इसकी सुन्दरतामें कुरूरहताः यदि यों ही काम और अर्थका रंग जमा रहता पता बसती है। इसके सुखमें दुःख रहता है। इसकी तो म्मा ही अच्छा था । जीवन और जगत कभी प्रश्नके हँसीमें रोना है। इसके लालित्यमें भयानकता है। विषय न बनते । पस्तु जीवन इतमी सीधी-साधी चीज इसकी आसक्तिमें अरूचि है। इसके भोगमें रोग है, नहीं है। माना कि इसमें मुखप्न हैं, कामनायें हैं, ए, योगमें वियोग है, विकास में झस है, बहारमें खिजाँ है, आयायें हैं, पर अत्यन्त रोचक, अत्यन्त प्रेरक है। जी यौवनमें जरा है । यहाँ हर फूल में शूल है, इतना ही चाहता है कि इनके आलोकमें सदा जीवित रहे, परन्तु नहीं यह समस्त ललाम लीला, यह समस्त उमंगभरा इन ही के साथ कैसे कैसे दुःस्वप्न है, असफलतायें हैं, जीवन, यह समस्त साँझ सकेर बाला लोक मृत्युसे 'निराशायें हैं, विषाद है ? यह कितने कटु और घिना "" व्याप्त है! . वने है। जी चाहता है कि इनके आलोकसे छुपकर जीवन के मूल प्रश्न:-- कहीं चला जाये। यह देख दिल भयसे भर आता है, अनायास कितना खेद है कि जीवनको कामना मिली पर शंकायें उठनी शुरू होती हैं। क्या यह ही लोक है जहाँ सिद्धि न मिली ! उस सिद्धि के लिये यह कितना आतुर कामना का तिरस्कार है, आशाका अनादर है, पुरुषार्थ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ६] वीरका जीवन-मार्ग की विफलता है ? क्या यह ही जीवन है जहां हजार बना है । जिन्हें सिद्ध करते करते यह इतना अभ्यस्त हो प्रयत्न करने पर भी सन्तुष्टिका लाभ नहीं, और हज़ार गया है कि वे जीवनके मार्ग, जीवनके उद्देश्य ही बन रोक थाम करने पर भी अनिष्ट अनिवार्य है? क्या यह ही गये हैं । इसीलिये यह श्राशायुक्त होते हुए भी श्राशाउद्देश हैं कि सुखकी लालसा रखते हुये दुःखी बना रहे, हन है । पुरुषार्थ होते हुए भी विफल है। सिद्धि की चाह करते हुये वाञ्छासे जकड़ा रहे, जीवन इन भूल, अज्ञान और मोहके कारण यद्यपि की भावना भाते हुये मृत्युमें मिल जाये ? क्या इसीके जीवने अपने वास्तविक जीवनको भुला दिया,उसे बन्दी लिये चाह और तृष्णा है ? क्या इसीके लिये उद्यम और बना अन्धकूपमें डाल दिया, परन्तु उसने इसे कभी नहीं पुरुषार्थ है ? क्या इसीके लिये संघर्ष और प्राणाहुति भुलाया, वह सदा इसके साथ है। वह घनाच्छादित, सूर्यके समान फूट २ कर अपना आलोक देता रहता इसपर एक छोटीसी श्रावाज़ बोल उठती है, नहीं ! है । वह इसके सुस्वप्नोंमें बस कर, इसकी आशाओंमें . यह मन-चाहा जीवन नहीं, यह तो उस जीवनकी पुकार बैठकर, इसकी भावनाओंमें भरकर इसके जीवनको है, ढूंढ है, तलाश है, उस तक पहुंचनेका उद्यम है, सुन्दर और सरस बनाता रहता है । वह अन्तगुफामें उसे पाने का प्रयोग है। इसीलिये यह जीवन असन्तुष्ट बैठकर मृदुगिरासे आश्वासन देता रहता है । 'तू यह और अशान्त बना हैं; उद्यमी और कर्मशील बना है, नहीं, तू और है, भिन्न है, तेरा उद्देश इतना मात्र नहीं, अस्थिर और गतिमान बना है। वह बहुत ऊँचा है,तेरा यह लोक नहीं,तेरा लोक दूर है, पुनः शंका श्रा डटती है। यदि ऐसा ही है तो परे है ।' जीवन अपने पुरुषार्थ में सफल क्यों नहीं होता ? यह . इस अन्तःप्रतीतिसे प्रेरित हुश्रा जीव बार बार . पुरुषार्थ करते हुये भी विफल क्यों है ? आशाहत क्यों प्राणोंकी आहूति देता है, बार २ मरता और जीता है, है ? खेद खिन्न क्यों है ? बार बार पुतलेको घड़ता है, बार बार इसे रक्तक्रान्ति इसका कारण पुरुषार्थकी कमी नहीं, बल्कि सद्- वाले मादकरससे भरता है, बार बार इसके द्वारोंसे लक्ष्य, सद्ज्ञान, सदाचारकी कमी है । जीवनका समस्त बाहिर लखाता है । परन्तु बार २ इसी नाम रूप कर्मापुरुषार्थ भूलभ्रान्तिसे ढका है, अज्ञानसे आच्छादित है, त्मक जगतको अपने सामने पाता है, जिससे यह चिरमोहसे ग्रस्त है । इसे पता नहीं कि जिस चीज़की इसमें परिचित है । बारर यह देखकर इसे विश्वास हो जाता भावना बसी है वह क्या है, कैसी है, कहाँ है । इसे है-निश्चय हो जाता है कि यही तो है जिसकी हमें पता नहीं कि उसे पानेका क्या साधन है । उसे सिद्ध चाह है, यही है जो इसका उद्देश है; इसके अतिरिक करनेका क्या मार्ग है । यह पुरुषार्थ जीवनको उस और कोई जीवन नहीं, और कोई उद्देश नहीं, और ओर नहीं ले जारहा है जिस ओर यह जाना चाहता कोई लोक नहीं । परन्तु ज्यों ही यह धारणा धारकर यह है । उस चीज़की प्राप्तिमें नहीं लगा है जिसे यह नाम रूप कर्मात्मक जीवन में प्रवेश करता है फिर वही प्राप्त करना चाहता है। यह केवल परम्परागत मार्ग- विफलता, वही निराशा, वही अपूर्णता पा उपस्थित का अनुयायी बना है, उन्हीं रूढीक पदार्थोंका साधन होती है । फिर वही भय फिर वही शंका,फिर वही मश्न, Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [चैत्र, वीर निर्वाण सं०२४६६ उठने शुरू होते हैं । क्या दुःखी जीवन ही जीवन है ? तन्द्रा और म को अपनाया, मांस-मैथुन-मदिराको क्या मरणशील जीवन जीवन है ? यदि यह नहीं ग्रहण किया । अनेक अामोद-प्रमोद, हँसी-मज़ाकके