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________________ धर्माचरणमें सुधार ० - बा० सूरजभानुजी वकील ] [ ले० वा, गर्द गुबार श्रादिके कारण हर वक्त ही मकानों ह में कूड़ा कचरा इकट्ठा होता रहता है, जिससे दिनमें दो बार नहीं तो एक बार तो ज़रूर ही मकानोंको साफ़ करना पड़ता है। मकान में रक्खे हुए सामान पर भी गर्दा जम जाता है, इस कारण उनको भी झाड़ना पोंछना पड़ता है । हम जो शुद्ध वायु सांसके द्वारा ग्रहण करते हैं वह भी अन्दर जाकर दूषित हो जाती है, इस ही कारण वह गंदी वायु सांसके ही द्वारा सदा बाहर निकालनी पड़ती है, पसीना भी हमारे शरीर की शुद्धि करता रहता है । मल मूत्र त्याग करनेके द्वारा तो रोज़ ही हमको अपने शरीरकी शुद्धि करनी होती है। किसी कारण से यदि किसी दिन मल मूत्रका त्याग न हो तो चिंता हो जाती है और श्रौषधि लेनी पड़ती है । अनेक निमित्त कारणोंसे अन्य भी अनेक प्रकारके विकार शरीर में हो जाते हैं, जिनके सुधारके वास्ते वैद्य हकीम से सलाह लेनी पड़ती है, गेहूँ चावल आदि अनाज में जीव पड़ जाते हैं, इस कारण नित्य उनको भी काम में लाने से पहले बीनना पड़ता है । पानीको भी कुछ समयके बाद फिर छाननेकी ज़रूरत पड़ती है। ग़रज़ वा निमित्त कारणों से सब ही वस्तुओं में विकार प्राता रहता है, इस ही कारण सब ही का सुधार भी नित्य ही करना पड़ता है । सुधार किये बिना किसी तरह भी गुज़ारा नहीं चल सकता है । हमारी धार्मिक मान्यताओं क्रियाओं और साधनों में भी वा निमित्त कारणों से अन्य मतियों की संगति उनके सिद्धान्तोंके पढ़ने सुनने और उनकी धर्म क्रिया तथा साधनों के देखने सुननेसे और हमारी भी अनेक प्रकारकी कषायों तथा ज्ञानकी मंदता से अनेक प्रकारके विकार पैदा होते रहना स्वाभाविक ही है । इस कारण धार्मिक मान्यताओं और क्रियाओंकी शुद्धि होती रहना भी इतना ही जरूरी है जितना कि झाड़ पोंछकर नित्य मकानकी शुद्धि करते रहना, स्नान करने के द्वारा शरीर की शुद्धि करते रहना और धोने मांजनेके द्वारा कपड़ों बर्तनों की शुद्धि करते रहना जरूरी है। इस शुद्धिका मार्ग हमको धर्म शास्त्रोंके वचनोंसे बहुत ही आसानी से मिल सकता है। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी मान्यताओं, धर्म- क्रियाओं और साधनों को शास्त्रोंके वचनों से मिलाते रहें और जहां भी ज़रा विकार देखें, तुरन्त उसका सुधार करते रहें । नित्य शास्त्र स्वाध्याय करना तो इसी वास्ते प्रत्येक श्रावकके लिये ज़रूरी ठहराया गया है कि वह नित्य ही धर्मके सच्चे स्वरूप को याद कर करके अपने धर्म साधन में किसी भी प्रकारका कोई विकार न धाने दे और यदि कोई विकार श्रजाय तो उसका सुधार करता रहे। विकारोंका होना और उनका सुधार करते रहना जैनधर्म में इतना जरूरी ठहराया है कि मुनि महाराजोंके लिये भी नित्य शास्त्र स्वाध्याय करते रहना ज़रूरी बताया है, जिससे धर्मका सत्य स्वरूप नित्य ही उनके सामने आता रहे और वे विचलित न होने पावें । फिर उनको नित्य ही अपने भावों- परिणामों और कृत्योंकी
SR No.527161
Book TitleAnekant 1940 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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