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गाथा-७१
पाप तत्त्व को पाप तो, जाने जग सब कोई।
पुण्य तत्त्व भी पाप है, कहें अनुभवी बुध कोई॥ अन्वयार्थ - (जो पाउ वि सो पाउ मुनि) जो पाप है उसको पाप जानकर (सव्वु इको वि मुणेइ) सब कोई उसे पाप ही मानते हैं (जो पुण्णु वि पाउ भणइ ) जो कोई पुण्य को भी पाप कहता है ( सो बुह को वि हवेइ ) वह बुद्धिमान कोई विरला ही है।
अब, ७१ (गाथा) बड़ा विवाद है। पुण्य को पाप जाने वही ज्ञानी है। उपोद्घात यह बाँधा है। शरीर, वाणी, मन तो पर है; हिंसा, झूठ, चोरी, विषय-भोग, वासना, कमाना, वह भाव पाप है परन्तु अन्दर में दया, दान, व्रत, भक्ति, तप, पूजा, यात्रा का भाव होता है, वह पुण्य (भाव है), वह पुण्य भी पाप है। है या नहीं अन्दर? है ?
मुमुक्षु ः खुल्लम खुल्ला है? उत्तर : खुल्लम खुल्ला है ? श्लोक है न? इसका गुजराती क्या है ? है ?
पापरूप को पाप तो जाने जग सब कोई।
पुण्य तत्त्व भी पाप है कहे अनुभवी बुध कोई॥ वस्तु हो ऐसी कहेंगे न! कहो, समझ में आया?
जो पाप है, उसे तो पाप जानकर सब कोई उसे पाप ही जानते हैं। हिंसा का भाव, झूठ का भाव, चोरी का भाव, भोग का भाव, कमाने का भाव, क्रोध, मान, माया, लोभ, भाव को तो सब कोई पाप कहते हैं परन्तु 'पुण्णु वि पाउ वि भणइ' - वे बुद्धिमान कोई विरले हैं। कोई पुण्य को भी पाप कहते हैं... आहा...हा...! समझ में आया? यह दया, दान, भक्ति शुभभाव है। भगवान शुभभाव को छोड़कर केवली हुए हैं; शुभभाव को साथ रखकर नहीं हुए हैं। शुभभाव भी निश्चय से अपने शुद्ध पवित्र धर्म की दृष्टि की अपेक्षा से, वह पुण्यभाव भी पाप ही है। आहा...हा... ! चिल्लाते हैं, वर्तमान में तो अभी पुण्य का भी ठिकाना नहीं होता, वह धर्म । नगिनभाई! जाओ एक यात्रा करी, ९९वें यात्रा करी, वह धर्म । धूल में भी धर्म नहीं है। ९९वें क्या? सूख जाये