SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [चैत्र, वीर निर्वाण सं०२४६६ उठने शुरू होते हैं । क्या दुःखी जीवन ही जीवन है ? तन्द्रा और म को अपनाया, मांस-मैथुन-मदिराको क्या मरणशील जीवन जीवन है ? यदि यह नहीं ग्रहण किया । अनेक अामोद-प्रमोद, हँसी-मज़ाकके तो जीवन क्या है ? उद्देश क्या है ? फिर वही तर्क उपाय निकाले । अनेक खेल कूद और व्यसन ईजाद वितर्क, फिर वही मीमांसा दुहरानी शुरू होती हैं। किये, परन्तु दुःखने साथ न छोड़ा । ___ प्रश्न हल करनेका विफल साधनः यह देख उद्योग मार्ग पर अधिक जोर दिया। - जीवने इन प्रश्नोंको हल करनेके लिये बुद्धि-ज्ञान । अनेक उद्योग धन्धे, अनेक काम काज अनेक व्यवसाय से बहुत काम लिया, उसके पर्याप्त साधनों पर-इन्द्रिय बनाये । इनमें उपयुक्त रहना ज़रूरी माना गया, बेकार रहनेसे बेगारमें लगे रहना भला समझा गया; परन्तु और मन पर बहुत विश्वास किया, इन्हें अनेक प्रकार दुःखका अन्त न हुअा। उपयोगमें लाकर जीवन तथ्य जाननेकी कोशिश की; परन्तु इन्होंने हमेशा एक ही उत्तर दिया कि 'लौकिक इसपर मनुष्यने विचारा कि सुख दुःख काल्पनिक जीवन ही जीवन है; शरीर ही आत्मा है, भोग रस ही ही नहीं हैं। दुःख भुलाने से नहीं भुलाया जा सकता और सुख कल्पना करने से सिद्ध नहीं हो सकता। यह सुख है, धन धान्य ही सम्पदा है, नाम ही वैभव है, रूप ही सुन्दरता है; भौतिक बल ही बल है, सन्तति ही वास्तविक है, परन्तु यह अपने आधीन नहीं, बाह्य लोक के आधीन है, जगतकी प्राकृतिक शक्तियों के अाधीन अमरता है। इन्हें ही बनाये रखने, इन्हें ही सुदृढ़ बलवती करने, इन्हें ही सौम्यसुन्दर बनानेका प्रयत्न है, शक्तियों के अधिष्टाता देवी-देवताओंके अाधीन है । देवी देवता महा बलवान हैं, अजयी हैं, अपनी मर्जीके करना चाहिये । जीवनका मार्ग:प्रवृत्ति मार्ग है;प्रकृति के नियमानुसार कर्म करते हुये, भोगरस लेते हुये विचरना मालिक हैं। इनका अनुग्रह हासिल करने के लिये इन्हें ही जीवन-पथ है । और सुखदुःख ? सुखदुःख स्वयं कोई पूजा-प्रार्थना, स्तुति-वंदना, यज्ञ-होम से सन्तुष्ट करना चीज़ नहीं हैं, यह सब वाह्य जगतके श्राधीन हैं । इसीकी चाहिये । यह सोच मनुष्यने याज्ञिक मार्गको ग्रहण कल्पनामें रहते हैं, इसे दुःखदायी कल्पित करनेसे किया, परन्तु इष्ट फलकी सिद्धि न हुई । जगत ज्योंका दुःख और सुखदायी कल्पित करनेसे सुख पैदा होता त्यों अन्ध, स्वच्छन्द, विवेक हीन बना रहा। वह है । अतः दुःखदायी पहलको भुलाने और सुखदायी उपासक और निन्दकमें, अच्छे और बुरेमें कोई भेद पहलूमें मग्न रहने का अभ्यास करना चाहिये ।' न कर सका, उसका उपकार है तो सबके लिये, उसका इस बुद्धि अनुसार दुःखको भुलाने और सुखको अपकार है तो सबके लिये। अनुभव करने के लिये जीवने क्या कुछ नहीं किया । तब मनुष्य ने इन मार्गोको निरर्थक मान स्वावलअनेक पहलू बदले, अनेक मार्ग ग्रहण किये; परन्तु कुछ म्बनका आश्रय लिया। पूजा-प्रार्थनाको छोड़ जगतभी न हुआ, प्रश्न ज्योंके त्यों खड़े रहे ! शक्तियोंको बलपूर्वक अपने वश करनेका इरादा किया । शुरू शुरू में तान्त्रिक मार्गको अाजमाया। देवी जीवनके विफल मार्गः देवताओंको विजय करने के लिये अनेक मन्त्र, तन्त्र, जीवने अज्ञान मार्गका आश्रय लिया। निद्रा, यन्त्र ईजाद किये । शरीरको दृढ़ बलिष्ठ करने के लिये,
SR No.527161
Book TitleAnekant 1940 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy