Book Title: samaysar Author(s): Manoharlal Shastri Publisher: Jain Granth Uddhar Karyalay View full book textPage 5
________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ प्रस्तावना शास्त्र रचा। उसकी टीका समुद्धरण नामा मुनिने बारह हजार प्रमाण रची। इस तरह आचार्योंकी परंपरासे कुंदकुंदमुनि उन सिद्धांतोंके ज्ञाता हुये । ऐसें इस द्वितीय सिद्धांतकी उत्पत्ति है । इसमें ज्ञानको प्रधानकर शुद्धद्रव्यार्थिकनयसे कथन है। अध्यात्मभाषाकर आत्माका ही अधिकार है। इसको शुद्धनिश्चय तथा परमार्थ कहते हैं। इसमें पर्यायार्थिकनयको गौणकर व्यवहार कह असत्यार्थ कहा है । सो जबतक पर्याय बुद्धि रहे तबतक इस जीवके संसार है । और जब शुद्धनयका उपदेश पाकर द्रव्यबुद्धि हो, अपने आत्माको अनादि अनंत एक सब परद्रव्य परभावोंके निमित्तसे हुए अपने भावोंसे भिन्न जाने, अपने शुद्धस्वरूपका अनुभवकर शुद्धोपयोगमें लीन हो तब कर्मका अभाव करके निर्वाणको पाता है । इस प्रकार इस द्वितीय शुद्धनयके उपदेशके पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, परमात्मप्रकाश आदि शास्त्र प्रवर्ते हैं। उनमें यह समय प्राभृत ( सार ) नामा शास्त्र है, वह श्रीकुंदकुंदाचार्यकृत प्राकृतभाषामय गाथाबद्ध है। उसकी आत्मख्यातिनामा संस्कृतटीका अमृतचंद्र आचार्यने की है, सो काल दोषसे जीवोंकी बुद्धि मंद होती जाती है उसके निमित्तसे प्राकृत संस्कृतके अभ्यास करनेवाले विरले रह गये हैं । और गुरुओंकी परंपराका उपदेश भी विरला होगया, इस लिये मैंने अपनी बुद्धिके अनुसार ग्रंथोंका अभ्यासकर इस ग्रंथकी देशभाषामय वचनिका करनेका प्रारंभ किया है। जो भव्यजीव बाचेंगे पढ़ेंगे सुनेंगे उसका तात्पर्य धारेंगे उनके मिथ्यात्वका अभाव होजायगा, सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होगी । ऐसा अभिप्राय है कुछ पंडिताईका तथा मानलोभ आदिका अभिप्राय नहीं है । इसमें कहीं बुद्धिकी मंदतासे तथा प्रमादसे हीनाधिक अर्थ लिवू तो बुद्धिके धारक जनो! मूलग्रंथ देख शुद्ध कर वांचना, हास्य नहीं करना, क्योंकि सत्पुरुषोंका स्वभाव गुणग्रहण करनेका ही है। यह मेरी.परोक्ष प्रार्थना है ॥ ___ यहां कोई कहे कि "इस समयसारग्रंथकी तुम वचनिका करते हो, यह अध्यात्म ग्रंथ है इसमें शुद्धनयका कथन है, अशुद्धनय व्यवहारनय है उसको गौणकर असत्यार्थ कहा है । वहांपर व्यवहार चारित्रको और उसके फल पुण्यबंधको अत्यंत निषेध किया है। मुनिव्रत भी पाले उसके भी मोक्षगार्ग नहीं है ऐसा कहा है । सो ऐसे ग्रंथ तो प्राकृत संस्कृत ही चाहिये । इनकी वचनिका होनेपर सभी प्राणी वांचेगे । तब व्यवहार चारित्रको निष्प्रयोजन जानेंगे, अरुचि आनेसे अंगीकार नहीं करेंगे तथा पहले कुछ अंगीकार किया है उससे भी भ्रष्ट होके स्वच्छंद हुए प्रमादी हो जायंगे। श्रद्धानका विपर्यय होगा यह बड़ा दोष आयेगा । यह ग्रंथ तो-जो पहले मुनि हुए हों, दृढ चारित्र पालते हों, शुद्ध आत्मखरूपके सन्मुख न हों और व्यवहारमात्रसे ही सिद्धि होनेका आशय हो उनको शुद्धात्माके सन्मुख करनेके लिये है, उन्हींके सुननेका है । इसलिये देशभाषामय वचनिका करना ठीक नहीं है" १ उसका उत्तर कहते हैं-यह वात तो सच है कि इसमें शुद्धनयका हीPage Navigation
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