तो जीवन क्या है ? उद्देश क्या है ? फिर वही तर्क उपाय निकाले । अनेक खेल कूद और व्यसन ईजाद वितर्क, फिर वही मीमांसा दुहरानी शुरू होती हैं। किये, परन्तु दुःखने साथ न छोड़ा । ___ प्रश्न हल करनेका विफल साधनः यह देख उद्योग मार्ग पर अधिक जोर दिया। - जीवने इन प्रश्नोंको हल करनेके लिये बुद्धि-ज्ञान । अनेक उद्योग धन्धे, अनेक काम काज अनेक व्यवसाय से बहुत काम लिया, उसके पर्याप्त साधनों पर-इन्द्रिय बनाये । इनमें उपयुक्त रहना ज़रूरी माना गया, बेकार रहनेसे बेगारमें लगे रहना भला समझा गया; परन्तु और मन पर बहुत विश्वास किया, इन्हें अनेक प्रकार दुःखका अन्त न हुअा। उपयोगमें लाकर जीवन तथ्य जाननेकी कोशिश की; परन्तु इन्होंने हमेशा एक ही उत्तर दिया कि 'लौकिक इसपर मनुष्यने विचारा कि सुख दुःख काल्पनिक जीवन ही जीवन है; शरीर ही आत्मा है, भोग रस ही ही नहीं हैं। दुःख भुलाने से नहीं भुलाया जा सकता और सुख कल्पना करने से सिद्ध नहीं हो सकता। यह सुख है, धन धान्य ही सम्पदा है, नाम ही वैभव है, रूप ही सुन्दरता है; भौतिक बल ही बल है, सन्तति ही वास्तविक है, परन्तु यह अपने आधीन नहीं, बाह्य लोक के आधीन है, जगतकी प्राकृतिक शक्तियों के अाधीन अमरता है। इन्हें ही बनाये रखने, इन्हें ही सुदृढ़ बलवती करने, इन्हें ही सौम्यसुन्दर बनानेका प्रयत्न है, शक्तियों के अधिष्टाता देवी-देवताओंके अाधीन है । देवी देवता महा बलवान हैं, अजयी हैं, अपनी मर्जीके करना चाहिये । जीवनका मार्ग:प्रवृत्ति मार्ग है;प्रकृति के नियमानुसार कर्म करते हुये, भोगरस लेते हुये विचरना मालिक हैं। इनका अनुग्रह हासिल करने के लिये इन्हें ही जीवन-पथ है । और सुखदुःख ? सुखदुःख स्वयं कोई पूजा-प्रार्थना, स्तुति-वंदना, यज्ञ-होम से सन्तुष्ट करना चीज़ नहीं हैं, यह सब वाह्य जगतके श्राधीन हैं । इसीकी चाहिये । यह सोच मनुष्यने याज्ञिक मार्गको ग्रहण कल्पनामें रहते हैं, इसे दुःखदायी कल्पित करनेसे किया, परन्तु इष्ट फलकी सिद्धि न हुई । जगत ज्योंका दुःख और सुखदायी कल्पित करनेसे सुख पैदा होता त्यों अन्ध, स्वच्छन्द, विवेक हीन बना रहा। वह है । अतः दुःखदायी पहलको भुलाने और सुखदायी उपासक और निन्दकमें, अच्छे और बुरेमें कोई भेद पहलूमें मग्न रहने का अभ्यास करना चाहिये ।' न कर सका, उसका उपकार है तो सबके लिये, उसका इस बुद्धि अनुसार दुःखको भुलाने और सुखको अपकार है तो सबके लिये। अनुभव करने के लिये जीवने क्या कुछ नहीं किया । तब मनुष्य ने इन मार्गोको निरर्थक मान स्वावलअनेक पहलू बदले, अनेक मार्ग ग्रहण किये; परन्तु कुछ म्बनका आश्रय लिया। पूजा-प्रार्थनाको छोड़ जगतभी न हुआ, प्रश्न ज्योंके त्यों खड़े रहे ! शक्तियोंको बलपूर्वक अपने वश करनेका इरादा किया । शुरू शुरू में तान्त्रिक मार्गको अाजमाया। देवी जीवनके विफल मार्गः देवताओंको विजय करने के लिये अनेक मन्त्र, तन्त्र, जीवने अज्ञान मार्गका आश्रय लिया। निद्रा, यन्त्र ईजाद किये । शरीरको दृढ़ बलिष्ठ करने के लिये, Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ६] वीरका जीवन-मार्ग ऋद्धि सिद्धि प्राप्त करनेके लिये अनेक यौगिक कर्म मालूम किये । परन्तु मूल प्रश्नका हल न हुआ । इन्हें विफल जान विज्ञान मार्गको अपनाया, अनेक विद्याओं और आविष्कारोंको उत्थान मिला । प्रकृतिकी शक्तियों को निर्घातक बनाने और काम में लाने के लिये अनेक ढंग मालूम किये। नगर और ग्राम बसाये, दुर्ग और प्रासाद खड़े किये, खाई और परकोट रचे, अनेक औषधि, रसायन और उपचार प्रयोग में लाये; परन्तु रोग-शोक, जन्म-मरणका वहिष्कार न हुआ, श्रानन्दका लाभ न हुआ, सुन्दरताका आलोक न हुआ । इस कमीको पूरा करनेके लिये शिल्पकलाकी ओर ध्यान दिया, बस्तियोंको उद्यान- बाटिका, ताल बावड़ी चौक- राजपथ से सजाया, भवनों को खम्भ, तोरण, शिखर, उत्तालिकाओंसे ऊँचा किया । इन्हें फूल फुलवाड़ी, मूर्ति चित्रकारीसे सुशोभित किया । शरीरको वस्त्राभूषण, तेल फुलेल, रूपशृगारसे अलंकृत किया । इस मार मार, घसाघसमें नृत्य संगीत, नाटक-वादित्र भरकर जीवनको सरस बनाया, परन्तु जीवनकी कुरूपता, भयानकता, जड़ताका अन्त न हुत्रा । तब मनुष्यने व्यक्तिगत परिश्रमको निर्बल जान पुरुषार्थको संगठित करनेका विचार किया, अनेक संस्थायें व्यवस्थायें स्थापित हुई, अनेक संघ और समाज बने, अनेक सभ्यता और साम्राज्य उदयमें आये । कभी जाति को कभी संस्कृतिको, कभी देशको इनका आधार बनाया | परन्तु यह संगठित शक्ति भी प्रकृतिके अनिवार्य उत्पातोंका, शरीर के स्वाभाविक रोगोंका, मनकी व्यथा व्याधियोंका जन्म-मरण रूप संसारका अन्त न कर सकी । आखिर मनुष्य की दृष्टि नीति मार्ग की ओर गई । ४१७ सहयोग-सहमन्त्रणाको धर्मं बनाया । संयम-सहिष्णुता, दान- सेवा, प्रेम वात्सल्य का पाठ पढ़ा, परन्तु सुख शांति ' का राज्य स्थापित न हुआ, पाप अत्याचारका अन्त न हुश्रा, मारपीट, लूट खसोट, दलन मलनका प्रभाव न