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________________ वर्ष ३, किरण ६] कोई अशुद्धियाँ रह गई हों तो उन्हें विज्ञ पाठक सूचित करने की कृपा करें, जिससे उनका सुधार हो सके । अनुवादको मूल सूत्रादिके अनन्तर अनुवादके रूप में ही रक्खा गया है – व्याख्यादिके रूपमें नहीं । और उसे एक ही पैरेग्राफमें सिंगल इनवर्टेडकामाज़ के भीतर देदिया गया है, जिससे मूलको मूलके रूप में ही समझा जा सके। जहां कहीं विशेष व्याख्या, स्पष्टीकरण अथवा तुलनाकी ज़रूरत पड़ी है वहां उस सब को अनुवादके अनन्तर भिन्न पैरेग्राफोंमें अलग दे दिया है। प्रभाचन्द्रका तत्वार्थसूत्र `इस प्रकार यह मूल ग्रन्थ और उसके अनुवादादिक को देनेकी पद्धति है, जिसे यहां अपनाया गया है । ग्रन्थारंभ से पूर्व का अंश ॥ ऐं ॥ ॐ नमः सिद्धं । श्रथ दशसूत्रं लिख्यते । 'ऐं, ॐ, सिद्ध को नमस्कार । यहां (अथवा अब ) लिखा जाता है ।' दशसूत्र यह प्रायः लिपिकर्त्ता लेखकका मंगलाचरण के साथ ग्रंथका नामोल्लेख पूर्वक उसके लिखने की प्रतिज्ञा एवं सूचनाका वाक्य है। हो सकता है कि यह वाक्य प्रकृत ग्रंथप्रतिके लेखक पं० रतनलालकी खुदकी कृति न हो बल्कि उस ग्रंथ प्रतिमें ही इस रूपसे लिखा हो जिस पर से उन्होंने यह प्रति उतारी है। मूल ग्रंथ मंगलाचरणादिके साथ इसका सम्बन्ध नहीं है । पहला अध्याय मूलका मंगलाचरण सदुदृष्टिज्ञानवृत्तात्मा मोक्षमार्गः सनातनः । श्राविरासीद्यतो वंदे तमहं वीरमच्यतं ॥१॥ + ग्रन्थप्रतिमें 'दशसूत्र' ऐसा अशुद्ध पाठ है । ३३७ 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप सनातन मोक्ष मार्ग जिससे — जिसके उपदेशसे— प्रकट हुआ है उस अच्युत वीरकी मैं वन्दना करता हूँ ।' इस ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय मोक्षमार्ग है, उस सनातन मोक्षमार्गका जिनके उपदेश द्वारा लोकमें श्राविर्भाव हुआ है – पुनः प्रकटीकरण हुआ है-उन अमरअविनाशी वीर प्रभुका उनके उस गुणविशेष के साथ वन्दन - स्मरण करके यहां यह व्यक्त किया गया है कि इस ग्रंथ के प्रतिपाद्य विषयका सम्बंध वीरप्रभुके उपदेश से है— उसीके अनुसार सब कुछ कथन किया गया है । सूत्रारम्भ सम्यग्दर्शनाऽवगमवृत्तानि मोक्षहेतुः ॥१॥ 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र - ये तीनों मिले हुए - मोक्षका साधन है ।' यह सूत्र और उमास्वातिके तत्वार्थ सूत्रका पहला सूत्र दोनों एकही टाइप और एक ही श्राशयके हैं। अक्षरसंख्या भी दोनोंकी १५-१५ ही है। वहां ज्ञान, चारित्र और मार्ग शब्दों का प्रयोग हुआ है तब यहाँ उनके स्थान पर क्रमशः अवगम, वृत्त और हेतु शब्दोंका प्रयोग हुआ है, जो समान अर्थके ही द्योतक हैं। जीवादिसप्ततत्त्वं ||२|| 'जीव श्रादि सात तत्व हैं ।' यहाँ 'आदि' शब्दसे अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ऐसे छह तत्त्वोंके ग्रहणका निर्देष है, क्योंकि जैनागममें जीव सहित इन तत्त्वोंकी ही 'सप्ततत्त्व' संज्ञा है । यह सूत्र और उमास्वातिका ४था सूत्र दोनों एकार्थ-वाचक हैं। उसमें सातों तत्त्वोंके नाम दिये गये हैं तब इसमें 'आदि' शब्द से शेष छह रूढ़ तत्त्वोंका संग्रह किया गया है, और इसलिये इसमें अक्षरोंकी संख्या अल्प हो गई है ।
SR No.527161
Book TitleAnekant 1940 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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