Book Title: Yogsara Pravachan Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 16
________________ गाथा-२ न? धीरज बड़ी बात है और लाभ सवाया-लाभ सवाया है। जाओ! अन्त में वहाँ रखना, कहते हैं। यहाँ तो अरहन्त ने लाभ प्राप्त किया। सर्वज्ञ परमेश्वर अरहन्त ने लाभ प्राप्त किया। प्रभु! आपने क्या लाभ प्राप्त किया? - वह मेरे ज्ञान में है - ऐसा कहते हैं। समझ में आया? जो अनन्त काल से आत्मा में ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुख जो शक्तिरूप से था, उसे भगवान आपने पर्याय-अवस्थारूप से प्राप्त किया। वह प्राप्त किया - ऐसी आपकी सत्ता का हमें स्वीकार है। ऐसे अरहन्त होते हैं, उसका हमें ज्ञान है, उसका भान है । वह भानवाले हम नमस्कार करते हैं। अन्ध श्रद्धा से, अन्ध होकर नमस्कार करते हैं - ऐसा नहीं है, ऐसा कहते हैं। शशीभाई! आहा...हा...! धाधड़क... देखो न! परमेश्वर, जैन परमेश्वर के अलावा यह बात कहीं नहीं है। सर्वज्ञ त्रिलोकनाथ परमात्मा ने कहा हुआ वीतरागमार्ग, इसके अतिरिक्त यह मार्ग अन्यत्र कहीं नहीं हो सकता परन्तु उनके मार्ग में पड़े हुए को भी उसका पता नहीं होता। अन्ध श्रद्धा से दौड़ पड़े हैं, जहाँ जन्में (वहाँ) भगवान... भगवान... भगवान... (करते हैं)। कहाँ वे अरहन्त कौन हैं, वे तुम्हारे? कोई हो गया होगा राजा-बाजा, कोई हो गया होगा। है? कोई भगवान हो गये होंगे, भगवान हो गये होंगे। लिखा है न? उसमें लिखा है, हाँ! एक अरहन्त नाम का राजा हो गया। आहा...हा...! कुछ पता नहीं होता। यहाँ कहते हैं - अरहन्त तो, परमात्मा आत्मा थे, उन्हें अनादि से चार घातिया कर्म का सम्बन्ध था, आठ का सम्बन्ध था परन्तु चार का अभाव किया और चार दशा प्रगट की। अनन्त केवलज्ञान-दर्शन आदि चार के नाम नहीं दिये? परन्तु उसका अर्थ... 'अणंत चउक्कपदिठ्ठ' अनन्त चतुष्टय प्राप्त किया। 'तहिं जिणइदहं पय' आहा...हा...! उन जिनेन्द्र के पदों को... ऐसे जिनेन्द्र के चरण-कमल को। ऐसे 'तहिं जिणइदहं पय' 'तहि' अर्थात् वे जिनेन्द्र-ऐसे जिनेन्द्र उनके पदों को... अर्थात् चरण-कमल को ‘णविवि' नमस्कार करके... मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। ऐसे अरहन्त भगवान को नमस्कार । देखो, इसमें श्रद्धा का भान आया, ज्ञान का आया, स्थिरता पूर्ण की तब चारित्र का आया और शक्तिरूप से थी वह प्रगटरूप

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