हुआ। दीन-हीन, दु:खी- दरिद्री, दलित- पतित बने हैं। रहे । ऊँच नीच, छोटे बड़ेके भाव जमे ही रहे । तब विचार उत्पन्न हुआ कि यह नीतिका मार्ग नहीं, यह नीतिका अभाव है । इसमें सत्याग्रह, साम्यता और हिंसाका अभाव है। इसका उद्देश परमार्थसिद्धि नहीं, स्वार्थ सिद्धि है । इसका रचयिता सदुज्ञान नहीं, बुद्धिचातुर्य है । इसका आधार अन्तः उद्धार नहीं, बाह्य उपयोगिता है (Utalitarianism)। इस की उत्पत्ति पूर्णतामें से नहीं हुई, यह वांछाकी सृष्टि है । इसलिये यह अपने ही संघ, जाति, सम्प्रदाय और देश में सीमित होकर रह जाती है । इससे बाहिर समस्त लोक अनीतिका क्षेत्र है । यह नीति मानव गौरवकी वस्तु नहीं, यह तो चोर डाकुओं के संघ में भी मौजूद है, क्रूर पशु पक्षियों के समूह में भी मिलती है । इस प्रकार जीवने बुद्धि द्वारा जीवन तथ्यको समकी नेकविध कोशिश की; इसके साधनोंको अनेक विध प्रयोग में लाया, इसके बतलाये हुये तथ्योंकों अनेक विध स्वीकार किया, इसके बताये हुये जगको अनेक विध टटोला, इसके सुझाये हुये मार्गों को अनेक विश्व ग्रहण किया; परन्तु वाँछाकी तृप्ति न हुई । वेदना बनी रही, पुकारती ही रही । तब कहीं निश्चित हुआ कि बुद्धि निरर्थक हैं । इसकी धारणा मिथ्या है। इसका मार्ग निष्फल है । इसका जग वांच्छित जग नहीं । यह और हैं और वह कोई और है। इसजगकी सिद्धि में सुख नहीं, इसकी श्रसिद्धि में दुःख नहीं, सुख और दुःख इस जगसे निर्पेक्ष Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ४१८ अनेकान्त . हैं। वे इसकी कल्पना पर निर्भर नहीं, इसके विधाता इष्ट जीवनका स्वरूप : . के अधीन नहीं। वे जगको, जगकी शक्तियोंको, शक्तियों जीव जीवन चाहता है, ऐसा जीवन -जो निरा श्रमृतमय है, जिसमें जन्म-मरणका नाम नहीं, जो सर्वथा स्वाधीन है, जिसे अन्य अवलम्बकी ज़रूरत नहीं जो अत्यन्त घनिष्ठ है, श्रोत प्रोत और एक है, जीवनके प्रश्न हल करनेका वास्तविक साधनः- जो तनिक भी जुदा नहीं, जो अत्यन्त निकट है, लय रूप और समाया हुआ है, जिसे ढूंढने की ज़रूरत नहीं जो अत्यन्त साक्षात, ज्योतिमान जाज्वल्यमान है, जिसे देखने जानने की ज़रा भी वेदना नहीं, जो अत्यन्त ऊंचा और महान है जिससे परे और कुछ भी नहीं, जो अत्यन्त तैजस् और स्फूर्तिमान है; जिसकी उड़ानमें काल क्षेत्र दिशा कोई भी बाधक नहीं, जो अत्यन्त सुन्दर और मधुर है, ललाम और अभिराम है, जो खुद अपनी लीलामें लय है, मस्तीमें चूर है, शोभामें निमग्न है। जो सब तरह सम्पूर्ण परिपूर्ण है जिसमें किसी चीज की वाञ्छा नहीं, रंकता और रिक्तताका भाव नहीं; जो सर्वभू है, सर्वव्यापक है, अनन्त है, सबमें है, सब उसमें हैं, पर जिसमें अपने सिवा कुछ भी नहीं । जो निर्मल, निर्दोष, परिशुद्ध है, परके मेल से सर्वथा दूर है; जो केवल वह ही वह है । के अधिष्ठातृ देवी देवताओंको विजय करके, व्यवस्थित करके, खुश करके वश नहीं किये जा सकते । सुख-दुःख . किसी और ही सिद्धि सिद्धि में बसे हैं । [ चैत्र, वीर- निर्वाण सं० २४६६ फिर वह कौनसी चीज़ है जिसकी सिद्धि में जीवन - दुःखी है और जिसकी सिद्धि से यह सुखी हो सकता है । इसके लिये वाञ्छाको ही पूछना होगा, कि - आखिर वह क्या चाहती है। उसीके लोकको टटोलना होगा, जहाँ वह रहती है । उसीकी वेदनामयी अनक्षरी मायाको सुनना होगा, जिसमें वह पुकारती है। उसीके भावनामयी अर्थको समझना होगा जिसमें वह अपनी रूप रेखा प्रगट करती है | इसके लिये बुद्धि ज्ञान सर्वथा अपर्याप्त है। असमर्थ है। यह काम उस प्रकाश द्वारा हो सकता है जो अन्तः लोकका द्योतक है, अन्तर्गुफा में बैठी हुई सत्ताको देखने वाला है, उस ज्ञान द्वारा .: जो सहज सिद्ध है, स्वाश्रित है, प्रत्यक्ष है, उस ज्ञान द्वारा जिसे अन्तर्ज्ञान होने के कारण मनोवैज्ञानिक Intuition कहते हैं। जिसे अन्तः पुकार सुननेके कारण अध्यात्मवादी श्रुतज्ञान कहते हैं, जिसकी अनुभूति 'भुत' नामसे प्रसिद्ध है । इस ज्ञानको उपयोग में लगानेके लिये साधकको • शान्त चित्त होना होगा । समस्त विकल्पों और द्विवधाओं से अपने को पृथक करना होगा, निष्पक्ष एक रस हो पूछना होगा -- “ जीवन क्या होना चाहता है और क्या होने से डरता है ?" इस प्रश्न के उत्तर में उठी हुई अन्तर्ध्वनिको सुनना होगा । यह है जीवका इ जीवन, यह है जीवका वास्तविक उद्देश । इसके प्रति कभी भय पैदा नहीं होता, कभी शंका पैदा नहीं होती, कभी प्रश्न पैदा नहीं होता। प्रश्न उसी भावके प्रति होता है जो अनिष्ट है, जैसे पाप, दुःख और मृत्यु । इसीलिये ये सदा प्रश्न के विषय बने रहे हैं। परन्तु इष्टके प्रति कभी आशंका नहीं उठती कि "जीवन सुखी क्यों है ? जीवन मर क्यों है ?” क्योंकि इष्ट जीवन श्रात्मांका निज धर्म है, निज स्वभाव है । श्रात्मा इसे निज स्वरूप मानकर Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरका जीवनमार्ग वर्ष ३, किरा ६ ] स्वीकार करता है, उसकी प्राप्ति की सदा भावना रखता है । इसलिये यह विवादका विषय नहीं, समस्याका