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________________ वर्ष ३, किरण ६ ] . भव कर सकता है। जीवकी प्रवृत्तियां जब व्यक्तिको atest समष्टिक घर बढ़ने लगती हैं तब ही उस वस्तुका जन्म होता है जिसे हम 'अहिंसा' कहते हैं । 'सर्वभूतहित' और 'निष्कामकर्म' के सिद्धान्त 'अहिंसा' केही दूसरे रूप हैं । हिंसाकी व्यापक भावना 'सर्वभूत-हित' में समाई हुई है । परिणाम स्वीकार करके एक महत्वपूर्ण तथ्यको भुला देते हैं । वे यह नहीं सोचते कि इन बुराइयोंका मूलकारण संगठित हिंसा द्वारा व्यवस्थित हमारे कानून और विधान हैं और इसी कारण विज्ञान के आविष्कार शोषण के साधन बन जाते हैं । जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Force of gravitation) अनन्त आकाश में तारों, ग्रह-नक्षत्र इत्यादिको एक व्यवस्था में बाँधे हुए हैं, उसी प्रकार हिसा में भी संसारको व्यवस्थित करनेकी शक्ति संनिहित है । हिंसा हमारी राजनैतिक ग्रार्थिक-सामाजिक कठिनाइयों का मूल कारण है और हिंसा उनको दूर करनेका साधन है । 1 साम्यवाद समाजके दुखोंको नष्ट करनेके लिए आगे बढ़ता हुआ प्रतीत होता है, लेकिन समाजके लिए व्यक्ति के जीवनको यांत्रिक बना कर वह ऐसा करना चाहता है, और जब जीवन मशीनकी तरह काम करने लगता है तो विकास और सुख स्वप्नकी वस्तु बन जाते हैं । इस प्रकार साम्यवाद्र जिन बुराइयोंको दूर करने की प्रतिज्ञा करता है उन्हीं में उलझता हुआ प्रतीत होता है । हिंसा जीवनको यंत्रवत् नहीं बनाती, वह जीवनमें 'आत्मोपम्य-बुद्धि' जागृत कर समाजहित में प्रवृत्त होनेके लिये प्रेरणा करती है । साम्यवाद सार्वजनिक हितके लिये हमारी प्रवृत्तियों पर बन्धन लगाता है, श्रहिंसा में हमारी प्रवृत्तियाँ स्वतः ही लोकहित के लिये होती हैं । साम्यवाद मनोविज्ञानकी अवहेलना करता है, अहिंसा मनोविज्ञानको साथ लेकर मनुष्यकी वृत्तियों को शुद्ध करती हुई विकासकी ओर ले जाती है । इसलिये कोई भी राजनैतिक, आर्थिक या सामाजिक व्यवस्था जिसका आधार सर्वभूतहित या अहिंसा नहीं है, अपूर्ण और अधूरी हैं। युगोंसे हिंसात्मक व्यवस्था द्वारा अनुशासित रहने के कारण अहिंसात्मक व्यवस्थाकी कल्पना कुछ अजीब सी मालूम पड़ती है और हम सोचते हैं कि इस प्रकार की व्यवस्थासे शायद अराजकताकी मात्रा और अधिक न बढ़ जाय, लेकिन हिंसासे भी अव्यवस्था घटती नहीं, और यह जान लेने पर कि समाजकी बीमारीका कारण हिंसा है उसके पक्ष में कोई दलील देने को नहीं हिंसा अव्यवस्थित वर्गीकरण और शोषण समाजके दुखका मूल कारण है। मौजूदा राजनैतिक तथा आर्थिक कानून और विधान 'संगठित हिंसा' को जन्म देते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि अल्पसंख्यक वर्ग के हाथ में शक्ति श्राजाती है और वह उसका उपयोग समाजके बहुसंख्यक वर्ग के शोषण में करता है । संसारकी अधिकतम शासन व्यवस्थायें संगठित हिंसाका मूर्तिमंत रूप हैं । हिटलर यदि पोलैंड पर आक्रमण करता है तो इससे यह न समझ लेना चाहिए कि जर्मनी की साधारण जनता हिटलरकी इन प्रवृत्तियोंसे सहानुभूति रखती है। नॉजी सरकार संगठित हिंसाके बलपर जर्मन जनताको युद्ध के लिये विवश करती हैं । यही बात अन्य साम्राज्यवादी शासन-प्रणालियों पर लागू होती है । 'विज्ञान' को श्रौद्योगिक केन्द्रीकरण तथा उसके दुष्परिणाम पूंजीवाद, समाजकी बेकारी, इत्यादिका दोषी ठहराया जाता है । हमारे अर्थशास्त्री भी इन बुराइयोंको विज्ञान के आविष्कारोंका स्वाभाविक . ३६१
SR No.527161
Book TitleAnekant 1940 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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