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________________ वर्ष ३, किरण ६] श्वेताम्बर कर्म साहित्य और दिगम्बर 'पंचसंग्रह' ३८३ अपने उक्त प्रकरणकी समाप्ति के साथ अपना नाम भी लन किया हुअा मालूम नहीं होता, किन्तु किसी दूसरे व्यक्त किया है। ही के द्वारा इधर उधरसे संग्रह किया हुआ जान सुयदेविपसायाश्रो पगरणमेयं समासो भणियं। पड़ता है । समयानो चंदरिसिणा समईविभवानुसारेण ॥ दिगम्बरीय प्राकृत पंचसंग्रहके सत्तर भंगवाले इस गाथामें बताया है कि आगम और श्रुतदेवीकी अंतिम अधिकारकी ५१ गाथाएं उक्त प्रकरणमें प्रायः प्रसन्नतासे यह प्रकरण मुझ चंद्रर्षिने अपनी बुद्धिविभव ज्योंकी त्यों अथवा कुछ थोड़ेसे पाठ-भेदके साथ उपके अनुसार संक्षेपसे कहा है। लब्ध होती हैं । उसमें से दो गाथाएं यहां नमूनेके तौर इसके भिवाय, पंचसंग्रह की अपनी स्वोपज्ञवृत्तिमें पर दी जाती हैं:-- भी चंद्रर्षिने मंगलाचरण किया है और टीका के अंतमें कदिबंधतो वेददि कइया कदि पयडिठाण कम्मंसा If प्रशस्ति भी दी है जिसमें अपने को पार्श्वऋषिका मूलुत्तरपयडीसु य भंगवियप्पा दु बोहव्वा ॥ • शिष्य बतलाया है। परंतु 'सप्तितिका' नामके इस -प्रा० पंचसं०,५२८ प्रकरण में कोई मंगलाचरण नहीं किया है और न ग्रंथ- कइ बंधतो बेयइ कइ कइ वा पयडिसंतठाणाणि । के अन्त में संकलन कर्ताने अपना नाम ही व्यक्त किया मूलुत्तरपगईणं भंगवियप्पा उ बोहवा ॥ है । अतः चन्द्रर्षिही इस प्रकरण के संकलनकर्ता हैं या -सप्ततिका ७२ . कोई अन्य, यह बात जरूर विचारणीय है । ऐसा नहीं अट्ठविहसत्त छब्बंधगेसुअटेव उदयकम्मंसा । हो सकता कि एक ही ग्रंथकार अपने एक ग्रंथमें और एयविहे तिवियप्पो एयवियप्पो अबंधम्मि ॥ उसकी टीका तकमें तो मंगलाचरण दें और ग्रंथके प्रा० पंचसंग्रह, ५२६ अन्तमें अपना नाम भी प्रकट करें, परंतु दूसरे ग्रंथमें अट्टविहसत्तछब्बंधगेसु अटेव उदयसंताई । आदि अंतकी उक्त दोनों बातोंमें से एक भी न करें। एगविहे तिविगप्पो एगविगप्पो अबंधम्मि ॥ इसके अतिरिक्त चंद्रर्षिने अपने पंचसंग्रहमें समातिका' -सप्ततिका ३ नामका एक प्रकरण भी लिखा है, जिसमें विस्तारसे इनके अतिरिक्त पंचसंग्रहकी गाथाएं नं० ५२७, इन्हीं सब बातोंका कथन किया गया है, जो इम ५३०, ५३१, ५३३, ५४७, ५५५, ५५६, सप्ततिका प्रकरण में तथा दिगम्बरीय कर्मग्रंथों में पाई ५५१, ५६२, ५७३, ५७ ४, ७४२, ७७४, ७७५, ७७६, जाती हैं । परंतु वह सब कथन अपने अनुभवादिके ७८५, ७८८, ८२६, ८३०, ६११, ६४६, ६८२,६८३, साथ अपने शब्दोंमें निरूपित है, जिससे उक्त प्रकरण ९८४, ६८६, ६८७, ६६०, ६६१, ६६५, १००३, बहुत अच्छा है। उस प्रकरणसे इस प्रकरणमें कोई १०१४, १०१५, १०१६, १०१७, थोड़ेसे साधारण विशेषता मालम नहीं होती, जिससे उनके द्वारा उसीके शब्द परिवर्तनके साथ सप्ततिका(षष्ठकर्मग्रंथ) में क्रमशः फिरसे रचे जानेकी कल्पना की जा सके । इस प्रकरणमें नं० १, ४, ५, ७, ११, १३, १४, १५, १६, २४, पंचसंग्रह जैसा स्पष्ट तथा उससे अपूर्व कुछ भी कथन २५, ३२, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३६, ४६, ४७, नहीं है । इसीसे यह प्रकरण श्राचार्य चंद्रषिका संक- अत्र अंश इतिशद्वेन सत्ता गृह्यते ।
SR No.527161
Book TitleAnekant 1940 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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