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________________ वर्ष ३. किरण ६] धर्माचरणमें सुधार ३८६ कर असलियत को ढूंढने वाले बढ़ते जाते हैं । जब वे होना चाहिए किन्तु धर्मके जाननेके वास्ते धर्मशास्त्रोंको देखते हैं कि विद्वान लोग भी निर्जीव थोथी क्रियाओंको ही आधार मानना चाहिये । ही धर्म बताते हैं और सुधारकोंको अधर्मी ठहराते हैं। जो विद्वान भाई जैनधर्मके असली स्वरूपको तब जैनधर्म वास्तवमें यह थोथा ही धर्म होगा, जिस- समझ कर वैसा ही सर्व साधारणमें प्रगट करनेका का समर्थन विद्वानों द्वारा हो रहा है। ऐसा देखकर साहस रखते हैं, उनसे हमारा नम्र निवेदन है कि उनकी श्रद्धा जैनकी तरफसे शिथिल होनी जाती है। वे साहस कर सुधारके लिये कमर बांधे । दुनियांके अतः हमको लाचार होकर अब यह कहने की जरूरत लोग तो आजकल दुनियांकी बातों में सुधार होनेके पड़ती है कि हमारे परीक्षा प्रधानी भाई स्वयं जैन वास्ते भी अपना तन, मन, धन अर्पण करनेको शास्त्रोंकी स्वाध्याय कर जैनधर्मके स्वरूपको पहचानें। तैयार हैं, तो क्या जैनधर्म में ऐसे सच्चे श्रद्धानी नहीं जैनधर्म में तो इस ही कारण सबसे पहले तत्वोंके मिलेंगे जो धर्ममें सुधार करनेके लिये उसके मानने स्वरूपको भलीभांति समझकर उन पर श्रद्धान लाना वालोंकी मान्यताओं में जो विकार आरहा है उसको ज़रूरी बताया है। चारित्र तो उसके पीछे ही बताया जैनशास्त्रोंके आधारसे दूर कर शास्त्रानुकूल सत्यधर्मका है। और वह ही चारित्र सच्चा चारित्र ठहराया है जो प्रचार करने के लिये खड़े हो जावें और अपने भाइयों के सम्यक श्रद्धान और सम्यक् ज्ञान के अनुकूल हो, विरोधका कुछ भी बुरा न मान उसको हंसते २ सहन जिससे प्रात्माकी शुद्धि होकर उसका विभाव भाव दूर कर जावें । ऐसे सच्चे धर्मात्मा अवश्य हैं, उन ही से होता हो और असली स्वभाव प्रगट होता हो। इस हमारी यह अपील है। कारण किसीके भी बहकायेमें श्राकर विचलित नहीं महावीर-गीत (ले०–शान्तिस्वरूप जैन कुसुम'] तुम थे जगके मीत, स्वामी ! तुम थे जगके मीत । जीवन नौका लिये गुणागर ! विषय-तप्त इस दीन जगत् पर, आये जब तरने भव सागर, • बर्षाया वचनामृत झर-झर, मुदित हुए सब जीव जगत्के, विपद हुई भय भीत। कण-कराने पाया नवजीवन, उलट गयी सब रीत । तुम थे जगके मीत, स्वामी ! तुम थे जगके मीत ॥ तुम थे जगके मीत, स्वामी ! तुम थे जगके मीत ॥ कितनी नावें ऊब चुकी थीं, जगसे जड़ता दूर भगाकर, कितनी इनमें डब चुकी थीं, सत्य अमर संगीत सुनाकर, कितनी झंझाके झोकोंसे, बहती थीं विपरीत। उसी रागसे जाग उठी फिर सोई जगकी प्रीत । तुम थे जगके मीत, स्वामी ! तुम थे जगके मीत ॥ तुम थे जगके मीत, स्वामी ! तुम थे जगके मीत ॥ पर तुम थे उन सबसे न्यारे, आज मनाते जन्म तुम्हारा, बाधक, साधक हुए तुम्हारे, __ गद्गद् होता हृदय हमारा, पहुँच गये मंजिल पर अपनी, लेकर लक्ष्य पुनीत । गाता है, गायेगा प्रभुवर ! जगत तुम्हारे गीत ! तुम थे जगके मीत, स्वामी ! तुम थे जगके मीत ॥ तुम थे जगके मीत, स्वामी ! तुम थे जगत के मीत । .
SR No.527161
Book TitleAnekant 1940 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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