Book Title: Vyakhyapragnaptisutram Part 02
Author(s): Divyakirtivijay
Publisher: Shripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust

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Page 538
________________ श्रीभगवत्यङ्ग श्रीअभय वृत्तियुतम् भाग-२ // 1060 // 1 देवे णं भंते! महाकाए महासरीरे अणगारस्स भावियप्पणो मज्झमज्झेणं वीइवएजा?, गोयमा! अत्थेगइए वीइ० अत्थे० नो वीइ०,सेकेणटेणंभंते! एवं वु० अत्थेगतिए वीइ० अत्थे० नोवीइन?, गोयमा! दुविहा देवा प०, तंजहा-मायीमिच्छादिट्ठीउववन्नगा य अमायीसम्मदिट्ठीउव० य, तत्थ णंजे से मायी मिच्छाद्दिट्टी उववन्नए देवेसेणं अणगारंभावियप्पाणं पासइ रत्ता नोवं. नोनमं० नो सक्कारेति नो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं जाव पञ्जु०, से णं अणगारस्स भावियप्पणो मज्झंम० वीइ०, तत्थ णं जे से अमायी सम्मद्दिट्ठिउववन्नए देवे से णं अणगारं भाविय० पासइ रत्ता वं० नमजाव पञ्जु०, सेणं अणगारस्स भावि० मज्झम० नो वीयी०, से तेण० गोयमा! एवं वु० जाव नो वीइ०।२ असुरकुमारेणं भंते! महाकाये महासरीरे एवं चेव एवं देवदं० भणि जाव वेमा०॥ सूत्रम् 506 // 1 देवे ण मित्यादि, इह च क्वचिदियं द्वारगाथा दृश्यते महक्काए सक्कारे सत्थेणं वीईवयंति देवा उ। वासं चेव य ठाणा नेरइयाणं तु परिणामे ॥१॥इति, अस्याश्चार्थ उद्देशकार्थाधिगमावगम्य एवेति / 2 महाकाय त्ति महान् बृहत् प्रशस्तो वा कायो निकायो यस्य स महाकायः, महासरीरे त्ति बृहत्तनुः। एवं देवदंडओ भाणियव्वो त्ति नारकपृथिवीकायिकादीनामधिकृतव्यतिकरस्यासम्भवाद्देवानामेव च संभवाद्देवदण्डकोऽत्र व्यतिकरे भणितव्य इति ॥५०६॥प्राग् देवानाश्रित्य मध्यगमनलक्षणो दुर्विनय उक्तः, अथ नैरयिकादीनाश्रित्य विनयविशेषानाह 3 अत्थिणंभंते ! नेरइयाणं सक्कारेति वा सम्माणेति वा किइकम्मेइ वा अब्भुट्ठाणेइ वा अंजलिपग्गहेति वा आसणाभिग्गहेति वा आसणाणुप्पदाणेति वा इंतस्स पचुग्गच्छणया ठियस्स पञ्जुवासणया गच्छंतस्स पडिसंसाहणया?, नो ति० स०। 4 अत्थिणंभंते! असुरकुमाराणं सक्कारेति वा सम्माणेति वा जाव पडिसंसाहणया वा?, हंता अत्थि, एवं जाव थणियकुमाराणं, पुढविका० जाव 14 शतके उद्देशकः३ शरीराधिकारः। सूत्रम् 506 महाकायदेवस्य भाविता त्माऽनगारस्यमध्येगतिप्रश्नाः / सूत्रम् 507 नारकदेवपो० तिर्यवानां सत्कारादिविनयसद्भावप्रश्नाः / 8 // 1060 //

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