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अनेकान्त
. हैं। वे इसकी कल्पना पर निर्भर नहीं, इसके विधाता इष्ट जीवनका स्वरूप :
. के अधीन नहीं। वे जगको, जगकी शक्तियोंको, शक्तियों
जीव जीवन चाहता है, ऐसा जीवन -जो निरा श्रमृतमय है, जिसमें जन्म-मरणका नाम नहीं, जो सर्वथा स्वाधीन है, जिसे अन्य अवलम्बकी ज़रूरत नहीं जो अत्यन्त घनिष्ठ है, श्रोत प्रोत और एक है,
जीवनके प्रश्न हल करनेका वास्तविक साधनः- जो तनिक भी जुदा नहीं, जो अत्यन्त निकट है, लय रूप और समाया हुआ है, जिसे ढूंढने की ज़रूरत नहीं जो अत्यन्त साक्षात, ज्योतिमान जाज्वल्यमान है, जिसे देखने जानने की ज़रा भी वेदना नहीं, जो अत्यन्त ऊंचा और महान है जिससे परे और कुछ भी नहीं, जो अत्यन्त तैजस् और स्फूर्तिमान है; जिसकी उड़ानमें काल क्षेत्र दिशा कोई भी बाधक नहीं, जो अत्यन्त सुन्दर और मधुर है, ललाम और अभिराम है, जो खुद अपनी लीलामें लय है, मस्तीमें चूर है, शोभामें निमग्न है। जो सब तरह सम्पूर्ण परिपूर्ण है जिसमें किसी
चीज की वाञ्छा नहीं, रंकता और रिक्तताका भाव नहीं; जो सर्वभू है, सर्वव्यापक है, अनन्त है, सबमें है, सब उसमें हैं, पर जिसमें अपने सिवा कुछ भी नहीं । जो निर्मल, निर्दोष, परिशुद्ध है, परके मेल से सर्वथा दूर है; जो केवल वह ही वह है ।
के अधिष्ठातृ देवी देवताओंको विजय करके, व्यवस्थित करके, खुश करके वश नहीं किये जा सकते । सुख-दुःख . किसी और ही सिद्धि सिद्धि में बसे हैं ।
[ चैत्र, वीर- निर्वाण सं० २४६६
फिर वह कौनसी चीज़ है जिसकी सिद्धि में जीवन - दुःखी है और जिसकी सिद्धि से यह सुखी हो सकता है ।
इसके लिये वाञ्छाको ही पूछना होगा, कि - आखिर वह क्या चाहती है। उसीके लोकको टटोलना होगा, जहाँ वह रहती है । उसीकी वेदनामयी अनक्षरी मायाको सुनना होगा, जिसमें वह पुकारती है। उसीके भावनामयी अर्थको समझना होगा जिसमें वह अपनी रूप रेखा प्रगट करती है | इसके लिये बुद्धि ज्ञान सर्वथा अपर्याप्त है। असमर्थ है। यह काम उस प्रकाश द्वारा
हो सकता है जो अन्तः लोकका द्योतक है, अन्तर्गुफा में बैठी हुई सत्ताको देखने वाला है, उस ज्ञान द्वारा .: जो सहज सिद्ध है, स्वाश्रित है, प्रत्यक्ष है, उस ज्ञान द्वारा जिसे अन्तर्ज्ञान होने के कारण मनोवैज्ञानिक Intuition कहते हैं। जिसे अन्तः पुकार सुननेके कारण अध्यात्मवादी श्रुतज्ञान कहते हैं, जिसकी अनुभूति 'भुत' नामसे प्रसिद्ध है ।
इस ज्ञानको उपयोग में लगानेके लिये साधकको • शान्त चित्त होना होगा । समस्त विकल्पों और द्विवधाओं से अपने को पृथक करना होगा, निष्पक्ष एक रस हो पूछना होगा -- “ जीवन क्या होना चाहता है और क्या होने से डरता है ?" इस प्रश्न के उत्तर में उठी हुई अन्तर्ध्वनिको सुनना होगा ।
यह है जीवका इ जीवन, यह है जीवका वास्तविक उद्देश । इसके प्रति कभी भय पैदा नहीं होता, कभी शंका पैदा नहीं होती, कभी प्रश्न पैदा नहीं होता। प्रश्न उसी भावके प्रति होता है जो अनिष्ट है, जैसे पाप, दुःख और मृत्यु । इसीलिये ये सदा प्रश्न के विषय बने रहे हैं। परन्तु इष्टके प्रति कभी आशंका नहीं उठती कि "जीवन सुखी क्यों है ? जीवन मर क्यों है ?” क्योंकि इष्ट जीवन श्रात्मांका निज धर्म है, निज स्वभाव है । श्रात्मा इसे निज स्वरूप मानकर