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________________ ३६४ 'अनेकान्त कहीं स्वरादि-संधि-सूचक संकेतचिन्ह, पदोंकी विभिनता सूचक चिन्ह तथा संख्या- सूचक अंक भी बारीक टाइपमें (लघुआाकारमें) अक्षरों के ऊपर की ओर लगाये गये हैं । टिप्पणी एक स्थान को छोड़कर और कहीं भी नहीं है, और वह है “त्रिविधा भोगभूमयः ” सूत्र पर " जघन्य १ मध्य २ उत्कृष्ठ ३" के रूपमें, जो प्रायः प्रतिलिपि करने वाले के ही हाथ की लिखी हुई जान पड़ती है और इस बात को सूचित करती है कि जिस प्रति परसे यह प्रति उतारी गई है संभवतः उसमें भी वह इसी रूप में होगी । इस प्रतिमें अनुस्वारको कहीं भी पंचमाक्षर नहीं किया गया है। कार की आकृति 'र्ड और औौकार की 'ऊ' दी है । अंकों में ६-६ की आकृति क्रमशः '६' और '' दी है । [ चैत्र, वीर- निर्वाण सं० २४६६ नहीं है, फिर भी यह प्रति अपने काग़ज़ की स्थिति और लिखावट श्रादिपरसे २५०-३०० वर्ष से कमकी लिखी हुई मालूम नहीं होती । इसे पण्डित रतनलालने कोपावदा में लिखा है, जैसा कि इसकी निम्न अन्तिम पंक्तिसे प्रकट है: "पंडित रतनलालेन लिषितं कोटपावदामध्ये संपूर्णजातः” 4 ग्रंथप्रति यद्यपि अधिकांश में शुद्ध है, फिर भी उसमें कुछ साधारण तथा महत्वकी अशुद्धियां भी पाई जाती हैं। व-ब का भेद तो बहुत ही कम रक्खा हुआ जान पड़ता है - कहीं कहीं तो इन अक्षरोंका प्रयोग ठीक हुआ है, और कहीं वकार की जगह बकार और बकार की जगह वकारका प्रयोग कर दिया गया है— जैसे बिधो, बिधः, द्रव्य, बिग्रहा, देव्यः, वर्षाणि, विधा, चतुर्विंशति, बैमानिका, विघ्न, बिरति बिधं, पंचहि शति, अष्टाविंशति, ज्ञानाबरण, विंशति, संबर और बिरचिते (सर्वत्र) इनमें 'व' के स्थान पर 'ब' का प्रयोग है; और जंव ब्रह्मालया तथा बहु, इन शब्दों में 'ब' के स्थान पर 'व' का प्रयोग हुआ है, जो शुद्ध है, और यह सब प्रायः लिपिकारकी नित्यकी बोलचालके अभ्याससे सम्बन्ध रखता हुआ जान पड़ता है। ग्रन्थप्रति अन्त में यद्यपि लिपि सम्वत् दिया हुआ मालूम नहीं यह 'कोषावदा' स्थान कहाँपर स्थित है । परन्तु इस ग्रन्थप्रतिकी प्राप्ति वर्तमान में कोटा रियासतसे हुई है। कोटा में भाई केसरीमलजी एक प्रमुख खण्डेलवाल जैन तथा सार्वजनिक कार्यकर्ता हैं, उनके पास रामपुर जि० सहारनपुर निवासी बाबू कौशलप्रसादजीने, जो आजकल सहारनपुर में तिलक बीमा कम्पनी चीफ़ एजेंट हैं, यह ग्रन्थ देखा और इसे एक अपूर्व चीज समझकर उनके पाससे ले आए तथा विशेष जाँचपड़ताल एवं परिचयादिके लिये मेरे सुपुर्द किया, जिसके लिये मैं उनका बहुत ही आभारी हूँ । भाई केसरीमलजी ने इस ग्रंथकी प्राप्तिका जो इतिहास बा० कौशलप्रसादजीको बतलाया उससे मालूम हुआ कि 'कोटा में भट्टारककी एक गद्दी थी, उस गद्दीपर दुर्भाग्य से एक ऐसा ही आदमी आगया जिसने वहाँका सारा शास्त्र भण्डार रद्दीमें बेच दिया ! कुछ दिन पहले केसरीमलजीने इस प्रकारकी रद्दीकी एक बोरी एक मुसलमान बोहरके यहाँ देखी और उसे आठ आने में खरीद लिया । उसी बोरीमें से इस ग्रन्थरत्नकी प्राप्ति हुई है ।' ग्रंथ प्राप्तिकी यह छोटीसी घटना बड़ी ही हृदयद्रावक है और इससे जैनियोंके शास्त्र भण्डारों की श्रव्यवस्था, अपात्रों के हाथमें उनकी सत्ता और साथ ही अनोखी श्रुतभक्तिपर दो आँसू बहाये बिना नहीं रहा जाता ! जैनियोंकी इस लापर्वाही और ग्रन्थोंकी बेदर
SR No.527161
Book TitleAnekant 1940 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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