विषय नहीं । यह श्रासक्ति का विषय है, भक्तिका विषय है, सिद्धि का विषय है । यह इसीका लोक है जिसे देखनेको जीवन तरस रहा है, जिसे पानेको वाञ्छाओं से घिरा है, जिसे सिद्ध करनेको उद्यम और पुरुषार्थ से भरा है । यह इसीका श्रालोक है जो जीवनको दुःखदर्द सहनेको दृढ बनाता है, श्रापद-विपदाओं में से गुज़रनेको साहसी बनाता है, असफलता निराशाओंके लाँघने को बलवान बनाता है, मर मर कर ज़िन्दा रहने को समर्थ बनाता है । यही वास्तव में निर्बलका बल है। निराशामयकी श्राशा है । निस्सहायका सहारा है । दीन-दलितका दिलासा है, जीवनका जीवन है । इस श्रालोक के बिना जीवन ऐक निरी दुःख-दर्द भरी कहानी है । इसका श्रालोक ही जीवन के लिये हित हित, सत्य-असत्य, हेय- उपादेयका निश्चय करता रहता है; युक्त प्रयुक्त, उचित अनुचित, कर्तव्य कर्तव्यका निर्णय करता रहता है; हित-प्राप्ति श्रहित परिहारके लिये प्रेरणा करता रहता है । यही जीवनका निश्चयकार है, निर्णयकार है, आज्ञाकार है, स्वामी है, ईश्वर है, विधाता है । यदि यह जीवन एकबार मिल जाये तो और कुछ पाना बाकी नहीं रहता, यह परमार्थ पद है, परमेष्टि पद है । इसे सिद्ध कर और कुछ सिद्ध करना शेष नहीं रहता, यह सिद्ध पद है, कृत्कृत्य पद है । इससे परे इससे ऊपर और कुछ नहीं रहता । यह परमपद है, परमात्म-पद है । इसे पा समस्त विकल्प, द्विधा, वाञ्छा, तृष्णाका अन्त होजाता है यह कैवल्य पद है ! इसकी प्राप्ति में समस्त वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान, और रूपका अभाव होजाता है, यह 218 शून्य पद है, युक्तिपद है, निर्वाण पद है, इसे पा. फिर छोड़ना नहीं होता, यह अच्युत पद है । यद्यपि यह जीवन सर्वथा अलौकिक है, अद्भुत और अनुपम है । यह शरीर, इन्द्रिय और मन से दूर है । इस लोककी वस्तु नहीं। परन्तु भूल, अज्ञान, मोहके कारण कस्तूरी मृगके समान, यह जीव इसकी धारणा जगत में करता है, इसे व्यर्थ ही वहाँ ढूँढता है, वहाँ न पाकर व्यर्थ ही खेद खिन्न होता है । इष्ट जीवन साध्य जीवन है : इस भोले जीव को पता नहीं कि, वह चीज़ जिस का श्रालोक इसे उद्विग्न बना रहा है, बाहिर नहीं अन्दर है । दूर नहीं, निकट है। दौरंगी नहीं, एक रस है। यह जीवन स्वयं श्रात्मलोक में बसा है। श्रात्माकी अपनी अन्तर्वस्तु है यह इसमें ऐसी ही छिपी है जैसे अनगढ पाषाण में मूर्ति, बिखरी रेखाओं में चित्र, वीणाके चुपचाप तारों में राग, अचेत भावना में काव्य ये भाव जब तक इन पदार्थों में अभिव्यक्त नहीं होते, दिखाई नहीं देते, ये वहाँ सोये पड़े रहते हैं । बाहिरसे देखनेवालों को ऐसा मालूम होता है कि यह भाव भिन्न हैं, और यह पदार्थ भिन्न है, यह भाव और हैं, वह पदार्थ और है । ये भाव महान हैं, विलक्षण हैं, दूर हैं, और वह पदार्थ तुच्छ है, हीन है साधारण है। भला इनका उनसे क्या सम्बन्ध, क्या तुलना ? ऐसे ऐसे इन पर हज़ार न्योछावर हो सकते हैं । ये भाव दुर्लभ हैं, अमूल्य हैं। असाध्य हैं, अप्राप्य हैं । परन्तु ये भाव इन पदार्थोंसे ऐसे भिन्न नहीं, ऐसे दूर नहीं कि वह इनमें प्रगट ही न हो सकें । उनकी विभिन्नता ज़रूर है परन्तु वह विभिन्नता वास्तविक विभिन्नता नहीं, वह केवल अवस्थाकी विभिन्नता है । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६६ उनकी दूरी क्षेत्रकी दूरी नहीं वह केवल दुर्व्यवस्थाकी पूर्ण आनन्दमय है, शुद्ध-बुद्ध निरंजन है । इनके स दूरी है । यदि विधिवत् पुरुषार्थ किया जाय तो वे भाव म्मिलनकी भावना केवल एक सुन्दर स्वप्न है, एक इनमें उदय हो सकते हैं । इनमें सिद्ध हो सकते हैं। सुविचार है, जो भक्तिका विषय हो सकता है, प्राप्ति का .. जब पाषाण, उत्कीर्ण होजाता है, वह पाषाण नहीं । इसकी प्राप्ति नितान्त असम्भव है। इसकी वाँछा नहीं रहता, वह मूर्ति बन जाती है। वह कितनी मान- ऐसी ही मूढ और उपहास-जनक है जैसी कि चन्द्रनीय और श्रादरणीय है ? जब रेखायें सुव्यवस्थित हो प्राप्ति की । जाती हैं, वे रेखायें नहीं रहतीं वे चित्र बन जाती हैं। एक ओर अन्तर्वेदना इसके आलिंगनको उत्सुक वे कितनी रोचक और मनोरञ्जक हैं। जब मूकतार है,दूसरी ओर बाह्य प्रतीप्ति इसे छुड़ानेको उद्यत है ।कैसी झंकार उठता है, वह तार नहीं रहता, वह राग. बन उलझन है । न अप्राप्य है न प्राप्य है ! क्या किया जाता है, वह कितना मधुर और सुन्दर है। जब भा- जाये ? कर्तव्य-विमूढ-हृदय इस विस्मयमें डुबकर रह वना मुखरित हो उठती है, वह भावना नहीं रहती । वह जाता है । शिर भक्तिसे झुककर झम जाता है और काव्य बन जाता है, साक्षात् भाव बन जाता है। वह कण्ठ अनायास गुञ्जार उठता है 'तू तू ही हैं' तू तु ही कितना महान और स्फुर्तिदायक है। ... इस पाषाण और मूर्तिमें, इस रेखा और चित्रमें क्या वास्तवमें इष्ट जीवन इस जीवनसे नितान्त इस तार और रागमें, इस भावना और भावमें कितना भिन्न है ? क्या इस जीवन के लिये परमार्थ जीवन असा. अन्तर है । दोनोंके बीच अलक्ष्यता, मूर्छा, अव्यवस्था