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________________ वर्ष ३, किरण ६] प्रभाचन्द्र का तत्त्वार्थसूत्र तैरधिगमस्तत्त्वानां ॥८ होता है, इसलिये क्षायिक' कहा जाता है । 'उन-प्रमाणों तथा नयों के द्वारा तत्वोंका षड्विधोऽवधिः ॥१२॥ विशेष ज्ञान होता है।' 'अवधिज्ञान छह भेदरूप है।' ___ इस सूत्रमें 'प्रमाणनयैः' की जगत 'तैः' पदके प्रयोग यहां छहकी संख्याका निर्देश करनेसे अवधिज्ञान से जहां सूत्रका लाघव हुआ है वहां 'तरवाना' पद कुछ के अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवअधिक जान पड़ता है । यह पद उमास्वातिके उक्त छठे स्थित और अनवस्थित ऐसे छह भेदोंका ग्रहण कियों सूत्रमें नहीं है फिर भी इस पदसे अर्थमें स्पष्टता जरूर गया है,जो सब क्षयोपशमके निमित्तसे ही होते हैं । भव श्रा जाती है। प्रत्यय अवधिज्ञान जो देव-नारकियोंके बतलाया गया है सदादिभिश्च ॥९॥ वह भी क्षयोपशमके बिना नहीं होता और छह भेदोंमें 'सत् भादिके द्वारा भी तस्वोंका विशेष ज्ञान होता उसका भी अन्तर्भाव हो जाता है, इसीसें यहाँ उसका पृथक रूपसे ग्रहण करना नहीं पाया जाता। यह सूत्र यहां 'श्रादि' शब्दसे संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, उमास्वातिके 'अयोपशमनिमिसः पविकल्पः शेषाणां अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व नामके सात अनुयोग- पर इस २२ वें सूत्रके साथ मिलता-जुलता है। द्वारोंके ग्रहणका निर्देश है; क्योंकि सत्-पूर्वक इन अनु द्विविधो मनःपर्ययः ॥१३॥ योगद्वारोंकी पाठ संख्या अागममें रूढ़ है-षट्खण्डा 'मनः पर्ययज्ञाम दो भेदरूप हैं।' गमादिकमें इनका बहुत विस्तारके साथ वर्णन है । इस ___यहां दोकी संख्याके निर्देश द्वारा मनः पर्ययके सूत्रका और उमास्वाति के 'सत्संख्यादि' सूत्र नं० ८ का ऋजमति और विपुलमति दोनों प्रसिद्ध भेदोंका संग्रह एक ही प्राशय है। किया गया है और इसलिये इसका वही श्राशय है जो मित्यादीनि [पंच] ज्ञानानि ॥१०॥ उमास्वातिके 'ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः' इस सूत्र नं० 'मति प्रादिक पांच ज्ञान हैं।' २३ का होता है। यहाँ 'श्रादि' शब्दके द्वारा श्रुत, अवधि, मनःपर्यय अखंडं केवलं ॥ १४॥ और केवल, इन चार ज्ञानोका संग्रह किया गया है, क्योंकि मति-पर्वक ये ही पाँच ज्ञान भागममें वर्णित है। केवलज्ञान प्रखंड है-उसके कोई भेद-प्रभेद क्षयोपशम [क्षय] हेतवः ॥११॥ नहीं है।' 'मस्यादिक ज्ञान पयोपशम-पय हेतुक है।' इस सूत्रके आशयका कोई सूत्र उमास्वातिके मति, श्रत, अवधि, मनःपर्यय, ये चार ज्ञान तो तत्वाथसूत्रम नहीं है। मतिज्ञानावरणादि कर्म प्रकृतियोंके क्षयोपशमसे होते हैं, समयो समयमेकत्र चत्वारि ॥ १५॥ ... इसलिये 'क्षायोपशामिक' कहलाते हैं और केवलज्ञान 'कभी कभी एक नींवमें युगात चार ज्ञान होते हैं। ज्ञानावरणादि-घातियाकर्म-प्रकृतियोंके क्षबसे उत्पन्न केवलज्ञानको छोड़ कर शेष चार शाम एक स्थान. स।
SR No.527161
Book TitleAnekant 1940 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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