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________________ वर्ष ३, . किरण ६ ] श्रहिंसा रहजाती । हिंसा में सन्देह करने का दूसरा कारण यह है कि हम नैतिक नियमों को उपयोगी और अच्छा समझते हुए भी उनकी व्यावहारिकता में अविश्वास रखते हैं | राजनीति और अर्थनीति को जितना नैति कता से दूर रक्खा जाता है उतनी ही उनमें कृत्रिमता की मात्रा अधिक बढ़ती हैं और वे लोकहित के लिये उतनी ही अनुपयोगी सिद्ध होती हैं। संभार यांत्रिक उपायोंसे सुव्यवस्था स्थापित नहीं की जा सकती । इस नग्न सत्य को हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा । हिंसा का तत्व इतना मनोवैज्ञानिक और आवश्यक है कि उसकी अवहेलना नही की जासकती । टाल्स्टाय के निम्न शब्दों के साथ हमें सहमत होना पड़ता है - "अहिंसा के अवलम्बन करने का केवल यही कारण नहीं है कि वह हमारी तमाम सामाजिक बुरा in harmless joys are spent" अर्थात् सज्जन वह है जो अपनी सुख -घड़ीको दूसरोंकी दुःख घड़ी न बनने दे । मालूम हुआ, यह कैंपियन कविकी कविता है । सज्जनताके इस लक्षणका मेरे दिल पर खासा असर हो आया, और तुरन्त ही इससे मिलता जुलता और एक लक्षण मुझे याद आगया: " सदाचारी वह है जो सुख-साधनों की लूट नहीं चाहता, किन्तु उनका विभाजन करनेकी चेष्टा करता है। सुख-साधनोंकी लूट चाहने वाला दुराचारी है ।" ( दरबारीलाल सत्यभक्त ) । वाक़ई में सज्जनता इसीका नाम है । संसार में सुखकी वृद्धि कैसे हो ? - एक कमरे में मैं और मेरे पास ही दूसरे में एक टेंथ क्लासका छात्र, दोनों पढ़ रहे थे। छात्रने पढ़ाः"The man whose silent days, चाहे वह कोई हो, जो मनुष्य श्रमसाध्य (कृषि - इत्यादि) कर्मों को छोड़कर बुद्धि और सम्पत्तिका दुरुपयोग करके उसके बलपर दूसरोंके कंधों पर बैठ कर जन साधारण के सुख-साधनोंकी लूट खसोटमें लगा हुआ है, जिससे दूसरोंके सत्व - रक्षाकी पर्वाह नहीं है वह तो सज्जन नहीं हो सकता । ३६२ इयों का एकमात्र रामबाण उपाय है, बल्कि हमारे ज़माने के प्रत्येक मनुष्य के नैतिक सिद्धान्तके वह पूरी तरह अनकूल भी हैं । जन साधारण के दुखोंको दूर करनेके लिये जिस तत्वकी आवश्यकता है वही प्रत्येक मनुष्य की आत्मिक शान्ति के लिये भी परमावश्यक है ।" इस प्रकार हिंसा व्यक्ति और समाजके कल्याण के लिये एक श्रावश्यक तत्व है और उसमें जीवनकी सारी समस्याओं को हल करनेकी शक्ति संनिहित है । २५०० वर्ष पहिले भगवान् महावीर और भगवान् बुद्धने सिद्धान्त के रूपमें विश्वके लिये हिंसाका सन्देश दिया था; गांधीजी आज एक प्रयोगवेत्ता के रूप में व्यवहारमें उसके फलितार्थोंको दुनिया के सामने रख रहे हैं। श्री दौलतराम मित्र ] अतएव यदि हम संसार में सुखकी वृद्धि देखना चाहते हैं तो हमारा कर्तव्य हो जाता है कि हम संसार भर में अति परिग्रह - विरोधी जैनाचारकी उपयोगिता के प्रचार प्रसिद्ध करनेका उद्योग करें, ताकि दुराचारियोंकी संख्या बढ़ने न पावे, सदाचारियोंकी संख्या बढ़े और संसार में सुखकी वृद्धि होवे । परन्तु अफ़सोस आज दुनियाकी सूझ ( दृष्टि ) श्रधी ( मिथ्या ) हो रही है । जैसा कि "एल.पी. जैक्स" का कथन है कि 6. की दुनिया सम्पत्तिको सामाजिक (सर्वसाधारण की चीज) बनाना चहती है; लेकिन मनुष्यको — उसके स्वभावको—सामाजिक बनानेकी बात उसे सूझती नहीं । जब तक यह नहीं होगा, तब तक कोई भी "इज़म” (वाद ) स्थापित नहीं हो सकेगा । अगर मनुष्यका चरित्र सुधर जाय तो चाहे जिस “इज़म " से निभ जायगा । आओ हम सब मंगल कामना करें और साथ ही तदनुकूल प्रयत्न भी करें कि दुनियाँको सीधी (सम्यक् ) सूझ ( दृष्टि ) प्राप्त हो । इसीसे संसार में सुखकी वृद्धि हो सकेगी ।
SR No.527161
Book TitleAnekant 1940 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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