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________________ वीरका जीवनमार्ग वर्ष ३, किरा ६ ] स्वीकार करता है, उसकी प्राप्ति की सदा भावना रखता है । इसलिये यह विवादका विषय नहीं, समस्याका विषय नहीं । यह श्रासक्ति का विषय है, भक्तिका विषय है, सिद्धि का विषय है । यह इसीका लोक है जिसे देखनेको जीवन तरस रहा है, जिसे पानेको वाञ्छाओं से घिरा है, जिसे सिद्ध करनेको उद्यम और पुरुषार्थ से भरा है । यह इसीका श्रालोक है जो जीवनको दुःखदर्द सहनेको दृढ बनाता है, श्रापद-विपदाओं में से गुज़रनेको साहसी बनाता है, असफलता निराशाओंके लाँघने को बलवान बनाता है, मर मर कर ज़िन्दा रहने को समर्थ बनाता है । यही वास्तव में निर्बलका बल है। निराशामयकी श्राशा है । निस्सहायका सहारा है । दीन-दलितका दिलासा है, जीवनका जीवन है । इस श्रालोक के बिना जीवन ऐक निरी दुःख-दर्द भरी कहानी है । इसका श्रालोक ही जीवन के लिये हित हित, सत्य-असत्य, हेय- उपादेयका निश्चय करता रहता है; युक्त प्रयुक्त, उचित अनुचित, कर्तव्य कर्तव्यका निर्णय करता रहता है; हित-प्राप्ति श्रहित परिहारके लिये प्रेरणा करता रहता है । यही जीवनका निश्चयकार है, निर्णयकार है, आज्ञाकार है, स्वामी है, ईश्वर है, विधाता है । यदि यह जीवन एकबार मिल जाये तो और कुछ पाना बाकी नहीं रहता, यह परमार्थ पद है, परमेष्टि पद है । इसे सिद्ध कर और कुछ सिद्ध करना शेष नहीं रहता, यह सिद्ध पद है, कृत्कृत्य पद है । इससे परे इससे ऊपर और कुछ नहीं रहता । यह परमपद है, परमात्म-पद है । इसे पा समस्त विकल्प, द्विधा, वाञ्छा, तृष्णाका अन्त होजाता है यह कैवल्य पद है ! इसकी प्राप्ति में समस्त वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान, और रूपका अभाव होजाता है, यह 218 शून्य पद है, युक्तिपद है, निर्वाण पद है, इसे पा. फिर छोड़ना नहीं होता, यह अच्युत पद है । यद्यपि यह जीवन सर्वथा अलौकिक है, अद्भुत और अनुपम है । यह शरीर, इन्द्रिय और मन से दूर है । इस लोककी वस्तु नहीं। परन्तु भूल, अज्ञान, मोहके कारण कस्तूरी मृगके समान, यह जीव इसकी धारणा जगत में करता है, इसे व्यर्थ ही वहाँ ढूँढता है, वहाँ न पाकर व्यर्थ ही खेद खिन्न होता है । इष्ट जीवन साध्य जीवन है : इस भोले जीव को पता नहीं कि, वह चीज़ जिस का श्रालोक इसे उद्विग्न बना रहा है, बाहिर नहीं अन्दर है । दूर नहीं, निकट है। दौरंगी नहीं, एक रस है। यह जीवन स्वयं श्रात्मलोक में बसा है। श्रात्माकी अपनी अन्तर्वस्तु है यह इसमें ऐसी ही छिपी है जैसे अनगढ पाषाण में मूर्ति, बिखरी रेखाओं में चित्र, वीणाके चुपचाप तारों में राग, अचेत भावना में काव्य ये भाव जब तक इन पदार्थों में अभिव्यक्त नहीं होते, दिखाई नहीं देते, ये वहाँ सोये पड़े रहते हैं । बाहिरसे देखनेवालों को ऐसा मालूम होता है कि यह भाव भिन्न हैं, और यह पदार्थ भिन्न है, यह भाव और हैं, वह पदार्थ और है । ये भाव महान हैं, विलक्षण हैं, दूर हैं, और वह पदार्थ तुच्छ है, हीन है साधारण है। भला इनका उनसे क्या सम्बन्ध, क्या तुलना ? ऐसे ऐसे इन पर हज़ार न्योछावर हो सकते हैं । ये भाव दुर्लभ हैं, अमूल्य हैं। असाध्य हैं, अप्राप्य हैं । परन्तु ये भाव इन पदार्थोंसे ऐसे भिन्न नहीं, ऐसे दूर नहीं कि वह इनमें प्रगट ही न हो सकें । उनकी विभिन्नता ज़रूर है परन्तु वह विभिन्नता वास्तविक विभिन्नता नहीं, वह केवल अवस्थाकी विभिन्नता है ।
SR No.527161
Book TitleAnekant 1940 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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