ध्य है ! नहीं । इष्ट जीवन इस जीवनसे भिन्न ज़रूर है, का अगाध मरुस्थल है । जो धीर अपनी अटल लक्ष्यता दूर ज़रूर है परन्तु ऐसा भिन्न नहीं, ऐसा दूर नहीं कि शान और पुरुषार्थसे इस दूरीको लाँघकर, इस सिरेको इनका सम्मेलन न हो सके । इनका भेद वस्तु-भेद नहीं इस सिरेसे मिला देता है वह कितना कुशल कलाकार है, केवल अवस्था भेद है । यह जीवन मूर्छित है अचेत है । वह भूरि भूरि प्रशंसा और श्रादरका पात्र है । चंचल है, वह जागृत है सचेत है, यह असिद्ध है वह सिद्ध है, लक्ष्मी उसके चरणोंको चूमती है, और घातक काल यह भावनामयी है वह भावमय है। यह वेदना है वह उसकी कीर्तिका रक्षक बनता है। वेदना की शान्ति है, यह वाँछा है वह वाँछाकी वस्तु है, __ जीवन भी एक कला है । जब तक यह अात्मामें यह उद्यम है वह उद्यमका फल है । इनकी दूरी क्षेत्रकी अभिव्यक्त नहीं होती, बाहिरसे देखने वालोंको ऐसा दूरी नहीं है , केवल दुर्व्यवस्थाकी दूरी है, वरना यह • प्रतीत होता है कि वह जीवन और है और यह जीवन दोनों हर समय साथ हैं। जहाँ भावना रहती है वहीं और । वह जीवन इस जीवनसे अत्यन्त भिन्न है, अत्यंत भाव रहता है, जहाँ दर्द रहता है वहीं राहत रहती है, दूर है, अत्यन्त परे है । यह जीवन एक दीन-हीन तुच्छ- भाव अभिव्यक्ति है और भावना भावरूप होनेकी शक्ति साधारण सी चीज़ है। वह जीवन अत्यन्त विलक्षण, है । क्या अभिव्यक्ति शक्तिसे पृथक हो सकती है ? कदापि महान, अचिन्तनीय ईश्वर है । यह जीवन दुःख दर्दसे नहीं । शक्ति अँकुर है और अभिव्यक्ति उसका प्रफुल्लित भरा है, अनेक त्रुटियों और दोषोंसे परिपूर्ण है। वह फूल है । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ६] .. वीरका जीवन-मार्ग ... जब जीवमें अलौकिक जीवनकी भावना अंकित मोही अात्मा इनके लाभसे अपना लाभ, इनकी वृद्धिमें हो जाती है, चित्रित हो जाती है, साक्षात् भाव बन अपनी वृद्धि इनके हाथमें अपना हाथ, इनके नाशमें जाती है तब आत्मा श्रात्मा नहीं रहता, यह परमात्मा अपना नाश धारण करने लग गया है। .. .. .... हो जाता है, यह ब्रह्म नहीं रहता, परब्रह्म बन जाता इस मिथ्या धारणाके कारण जगत जीवन बन है। यह पुरुष नहीं रहता पुरुषोत्तम हो जाता है। जाता है। उसमें तन्मयता पैदा हो जाती है, मोह और ' इस आत्मा और परमात्मामें कितना अन्तर है। ममता जग जाती है । यह ममता जगतकी तरङ्गोंसे तरदोनोंके बीच भूल-भ्रान्ति, मिथ्यात्व-अविद्या, मोह तृष्णा गित हो अपनी तृष्णामयी तरङ्गोंसे झुला झुलाकर जीव का अथाह सागर ठाठे मार रहा है । जो धीर वीर अपने को अधिक अधिक जगत्की ओर उछालती है । इस ध्रुवलक्ष्य, सद्ज्ञान और पुरुषार्थ बलसे इस दूरीको लाँघ- तरह यह संसार-चक्र आगे ही आगे चलता रहता है। कर इस पारको उस पारसे मिला देता है । मर्त्यको इस तरह यह जीव प्रकृतिसे सर्वथा भिन्न होने पर भी अमृतसे मिला देता है वह निस्संदेह सबसे बड़ा कला- प्रकृति समान देहधारी बना है । तुच्छ और सपरिमाण कार है । वह साक्षात् संसार-सेतु है, तीर्थकर है । वह बना है । नाम-रूप-कर्मवाला बना है। विविध सम्बंध लोकतिलक है, जगतवन्ध है । काल उसका द्वारपाल वाला बना है । जन्मने और मरने वाला बना है। . है, इंद्र, चंद्र उसके चारण हैं, लक्ष्मी, सरस्वती, शक्ति इस तरह ये मिथ्यात्व, अज्ञान और मोह जन्म जरा उसके उपासक हैं। मृत्यु के संसारिक लौकिक दुःखी जीवनके मूल कारण . हैं । ये ही जीवनके महान शत्रु हैं । इनका विजय ही जीवन अभ्युदयकी रुकावटः-- विजय है । जिसने इन्हें जीत लिया उसने दुःख शोकको इस जीवन अभ्युदयमें भूल,अज्ञान,मोह ही सबसे बड़ी जीत लिया, जन्म मरणको जीत लिया, लोक परलोकको रुकावट है, इनके आवेशमें कुछका कुछ सुझाई देता जीत लिया। इनका विजेता ही वास्तवमें विजेता है, है । कहींका कहीं चला जाना होता है । जो पर है, अ- जिन है, जिनेन्द्र है अर्हन्त है। सत् है, अनात्म है वह स्व, सत् और आत्म बन जाता है । जो सत् और आत्म है वह भ्रम मात्र हेय बन जाता जीवन-सिद्धि का मार्गःहै । कैसी विडम्बना है । यह मिथ्यात्व कितना प्रभावशाली । है। जो बाह्य है, जड़ है, सदा बनता और बिगड़ता । __भूल भुलैय्याका अंत उसके पीछे पीछे चलनेसे नहीं होता, न उसकी असलियतसे मुँह छुपाकर बैठनेसे होता है, मिलता और बिखरता है वह पुद्गलमयी लोक ब्रह्म है । न प्रमादमें पड़े रहनेसे होता है, वह मरीचिका है, लोक बन गया है, वह पुद्गलमयी शरीर ब्रह्म बन गया ___ वह आगे ही आगे भागती रहती है । वह सब बोरसे है । वह पुद्गलमयी धन धान्य सम्पदा बन गया है । घेरे हुये है । उससे दौड़कर छुपना नहीं हो सकता ! उसमूढ आत्मा इनके नामको वैभव, इनके रूपको सुन्दरता इनके कर्मको बल समझने लग गया है। इनके भोगको उत्तराध्ययन ६, ३४-३६, २३, ३८, धम्मपर सुख, इनकी सन्ततिको अमरता मानने लग गया है। ८.४ धर्मरसायन ॥