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योगसार प्रवचन (भाग-२)
मुमुक्षु : विपरीत पढ़े न किन्तु।
उत्तर : वे भी पढ़े हैं, नहीं पढ़े? आहा...हा...हा...! अरे भाई! पहले तेरे निर्णय का भी ठिकाना नहीं है तो तेरा मार्ग कहाँ से निकलेगा? आत्मा का मार्ग तो रागरहित है. उसमें से निकलेगा या राग में से निकलेगा? आहा..हा...!
___ सम्पूर्ण वीतराग मार्ग-सर्वज्ञ परमेश्वर का मार्ग, तीर्थङ्कर का मार्ग (यह है कि) पुण्य-पाप दोनों राग बन्ध का कारण है। भगवान अबन्धस्वरूपी चैतन्य लक्षण है। दोनों को अन्तर में भिन्न करना, सर्वथा भिन्न करना... दया रखे बिना। अरे रे! अनादि से मैंने पुण्य किया है। मेरे पास है तो थोड़ा रखू - (ऐसा अभिप्राय नहीं रखते हुए)।
परमात्मप्रकाश में कहा है कि अरे...! अनादि का बन्धु, कर्म और राग साथ में आये, बन्धु को निर्दय होकर मार डाला। साथ में आए हैं न? हमेशा साथ रहते थे। अनादि से पुण्य-पाप के भाव साथ रहते थे और जड़कर्म भी साथ रहते थे। निर्दयी होकर बन्धु का छेद कर डाला। परमात्मप्रकाश में योगीन्द्रदेव (कहते हैं)। ये भी योगीन्द्रदेव हैं। योगीन्द्रदेव कहते हैं, मुनि-सन्त-धर्मात्मा ऐसे हैं कि अपने बन्धु को ही मारते हैं, बन्धु को ही उड़ाते हैं । बन्धरूप बन्धभाव-बन्धुरूप अनादि से साथ में है, उसे उड़ाया, छोड़ा। मेरा भाव नहीं है। मेरा चैतन्य भगवान आत्मा शुद्ध आनन्दकन्द है। इस प्रकार बन्धभाव को छेदकर अपने स्वभाव की दृष्टि करके अपने आत्मा को ग्रहण करके आत्मा का अनुभव करना ही धर्मी का प्रथम कर्तव्य है। जहाँ तक स्थिरता न हो, वहाँ तक बीच में शुभभाव होते हैं। भक्ति, पूजा, दया, दान, यात्रा का भाव होता है परन्तु वह भाव, बन्ध का कारण है। मोक्ष का कारण और धर्म का किञ्चित् कारण नहीं है। समझ में आया?
कहते हैं, जगत के समस्त प्राणी सांसारिक दुःखों से डरते हैं... देखो ! बुद्ध कहा न? बुद्धिमान को ही विरले हैं। पुण्य को पाप कहनेवाले बुद्धिमान हैं, उन्हें बुद्धिमान कहते हैं । पुण्य को पुण्य कहे, वह तो साधारण जनता भी कहती है। आहा...हा...! परन्तु बुद्ध-बुद्धिमान, ज्ञानवन्त, भगवान की आज्ञा स्वीकार करनेवाले पुण्य को भी पाप कहकर छोड़ना चाहते हैं। जगत के समस्त प्राणी सांसारिक दुःखों से डरते हैं तथा इन्द्रिय