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________________ ४२४. अनेकान्त अन्तः शक्तियों में रहता है; उसके उद्देश्य बल, ज्ञान बल, पुरुषार्थं बलमें रहता है । केवल इनकी गतिको बदलने की जरूरत है । इनका उपयोग बाहिरसे हटा अन्दरकी ओर लगाना है । इन्हें बजाय अनात्म उद्देश, श्रनात्म दान, अनात्म पुरुषार्थ के ज्ञान, श्रात्म पुरुषार्थ में तबदील करना है । फिर ये जीवनके बजाये इस पारके उस पार ले जाने वाले हो जाते हैं । यह बजाय संसारके मोक्षका साधन बन जाते हैं, बजाय मृत्युलोक के • अमृतलोकका मार्ग बन जाते हैं । बाह्यमुखी रूपसे इन तीनोंकी एकता संसारकी रचयिता है । अन्तःमुखी रूपसे इन तीनोंकी एकता मोक्ष की रचयिता है । जैसे संसारमें किसी भी पदार्थ की सिद्धि केवल उसकी कामना करने से, केवल उसे जान लेने से नहीं होती, बल्कि उसकी सिद्धि कामना तथा ज्ञान के साथ पुरुषार्थ जोड़ने से होती है ऐसे ही परमात्म स्वरूपकी सिद्धि केवल उसमें श्रद्धा रखनेसे, केवल उसे जान लेने से नहीं होती; बल्कि उसकी सिद्धि श्रात्म-श्रद्धा, श्रात्म ज्ञानके साथ श्रात्म- पुरुषार्थ जोड़ने से होती है । जो केवल परमात्म पदकी श्रद्धा और भक्ति में अटक कर रह जाता है, वह अग्नि विदग्ध नगरीमें पड़े हुये उस श्रालसीके समान हैं जो सुखकी कामना करता हुआ भी अपनी सहायता करने में असमर्थ है । जो परमात्म-तत्त्व के रहस्यको जानकर केवल उसके ज्ञानमें मग्न हो अपनेको हो भाग्य मानता है वह उस सुस्वप्न कुम्भकारके समान है जो अपने सुविचारसे अपनी दीनताको और अधिक दीन बना लेता है । [ चैत्र, वीर - निर्वाण सं०२४६६ समान है जो प्रकृतिके सहारे छोड़ दी गई है । जिधर मौज ले चली, चल पड़ी, जहां टकरा दिया टकरा गई, जहां डाल दिया, गिर गई । जो बिना श्रात्म श्रद्धा, बिना श्रात्म-ज्ञान के केवल पुरुषार्थी बना है, वह नाविक-हीन उस स्वच्छंद नावके + व्याख्या प्रज्ञप्ति ८-१० बोध प्राभृत २१ यह तीनों ही मृत्युके ग्रास हैं, बार बार काल चक्र से पीसे जाते हैं। इसलिये जीवनका सिद्धि-मार्ग त्रि गुणात्मक है, सदुलक्ष्य, सद्ज्ञान और सद्- पुरुषार्थ जो ग्रात्म- जक्ष्यको लक्ष्य बनाकर मिध्यात्वका अंत करता है, जो अन्य ज्ञानसे उसे देखता जानता हुआा विद्याका अंत करता है, जो श्रात्माचार्यासे लक्ष्यको जीवन में उतारता हुआ मोहका अन्त करता है वह ही निश्चय पूर्वक धर्म है, धर्म-मार्ग है, धर्म-तीर्थ है । वह ही साक्षात् धर्म- मूर्ति है, धर्म-श्रवतार है । आत्मा में ही परमात्मा छुपा हुआ है । श्रात्मामें ही उसे सिद्ध करनेकी वेदना और वांछा बनी है। त्मामें ही उसे सिद्ध करनेकी शक्तियाँ मौजूद हैं। अतः आत्मा ही साध्य है, साधक है, साधन है । आत्मा ही इष्ट पद है पथिक है, पथ है । श्रात्मा ही उस पार है, नाविक है और नाव है । जो आत्मलक्षी है, ग्रात्मज्ञानी है, ग्रात्मनिष्ट है, निरहंकार-निर्ममत्व है, जिसके समस्त संशय, समस्त भ्रम दूर हो गये हैं, समस्त ग्रन्थियाँ, समस्त सम्बन्ध शिथिल हो गये हैं । समस्त श्राशायें - तृष्णायें शाँत हो गई हैं, समस्त उद्योग बन्द हो गये हैं, जिसने अपनी श्राशा अपने ही में लगाली है, अपनी दुनिया अपने ही में + सन्मतितर्क ३, ६८ + भाव प्राभृत ८३, योगसार ८३; तत्त्वानुशासन ३२ द्रव्य संग्रह ४०, ४१; * “I am the way, the truth and the life." Bible St. John 14. 6. /
SR No.527161
Book TitleAnekant 1940 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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