Book Title: Yogsara Pravachan Part 02
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 14
________________ १४ गाथा - ७१ को खोटा ठहरते हैं। कहते हैं नहीं, ऐसा नहीं होता; नहीं बैठे उसे उड़ा दे - नहीं, यह नहीं । यह क्या कहते हैं, देखो ? जो विउ वि भणइ सो बुह को वि हवेई । वे ज्ञानी कोई-कोई होते हैं। पुण्य को भी पाप कहते हैं, वे ज्ञानी कोई होते हैं । अज्ञानी तो पाप को पाप कहता ही है, ज्ञानी भी पाप को पाप कहते हैं, परन्तु ज्ञानी पुण्य को भी पाप कहते हैं । आहा... हा... ! अपने शुद्ध स्वरूप को छोड़कर जितने ये शुभ-अशुभ विकल्प उठते हैं, परमार्थ से - पवित्रता की अपेक्षा से – वे अपवित्रभाव हैं; निश्चय की अपेक्षा से अपने अमृत आनन्द को लूटनेवाला वह शुभभाव है । आहा... हा... ! मदद करनेवाला नहीं। आहा... हा.... ! अज्ञानी कहते हैं कि वह शुभभाव है तो उससे क्षायिक समकित होता है । शुभभाव से क्षायिक समकित होता है, शुभभाव से ऐसा होता है । अरे... भगवान ! यहाँ तो कहते हैं शुभयोग तो अपना अमृत-चैतन्य प्रभु, अमृत का सागर पड़ा है, उसमें से बाहर निकलना, वह शुभराग - अपने अमृत से विरुद्धभाव है; (इसलिए) ज्ञानी उसे पाप कहते हैं। पड़ते हैं, पड़ते हैं, निजस्वरूप में से बाहर निकलते हैं। आहा...हा... ! मुमुक्षु: पहला क्या करना ? उत्तर : पहले इस स्वरूप की दृष्टि करना। पहले पुण्य और पाप के राग की रुचि छोड़कर अपना शुद्ध भगवान आत्मा पवित्र है उसकी दृष्टि करना, वह पहले में पहला सम्यग्दर्शन प्रगट करना । ज्ञानचन्दजी ! क्या करना पहले ? आहा... हा... ! भेद करना । समयसार में नहीं आया था ? पहले क्या करना ? आया था न ? सब थे न ? ' वंशीधरजी' (थे, तब कहा तो ) खलबलाहट हो गया। हाय... हाय... ! यह क्या कहते हैं ? देखो! यह क्या कहते हैं ? इसमें क्या लिखा है ? देखो! आत्मा और बन्ध को प्रथम तो उनके निश्चय - स्वलक्षण के ज्ञान से सर्वथा छेदना । 'प्रथम' शब्द पड़ा है। पहले में पहला भगवान ‘कुन्दकुन्दाचार्यदेव' सन्त केवली कहते हैं । भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूपी है और बन्ध में राग-पुण्य, दया, दान सब बन्धभाव है। प्रथम तो आत्मा और बन्ध, उनके नियत - निश्चय स्वलक्षण... राग का बन्ध स्वलक्षण है, भगवान आत्मा ज्ञानलक्षण से विराजमान भिन्न है, उन्हें सर्वथा छेदना – ऐसा शब्द यहाँ पड़ा है। संस्कृत टीका है। थोड़ा सभी राग का अंश मुझे मदद करेगा - ऐसा नहीं है। समझ में आया ?

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