१३॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चैत्र, वीर निर्वाण सं०२४६६ का अन्त अपने ही स्थानमें इटकर खड़ा हो जानेसे इनका निरोध करनेसे होता है-इनका संवर करनेसे होता है, उसका सामना करनेसे होता है, उसका तार होता है । इन्हें बाह्य उद्योगोंसे हटा पारमार्थिक उद्योतार करनेसे होता है, उसका तिरस्कार करनेसे होता है। गोंमें लगानेसे होता है । इस तरह संसारका अन्त .. अज्ञानका अन्त उसकी सुझाई हुई बातोंको प्रवृत्ति मार्ग से नहीं होता निवृत्ति मार्गसे होता है। माननेसे नहीं होता, न संशयमें पड़े रहनेसे होता है, न सि होता है, न परन्तु जीवन-सिद्धिका मार्ग केवल इतना ही नहीं अनिश्चित गति रखनेसे होता है । उसका अन्त उसके है। यह केवल निषेध, संवर, और सन्यास रूप ही मन्तव्योंका साक्षात् करनेसे होता है, उनका अनुसन्धान नहीं है। यह विधिमुख्य भी है । निषेध, संवर, सन्यास और परीक्षा करनेसे होता है, उनमें निज-परका, सत्य आत्म-साधनाकी पहली सीढ़ी है। साधककी पाद. असत्यका हित-अहितका विवेक करनेसे होता है । पीठिका है। इसमें अभ्यस्त होनेसे आत्मा साक्षात् सिद्ध मोहका अन्त मुग्ध भावोंमें तल्लीन रहनेसे नहीं मार्ग पर श्रारूढ़ होनेके लिये समर्थ हो जाता है । होता, न उन्हें चुपचुपाते हृदयमें छुपाये रहनेसे होता है। अबाध और निर्विघ्न हो जाता है । वह स्थिर, उज्वल उसका अन्त मुग्ध भावोंकी मूढ़ता निरखनेसे होता है, और शांत हो जाता है। परन्तु इतना मात्र होकर उनकी मूढ़ताकी निन्दा, आलोचना प्रायश्चित करनेसे रह जानेसे काम नहीं चलता। इससे मिथ्यात्व, अज्ञान होता है । ममकार ग्रंथियोंका अन्त उन्हें पुष्ट करनेसे और मोहका समूल नाश नहीं हो जाता। वे अनादिनहीं होता, उन्हें शिथिल करनेसे होता है । वासनाओंका कालसे अभ्यासमें आते आते संस्कार, संज्ञा, और 'अन्त भोगसे नहीं होता; संयमसे होता है । इच्छाअोंका भाव बन गये हैं । अतः चेतनाकी गहराई में उतर कर अन्त . परिग्रहसे नहीं होता, संयमसे होता है । बैठ गये हैं । वे दूसरा जीवन बन गये हैं । वे किसी नृष्णमोका अन्त तृप्ति से नहीं होता, त्यागसे होता है। भी समय फूट निकलते हैं । वे निष्कारण भी आत्माद्वेषका अन्त वैरशोधनसे नहीं होता, क्षमासे होता है। को उद्विग्न, भ्रान्त और अशान्त बना देते हैं । जब __ भव-भ्रमणका अन्त बाह्यरमणसे नहीं होता, . तक इनका उच्छेद नहीं होता, संसार चक्रका अन्त अन्तः रमण से होता है। इस नाम-रूप-कर्मात्मक नहीं होता। जगत का अन्त उसके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे नहीं इन संस्कारोंको निर्मल करने के लिये निषेधके साथ होता, उन तन्तुओंके विच्छेदसे होता है जिन के द्वारा विधिको जोड़ना होगा। प्रमाद छोड़ना होगा । सावजीवन जगतके साथ बँधा है । यह विच्छेद-मन वचनः धान और जागरुक रहना होगा । समस्त परम्परागत कायके कर्म-धर्म विधान करनेसे नहीं होता, दण्ड दण्ड- भावों, संज्ञाओं और वृत्तियोंसे अपनेको पृथक करना विधान करनेसे होता है, इन्हें गुप्त करनेसे होता है। होगा । इन्द्रिय और मनको बाहिरसे हटा अन्दर ले जाना मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, काय गुप्ति पालनेसे होता है । होगा । अपने ही में श्रापको लाना होगा। ध्यानस्थ सूत्रकृताङ्ग १, १२, ११। होना होगा। मझिमनिकाय। * तत्वार्थाधिगम सूत्र है...२ * समाधिशतक ॥ ४५ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : वर्ष ३, किरण ६] वीरका जीवन-मार्ग : - अन्दर बैठ निर्वात हो ज्ञान दीपक जगाना होगा। दर्शन सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्रका मार्ग है । ज्ञान प्रकाशको उसीके देखनेमें लगाना होगा। जिसके यह है वह विधिनिषेधात्मक सिद्धि मार्ग, जो गहरेसे लिये यह सब देखना जानना है-ढूंढना भालना है। गहरे बैठे हुये संस्कारोंको निर्जीर्ण कर विध्वंस कर उसीकी भावनाओंको सुनना और समझना होगा। देता है । जो सोई हुई अात्म-शक्तियोंको जगा देता जिसके लिये यह सब उद्यम हैं-पुरुषार्थ हैं । जो निर- है, उन्हें भावनासे निकाल साक्षात् भाव बना देता है। न्तर पुकारता रहता है "मैं अजर हूँ-अमर हूँ, तैजस- यह मार्ग बहुत कठिन है। इसके लिये अनेक प्राकृज्योतिमान् हूँ, सुन्दर-मधुर हूँ, महान् और सम्पूर्ण तिक और मानुषिक विपदाओं और करतानोंको सहन करना पड़ता है, अनेक शारीरिक और मानसिक त्रुटि-- समस्त लक्ष्यों को त्याग इसी भावनामयी जीवनको यों एवं बाधात्रोंसे लड़ना पड़ता है । यह मार्ग परिअपना लक्ष्य बनाना होगा। इसे ध्रुव-समान दृष्टिमें पहोंसे पूर्ण हैं । इसके लिये अदमनीय उत्साह, सत्यासमाना होगा। अपने को निश्चय-पूर्वक विश्वास कराना ग्रह और साहसकी जरूरत है । यह मार्ग कठिन ही नहीं होगा । "सोऽहं, सोऽहं", मैं वही हूँ, मैं वही हूँ। लम्बा भी बहुत है । इसके लिये दीर्घ पुरुषार्थ और श्रेणी .. समस्त विद्वानोंको छोड़ ज्ञानको इसी अमृतमयी बद्ध अभ्यासकी जरूरत है । इसे अभ्यस्त करने के लिये जीवनकी ओर ध्यान देना होगा । इसे स्पष्ट और पुष्ट इस मार्ग पर निरन्तर चलते रहना होगा। सोते-जागते, करना होगा। अन्दर ही अन्दर देखना और जानना चलते-फिरते, खाते-पीते, उठते-बैठते, हर समय इस होगा । 