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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
है। णमो अरहन्ताणं शब्द में मर जाता है परन्तु अरहन्त किसे कहना ? - इसका पता भी उसे नहीं होता।
मुमुक्षु : भगवान तो सच्चे थे न ?
उत्तर : किसके सच्चे ? धूल में, जाने बिना ? समझ में आया ?
प्रवचनसार में शुरुआत में कहते हैं या नहीं ? कि हे प्रभु! 'कुन्दकुन्दाचार्यदेव' कहते हैं, मैं आपको वन्दन करता हूँ, परन्तु मैं कौन हूँ? मैं कौन हूँ? आपको वन्दन करता हूँ तो आप कौन हो ? और मैं वन्दन करनेवाला कौन हूँ? दोनों का मुझे भान है। प्रभु ! मैं वन्दन करनेवाला तो दर्शन - ज्ञानमय आत्मा हूँ। मैं आपको वन्दन करनेवाला तो दर्शन -ज्ञानमय भगवान आत्मा हूँ। मैं वन्दन करता हूँ। मैं सिद्धों को, अरहन्तों को नमस्कार करता हूँ। मैं अर्थात् कौन हूँ? समझ में आया ? भगवान तुम भी कौन हो ? कि भगवान को नमस्कार करते हैं। यह हम मनुष्य हैं । नहीं, यह ? नहीं, नहीं; तुम मनुष्य नहीं । यह तू कर्मवाला नहीं, तू रागवाला नहीं, आहा... हा...!
भगवान आत्मा अनन्त - अनन्त बेदह जिसका जानना - देखना आनन्द स्वभाव वह मैं । वह मैं। मैंपना लागू पड़े, वहाँ कभी वह चीज हटनी नहीं चाहिए। समझ में आया ? राग-द्वेष तो मिट जाते हैं, वे कहाँ इसके मैंपने में थे ? वन्दन करनेवाला कहता है, मैं ज्ञान -दर्शनमय हूँ। यहाँ सब पुस्तक आये हैं न? इस प्रवचनसार में है 'कुन्दकुन्दाचार्यदेव' कहते हैं प्रभु! मैं वन्दन करनेवाला, मैं अर्थात् मेरी सत्ता, मेरे अस्तित्व में, मैं होनेपने में दर्शन -ज्ञानमय, मेरा होनापना है । ज्ञाता - दृष्टापना वह मेरा होनापना है । वह आपको इस पूर्ण परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ । विकल्प उत्पन्न हुआ है, वह व्यवहार नमस्कार है, स्वरूप में एकाग्रता हुई वह निश्चय नमस्कार है ।
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यहाँ कहते हैं, चार घातिया कर्मों का नाश होकर क्या प्राप्त किया ? अनन्त चतुष्टय का लाभ लिया। लो, यह लाभ सवाया, बनिये नहीं लिखते ? है ? क्या कहलाता है ? दरवाजे पर लिखते हैं, दरवाजे पर, है ? दरवाजे पर लिखते हैं न, लाभ सवाया, किसका ? धूल सवाया । यह रुपया है, इसका सवाया, ओहो... ऐसा ! ऐ... चन्दूभाई ! है ? समता का फल... क्या कुछ बोलते हैं । समता का फल मीठा है ? दूसरा एक कुछ आता है