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________________ [चैत्र, वीर निर्वाण सं०२४६६ का अन्त अपने ही स्थानमें इटकर खड़ा हो जानेसे इनका निरोध करनेसे होता है-इनका संवर करनेसे होता है, उसका सामना करनेसे होता है, उसका तार होता है । इन्हें बाह्य उद्योगोंसे हटा पारमार्थिक उद्योतार करनेसे होता है, उसका तिरस्कार करनेसे होता है। गोंमें लगानेसे होता है । इस तरह संसारका अन्त .. अज्ञानका अन्त उसकी सुझाई हुई बातोंको प्रवृत्ति मार्ग से नहीं होता निवृत्ति मार्गसे होता है। माननेसे नहीं होता, न संशयमें पड़े रहनेसे होता है, न सि होता है, न परन्तु जीवन-सिद्धिका मार्ग केवल इतना ही नहीं अनिश्चित गति रखनेसे होता है । उसका अन्त उसके है। यह केवल निषेध, संवर, और सन्यास रूप ही मन्तव्योंका साक्षात् करनेसे होता है, उनका अनुसन्धान नहीं है। यह विधिमुख्य भी है । निषेध, संवर, सन्यास और परीक्षा करनेसे होता है, उनमें निज-परका, सत्य आत्म-साधनाकी पहली सीढ़ी है। साधककी पाद. असत्यका हित-अहितका विवेक करनेसे होता है । पीठिका है। इसमें अभ्यस्त होनेसे आत्मा साक्षात् सिद्ध मोहका अन्त मुग्ध भावोंमें तल्लीन रहनेसे नहीं मार्ग पर श्रारूढ़ होनेके लिये समर्थ हो जाता है । होता, न उन्हें चुपचुपाते हृदयमें छुपाये रहनेसे होता है। अबाध और निर्विघ्न हो जाता है । वह स्थिर, उज्वल उसका अन्त मुग्ध भावोंकी मूढ़ता निरखनेसे होता है, और शांत हो जाता है। परन्तु इतना मात्र होकर उनकी मूढ़ताकी निन्दा, आलोचना प्रायश्चित करनेसे रह जानेसे काम नहीं चलता। इससे मिथ्यात्व, अज्ञान होता है । ममकार ग्रंथियोंका अन्त उन्हें पुष्ट करनेसे और मोहका समूल नाश नहीं हो जाता। वे अनादिनहीं होता, उन्हें शिथिल करनेसे होता है । वासनाओंका कालसे अभ्यासमें आते आते संस्कार, संज्ञा, और 'अन्त भोगसे नहीं होता; संयमसे होता है । इच्छाअोंका भाव बन गये हैं । अतः चेतनाकी गहराई में उतर कर अन्त . परिग्रहसे नहीं होता, संयमसे होता है । बैठ गये हैं । वे दूसरा जीवन बन गये हैं । वे किसी नृष्णमोका अन्त तृप्ति से नहीं होता, त्यागसे होता है। भी समय फूट निकलते हैं । वे निष्कारण भी आत्माद्वेषका अन्त वैरशोधनसे नहीं होता, क्षमासे होता है। को उद्विग्न, भ्रान्त और अशान्त बना देते हैं । जब __ भव-भ्रमणका अन्त बाह्यरमणसे नहीं होता, . तक इनका उच्छेद नहीं होता, संसार चक्रका अन्त अन्तः रमण से होता है। इस नाम-रूप-कर्मात्मक नहीं होता। जगत का अन्त उसके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे नहीं इन संस्कारोंको निर्मल करने के लिये निषेधके साथ होता, उन तन्तुओंके विच्छेदसे होता है जिन के द्वारा विधिको जोड़ना होगा। प्रमाद छोड़ना होगा । सावजीवन जगतके साथ बँधा है । यह विच्छेद-मन वचनः धान और जागरुक रहना होगा । समस्त परम्परागत कायके कर्म-धर्म विधान करनेसे नहीं होता, दण्ड दण्ड- भावों, संज्ञाओं और वृत्तियोंसे अपनेको पृथक करना विधान करनेसे होता है, इन्हें गुप्त करनेसे होता है। होगा । इन्द्रिय और मनको बाहिरसे हटा अन्दर ले जाना मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, काय गुप्ति पालनेसे होता है । होगा । अपने ही में श्रापको लाना होगा। ध्यानस्थ सूत्रकृताङ्ग १, १२, ११। होना होगा। मझिमनिकाय। * तत्वार्थाधिगम सूत्र है...२ * समाधिशतक ॥ ४५ ॥
SR No.527161
Book TitleAnekant 1940 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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