'सोऽहं सोऽहं ।' पर चलते रहना होगा । विचार है तो 'सोऽहं', पालाप समस्त रूढ़ीक भावों और बंधनोंसे हटा ममत्वको इसी है तो 'सोऽहं', अाचार है तो 'सोऽहं । इस मार्गको लक्ष्य में श्रासक्त करना होगा। इसीके पीछे २ चलना जीवन तन्तुअोंमें रमा देना होगा। यहां तक रमाना होगा, इसीके समरसमें डूबना होगा। हर समय अनुभव होगा कि यह मार्ग जीवनमें उतर पाये, जीवन में समा करना होगा । 'सोऽहं सोऽहं ।' जाये । साक्षात् जीवन बन जाये । यहां तक कि 'मैं' यह मार्ग आत्म-श्रद्धा, आत्म-विद्या, आत्मचर्याका और 'वह' का भेद भी विलय हो जाये । केवल वह ही मार्ग है । यह मार्ग सत्यपारमिता, प्रज्ञापारमिता,शील- वह रह जाता है । पारमिताका मार्ग है । यह मार्ग आत्म निश्चित, यह मार्ग किसी बाह्य विधि विधान, क्रिया काण्ड, श्रात्मबोध, अात्मस्थितिका मार्ग है । यह मार्ग सम्यक- परिग्रह अाडम्बर में नहीं रहता; यह किसी भाषा, आलाप ग्रन्थमें नहीं रहता, यह किसी सामायिक प्रथा, संस्थाॐ प्रश्न उप०१-१०.५-३, मुण्ड उप०३-१-५,' व्यवस्था में नहीं रहता, यह किसी पूजा-प्रार्थना, स्तुति१-२-११,' कैवल्य उप० १-१. वन्दनामें नहीं रहता। यह मार्ग साध्यके समान ही + दीघ निकाय--दूसरा सुत्त, छटा सुत्त, १०वाँ सुत्त, अलौकिक और गढ है, साध्यके साथ ही आत्माकी १२वाँ सुत्त । + लाठी संहिता-अध्याय ३ * तत्वार्थाधिरामसूत्र १-१, रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३, Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४. अनेकान्त अन्तः शक्तियों में रहता है; उसके उद्देश्य बल, ज्ञान बल, पुरुषार्थं बलमें रहता है । केवल इनकी गतिको बदलने की जरूरत है । इनका उपयोग बाहिरसे हटा अन्दरकी ओर लगाना है । इन्हें बजाय अनात्म उद्देश, श्रनात्म दान, अनात्म पुरुषार्थ के ज्ञान, श्रात्म पुरुषार्थ में तबदील करना है । फिर ये जीवनके बजाये इस पारके उस पार ले जाने वाले हो जाते हैं । यह बजाय संसारके मोक्षका साधन बन जाते हैं, बजाय मृत्युलोक के • अमृतलोकका मार्ग बन जाते हैं । बाह्यमुखी रूपसे इन तीनोंकी एकता संसारकी रचयिता है । अन्तःमुखी रूपसे इन तीनोंकी एकता मोक्ष की रचयिता है । जैसे संसारमें किसी भी पदार्थ की सिद्धि केवल उसकी कामना करने से, केवल उसे जान लेने से नहीं होती, बल्कि उसकी सिद्धि कामना तथा ज्ञान के साथ पुरुषार्थ जोड़ने से होती है ऐसे ही परमात्म स्वरूपकी सिद्धि केवल उसमें श्रद्धा रखनेसे, केवल उसे जान लेने से नहीं होती; बल्कि उसकी सिद्धि श्रात्म-श्रद्धा, श्रात्म ज्ञानके साथ श्रात्म- पुरुषार्थ जोड़ने से होती है । जो केवल परमात्म पदकी श्रद्धा और भक्ति में अटक कर रह जाता है, वह अग्नि विदग्ध नगरीमें पड़े हुये उस श्रालसीके समान हैं जो सुखकी कामना करता हुआ भी अपनी सहायता करने में असमर्थ है । जो परमात्म-तत्त्व के रहस्यको जानकर केवल उसके ज्ञानमें मग्न हो अपनेको हो भाग्य मानता है वह उस सुस्वप्न कुम्भकारके समान है जो अपने सुविचारसे अपनी दीनताको और अधिक दीन बना लेता है । [ चैत्र, वीर - निर्वाण सं०२४६६ समान है जो प्रकृतिके सहारे छोड़ दी गई है । जिधर मौज ले चली, चल पड़ी, जहां टकरा दिया टकरा गई, जहां डाल दिया, गिर गई । जो बिना श्रात्म श्रद्धा, बिना श्रात्म-ज्ञान के केवल पुरुषार्थी बना है, वह नाविक-हीन उस स्वच्छंद नावके + व्याख्या प्रज्ञप्ति ८-१० बोध प्राभृत २१ यह तीनों ही मृत्युके ग्रास हैं, बार बार काल चक्र से पीसे जाते हैं। इसलिये जीवनका सिद्धि-मार्ग त्रि गुणात्मक है, सदुलक्ष्य, सद्ज्ञान और सद्- पुरुषार्थ जो ग्रात्म- जक्ष्यको लक्ष्य बनाकर मिध्यात्वका अंत करता है, जो अन्य ज्ञानसे उसे देखता जानता हुआा विद्याका अंत करता है, जो श्रात्माचार्यासे लक्ष्यको जीवन में उतारता हुआ मोहका अन्त करता है वह ही निश्चय पूर्वक धर्म है, धर्म-मार्ग है, धर्म-तीर्थ है । वह ही साक्षात् धर्म- मूर्ति है, धर्म-श्रवतार है । आत्मा में ही परमात्मा छुपा हुआ है । श्रात्मामें ही उसे सिद्ध करनेकी वेदना और वांछा बनी है। त्मामें ही उसे सिद्ध करनेकी शक्तियाँ मौजूद हैं। अतः आत्मा ही साध्य है, साधक है, साधन है । आत्मा ही इष्ट पद है पथिक है, पथ है । श्रात्मा ही उस पार है, नाविक है और नाव है । जो आत्मलक्षी है, ग्रात्मज्ञानी है, ग्रात्मनिष्ट है, निरहंकार-निर्ममत्व है, जिसके समस्त संशय, समस्त भ्रम दूर हो गये हैं, समस्त ग्रन्थियाँ, समस्त सम्बन्ध शिथिल हो गये हैं । समस्त श्राशायें - तृष्णायें शाँत हो गई हैं, समस्त उद्योग बन्द हो गये हैं, जिसने अपनी श्राशा अपने ही में लगाली है, अपनी दुनिया अपने ही में + सन्मतितर्क ३, ६८ + भाव प्राभृत ८३, योगसार ८३; तत्त्वानुशासन ३२ द्रव्य संग्रह ४०, ४१; * “I am the way, the truth and the life." Bible St. John 14. 6. / Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य- परिचय और समालोचन वर्ष ३, किरण ६ ] बसाली है, वह कृत्कृत्य है, अचल है, ईश है, उसके लिये काम और कंचन क्या ! अरि और मित्र क्या ! स्तुति और निन्दा क्या ! योग और वियोग क्या ! जन्म और मरण क्या ! दुख और शोक क्या ! वह सूर्य के समान तेजस्वी है, वायुके समान स्वतंत्र है, श्राकाशके समान निर्लेप है । मृत्यु उसके लिये मृत्यु नहीं, वह मृत्युकी मृत्यु है, वह मोक्षका द्वार है, वह साहित्य परिचय (१) तन्वन्यायविभाकर – लेखक, प्राचार्य विजयलब्धि सूरि । प्रकाशक, शा० चन्दूलाल जमनादास, छाणी (बडोदा ) | पृष्ठ संख्या, १२४ । मूल्य, आठ श्राना । यह 'लब्धिसूरीश्वर जैन ग्रंथमालाका ४था ग्रंथ है । इसमें १ सम्यक् श्रद्धा, २ सम्यज्ञान और ३ सम्यक चरण ऐसे तीन विभाग करके, पहले में जीवादि नवतत्त्वोंका ( जीव, जीव, पुण्य, पाप, श्राश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष के क्रमसे ) गुणस्थान मार्गणादि निरुपा सहित, दूसरे में मत्यादि पंचज्ञानों-प्रत्यक्षादिप्रमाणों-श्राभासों-सप्तभंगों-नयों तथा वादोंका, और तीसरे में चरया करणभेद से यतिधर्मका वर्णन संस्कृत गद्य में दिया है। वर्णनकी भाषा सरल और शैली सुगम तथा सुबोध है । यतिधर्मका वर्णन बहुत ही संक्षिप्त है और वह बारह भावनाओं, लोक तथा पुलाकादि निर्ग्रन्थोंके स्वरूप कथनको भी लिये हुए है । श्रावकाचार का कोई वर्णन साथमें नहीं है, जिसकी सम्यकूचरण विभाग में होनेकी ज़रूरत थी। प्रस्तावना साधारण दो पृष्ठकी है और वह भी संस्कृतमें। अच्छा होता यदि प्रस्तावना हिन्दी में विस्तार के साथ लिखी जाती और उसमें ग्रंथकी उपयोगिता एवं विशेषताको तुल महोत्सव है I यह सिद्धिमार्ग वेशधारीका मार्ग नहीं, तथागतका मार्ग है । यह मूढ़का मार्ग नहीं । सन्मतिका मार्ग है । यह निर्बलका मार्ग नहीं, वीरका मार्ग है। । 20103 * सूत्रकृतांग' १-१२,' उत्तराध्यण ६-१४, + मुण्डक उप० ३-२-४. औऔर समालोचन नादि द्वारा अच्छी तरह से व्यक्त किया जाता । पुस्तकके साथ में विषयसूची तकका न होना बहुत ही खटकता है । फिर भी पुस्तक संस्कृत जाननेवालोंके लिये पढ़ने तथा संग्रह करने के योग्य है । मूल्य कुछ अधिक है । जमनादास (२) चैत्यवन्दन चतुर्विंशतिः - लेखक, श्रीविजयलब्धिसूरि । प्रकाशक, चंदुलाल शाह, छाणी ( बड़ौदा स्टेट ) । पृष्ठ संख्या ३४ | मूल्य दो चाना । 3 यह लब्धिसूरीश्वर - जैनग्रंथमालाका ८वाँ ग्रन्थ है । इसमें मुख्यतया चौबीस तीर्थंकरोंकी चैत्यवन्दनारूप स्तुति भिन्न भिन्न छंदों में की गई है— २३ तीर्थकरोंकी स्तुति तीन तीन पद्यों में और महावीरकी पाँच पद्यों में है । तदनन्तर सीमंधर जिन, सिद्धगिरि, सिद्धचक्र, पर्व, ज्ञानपंचमी. मौनैकादशी, ऋपभानन जिन, चन्द्राननजिन, वारिषेणजिन और फिर वर्धमान जिन की भी चैत्यवन्दन रूपमें स्तुतियाँ भिन्न भिन्न छंदों तथा एक से अधिक पद्योंमें दी हैं । स्तुतियाँ सब संस्कृत में हैं और जिन छंदोंमें है उनके लक्षण भी संस्कृत में ही फुटनोटों में दिये गये हैं। पुस्तक अच्छी हैं और सुंदर छपी है 1 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Register_No. L 4328. SEXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXONOM CURUKSHEAUNUADRUADREHEADABABABHEDABER KAKAKAM BADABADHUADAJMUA VAGYGYAYAYAYAYAYGIGYAYASGEGYSYGYGYAYA वीर-सेवामन्दिरको सहायता गत फरवरी और मार्चके महीनोंमें वीर-सेवामन्दिर सरसावाको निम्न सज्जनोंकी ओरसे 285) रु० की सहायता प्राप्त हुई है, जिसके लिये दातार महानुभाव धन्यवाद र के पात्र हैं: 200) बाबू नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता / .50) बाबू दीनानाथजी सरावगी, कलकत्ता / 25) बाबू छोटेलालजी सरावगी, कलकत्ता / 7) ला० मेहरचन्दजी जैन, अम्बाला छावनी (पुत्र विवाहकी खुशीमें) 2) ला० जम्बूप्रसाद प्रेमचन्द जैन, गढी पुख्ता, जि० मुजफ्फरनगर (पुत्र विवाहकी खशीमें) 1) श्रीमती मखमलीदेवी धर्मपत्नी बा• जिनेश्वरप्रसाद जैन, देहरादून / 285) अधिष्ठाता—'वीर सेवामन्दिर सरसावा, जि. सहारनपुर / JAHASASRASAISASRERASSASRISASANASAHASRHAYADRISASARDASASRAHASRHAIRSAISAHASRISASAISA सूचना A SASAKURA KAUG MOYSESVOLGE . जो सज्जन 'अनेकान्त' की पिछली किरण न लेकर नवीन किरणसे ही ग्राहक बनना चाहते हैं, उन्हें सहर्ष सूचित किया जाता है कि वे 1 // ) रु. मनीषार्डर S से भिजवा देने पर 7 वी किरणसे 12 वी किरण तक के ग्राहक बनाये जा सकेंगे / में उन्हें नवीन प्रकाशित किरणें ही भेजी जाएँगी और जो 1) रु० के बजाए 1) रु० भेज देंगे उन्हें समाधितन्त्र और जैन-समाज दर्पण दोनों उपहारी पुस्तकें भी भिजवाई है। जा सकेंगी। -व्यवस्थापक CXKAMASOMANAKAMANAVANAMOookAMANAMAHAKAVACHANCHARCHECK SUMMUNUXURUXUXUXURMUMMUNUMUMUMUMUMUMUMUMUMUMIXMUMMUNCS - वीर प्रेस -अएिकापानकोटसळूस न्य देहली।