Book Title: Yogsara Pravachan Part 02
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 15
________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) मुमुक्षु : सुनने का किस प्रकार ? उत्तर : यह करे। (बाकी) सब तो अनन्त बार सुना है। उसमें क्या किया उसने ? देखो! पहले अमृतचन्द्र आचार्यदेव ने 'जीवो बंधो य तहा छिज्जति सलक्खणेहिं णियएहिं उसमें से निकाला है। बन्ध को छेदना, उस बन्ध को छेदना। पुण्य-पाप के परिणाम, वे बन्धरूप स्वरूप हैं। भगवान आत्मा ज्ञान-आनन्दस्वरूप है। दो को पहले भिन्न करना, ये पहले में पहला आत्मार्थी का कर्तव्य है। समझ में आया? इसको छूटना है या नहीं? छूटना है या नहीं? या बँधना है ? बँधना है तो अनादि से बँधता है। अब छूटना हो तो पहले क्या करना चाहिए? पुण्य-पापभाव और आत्मा भिन्न है। - ऐसी पहले दृष्टि करना। मुमुक्षु : पापभाव तो पाप है परन्तु पुण्य किस प्रकार पाप है। उत्तर : वह पुण्य अर्थात पवित्र आत्मा। पुण्य पाप के विकल्प, दोनों पाप है; बन्ध है; दुख के कारण है; दोनों जहरीले भाव है। भगवान आत्मा अमृत स्वरूप है। दोनों का सर्वथा भेद करना – ऐसा पाठ पढ़ा है। देखो! फिर कहते हैं – रागादि जिसका लक्षण है, उस समस्त बन्ध को छोड़ना। देखो! राग किसका लक्षण है ? स्वभाव राग का लक्षण है या आत्मा का लक्षण है ? प्रथम में प्रथम कुन्दकुन्दाचार्य महाराज कहते हैं। तावत, प्रथम। समझ में आया? २९५ गाथा। पहले में पहले तुझे आत्मा का कर्तव्य करना हो अथवा मोक्ष का / छूटने का उपाय करना हो तो पुण्य-पाप के भाव-विकल्प बन्ध का लक्षण है, भगवान आत्मा ज्ञान लक्षण से भिन्न विराजता है। दो का सर्वथा भेद, छेद करना, वही उसका प्रथम कर्तव्य है। पुण्य -पाप के भाव से भगवान आत्मा का भेदज्ञान करना, भेदज्ञान करना, वही उसका प्रथम आचरण है, वही पहला कर्तव्य है। वह कर्तव्य अनन्त काल में जीवों ने नहीं किया है, बाकी सब अनन्त बार किया है। जैन मुनि दिगम्बर होकर नौवें ग्रैवेयक अनन्त बार गया। उसमें क्या हुआ? शुभभाव की क्रिया की, शुक्ललेश्या हुई तो स्वर्ग में गया। मुमुक्षु : शुक्ललेश्या में तो वहाँ सुख भोगा न। उत्तर : सुख कहाँ ? धूल में सुख था? इकतीस सागर दुख भोगकर आया। सुख कब (था), सुख तो आत्मा में है। आहा...हा... ! सुख तो आत्मा में है। उस पुण्यभाव से

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