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________________ वर्ष ३, किरण ६] प्रभाचन्द्रका तत्वार्थसूत्र । 'निवृत्युपकरणे द्रव्येन्दियं' १७, लब्ध्युपयोगौ मावेन्द्रियं । यहाँ 'श्रादि' शब्दसे वैफ्रियक, अहारक, तेजस १८, इन तीन सूत्रोंके आशयका समावेश है, परन्तु और कार्मण नामके चार शरीरोंके ग्रहणका संकेत है; द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रियके भेदोंको खोला नहीं। क्योंकि औदारिक-सहित शरीरोंके पांच ही भेद आगममें विग्रहाद्या गतयः ॥७॥ पाये जाते हैं। और इसलिये इस सत्रका वही श्राशय 'विग्रहा मादि गतियां है।' है जो उमास्वातिके 'औदारिकवैक्रियिकाहारकयहाँ गतियोंकी कोई संख्या नहीं दी। विग्रहागति तैजसकार्मणानि शरीराणि" इस सूत्र नं० ३६ का है। संसारी जीवोंकी और अविग्रहा मुक्त जीवोंकी होती है। . एकस्मिन्नात्मन्याचतुर्थ्यः ॥१०॥ अविग्रहाको 'इषुगति' भी कहते हैं, और 'विग्रहा' के तीन 'एक जीवमें चार तक शरीर (एक साथ) होते हैं।' भेद किये जाते हैं-१ पाणिमुक्ता २ लाङ्गलिका ३ यह सत्र उमास्वातिके "तदादीनिभाज्यानि युगपदेगोमूत्रिका | आर्षग्रंथों में इघुगति-सहित इन्हें गतिके चार कस्मिन्नाचतुर्व्यः" इस सत्रके साथ मिलता जुलता है; भेद गिनाये हैं। यदि इन चारोंका ही अभिप्राय यहाँ परन्तु इस सत्रमें 'तदादीनि' पदके द्वारा 'तेजस और होता तो इस सूत्रका कुछ दूसरा ही रूप होता। अतः कार्मण नामके दो शरीरोंको श्रादि लेकर' ऐसा जो विग्रहा, अविग्रहाके अतिरिक्त गतिके नरकगति, तिर्यंच कथन किया गया है और उसके द्वारा एक शरीर अलग गति, देवगति,मनुष्यगति ऐसे जो चारभेद और भी किये नहीं होता ऐसा जो नियम किया गया है वह स्पष्ट जाते हैं उनका भी समावेश इस सूत्रमें हो सकता है । विधान इस सूत्रसे उपलब्ध नहीं होता । वा उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमें इस प्रकारका कोई अलग ___ आहारकं प्रमत्त संयत]स्यैव ॥११॥ सूत्र नहीं है-यों 'अविग्रहाजीवस्य, विग्रहवती च संसा 'पाहारक प्रमत्तसंयतके ही होता है।' रिणः प्राक्चतुर्थ्यः, एकसमयाऽविग्रहा' आदि सूत्रोंमें श्राहारक शरीरके लिये यह नियमः है कि वह गतियोंका उल्लेख पाया ही जाता है। प्रमत्तसंयत नामके छठे गुणस्थानवर्ती मुनिके ही होता सचित्तादयो योनयः ॥ ८ ॥ है-अन्यके नहीं । उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमें इसी _ 'सचित्त आदि योनियाँ हैं।' श्राशयका सूत्र नं०४६ पर है। उसमें आहारक शरीरके यहाँ सत्रमें यद्यपि योनियोंकी संख्या नहीं दी; परंतु शुभ, विशुद्ध, अव्याधाति ऐसे तीन विशेषण दिये हैं। सचित्त योनिसे जिनका प्रारम्भ होता है उनकी संख्या मूल बात श्राहारक शरीरके स्वामितत्वनिर्देशकी दोनोंमें आगममें नव है-ग्रंथप्रतिमें 'योनयः' पद पर ६ का एक ही है । श्वेताम्बरीय सूत्रपाठमें 'प्रमत्तसंयतस्यैच अंक भी दिया हुआ है । ऐसी हालतमें उमास्वातिके के स्थान पर 'चतुर्दशपूर्वधरस्यैव' पाठ है, और इसलिये "सचित्त-शीत-संवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तयोनयः" वे लोग चौदह पूर्वधारी (श्रुतकेवली) मुनिके ही श्राहाइस सूत्र नं० ३२ का जो आशय है वही इस सूत्रका रक शरीरका होना बतलाते हैं। . श्राशय समझना चाहिये । तीर्थेश-देव-नारक-भोगभुवोऽखंडायुषः ॥१२॥ भौदारिकादीनि शरीराणि ॥९॥ 'भौदारिक मादि शरीर होते हैं।' अिखंडायुषः ।
SR No.527161
Book TitleAnekant 1940 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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