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________________ वर्ष ३, किरण ६] श्वेताम्बर कर्म साहित्य और दिगंबर 'पंचसंग्रह ' प्रश्न यह है कि वह संग्रह किसका किया हुआ है और कहांसे किया गया है । सटीक प्रतिमें उक्त गाथा पर कोई नम्बर नहीं दिया और न चूर्णीकारने इसकी व्याख्या ही की है । इसीलिये मलधारी हेमचन्द्रने इसकी टीका नहीं की और लिखा है कि 'यह गाथा इस ग्रंथके शुरुमें देखी जाती है परन्तु उसकी व्याख्या पूर्व चूर्णीकारने नहीं की, इसलिये उक्त गाथा प्रक्षिप्त मालूम होती है और सुगम भी है', ऐसा लिखकर उसके दोतीन पदों की साधारण व्याख्या दी है । इससे स्पष्ट है कि मलधारी हेमचंद्र भी इस गाथाको मूल ग्रंथकी मानने में संदिग्ध थे । अस्तु, यदि इस गाथाको मूल ग्रंथकी मानना इष्ट नहीं है तो इस ग्रंथके शिवशर्मकर्तृक होने की हालत में मंगलाचरणकी कोई दूसरी गाथा होनी चाहिये। क्योंकि आचार्य शिवशर्मने अपनी 'कर्मप्रकृति' में मंगलाचरण किया है । यह नहीं हो सकता कि एक हीग्रंथकार अपने एक ग्रंथमें तो मंगलगानपूर्वक ग्रंथ रचनेकी प्रतिज्ञा करे और दूसरे में न मंगलगान करे और न ग्रंथ रचने की कोई प्रतिज्ञा ही करे। जब मंगलादिककी दूसरी कोई गाथा नहीं है तब या तो इस ग्रन्थ को शिवशर्मकृत न कहना चाहिये । और या यह मानना चाहिये कि उक्त गाथा इसी ग्रंथकी गाथा है और उसके कथनानुसार यह ग्रन्थ एक संग्रह ग्रंथ है । दोनों हालतोंमें यह ग्रंथ शिवशर्मकृत नहीं ठहरता; क्योंकि यह ग्रंथ जैसा कि आगे प्रकट किया जायगा, शः नहीं किन्तु शब्दशः इतना अधिक संग्रहग्रंथ है कि इसे शिवशर्मजैसे श्राचार्यकी कृति नहीं कहा जा सकता। उनके कर्मप्रकृति ग्रंथकी पद्धति-कथनशैली और साहित्य के साथ इस * सिद्धं सिद्धत्थसुयं वंदियणिद्धो य सव्वकम्ममलं । कम्मट्ठगस्स करणगुदय संताणि वोच्छामि ॥ - कर्मप्रकृति १ ३७६ का कोई मेल भी नहीं बैठता और इसलिये इसका संग्रह किसी दूसरे ही विद्वान् ने किया । काँ है, इसका कुछ दिग्दर्शन श्रागे कराया जाता हैं । दि० जैन सम्प्रदाय में प्राकृत पंचसंग्रह नामका जो एक प्राचीन कर्मग्रंथ उपलब्ध है और जिसका संक्षिप्त परिचय अनेकान्तके इसी वर्षकी तीसरी किरण में 'अति प्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह ' शीर्षक के नीचे कराया जा चुका है, उसके 'शतक' नामक चतुर्थं प्रकरण की, जिसमें १०० बातें ३०० गाथाओं में वर्णित हैं, ६४गाथाएँ इस 'शतक' नामक प्रकरण में प्रायः ज्योंकी त्यों अथवा कुछ थोड़े से पाठ भेद या सामान्य शब्द - परिवर्तन के साथ पाई जाती हैं। उनमें एक गाथा ऐसे परिवर्तनको भी लिये हुए है जिसमें थोड़ासा साधारण मान्यता भेद उपलब्ध होता है और जो सम्प्रदाय - विशेष की मान्यताका सूचक है । प्राकृत पंचसंग्रहकी जो गाथाएँ उक्त 'शतक' अथवा 'बन्धशतक' में पाई जाती हैं उनमें से तीन गाथाएँ यहाँ नमूने के तौर पर नीचे दी जाती हैं:चोइससरायचरिमे पंचणियहीणियहि एयारं । सोलसमं दुणुभायं संजमगुणपच्छिम्रो जयइ ॥ - - प्रा० पंचसं० ४, ४७० चोइससरागचरिमे पंचमनियाट्टनियहि एक्कारं । सोलसमं दुभागा संजमगुणपत्थिश्रो जयइ ॥ -बन्धशतक, ७४ श्राहारमप्पमत्तो पत्तसुद्धो दु अरह सोयाणं । सोलस माणुस तिरिया सुर खिरया तमतमा तिरिण ॥ - प्रा० पंचसं०, ७, ४५६ श्राहारमध्यमत्तो पत्तसुद्धो उ घरइ सोगाणं । सोलस माणुसतिरिया सुरनारग तमतमा तिनि ॥ —बन्धशतक, ७५
SR No.527161
Book TitleAnekant 1940 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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