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योगसार प्रवचन (भाग-२)
वज्र के, अग्नि के, ऊपर से प्रहार पड़े तो भी धर्मी अपने स्वरूप से नहीं डिगता । मैं चैतन्यमूर्ति हूँ, दूसरी वस्तु मैं नहीं हूँ । देव आकर मार-फाड़ करके टुकड़े कर डालें (और कहें) पुण्य में धर्म है - ऐसा मान; पुण्य धर्म का कारण है - ऐसा मान; नहीं तो मार डालूँगा । कौन मारे ? किसे मारे ? क्या है ? हम तो पुण्य-पाप से रहित अपने स्वभाव की दृष्टि में धर्म मानते हैं, दूसरे में धर्म नहीं मानते। समझ में आया ?
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ज्ञानी को एक आत्मा का आनन्द ही प्रिय है । पुण्य प्रिय नहीं है। धर्मी जीव को पुण्यभाव प्रिय नहीं है। आहा... हा... । उसका पूर्ण लाभ और अनन्त काल तक निरन्तर लाभ तभी होता है..... किसका ? आत्मा का, आनन्द का । आत्मा का आनन्द प्रिय है। उस आनन्द का पूर्ण निरन्तर लाभ कब मिलता है ? जब यह जीव संसार से मुक्त होकर सिद्ध परमात्मा हो जाए, पुण्य से पाप से रहित हो जाए इससे ज्ञानी जीव पुण्य-पाप दोषों को बन्धन की अपेक्षा से समान जानता है। पुण्य-पाप दोषों को, ऐसा । पुण्य-पाप दोषों को, शुभ और अशुभभाव दोनों दोषों को... दोष कहा है न प्रतीक्रमण के अधिकार में लिया है। दोनों शुभ-अशुभभाव दोष हैं। पुण्य-पाप दोषों को बन्धन की अपेक्षा समान जानता है । आहा... हा...!
दोनों के बन्ध का कारण कषाय का मलिनता है । दोनों के बन्ध का कारण (कषाय की मलिनता है) । पुण्य से भी बन्धन होता है और पाप से भी बन्धन होता है। बाहर का वेश पलटता है परन्तु आत्मा नहीं पलटती । पुण्य बन्धता है तो स्वर्ग मिलता है वहाँ तो वेश पलटा उसमें आत्मा कहाँ पलटता ? समझ में आया ? शुभभाव से पुण्य बँधा पुण्य बन्ध से स्वर्ग मिला, धूल की सेठाई मिली वह तो बाहर का वेष पलटा अन्दर क्या पलटता। समझ में आया ।
मन्दकषाय से पुण्य व तीव्रकषाय से पाप बँधता है । कषाय आत्मा के चारित्र गुण के घातक हैं। दोनों का स्वभाव पुद्गल है । साता वेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम, उच्च गोत्र, पुण्य कर्म व असाता वेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम, नीच गोत्र तथा चार घातीय कर्म पापकर्म है। दोनों की कर्मवर्गणाएँ आत्मा के चेतन स्वभाव से भिन्न है ।