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________________ अहिंसा [ ले० ते० - श्री बसन्तकुमार, एम.एस.सी. ] जीवन वनका ध्येय निरन्तर विकसित होना है । विकाकी पूर्णावस्था जीवनकी वह स्थिति है जहाँ पहुँचकर विश्व के जीवनके साथ उसका कोई विरोध न रह सके । विकासकी यह अन्तिम अवस्था है और जीवन का आदर्श है । ज्यों ज्यों इस आदर्श की ओर हम बढ़ते हैं त्यों त्यों हम सत्यके निकट पहुँचते हैं । इस प्रकार विकासकी ओर बढ़नेका मार्ग सत्यकी शोध और विश्व कल्याणका मार्ग है । tant सारी प्रेरणायें और प्रक्रियायें सुखी बनने के लिये होती हैं, और ज्यों ज्यों उसकी प्रसुप्त शक्तियाँ विकसित होती जाती हैं वह सुखकी ओर बढ़ता जाता है । विकास और सुख एक ही वस्तुके दो भिन्न भिन्न पहलू हैं, अथवा यों कहिये सिक्के की दो तरफैं (Sides) हैं । एकके बिना दूसरेका अस्तित्व नहीं । जितना हमारा जीवन विरोधी और विकसित होगा उतनी ही मात्रा में हम अधिक सुखी होंगे । जीवन सम्बन्धी सारी समस्याओं पर इसी स्वयंसिद्धिको लेकर विवेचन किया जा सकता है । संसारके प्राणियों के जीवनकी प्रवृत्तियाँ अधिकांश में स्व-केन्द्रित (Self centred) होती हैं । श्रर्द्धविकसित और विकसित प्राणियों में यह बात और भी अधिक मात्रा में पाई जाती है । उनका प्रत्येक कार्य अपने स्तित्वको कायम रखने के लिये होता है । जीवनकी इस होड़ में एक प्राणी दूसरे प्राणीका आहार बना हुआ है । इसीलिये जीवन के इस स्तर में आपको बीभत्सता, नारकीयता और अशान्ति के दर्शन होते हैं । जीव की प्रवृत्तियों में ज्यों ज्यों इस स्वकेन्द्रीकरणकी मात्रा कम होती जाती है त्यों त्यों वह अधिक विकसित होता चला जाता है । संसारकी अशान्ति और अराजकताका मूल कारण प्रवृत्तियों का स्व- केन्द्रीकरण है । एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की सम्पदाको हड़प कर सुखी बनना चाहता है, एक समाज दूसरे समाजको बर्बाद कर अधिक शक्तिशाली बननेकी कल्पना करता हैं। अधिक व्यापक रूपमें एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर अधिकार कर अपना प्रभुत्व बढ़ानेमें लगा हुआ है। पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, नाजीवाद, तथा फ़ैसिम ये सब प्रवृत्तियों के स्व-केन्द्रीकरण के आधार पर ही स्थिर हैं । इसीलिये उनका परिणाम है दुःख और शान्ति । प्रवृत्तियों के इस स्वकेन्द्रीकरणको देखकर शायद नैशेने इस सिद्धान्तका प्रतिपादन किया था कि जीवकी मूलभावना लोक में शक्ति (प्रभुत्व ) प्राप्त करना है । वर्तमान जर्मनी नैशेके विचारोंका मूर्तिमंत रूप है । नैशेके इस सिद्धान्तको लेकर हम किसी भी प्रकारकी स्थायी सामाजिकव्यवस्थाकी कल्पना नहीं कर सकते; उसके सारे फलितार्थ हमें अराजकता ( Chaos ) की ओर ले जाते हैं । तत्र संसार के दुःखों को किस प्रकार दूर किया जा सकता है ? जब तक व्यक्ति के स्वार्थका समाजके स्वार्थ के साथ विरोधीपन नहीं होता तब तक न तो व्यक्ति ही सुखी हो सकता है और न समाजही सुखका अनु
SR No.527161
Book TitleAnekant 1940 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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